Book Title: Anand Pravachan Part 04 Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain Publisher: Ratna Jain PustakalayaPage 18
________________ तीर्थंकर महावीर इन्हीं को हम विषय - कषाय कहते हैं I । तो ये दोष जब तक आत्मा में रहते है, निरन्तर आठ प्रकार के कर्मों का बंधन करते रहते हैं और इनकी अधिकता के कारण आत्मा का शुद्ध स्वरूप दिखाई नहीं देता । यह कर्म - बंधन ही आत्मा पर कर्मों का लेप भी कहा जाता है और यह इतना प्रगाढ़ तथा चिकना होता है कि सहज ही आत्मा से छुटाया नहीं जा सकता । कभी-कभी तो इसे छुटाने के लिये अनेक जन्म भी व्यतीत हो जाते हैं । क्योंकि बंधे हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता । 1 श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा भी है सकम्मुणा किच्चई पावकारीकडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । पापात्मा अपने ही कर्मों से पीड़ित होती है, क्योंकि कृत-कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है । कर्म आत्मा का एक पल भी पीछा नहीं छोड़ते और किस प्रकार आत्मा के साथ लगे रहते हैं इसका बड़ा ही मार्मिक वर्णन महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के शान्तिपर्व में किया है सुशीघ्रमपि धावन्तं विधानमनुधावति । शेते सहायानेन येन येन यथा कृतम् ।। उपतिष्ठति तिष्ठन्तं गच्छन्तमनुगच्छति । करोति कुर्वतः कर्मच्छायेवानुविधीयते ॥ अर्थात् जिस मनुष्य ने जैसा कर्म किया है, वह उसके पीछे लगा रहता है । यदि कर्त्ता पुरुष शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो वह भी उतनी ही तेजी से उसके पीछे दौड़ जाता है । जब वह सोता है तो कर्म फल भी साथ ही सो जाता है । जब वह खड़ा होता है तो वह भी पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्य चलता है तो उसके पीछे-पीछे वह भी चलने लगता है । अधिक क्या कोई भी कार्य करते समय कर्म-फल उसका साथ नहीं छोड़ता । सदैव छाया की तरह पीछे लगा रहता है | तात्पर्य कहने का यही है कि जब तक प्राणी अपने कर्मों को नष्ट नहीं कर लेता, तब तक वे उसका साथ नहीं छोड़ते चाहे कितने भी जन्म इस बीच में व्यतीत हो जायँ । और ये सभी कर्म अभी-अभी बताए गये अठारह दोषों के कारण आत्मा के साथ लगते हैं । ज्यों-ज्यों व्यक्ति इन दोषों को आत्मा में से कम करता है, त्यों-त्यों कर्मों का भार अथवा कर्मों का लेप भी कम होता चला जाता है । इसीलिये विभिन्न आत्माओं में तरतमता होती है । यानी जो जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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