Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[१५ ] 'इन्दमह'-'भूतमह'-'यक्षमह' आदि लौकिक महोत्सवों का वर्णन, तत्कालीन जनता के धार्मिक व सांस्कृतिक रीति-रिवाजों की अच्छी झलक देते हैं।
इसी प्रकार वस्त्रों के वर्णन में तत्कालीन वस्त्र-निर्माण कला का बहुत ही आश्चर्यकारी कलात्मक रूप सामने आता है।
संखडि, नौकारोहण, मार्ग में चोर-लटेरों आदि के उपद्रव; वैराज्य-प्रकरण आदि के वर्णन से भी तत्कालीन श्रमण-जीवन की अनेक कठिन समस्याओं व राजनीतिक घटनाचक्रों का चित्र सामने आ जाता है।
प्रस्तुत वर्णन के साथ-साथ हमने निशीथचूर्णि-भाष्य एवं बृहत्कल्पभाष्य के वर्णन का सहारा लेकर विस्तारपूर्वक उन स्थितियों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, पाठक उन्हें यथास्थान देखें। प्रस्तुत सम्पादन :
आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध पर अब तक अनेक विद्वानों ने व्याख्याएँ लिखी हैं। चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने भी प्रायः प्रत्येक पद की विस्तृत व्याख्या की है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार प्रायः समान मिलतीजुलती व्याख्या करते हैं, किन्तु आचारांग द्वितीय में यह स्थिति बदल गई है। चूर्णि भी संक्षिप्त है, वृत्ति भी संक्षिप्त है तथा उत्तरवर्ती अन्य विद्वानों ने भी इस पर बहुत ही कम श्रम किया है।
चर्णि के अनुशीलन से पता चलता है-चूर्णिकार के समय में कोई प्राचीन पाठ-परम्परा उपलब्ध रही है, उसी के आधार पर चूर्णिकार व्याख्या करते हैं, किन्तु कालान्तर में वह पाठ-परम्परा लुप्त होती गई। वृत्तिकार के समक्ष कुछ भिन्न व कुछ अपूर्ण-से पाठ आते हैं । इस प्रकार कहीं-कहीं तो दोनों के विवेचन में बहत अन्तर लक्षित होता है। जैसे चर्णिकार के अनुसार द्वितीय चूला का चतुर्थ अध्ययन 'रूवसत्तक्किय' है, पांचवाँ अध्ययन 'सद्दसत्तक्किय'। जबकि वर्तमान में उपलब्ध वृत्ति के अनुसार पहले 'सद्दसत्तक्किय' है फिर 'रूवसत्तक्किय'। भावना अध्ययन में भी पाठ परम्परा में काफी भिन्नता है। चूर्णिकार के पाठ विस्तृत हैं।
हमारे समक्ष आधारभूत पाठ-परम्परा के लिए मुनिश्री जम्बूविजयजी द्वारा संशोधित-संपादित 'आयारांग सुत्त' रहा है। यद्यपि इसमें भी कुछ स्थानों पर मुद्रण-दोष रहा है तथा कहीं-कहीं पाठ छूट गया लगता हैजिसका उल्लेख शुद्धि पत्र में भी नहीं है। फिर भी अव तक प्रकाशित सभी संस्करणों में यह अधिक उपादेय व प्रामाणिक प्रतीत होता है।
मुनिश्री नथमलजी संपादित 'आयारो तह आयार चूला' तथा 'अंगसुत्ताणि ' भी हमारे समक्ष रहा है, किन्तु उसमें अतिप्रवृत्ति हुई है। 'जाव' शब्द के समग्र पाठ मूल में जोड़ देने से न केवल पाठ वृद्धि हुई
किन्त अनेक संदेहास्पद बातें भी खडी हो गई हैं। फिर आगम पाठ में अनस्वार या मात्रा वद्धि को भी दोष मानने की परम्परा जा चली आ रही है, तब इतने पाठ जोड़ देना कैसे संगत होगा? अतः हमने उस पाठ को अधिक उपादेय नहीं माना।
मुनिश्री जम्बूविजयजी ने टिप्पणों में पाठान्तर चूर्णि आदि विविध ग्रन्थों के संदर्भ देकर प्राचीन परम्परा का जो अविकल; उपयोगी व ज्ञानवर्धक रूप प्रस्तुत किया है- वह उनकी विद्वता में चार चाँद लगाता है, अनुसंधाताओं के लिए अत्यधिक उपयोगी है। उनके श्रम का उपयोग हमने किया है- तदर्थ हम उनके बहत अभारी हैं।
१. देखें ७३४ सूत्र -"दाहिणकुंडपुर संणिवेसंसि।" होना चाहिए-"दाहिण माहणकुंडपुर संणिवेसंसि। सूत्र
७३५ में यह पाठ पूर्ण है।