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પ્રસ્તાવના
इस प्रकार का प्राचीन उल्लेख भी पाया जाता है. इस गाथा में 'वलभी में वालभ्यसंघ के कार्य के लिए गन्धर्व वादिवेताल शांतिसूरि ने प्रयत्न किया था ऐसा जो उल्लेख है वह वालभ्यसंघकार्य वालभी-वाचना को लक्ष्य करके ही अधिक संभवित है. अन्यथा 'वालब्भसंघकजे' ऐसा उल्लेख न होकर 'संघकजे' इतना ही उल्लेख काफी होता. इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि श्री देवर्धिगणि क्षमाश्रमण को माथुरी-वाचनाओं को व्यवस्थापित करने में इनका प्रमुख साहाय्य रहा होगा. दिगंबराचार्य देवसेनकृत दर्शनसारनामक ग्रन्थ में श्वेताम्बरों की उत्पत्ति के वर्णनप्रसंग में
छत्तीसे परिससए विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स सोरटे उप्पण्णो सेवडसंघो हु वलहीए ॥५२॥ एक पुण संतिणामो संपत्तो वलहिणामणयरीए।
बहुसीससंपउत्तो विसए सोरटुए रम्मे ॥५६॥ इस प्रकार का उल्लेख है. यद्यपि इस उल्लेख में दिया हुआ संवत् मिलता नहीं है तथापि उपर्युक्त 'वालम्भसंघकजे' गाथा में निर्दिष्ट वालभ्यसंघकार्य, शांतिसूरि, वलभी आदि उल्लेख के साथ तुलना करने के लिये दर्शनसार का यह उल्लेख जरूर उपयुक्त है.
देवर्धिगणि जो स्वयं माथुरसंघ के युगप्रधान थे; उनकी अध्यक्षता में वलभीनगर में एकत्रित संघसमवाय में दोनों वाचनाओं के श्रुतधर स्थविरादि विद्यमान थे, इस संघसमवाय में सर्वसम्मति से माथुरी वाचना को प्रमुख स्थान दिया गया होगा, इसका कारण यह हो सकता है कि माथुरी-वाचना के जैनागमों की व्यवस्थितता एवं परिमाणाधिकता थी. इसमें ज्योतिष्करंडक जैसे ग्रन्थों को भी स्थान दिया गया जो केवल वालभी-वाचना में ही थे. इतना ही नहीं अपितु माथुरी-वाचना से भिन्न एवं
अतिरिक्त जो सूत्रपाठ एवं व्याख्यान्तर थे उन सबका उल्लेख नागार्जुनाचार्य के नाम से तत्तत् स्थान पर किया भी गया. आचारांग आदि कि चूर्णिओं में ऐसे उल्लेख पाये जाते हैं. समझ में नहीं आता की जिस समय जैनआगमों को पुस्तकारूढ किया गया होगा उस समय इन वाचनाभेदों का संग्रह किस ढंग से किया होगा? जैन आगम की कोई ऐसी हस्तप्रति मौजूद नहीं है जिसमें इन वाचनाभेदों का संग्रह या उल्लेख हो. आज हमारे सामने इस वाचनाभेद को जानने का साधन प्राचीन चूर्णिग्रन्थो के अलावा अन्य एक भी ग्रन्थ नहीं है. चूर्णियाँ भी सब आगमों की नहीं किन्तु केवल आवश्यक, नन्दी, अनुयोगद्वार, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवती, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, निशीथ, कल्प, पंचकल्प, व्यवहार एवं दशाश्रुतस्कन्ध की ही मिलती है.
_ ऊपर जिन आगमों की चूर्णियों के नाम दिये गये हैं उनमें से नागार्जुनीय-वाचनाभेद का उल्लेख केवल आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन व दशवैकालिक की चूर्णियों में ही मिलता है. अन्य आगमों में नागार्जुनीय वाचना की अपेक्षा न्यूनाधिक्य या व्याख्याभेद क्या था, इसका आज कोई पता नहीं लगता. बहुत संभव है, ये वाचनाभेद चूर्णि-वृत्ति आदि व्याख्याओं के निर्माण के बाद में सिर्फ पाठभेद के रूप में परिणत हो गये हो. यही कारण है कि चूर्णिकार और वृत्तिकारों की व्याख्या में पाठों का कभी-कभी बहुत अन्तर दिखाई देता है."-पृ. ७२१-७२३.
આચારાંગચૂર્ણિમાં 'નાગાર્જની વાચનાનો પંદર વાર ઉલ્લેખ આવે છે. જુઓ સૂત્ર ૧. આ નાગાર્જુન, આગમોની વાલી વાચનાના પ્રવર્તક જેનાચાર્ય છે. २. सा. प्र. भुनिराश्री पुण्यविनय महारा। जैन आगमधर और प्राकृतवाङ्मय नामे निमंघमा
(पृ० ७२४) वे छ -उन में सात जगह अतिपूज्यतासूचक 'भदन्त' विशेषण का प्रयोग किया है जो अन्य किसी चूर्णि-वृत्ति आदि में नहीं है। इससे अनुमान होता है कि इस चूर्णि के
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