Book Title: Agam Athuttari
Author(s): Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 6
________________ भूमिका अभयदेवसूरि द्वारा निर्मित आगम अद्रुत्तरी एक लघुकाय ग्रंथ है, जिसमें देव, गुरु और धर्म के स्वरूप की व्याख्या है। इस छोटी सी कृति में आचार्य ने बहुत कौशल के साथ इस रत्नत्रयी का मौलिक विवेचन किया है। आचार्य ने इस ग्रंथ में सर्वप्रथम तीर्थंकर महावीर को वंदना करके ग्यारह गणधरों को नमस्कार किया है। द्रव्य और भाव परम्परा के सम्बन्ध में आचार्य की मान्यता है कि देवर्धिगणिक्षमाश्रमण तक शुद्ध भाव परम्परा चली, उसके बाद शिथिलाचार के कारण अनेक द्रव्य परम्पराएं प्रारम्भ हो गईं। द्रव्य परम्परा को उन्होंने वेश्या और चाण्डाल तथा भाव परम्परा को गृहपति और राज करंडक से उपमित किया है। प्रस्तुत ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि पार्श्वस्थ और प्रमत्त साधुओं द्वारा जो आचरित जीत व्यवहार है, अनेक साधुओं द्वारा आचरित होने पर भी उस जीत से व्यवहार नहीं होता। इसके विपरीत जो सुविहित और संविग्न साधुओं द्वारा आचरित है, वह जीत व्यवहार आचरणीय है, भले वह एक ही साधु द्वारा आचीर्ण क्यों न हो। . इस ग्रंथ का वैशिष्ट्य यह है कि देव के स्वरूप का वर्णन नए रूप में किया गया है। जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का पालन ही जिनेश्वर देव की आराधना है। जिनेश्वर देव की आज्ञा से किया गया अनुष्ठान वटवृक्ष की भांति विस्तार को प्राप्त करता है। जिनआज्ञा पूर्वक किया गया थोड़ा-सा अनुष्ठान भी पाप का हरण कर सकता है, जैसे सूर्य की छोटी-सी किरण भी दशों दिशाओं के अंधकार का नाश कर देती है। ग्रंथकार का मंतव्य है कि जो प्राणी आज्ञा को महत्त्व नहीं देता, अभिमान से उसकी अवहेलना या भंग करता है, उसका बुद्धि-वैभव, चातुर्य आदि विशेषताएं व्यर्थ हैं तथा उसकी अर्चना, प्रत्याख्यान, पौषध, उपवास, दान और शील आदि

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