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श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन.
[बालब्रह्मचारिणी श्रीविद्युल्लता शहा बी० ए०, बी० टी०, शोलापुर ]
कुछ समयसे मेरा विचार श्रीकुदकदाचार्य और खण्ड नाम दिलानेवाला तद्भव मोचगामी जीव था। स्वामी समन्तभद्र के ग्रंथोंका खाश तौरसे अभ्यास करनेका बाहुबली प्रथम कामदेव होकर भी स्यागमूर्ति थे। आज चल रहा था, जिससे मैं उन्हें ठीक तौर पर समझ सक,
बीसवीं सदी तक आपको शिला-मूर्तियाँ सारे क्योंकि उन्हें समझे बिना वीरशासन अथवा जैनधर्मको दक्षिण में ठौर-ठीर अमर कला-कृतियाँ बन चुकी हैं। ठीक तौर पर नहीं समझा जा सकता-दोनोंका शामन ही, आप इस युगक प्रथम मुाजद्वार खालन वाल थ। श्रयास सच पूछा जाय तो, उपलब्ध वीरशासन है। अपने उस तो प्रादि-जिनको इरसका अक्षयदान देकर अक्षयसुख विचारके अनुसार मैं इस वर्ष उस अभ्यासमें प्रवृत्त होना ही
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पाया है। और मरीचिका ३७ भवों तक अखण्ड, चाहती थी कि इतने में अनेकान्त की किरण १-१ अटूट उत्साह, प्रचण्डशक्रि साक्षात् महावीरका ही स्वरूप में मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीको एक विज्ञप्ति पढ़नेको थी। भ• महावीरका सारा कथाएं बहा राचक, अनाखा मिली, जिसमें उन्होंने कुछ विषयों पर निबन्धों के लिये और सत्य होकर भो प्राज पोथी-पुराणकी बनी हुई है। अपनी ओरसे ५००) रु. के पाँच पुरुस्कारों की घोषणा परन्तु भ. महावीरका भारतके इतिहापो म्वतन्त्र स्थान है। की थी। उनमें एक विषय 'श्री कदीर समंतभद्रका इतिहासकार उन्हें एक स्वतन्त्रदशेन-धर्म-संस्कृतिके प्रवर्तकतुलनात्मक अध्ययन भी था। इस विषयको पढकर प्रसारक मानते हैं। उन्होंका शासन 'सर्वोदय-तीर्थ है, ऐसा मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई तथा मेरे विचारों को बड़ी ही स्वामी समन्तभद्रने बतलाया है। प्रगति मिली और इस निमित्तको पाकर मैं दोनों महान् वीर-शामनको धुराको श्रीगुणधर-धरसेन-भूतबस्त्री-पुष्पदन्त प्राचार्योंके ग्रन्थोंका गहरा एवं ठोस अभ्यास करने में शीघ्र आदि अनेक प्राचार्य-महोदयोंने अरमे कन्धों पर लिया था। ही प्रवृत्त हो गई। मर्यादित समयके भीतर जो कुछ इन प्राचार्योंकी परम्पराका काल एक तरहका संधिकाल ही अध्ययन बन सका है उसीके फलस्वरूप यह निबन्ध प्रस्तुत है। तीर्थकर सूर्यका अस्त होनेके बाद कितने ही प्राचार्योंका किया जा रहा है। दोनों ही चोटीके महान प्राचार्यों का ज्ञान- उदय इसी तपोभूमिमें हुमा है। इन प्राचार्योने वीर-शासनभंडार अतीव विशाल एवं गहन-गम्भीर समद्रके समान के ज्ञानका,-श्रु तका-प्रवाह माज तक आगे बढ़ाया है, है और इसलिए मेरे मी अज्ञ बालिका का यह प्रयत्न भुजा श्रुत पञ्चमी पर्वकी स्थापना इसीका एक प्रतीक है। फैला कर समुद्रको मॉपने जैसा ही समझा जायगा: फिर भी कुन्दकुन्द और समन्तभद्र (चन्द्र और सूर्य) मुझे सन्तोष है कि मैं इस बहाने अपने दो प्रादर्श वीर शासनकी धुराको आगे चलाने वाले इसी भूमिमें प्राचार्योक विषयमें कुछ जानकारी प्राप्त कर सकी हूँ। श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्र नामके दो महान प्राचार्य चंद्रपूर्वकालिक कुछ इतिहास
सूर्यके समान हुए हैं । कुन्दकुन्दने भारतकी सारी दक्षिणभूमिदिन-रातके समान उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालचक्र पर ज्ञानामृत सिंचन किया था। इससे इनकी जड़ इतनी प्रवर्तित हैं । भोगभूमिके अनन्तर कर्मभूमिका निर्माण हो गहरी पैठ गई कि इनका एक स्वतन्त्र अन्वय (वंश) स्थापित गया था। चौदह कुजकर (मनु इसके निर्माता कहे जाते हो गया। कितने ही उत्तरवर्तीप्राचार्योंने खुदको कुन्दकुन्दान्वयी हैं। असि-मसि-कृषि-सेवा-शिल्प-वाणिज्य क्रियाओंकी शिक्षा या 'कुन्दकुन्द-मुनिवंश-सरोज-हंस' कहकर गौरवका स्थान इन्हीं कुजकरोंके द्वारा मिली थी । भोगभूमिमें कर्मभूमि धर्म समझा है । कसद कवि पंप तो खुदको 'कुन्दकुन्द-नन्दनवनऔर संस्कृतिके लिये स्थान नहीं था। कर्मभूमिमें प्रथम तीर्थंकर शुक' कहकर पाठकवृन्दसे स्तुतिके मीठे मीठे फल चखता है। आदिनाथ अर्थात् वृषभ-जिन हुए | भ. वृषभसे श्री महावीर भ. ऋषभ देवके समयमें ही अन्य दर्शनोंका प्रादुर्भाव जिन तक यह भूमि तीर्थकर-भूमि बन गई। इन तीर्थकरोंकी प्रारम्भ हो गया था । खास भ. महावीरका समकालीन म. पुण्यभूमिमें भरत, बाहुबली, श्रेयांस तथा मरीचिकी कथाएँ ® इस निबन्ध पर लेखिकाको मुख्तार श्री जुगलकिशोर बड़ी रोचक है, अधिकांश जैन इतिहासउन्हींसे घिरा है। भरत जीकी बोरसे वोरसेवामन्दिरकी मार्फत १००) का 'युगराजा भोगको योगमें परिवर्तन करनेवाला, इस भूमिको भरत- वीर-पुरस्कार दिया गया है।