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द्राविड भाषाएं और जैनधर्म
प्राचार्य पं० के० भुजबलो शास्त्री
कन्नड़ और तमिल भाषा को सर्वोच्च पद पर पहुँ- (गव्य) महाकवि पम्प के कुछ पूर्व का माना जाता है । चाने का प्रमर श्रेय जन प्राचार्य और कवियों को प्राप्त कन्नड जन कवियों मे पा, पोत और रम्न ये ताना है। इनमें से पहले कन्नड भाषा को ही लीजिए। कन्नड रत्नत्रय कहलाते है। वस्तुतः ये तीनों रत्ननाम ही हैं । भाषा के मादि कवि जैन हैं। इस समय उपलब्ध जैन इन महाकवियों के उपरान्त भी चामुण्ड गय, नागवर्म, कवियों में महाकवि पम्म ही प्रादि कवि है और यही शान्तिनाथ, नागचन्द्र, नयसेन, ब्रह्मशिव, कर्णचार्य, नेमिकन्नड़ का प्रादि कवि है।
चन्द्र, अग्गल, प्राचण्ण बन्धुबमं जन्न पाश्वं पण्डित, गुण दक्षिण मे पांच द्राविड़ भाषाएँ प्रचलित है-तमिल, वर्म, प्राण्डक्य, कमलभव, विदयानन्द, उदयादित्य, केशितेलुगु, कन्नड़, मलयालम और तुलु । इनमें तुलु ग्रान्थिक राज, साल्व, भट्टाकलंक, गुणचन्द्र, सोमनाथ, श्रीधराचाय, भाषण नही है। केवल बोलचाल की भाषा है । हाँ, इधर मंगराज और रत्नाकरवर्णी आदि सैकडो ख्यातिप्राप्त इस भाषा के प्रेमी इस भाषा में भी पुस्तकें लिखने जैन कवियों ने काव्य, व्याकरण, छन्द, अलंकार, काष लगे; मगर कन्नड़ लिपि मे क्योकि इस समय तुलु वैद्य, ज्योतिष, गणित, यक्षगान प्रादि अन्यान्य विषयों पर भाषा की लिपि प्रचार में नहीं है। बल्कि इधर तुलु भाषा सैकड़ों ग्रंथों की रचना की है। र्जन कन्नड़ कवियों ने में चार-पांच फिल्में भी तैयार हुई है। इस भाषा के प्रेमी किसी भी विषय को नहीं छोडा है। उन्होने पाक-शास्त्र, इसे समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्नशील है। इस भाषा गोवव्य, आयुर्वेद मादि अनेक लोकोपयोगी ग्रथो को भी में जैनों की भी दो-चार पुस्तकें हैं । अब रही शेष चार रचा है। कल्याणकारक, खगेन्द्रमणिदर्पण, वैद्यामृत मादि द्राविड भाषाएं । तेलुगु और मल मालम मे भी उल्लेलनीय वैद्य ग्रन्थ, जातकतिलक, जिनेन्द्रमाला प्रादि ज्योतिष ग्रन्थ जैन कृतियाँ नही है। बाकी कन्नड और तमिल दो हिन्दी भाषा में भी अनुवाद करने योग्य है । खगेन्द्रमणि भाषाएं हैं, जिनमें जैन ग्रन्थ भरपूर हैं।
दर्पण मद्रास विश्वविद्यालय की कृपा से, जातकतिलक पम्प-पूर्व के प्रसग, गूणनन्दि तथा गूणवर्म प्रादि मैसूर विश्वविद्धालय की कृपा से प्रकाशित हो चुके है । कई उद्दाम जैन कवियों के नाम और कतिपय पद्य प्रवश्य कल्याणकारक भी प्रकाशित होने वाला है। यह कल्याणमिलते हैं। पर दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक उनकी कारक प्राचार्य पूज्यपाद के वैद्य ग्रथ के आधार पर रचित बहुमूल्य रचनाएं नही मिली हैं । बल्कि सातवीं शताब्दी कहा जाता है। उपर्युक्त कन्नड़ कवियों में अधिकांश मे ही तुंबलू राचार्य ने कन्नड मे ९६,००० पद्य परिमित सस्कृत एवं प्राकृत भाषामों के भी पण्डित थे। क्योंकि चड़ामणि नामक एक महत्त्वपूर्ण टीका-ग्रंथ को रचना की भारतीय प्रन्यान्य साहित्यों की तरह कन्नड साहित्य की थी। यह वृहद-टीका तत्वार्थ सूत्र पर की मानी जाती रक्षा और अभिवृद्धि के लिए भी संस्कृत साहित्य है। इसी प्रकार इसी काल के श्यामलकुंदाचार्य ने कन्नड़ ही प्राधार है यहाँ तक है कि भट्टाकलक का कर्णामें प्राभूत नामक एक ग्रंथ की रचना की थी जो एक टकशब्दानुशासन नामक कन्नड़ व्याकरण सस्कृत भाषा शास्त्रीय ग्रन्थ समझा जाता है। परन्तु खेद की बात है में ही रचा गया है। बल्कि उसकी भाषामजरी नामक कि अभी तक वे दोनों महत्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुए वृत्ति और मजरीमकरद नाम की व्याख्या भी संस्कृत है। हां, शिवकोट्याचार्य विरचित वड्डाराधना नामक ग्रंथ में ही लिखी गई है।