Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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४२५
परिशिष्ट : ७-जोड़ : पद्यात्मक व्याख्या ६९. जे माट इम ख्यात, प्रारंभण नै आश्रयी।
आवश्यक अवदात, तसुं अनुयोगज जाणवू ।। ७०. इण वचने करि जोय, आवश्यक जे एहवू ।
शास्त्र नाम अवलोय, निर्णय कीधं छै इहां ।। ७१. पूर्वे आख्यूं जेह, अट्ठ प्रश्ने आवश्यक नों।
इक श्रुत खंध कहेह, बहु अध्येनपणे कां ।। ७२. तेह भणी अवलोय, स्यूं करिवी कहियै तिको ।
आवश्यकादिक जोय, निक्षेपीये ते हिव कहै ।
६९. तदेवं यस्माद् इदं पुन: प्रस्थापनं प्रतीत्यावश्यकस्यानुयोग।
(व. प. ९) ७०. इत्यनेनावश्यकमिति शास्त्रनाम निर्णीतम्।
(वृ. प. ९) ७१. यस्माच्चाष्टस्वन्तरोक्तप्रश्नेष्वावश्यकं श्रुतस्कन्ध
त्वेनाध्ययनकलापात्मकत्वेन च। (व. प. ९) ७२. निर्णीतं तस्मात्किमित्याह -
(वृ. प. ९)
७३. तम्हा आवस्सयं निक्खिविस्सामि, सुयं निक्खि
विस्सामि, खंधं निक्खिविस्सामि, अज्झयणं निक्खिविस्सामि।
(सू. ७)
(लय : सोही सयाणा) ७३. तेह भणी आवश्यक निक्षेपीस, सूत्र तणां निक्षेपा कहीस । खंध भणी निक्षेपसू वारू, वलि अध्ययन निक्षेपसूं चारू ।।
सोरठा ७४. आवश्यकादि पद च्यार, नामादिक जे भेद करी ।
देखाडवू अवधार, तास निक्षेपै कहीजिये ।। ७५. तिहां सहु वस्तु नों जाण, जघन्य थकी चिहुं भेद करि ।
देखाड़ सुविधान, ए निश्चय करण भणी कहै ।।
७४. तत्र निक्षेपणं निक्षेपो यथासंभवमावश्यकादेर्नामादि
भेदनिरूपणम् । ७५. तत्र जघन्यतोऽप्यसौ चतुर्विधो दर्शनीय इति नियमार्थमाह
(वृ. प. ९)
(लय : सोही सयाणा) ७६. जेह जीवादिक वस्तु विषेह, जे नामादि बहु स्थापन जाणेह ।
तेह जीवादिक वस्तु विषेह, ते सह भेदे निक्षेपा प्रति स्थापेह ।। ७७. जेह जीवादिक वस्तु विषेह, सह भेदे निक्षेपानां न जाणेह ।
ते वस्तु विषे नामादि चिहुं भेदै, निक्षेपो अवश्य देखा. संवेदै ।।
७६,७७. जत्थ य जं जाणेज्जा,
निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणेज्जा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ ।।
(सू. ७) 'यत्र च' जीवादिवस्तुनि यं जानीयात् 'निक्षेप' न्यास यत्तदोनित्याभिसंबन्धात्तत्र वस्तुनि तं निक्षेप 'निक्षिपेत्' निरूपयेत् 'निरवशेष' समग्रं।
(वृ. प. ९) यत्रापि च न जानीयान्निरवशेष निक्षेपभेदजालं तत्रापि नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणं चतुष्कं निक्षिपेद् ।
(वृ. प. ९) वा० - इदमुक्तं भवति यत्र तावन्नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणा भेदा ज्ञायन्ते तत्र तैः सर्वरपि वस्तु निक्षिप्यते, यत्र तु सर्वभेदा न ज्ञायन्ते तत्रापि नामादिचतुष्टयेन वस्तु चिन्तनीयमेव, सर्वव्यापकत्वात्तस्य, न हि किमपि तद्वस्तु अस्ति यन्नामादिचतुष्टयं व्यभिचरतीति गाथार्थः ।
वा... एतल ए भाव कह्यो-जे वस्तु नै विषे नाम स्थापना द्रध्य क्षेत्र काल भावादि भेद घणां जाणीइं ते वस्तु नै विषे तेणे सगलै भेदे वस्तु निक्षेपी देखाड़ी इं। अने जे वस्तु नै विषे सर्व भेद न जाणीईतिहां नामादिक चिहुं भेदे वस्तु नों विचार अवश्य करीइं। जे भणी नामादि चिहुं भेद रूप निक्षेपो सर्व वस्तु व्यापी छ। ते काइ वस्तु नथी जिहा नामादि च्यार भेद न लाभ। एतले सर्व वस्तु चिहं भेदमय नियम निश्चय छ। तेणे कारणे सर्व वस्तु नो चिहं भेदे निक्षेपो करिवो इति गाथार्थ : १ ७८. से अथ स्यूं ते आवश्यक जाण, इम शिष्य पूछये गुरु कहे वाण ।
आवश्यक का च्यार प्रकार, ते जिम छै तिम कहियै सार ।। वा०-से कि तं० तिहां से शब्दमागधी भाषा प्रसिद्ध अथ शब्द ने अर्थ
७८. से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं चउब्विहं पपणतं,
तं जहावा०--अत्र 'से' शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थे
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