Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 338
________________ ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५५५-५५६ ३०१ ५५६. से कि तं वसहिदिठंतेणं? अथ कि तद् वसतिदृष्टान्तेन? ५५६. वह वसति दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय वसहिदिळंतेणं से जहानामए वसतिदृष्टान्तेन-तद् यथानाम 'प्रमाण क्या है? केइ पुरिसे कंचि पुरिसं वएज्जा- कश्चित्पुरुषः कञ्चित् पुरुष वदेत् वसति दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय कहि भवं वससि ? अविसुद्धो क्व भवान् वसति ? अविशुद्धः नंगमः प्रमाण-जैसे कोई पुरुष किसी पुरुष से कहता नेगमो भणति-लोगे वसामि। भणति-लोके वसामि । लोकस्त्रि- है आप कहां रहते हैं ? लोगे तिविहे पण्णते, तं जहा- विध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा ऊर्ध्वलोकः अविशुद्ध नैगमनय कहता है—लोक में उडलोए अहेलोए तिरियलोए, अधोलोकः तिर्यग्लोकः, तेषु सर्वेषु रहता हूं। तेस सम्वेस भवं वससि ? विसुद्धो भवान बसति ? विशद्धः नैगमः भणति ___ लोक के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेनेगमो भणति तिरियलोए -तिर्यग्लोके वसामि । तिर्यग्लोके ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक्लोक । क्या वसामि । तिरियलोए जंबुद्दीवाइया जम्बूद्वीपादिकाः स्वयम्भूरमणपर्यव- आप उन सब में रहते हैं ? सयंभरमणपज्जवसाणा असंखेज्जा सानाः असंख्येया: द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः, विशुद्ध नैगमनय कहता है तिर्यक्लोक दीव-समुद्दा पण्णत्ता, तेसु सव्वेसु तेष सर्वेष भवान वसति ? विशुद्ध- . में रहता हूं। भवं वससि ? विसुद्धतराओ नेगमो तरकः नैगमः भणति -जम्बूद्वीपे तिर्यक्लोक में जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभणति--जंबुद्दीवे वसामि। जंबु- वसामि। जम्बूद्वीपे दश क्षेत्राणि भूरमण तक असंख्येय द्वीप और समुद्र हैं। हीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तं जहा प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भरत: ऐरवतः क्या आप उन सबमें रहते हैं ? भरहे एरवए हेमवए हेरण्णवए हैमवतः हैरण्यवतः हरिवर्षः रम्यक- विशुद्धतर नैगम नय कहता है जम्बूद्वीप हरिवस्से रम्मगवस्से देवकुरा वर्षः देवकरुः उत्तरकुरः पूर्व- में रहता हूं। उत्तरकुरा पुव्वविदेहे अवरविदेहे, विदेहः अपरविदेहः, तेषु सर्वेषु जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र हैं, जैसे- भरत, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? विसुद्ध- भवान् वसति ? विशुद्धतरकः नैगमः ऐरवत, हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, तराओ नेगमो भणति-भरहे भणति-भरते बसामि। भरतः देवकुरु, उत्तरकुरु, पूर्व विदेह और अपरवसामि । भरहे दुविहे पण्णत्ते, तं द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--दक्षिणार्द्ध- विदेह । क्या आप उन सबमें रहते हैं ? जहा-दाहिणड्ढभरहे य उत्तर- भरतश्च उत्तरार्द्धभरतश्च, तयोः विशुद्धतर नैगमनय कहता है-भरत में भरहे य, तेसु सव्वेसु भवं वससि ? सर्वयोः भवान् वसति ? विशुद्धतरक: रहता हूं। विसुद्धतराओ नेगमो भणति- नैगमः भणति-दक्षिणार्द्धभरते भरत के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -- दाहिणडढभरहे वसामि। दाहि- वसामि । दक्षिणार्द्धभरते अनेकानि दक्षिणार्ध भरत और उत्तरार्ध भरत। क्या णडढभरहे अणेगाई गामागर- ग्रामाकर-नगर-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोण- आप उन दोनों में रहते हैं ? नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह- मुख-पत्तनाथम-सम्बाध - सन्निवेशाः, विशुद्धतर नैगमनय कहता है-दक्षिणार्ध पट्टणासम-संबाह-सण्णिवेसाई, तेसु तेषु सर्वेषु भवान् वसति ? विशुद्धतरकः भरत में रहता हूं? सम्वेसु भवं वससि ? विसुद्धतराओ नैगमः भणति-पाटलिपुत्रे वसामि । दक्षिणाधं भरत में अनेक ग्राम, आकर, नेगमो भणति-पाडलिपुत्ते पाटलिपुत्रे अनेकानि गृहाणि, तेषु सर्वेषु नगर, खेड, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, वसामि। पाडलिपुत्ते अणेगाइं भवान् वसति ? विशुद्धतरकः नैगमः आश्रम, संबाह और सन्निवेश हैं। क्या आप गिहाई, तेसु सन्वेसु भवं वससि ? भणति - देवदत्तस्य गृहे वसामि । उन सबमें रहते हैं ? विसुद्धतराओ नेगमो भणति- देवदतस्य गृहे अनेके कोष्ठकाः, तेषु विशुद्धतर नैगमनय कहता है-पाटलिपुत्र देवदत्तस्स घरे वसामि । देवदत्तस्स सर्वेष भवान् वसति ? विशुद्धतरकः में रहता हूं। घरे अणेगा कोटगा, तेसु सन्वेसु नंगमः भणति-गर्भगृहे बसामि । एवं पाटलिपुत्र में अनेक घर हैं, क्या आप उन भवं वससि ? विसुद्धतराओ नेगमो विशुद्धतरकस्य नैगमस्य वसन् वसति । सब घरों में रहते हैं ? भणति-गब्भघरे वसामि। एवं एवमेव व्यवहारस्य अपि। संग्रहस्य __ विशुद्धतर नैगमनय कहता है-देवदत्त के विसुद्धतरागस्स नेगमस्स वसमाणो संस्तारकसमारूढः वसति । ऋजु- घर में रहता हूं। वसइ। एवमेव ववहारस्स वि। सूत्रस्य येषु आकाशप्रदेशेष अवगाढ- देवदत्त के घर में अनेक कोठे हैं, क्या आप संगहस्स संथारसमारूढो वसइ। स्तेषु वसति । त्रयाणां शब्दनयानाम् उन सबमें रहते हैं ? उज्जुसुयस्स जेसु आगासपएसेसु आत्मभावे वसति । तदेतद् वसति- विशुद्धतर नैगमनय कहता है-गर्भगृह में ओगाढो तेसु वसइ। तिण्हं सद्द- दृष्टान्तेन । रहता हूं। इस प्रकार विशुद्धतर नैगम नय जो Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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