Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ विचार किया जा सके। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में जो प्रश्नव्याकरण प्रचलित है उससे यह स्पष्ट है कि तत्कालीन आगमों में इसकी कोई चर्चा नहीं है। प्राचार्य जिनदास महत्तर ने शक संवत् 500 की समाप्ति पर नन्दीसूत्र पर चणि की रचना की। उसमें सर्वप्रथम वर्तमान प्रश्नव्याकरण के विषय से सम्बन्धित पांच संवर आदि का उल्लेख है। इसके बाद परम्परागत एक सौ आठ अंगुष्ठप्रश्न, बाहप्रश्न आदि का उल्लेख किया है। इससे लगता है कि जिनदास गणि के समक्ष प्राचीन प्रश्नश्याकरण नहीं था, किन्तु वर्तमान प्रचलित प्रश्नव्याकरण ही था जिसके संवर आदि विषयों का उन्होंने उल्लेख किया है। इसका अर्थ यह है कि शक संवत् 500 से पूर्व ही कभी प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण सूत्र का निर्माण एवं प्रचार-प्रसार हो चुका था और अंग साहित्य के रूप में उसे मान्यता मिल चकी थी। रचयिता और रचनाशैली प्रश्नव्याकरण का प्रारम्भ इस गाथा से होता हैजंबू! इणमो अण्हय-संवरविणिच्छयं पवयणस्स नीसंदं / वोच्छामि णिच्छपत्थं सहासियत्थं महेसीहि / अर्थात् हे जम्बू ! यहाँ महर्षि प्रणीत प्रवचनसार रूप प्रास्रव और संवर का निरूपण करूंगा। गाथा में प्रार्य जम्ब को सम्बोधित किये जाने से टीकाकारों ने प्रश्नव्याकरण का उनके साक्षात गुरु सुधर्मा से सम्बन्ध जोड़ दिया है। आचार्य अभयदेवमूरि ने अपनी टीका में प्रश्नव्याकरण का जो उपोदधात दिया है, उसमें प्रवक्ता के रूप में सुधर्मा स्वामी का उल्लेख किया है परन्तु 'महर्षियों द्वारा सुभाषित' शब्दों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसका निरूपण सुधर्मा द्वारा नहीं हुया है। यह सुधर्मा स्वामी के पश्चाद्वर्ती काल की रचना है। सुधर्मा और जम्बू के संवाद रूप में पुरातन शैली का अनुकरण मात्र किया गया है और रचनाकार अज्ञातनामा कोई गीतार्थ स्थविर हैं। वर्तमान प्रश्नध्याकरण की रचना-पद्धति काफी सुघटित है। अन्य आगमों की तरह विकीर्ण नहीं है। भाषा अर्धभागधी प्राकृत है, किन्तु समासबहल होने से अतीव जटिल हो गई है। प्राकृत के साधारण अभ्यासी को समझना कठिन है। संस्कृत या हिन्दी की टोकाओं के बिना उसके भावों को समझ लेना सरल नहीं है। कहीं-कहीं तो इतनी लाक्षणिक भाषा का उपयोग किया गया है जिसकी प्रतिकृति कादम्बरी आदि ग्रन्थों में देखने को मिलती है। इस तथ्य को समर्थ वृत्तिकार आचार्य अभय देव ने भी अपनी वत्ति के प्रारम्भ में स्वीकार किया है। प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन हैं / इन दस अध्ययनों का वर्गीकरण दो प्रकार से किया गया है। प्रथम प्रस्तुत प्रश्नच्या तो प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययन और एक श्रुतस्कन्ध / जो प्रस्तुत श्रुत के उपसंहार वचन से स्पष्ट है --'पम्हावागरणे णं एगो सूयक्खंधो दस अज्मयणा / नन्दी और समवायांग श्रुत में भी प्रश्नव्याकरण का एक श्रुतस्कन्ध मान्य है। किन्तु प्राचार्य अभयदेव ने अपनी वृत्ति में पुस्तकान्तर से जो उपोद्घात उद्धृत किया है, उसमें दूसरे प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। वहाँ प्रश्नव्याकरण के दो श्रुतस्कन्ध बतलाये हैं और प्रत्येक के पांच-पांच अध्ययनों का उल्लेख किया है-दो सुयक्खंधा पण्णत्ता-आसववारा य संवरदारा य / पढमस्स गं सूयक्खंधस्स...."पंच अज्मयणा / ....... दोच्चस्स णं सुयक्खंधस्स पंच अज्झयणा....."। लेकिन प्राचार्य अभयदेव के समय में यह कथन मान्य नहीं था ऐसा उनके इन वाक्यों से स्पष्ट है—'या चेयं द्विश्रुतस्कन्धतोक्ताऽस्य सा न रूढा, एक श्रुतस्कन्धताया एवं रूढत्वात् / ' लेकिन प्रतिपाद्य विषय की भिन्नता को देखते हुए इसके दो श्रुतस्कन्ध मानना अधिक युक्तसंगत है। प्रतिपाद्य विषय प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण में हिसादि पांच प्रास्रवों और अहिंसा आदि पांच संवरों का वर्णन है। प्रत्येक [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org