Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra
Author(s): Jambuvijay
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay

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Page 377
________________ २८६ .. आयारंगसुत्ते बीए सुयक्बंधे [सू० ७८५ - सीले अदिण्णं गिण्हेजा, निग्गंथे उग्गहंसि उग्गहितंसि अभिक्खणं २ उग्गहसीलए सिय ति चउत्था भावणा । [५] अहावरा पंचमा भावणा - अणुवीयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अण]वीयि मितोग्गहजाई । केवली बूया - अणणुवीइ मितोग्गहजाई से ५ निगंथे साहम्मिएसु अदिण्णं ओगिण्हेजा। से अ[वीयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अण[वीयि "मितोग्गहजाइ ति पंचमा भावणा । ___७८५. एत्ताव ताव [तचे] महव्वते संम्मं जाव आणाए आराहिए यावि भवति । तचं भंते ! महव्वयं [अदिण्णादाणातो वेरमणं] । ___७८६. अहावरं चउत्थं [भंते !] महव्वयं 'पंचक्खामि सव्वं मेहुणं। से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा णेव सयं मेहुणं गच्छे जा], तं चेव, अदिण्णादाणवत्तव्वया माणितव्वा जाव वोसिरामि'। ७८७. तस्सिमाओ पंच मावणाओ भवंति - [१] तत्थिमा पढमा भावणा - णो णिग्गंथे अभिक्खणं २ इत्थीणं कहं केह१. खं० विना °सीलए य त्ति सं०। सीलए अत्ति खेमू० जै०। सीलए त्ति खेसं० हे १, २, ३ ला०। °सीलए सि त्ति इ०॥ २, ५. वीयी खे० जै० सं० खं०॥ ३. जाती खे. जै० हे १,२,३ इ० ला०। एवमग्रेऽपि प्रायः सर्वत्र। ख० मध्येऽपि क्वचिदु जायी क्वचित्तु जाती इति पाठः॥ ४. °वीयी खे० जै० ख०॥ ६. °वीयी सं० खं० ॥ * °वीयी सं०॥ ७. मितो (त्तो खे० जै०)ग्गहं पंचमा खं० विना॥ ८. एत्ताव मह सं०। एत्ताधया मह' हे १॥ ९. संजमं खं०॥ १०. पञ्चाइक्खामि खे० जै० सं० ख०॥ ११. मा(म सं०). गुस्सं खे० सं०॥ १२.चेवं सं०॥ १३. दाणे वत्तब्वया इ०॥ १४. इत्थीक, खं०॥ १५. कहेइत्तए सं०। कहतित्तए खे० जै०। चौँ तु भिन्नः क्रमः, दृश्यतां सू० ७७८ टि०६। "णो पणीयं माहारिज, पणियं णिद्धं, रुक्खं मि(पि) णातिबहुं। संति विद्यते, भेदे चरित्ताओ, विविधो भंगः विभंगः, चित्तविभ्रम इत्यर्थः। धम्माओ भंगः(सः) पतनमित्यर्थः अइणिद्धणं । विभूसाए हत्थ-पादधोव्वणादी, वत्थाणि च सुकिलादि। इंदिय सुत्तादीणि, मनस इष्टानि मनोज्ञानि, मणं हरंतीति मणोहराई। नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताई। णो इत्थीणं कहं कहित्ता, इत्थिपरिखुडे इत्थियाणं कहेति।" चू०। तुलना-"नव बंभचेरगुत्तीओ पण्णत्ता, तंजहा-विवित्ताई सयणासणाई सेवित्ता भवइ, णो इत्थिसंसत्ताई नो पसुसंसत्ताई नो पंडगसंसत्ताई १, नो इत्थीणं कहं कहेत्ता २, नो इत्थिठाणाई सेवित्ता भवइ ३, नो इत्थीणमिंदियाइं मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ ४, नो पणीयरसभोई ५, नो पाणभोयणस्स भइमत्तं आहारए सया भवइ ६, नो पुव्वरयं पुश्वकीलियं समरेत्ता भवइ ७, नो सदाणुवाई नो रूवाणुवाई नो सिलोगाणुवाई ८, नो सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवई ९" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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