Book Title: Abhamandal Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 17
________________ हैं, चिन्तन के परमाणु हैं, भावना के परमाणु हैं, रंग और लेश्या के परमाणु हैं, और न जाने परमाणुओं के कितने जाल बिछे हुए हैं, किन्तु दिखाई कुछ भी नहीं देता, कुछ भी ज्ञात नहीं होता। आंखों से वे भी दिखाई नहीं पड़ते। आंखें केवल स्थूल को ही पकड़ पाती हैं, सूक्ष्म को नहीं। आंख देखने का बहुत ही स्थूल माध्यम है। स्थूल माध्यम स्थूल को ही पकड़ पाता है। यह प्रकृति की व्यवस्था है। बहुत ही अच्छी व्यवस्था है। यदि आंखों में सूक्ष्म को देखने की क्षमता आ जाती तो आंखों के सामने इतने रूप आ जाते कि उनकी भीड़ हो जाती, आंखें कुछ कर ही नहीं पातीं। अच्छा हुआ कि हम एक निश्चित आवृत्ति (फ्रीक्वेन्सी) को ही देखते हैं और सुनते हैं। यह मर्यादा बहुत अच्छी है। सूक्ष्म जगत् न इन्द्रियों से दिखाई देता है, न चिन्तन से उपलब्ध होता है और न बुद्धि के द्वारा गृहीत होता है। उसको ज्ञात करने का एकमात्र उपाय यह है कि सबके दरवाजे बन्द कर देना। न इन्द्रियों के दरवाजे खुले रहें, न चिन्तन के और न बुद्धि के। सब बन्द कर देने होते हैं। सब खिड़कियों को बन्द कर देने पर ही वह सूक्ष्म जगत् दिखाई दे सकता है, अन्यथा नहीं। इन सबको बन्द कर देने पर भीतर की यात्रा शुरू होती है और तब पता चलता है कि भीतर भी बहुत कुछ है। जिन लोगों ने भीतर में पहुंचकर इन प्रश्नों का समाधान दिया, सचमुच वह समाधान बहुत ही महत्त्वपूर्ण समाधान है। ___व्यक्ति संकल्प करता है कि वह बुरा न सोचे, बुरा न करे, परन्तु यह संकल्प टूट जाता है। ऐसा क्यों होता है? इसको समझने के लिए हमें पूरे व्यक्तित्व को जानना होगा, व्यक्तित्व की गहराई तक जाना होगा। गहराई में उतरने पर हमें ज्ञात होगा कि हमारे भीतर दो महासागर लहरा रहे हैं। एक महासागर है संक्लेश का और दूसरा महासागर है असंक्लेश का। ये इतने विशाल हैं कि अन्यान्य महासागर इनके समक्ष छोटे पड़ते हैं। ये महासागर निरंतर स्पंदित हैं। उनका अजस्र प्रवाह बाहर आ रहा है। एक समुद्र से संक्लेश का प्रवाह बाहर आ रहा है और दूसरे समुद्र से असंक्लेश का प्रवाह बाहर आ रहा है। दोनों प्रवाह बाहर आते हैं। जब संक्लेश का प्रवाह बाहर आता है तब बुरा न चाहने पर व्यक्तित्व के बदलते रूप ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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