Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सार सम्यक् चारित्र और सम्यक् चारित्र का सार निर्वाण है; निर्वाण का सार अव्याबाध सुख है / ' इस प्रकार प्राचार मुक्तिमहल में प्रवेश करने का भव्य द्वार है। उससे प्रात्मा पर लगा हुआ अनन्त काल का कर्म-मल छंट जाता है। तीर्थंकर प्रभ तीर्थ-प्रवर्तन के प्रारम्भ में प्राचारांग के अर्थ का प्ररूपण करते हैं और गणधर उसी क्रम से सूत्र की संरचना करते हैं। अतः अतीत काल में प्रस्तुत प्रागम का अध्ययन सर्वप्रथम किया जाता था। आचारांग का अध्ययन किये बिना सूत्रकृतांग प्रभति पागम साहित्य का अध्ययन नहीं किया जा सकता था। जिनदास महत्तर ने लिखा है--पाचारांग का अध्ययन करने के बाद ही धर्मकथानुयोग; मणितानुयोग, और दव्यानुयोग पढ़ना चाहिए। यदि कोई साधक आचारांग को बिना पढ़े अन्य भागमसाहित्य का अध्ययन करता है तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त पाता है। व्यवहारभाष्य में वर्णन है कि प्राचारांग के शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन से नवदीक्षित घमण को उपस्थापना की जाती थी और उसके अध्ययन से ही श्रमण भिक्षा लाने के लिए योग्य बनता था। प्राचारांग का अध्ययन किये बिना कोई भी श्रमण प्राचार्य जैसे गौरव-गरिमायुक्त पद को प्राप्त नहीं कर सकता था। गणि बनने के लिए प्राचारधर होना आवश्यक है, प्राचारांग को जैन दर्शन का वेद माना है। भद्रबाह आदि ने आचारांग के महत्त्व के सम्बन्ध में जो अपने मौलिक विचार व्यक्त किये हैं वे प्राचारांग की गौरव-गरिमा का दिग्दर्शन हैं। आचारांग को प्राथमिकता प्राचीन प्रमाणों के आधार से यह स्पष्ट है कि द्वादशांगी में प्राचारांग प्रथम है, पर वह रचना की दृष्टि से प्रथम है या स्थापना की दृष्टि से ? इस सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। नन्दी चूर्णी में प्राचार्य जिनदास गणी महत्तर ने सूचित किया है कि जब तीर्थंकर भगवान् तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं उस समय वे पूर्वगत सूत्र का अर्थ सर्वप्रथम करते है / एतदर्थ ही वह पूर्व कहलाता है। किन्तु जब सूत्र की रचना करते हैं तो 'प्राचारांग-सूत्रकृतांग' आदि प्रागमों की रचना करते हैं और उसी तरह वे स्थापना भी करते हैं। अत: अर्थ की दृष्टि की पूर्व सर्वप्रथम हैं, किन्तु सूत्र-रचना और स्थापना की दृष्टि से प्राचारांग सर्वप्रथम है। इसका समर्थन प्राचार्य हरिभद्र तथा आचार्य अभयदेव ने भी किया है / / _आचारांग पूर्णी में लिखा है कि जितने भी तीर्थकर होते हैं वे प्राचारांग का अर्थ सर्वप्रथम कहते 1. अंगाणं किं सारो ? पायारो तस्स हवइ कि सारो? अणुप्रोगत्थो सारो, तस्स वि य परूवणा सारो॥ -सारो परूवणाए चरणं तस्स विय होइ निब्वाणं / निवाणस्स उ सारों अव्वाबाहं जिणाविति // --आचारांग नियुक्ति-मा० 16 / 17 2. निशीथ चूर्णी भाग 4 पृष्ठ 252 / 3. निशीथ चूर्णी भाग 4 पृष्ठ 252 / 4. निशीथ 16-1 5. व्यवहार भाष्य 3 / 174-175 / 6. पायारम्मि अहोए जं नामओ होइ समणधम्मो उ / तम्हा आयारधरो, भण्णइ पढम गणिट्ठाणं / / -~~प्राचारांग नियुक्ति माथा० 10 7. आचारांग नियुक्ति गाथा० 8 8. (क)-नन्दी सूत्र वृत्ति पृष्ठ 88 (ख)-नन्दी सूत्र चूर्णी पृष्ठ 75 9. समवायांग वृत्ति पृष्ठ 130-131 [24] For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org