Book Title: Agam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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ग्यारहवां प्रकरण : सूत्र ५७६-५८६ ५८६. उक्कोसयं संखेज्जयं केत्तियं उत्कर्षकं संख्येयकं कियद् ५८६. उत्कृष्ट संख्येय कितना होता है ?
होइ? उक्कोसयस्स संखेज्जयस्स भवति ? उत्कर्षकस्य संख्येयकस्य उत्कृष्ट संख्येय की प्ररूपणा करूंगा: जैसे परूवणं करिस्सामि : से जहानामए प्ररूपणां करिष्यामि : तद् यथानाम - कोई पल्य [कोठा] एक लाख योजन की पल्ले सिया एग जोयणसयसहस्सं पल्यः स्याद् एकं योजनशत- लम्बाई चौड़ाई वाला है, उसकी परिधि तीन आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि जोयण- सहस्रं आयाम-विष्कम्भेण, त्रीणि लाख, सोलह हजार, दो सौ सताईस योजन, सयसहस्साइं सोलस सहस्साई योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढा तेरह दोणि य सत्तावोसे जोयणसए द्वे च सप्तविंशतिः योजनशते त्रयश्च अंगुल से कुछ अधिक है। वह पल्य सरसों से तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणु- क्रोशा: अष्टाविंशतिः च धनुःशतं भरा हुआ है, उन सरसों से द्वीप और समुद्रों सयं तेरस य अंगुलाई अद्धं अंगुलं त्रयोदश च अमुलानि अर्द्धमङगुलं का उद्धार [परिमाण] जाना जाता है। एक च किचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं च किञ्चिद् विशेषाधिक परिक्षेपेण सरसों द्वीप में और एक समुद्र में फिर एक पण्णत्ते। से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं प्रज्ञप्तम्। स पल्यः सिद्धार्थकैः
द्वीप में और एक समुद्र में इस क्रम से उन्हें भरिए । तओ णं तेहि सिद्धत्थरहिं भृतः। ततः तं: सिद्धार्थकैः द्वीप- गिराते जाने से जितने द्वीप और समुद्र उन दीव-समुद्दाणं उद्धारो घेप्पइ । एगे समुद्राणामुद्धारः गृह्यते । एको द्वीपे
सरसों के दानों से व्याप्त होते हैं। यह इतने दोवे एगे समुद्दे-एगे दीवे एगे समुद्दे एकः समुद्रेएको द्वीपे एकः समुद्रे एवं प्रमाण वाला क्षेत्र अनवस्थित पल्य [सरसों से एवं पक्खिप्पमाहि-पक्खिप्प- प्रक्षिप्यमाण:-प्रक्षिप्यमाणः यावन्तो भरा हुआ बुद्धि से परिकल्पित किया गया है] माहि जावइया दीव-समुद्दा तेहि द्वीप-समुद्राः तै: सिद्धार्थकः 'अप्फुण्णा', प्रथम श्लाका सरसों का एक दाना [श्लाका सिद्धत्थएहि अप्फुण्णा, एस णं एतद् एतावत् क्षेत्र पल्ये प्रथमा- पल्य में डाला जाता है।] इन शलाकाओं एवइए खेत्ते पल्ले पढमा सलागा। शलाका। एतावतीनां शलाकानाम [सरसों के दानों] से प्रचुर संख्या वाले एवइयाणं सलागाणं असंलप्पा असंलाप्या: लोकाः भृताः तथापि शलाका पल्य आकण्ठ भरे जाएं फिर भी लोगा भरिया तहा वि उक्कोसयं उत्कर्षकं संख्येयकं न प्राप्नोति ।
उत्कृष्ट संख्येय लब्ध नहीं होता। संखेज्जयं न पाव। जहा को दिळंतो? से जहाना- यथा क: दृष्टान्तः ? तद् यथा- जैसे कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा मए मंचे सिया आमलगाणं भरिए, नाम मञ्चः स्याद् आमलकानां भृतः, ---इसका दृष्टान्त यह है] जैसे कोई एक तत्थ एगे आमलए पक्खित्ते से तत्र एकम् आमलकं प्रक्षिप्तं तन्मा. मञ्च [मचान] आंवलों से भरा हुआ है। माते, अण्णे वि पक्खित्ते से वि तम, अन्यदपि प्रक्षिप्तं तदपि मातम्, वहां एक आंवला डाला वह समा गया, दूसरा माते, एवं पक्खिप्पमाहि-पक्खि- अन्यदपि प्रक्षिप्तं तदपि मातम, एवं डाला वह भी समा गया, तीसरा डाला वह प्पमाहिं होही से आमलए जम्मि प्रक्षिप्यमाणः-प्रक्षिप्यमाणः भविष्यति भी समा गया, इस प्रकार उन्हें डालते डालते पक्खित्ते से मंचे भरिज्जिहिइ, तद् आमलकं यस्मिन् प्रक्षिप्ते स ऐसा आंवला भी होगा जिसके डालने से होही से आमलए जे तत्थ न मञ्च: भरिष्यति, भविष्यति तद् मञ्च भर जाएगा, उसके बाद वहां आंवला माहिइ॥ आमलकं यत्तत्र न मास्यति ।
नहीं समाएगा।
५८७. एवामेव उक्कोसए संखेज्जए एवमेव उत्कर्ष के संख्येयके रूपे
के रूप रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्ता- प्रक्षिप्ते जघन्यकं परीतासंख्येयकं संखेज्जयं भवइ॥
भवति ।।
५८७. इसी प्रकार उत्कृष्ट संख्येय में एक का प्रक्षेप
। ।
करने पर जगन्य परीत-असंख्येय होता है।
५८८. तेण परं अजहण्णमणुककोसयाई ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि ५८८. जघन्य परीत-असंख्येय से आगे उत्कृष्ट
ठाणाई जाव उककोसयं परित्ता- स्थानानि यावद् उत्कर्षक परीता- परीत-असंख्येय से पूर्व बीच के सभी स्थान संखेज्जयं न पावइ॥ संख्येयकं न प्राप्नोति ॥
अजघन्य-अनुत्कृष्ट परीत-असंख्येय होते हैं।
५८६. उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं उत्कर्षक परीतासंख्येयकं कियद ५८९. उत्कृष्ट परीत-असंख्येय कितना होता है ?
केत्तियं होइ? जहण्णयं परित्ता- भवति ? जघन्यक परीतासंख्येयक जघन्य परीत-असंख्येय को जघन्य परीत
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