Book Title: Agam Athuttari Author(s): Kusumpragya Shramani Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 7
________________ छह आगम अद्भुत्तरी अनुष्ठान धतूरे के फूल की भांति निरर्थक होते हैं। आज्ञाभ्रष्ट व्यक्ति गाय, मृग, वृक्ष, पत्थर, गधा, तृण और कुत्ते के समान होते हैं। कवि ने छायावादी शैली में इन सबके मुख से अपने-अपने वैशिष्ट्य को साहित्यिक शैली में प्रकट करवाया है। साथ में उनसे यह भी कहलवाया है कि आज्ञाभ्रष्ट मनुष्य के साथ हमारी उपमा करना लज्जास्पद बात है क्योंकि उनका अस्तित्व ही वन्ध्यापुत्र के समान है। यह सारा प्रसंग न केवल सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है अपितु इसमें अनेक लौकिक मान्यताओं का भी समावेश है। सर्वप्रथम गाय कवि के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहती है-"मैं शुष्क तृण खाकर भी अमृत तुल्य दूध देती हूं। मेरे गोबर से भूमि की शुद्धि, लिपाई तथा भोजन पकाने आदि कार्य होते हैं। मेरा प्रस्रवण पाप का हरण करने वाला, बालकों के शरीर को पुष्ट करने वाला तथा रोग का हरण करने वाला है। मेरे द्वारा त्यक्त दूध आदि से उत्पन्न द्रव्य पित्त-विकार को दूर करने वाले हैं। मेरे मांस से शिकारियों को तृप्ति होती है। मेरे चर्म से न केवल लोगों के पैरों की रक्षा होती है अपितु जल भरने की दृति आदि भी बनाई जाती है। मेरी पूंछ में देवता निवास करते हैं तथा ब्राह्मणों का भूभाग मुझसे सुशोभित होता है। इतने गुणों से युक्त मुझ गाय से आज्ञाभ्रष्ट मनुष्य की तुलना करते हुए हे कविश्रेष्ठ! तुमको लज्जा की अनुभूति क्यों नहीं होती? गाय की भांति ही आचार्य ने मृग, वृक्ष, पत्थर आदि के मुख से उनके अनेक वैशिष्ट्य को प्रकट करवाया है। ग्रंथकार के अनुसार आज्ञाभ्रष्ट व्यक्ति का चारित्र वेश्या और दासी के स्नेह के समान अस्थिर, किंपाक फल की भांति असार तथा तप्त लोहे पर स्वाति नक्षत्र का पानी गिरने के समान निष्फल होता है। इस प्रसंग में कवि ने और भी अनेक लौकिक उपमाओं का प्रयोग किया है।Page Navigation
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