Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 358
________________ प्र० ११, ० ५५३-५५७, टि० ३,४ पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं १. ऋजुसूत्र २. शब्द ३. समभिरूढ ४ एवंभूत । इस प्रकार नय सात होते हैं ।" प्रमाण का विषय है- अनन्तधर्मात्मक अखण्ड वस्तु और अप्रमाण है, किन्तु प्रमाणांश है ।' उत्तरवर्ती दार्शनिक ग्रन्थों में नय को प्रमाण नहीं माना गया। नय का विषय है उसका एक धर्मं । इस दृष्टि से नय न प्रमाण है और न प्रस्तुत आगम में प्रमाण का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है और आर्य रक्षित के काल में नय के प्रमाणांश होने का सिद्धान्त स्थापित नहीं हुआ था । नय प्रमाण को समझाने के लिए सूत्रकार ने तीन दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं १. प्रस्थक दृष्टान्त २. वसति दृष्टान्त ३. प्रदेश दृष्टान्त । आगम साहित्य में ये दृष्टान्त केवल प्रस्तुत आगम में ही मिलते हैं । कषायपाहुड़ में ऋजुसूत्र नय के प्रकरण में प्रस्थक के दृष्टान्त का उल्लेख हुआ है तथा शब्दनय की विचारणा में भी प्रस्थक का उल्लेख किया गया है। जिनभद्रगणी ने नैगमनय के प्रकारों की व्याख्या में निलयन, प्रस्थक और ग्राम इन तीन दृष्टान्तों का प्रयोग किया है।* विद्यानन्द स्वामी ने प्रस्थ के संकल्प को नैगमनय का विषय बताया है । " माइल्लधवल ने अप्रस्थ को प्रस्थ कहने वाले को भावी नैगमनय का विषय बतलाया है । " जैसे कोई पुरुष कुठार लेकर वन की ओर जाता है, उससे कोई पूछता है आप किसलिए जाते हैं ? वह उत्तर देता है-प्रस्थ लेने जाता हूं। पुराने समय में अनाज मापने के लिए लकड़ी का एक पात्र होता था, उसे प्रस्थ कहते थे । वन से लकड़ी काटकर उसका प्रस्थ बनवाने का उसका संकल्प है, जो प्रस्थ अभी बना ही नहीं है उसमें प्रस्थ का व्यवहार करके वह कहता है कि मैं प्रस्थ लेने जा रहा हूं । इस प्रकार का वचन व्यवहार भावी नैगमनय का विषय है । ६ गमनय की दृष्टि से प्रस्थक पर विचार करते समय सूत्रकार ने गमनय के तीन प्रकारों अविशुद्ध विशुद्ध और विशुद्धतर का उल्लेख किया है | आगम साहित्य में अन्यत्र इसका उल्लेख नहीं मिलता। विद्यानन्द स्वामी ने नंगमनय के शुद्ध और अशुद्ध प्रकारों की व्याख्या की है। नयचक्र : आलापपद्धति और द्रव्यानुयोगतर्कणा में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के शुद्ध, अशुद्ध विभाग बतलाए गए हैं। " प्रस्थक दृष्टान्त नंगमनय कोई व्यक्ति प्रस्थक निर्माण हेतु काष्ठ लाने के लिए जंगल में जाता है। काष्ठ कारण है और प्रस्थक कार्य है । कारण में कार्य का उपचार करने से वह कहता है – मैं प्रस्थक के लिए जाता हूं यह अविशुद्ध नैगमनय है । काष्ठ काटते समय 'मैं प्रस्थक काट रहा हूं।' यह निरूपण विशुद्ध नैगमनय का है। यहां भी कारण में कार्य का उपचार है उक्त नैगमनय में गमन क्रिया और प्रस्थक में अति व्यवधान है। इसलिए उसे अविशुद्ध माना गया है। काष्ठ-कर्तन और प्रस्थक में 'कुछ निकटता है इसलिए इसे विशुद्ध नय माना गया है। काष्ठ को तरासना, उकेरना और प्रमार्जित करना प्रस्थक निर्माण क्रिया के ही अंग हैं। इन क्रियाभों से प्रस्थक का अति नैकट्य होने के कारण विशुद्धतर नय की दृष्टि से प्रतिपादित किया गया है । विशुद्ध नैगमनय के अनुसार एक व्यक्ति प्रस्थक हेतु काष्ठ लाने के लिए जंगल में जाता है और वह कहता है मैं प्रस्थक १. नसुअ. ७१५ । २. नच. परि. २ पृ. २३१ : नाप्रमाणं प्रमाणं वा नयो ज्ञानात्मको मतः । स्पात्प्रमाणकदेशस्तु सर्ववायविरोधः ॥ ३. कपा. पृ. २२४ । ४. विभा २१८७,२१८८ लोनिया वा निगमा तेसो भयो वा अहवा जं नेगगमोडणेगपहो णेगमो तेणं ॥ सो वयुद्धमे लोग सिद्धिसओ गंतव्यो । बिडिगा निलयण पत्यय-गामोन्मादसिद्धो ॥ Jain Education International ३२१ ५. तश्लोवा. ४, श्लो. १८, १९ : संकल्पो निगमस्तत्र भवोयं तत्प्रयोजनः । तथा प्रस्थादिसंकल्पः तदभिप्राय इष्यते ॥ नन्वयं भाविनी संज्ञां समाश्रित्योपचर्यते । अप्रस्थादिषु तद्भारतं ॥ ६. नच. २०५ । ७. तश्लोवा. ४, श्लो. ३७-४८ । ८. (क) नच. १९० - २०४ । (ख) नय. (आलापपद्धति) पू. २१४, २१५ । (ग) व्रत. ५०९ - १९, ६।२-९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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