Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 422
________________ प्र० १३, ०७१४,७१५, ४० १७,१५ ३८५ सिद्धसेन ने नय के छः प्रकार बतलाए हैं-संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ।' उत्तरवर्ती साहित्य में सात नय के वर्गीकरण का ही अनुसरण हुआ है। १. मनहरिभद्र ने इसके दो अर्थ किए हैं ज्ञाननय १. नैकम - सामान्य - विशेष आदि अनेक धर्मों को जानने वाला दृष्टिकोण । २. निगम का अर्थ है पदार्थ परिच्छेद, सामान्य और विशेष धर्मों का परिच्छेद करने वाला दृष्टिकोण | २. संग्रनय सामान्यग्राही दृष्टिकोण | ३. व्यवहारनय - विशेषग्राही दृष्टिकोण | ४. ऋजुसूत्रनय - वर्तमानग्राही दृष्टिकोण | ५. शब्दनय नाम, स्थापना और द्रव्य का अस्वीकार, लिङ्ग भेद और वचन भेद को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण | ६. समभिरूढ़नय -- शब्द की एकार्थता को अस्वीकार करने वाला दृष्टिकोण | ७. एवंभूतनय - शब्द और अर्थ की एकात्मकता को स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण । नय के तीन फल हैं हेय का हान (त्याग), उपादेय का उपादान और उपेक्षणीय की उपेक्षा । प्रस्तुत श्लोक में यही तत्त्व निर्दिष्ट है । ज्ञातव्य अर्थ के भलीभांति ज्ञात होने पर ही उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए, यह ज्ञान प्रधान उपदेश ज्ञाननय है । ज्ञाननय प्रत्येक प्रवृत्ति से पहले ज्ञान को प्राधान्य देता है। इसके अनुसार अज्ञात अर्थ में प्रवृत्त होने पर अनुकूल फल प्राप्ति नहीं हो सकती । उत्कृष्ट तपोयोग और चारित्रयोग से युक्त अर्हत् तब तक मुक्त नहीं होते जब तक उन्हें केवलज्ञान उपलब्ध नहीं हो जाता इसलिए पहले ज्ञान करो, यह ज्ञाननय का अभिमत है । क्रियानय क्रियानय क्रिया को प्रधानता देता है । वह ऐहलौकिक और पारलौकिक फल प्राप्ति में क्रिया को ही प्रधान कारण मानता है। इस नय के अनुसार उक्त गाथा की व्याख्या इस प्रकार है । भलीभांति ज्ञात अर्थ में भी उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण का प्रयत्न ही करना चाहिए यह क्रियाप्रधान उपदेश क्रिया नय है । क्रियानय क्रियाहीन ज्ञान को निरर्थक मानता है। अपने पक्ष की सिद्धि में वह युक्ति देता है—अनेक शास्त्रों का अध्ययन करने पर भी चारित्रहीन व्यक्ति उससे लाभान्वित नहीं हो सकता। जिस प्रकार लाख अथवा करोड़ प्रदीप्त दीपक अन्धे व्यक्ति को मार्ग नहीं दिखा सकते वैसे ही क्रियारहित ज्ञान के द्वारा व्यक्ति इष्ट तत्त्व की उपलब्धि नहीं कर सकता । ज्ञाननय ज्ञान का समर्थन करता है और क्रियानय क्रिया का समर्थन करता है इस स्थिति में सामान्य व्यक्ति के मन में सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है वास्तविकता क्या है ? ज्ञान वास्तविक है अथवा क्रिया वास्तविक है इस जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार किया गया प्रत्येक नय की पृथक्-पृथक् वक्तव्यता है। इन नाना प्रकार की वक्तव्यताओं को सुनकर संशय मत करो । कोई भी नय निरपेक्ष नहीं है । प्रत्येक नय की वक्तव्यता सापेक्ष है । इस सापेक्षता का निदर्शन है चरणगुणस्थित साधु । सम्यग् दर्शन और श्रुत के बिना चारित्र नहीं होता। साधु में ज्ञान और चारित्र दोनों सापेक्ष होते हैं इसलिए नयों की वक्तव्यता को सापेक्ष ही समझना चाहिए। १. सप्र. १४५ । Jain Education International २. अहावृ. पृ. १२३ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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