Book Title: Abhamandal Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 15
________________ भी बदलता है और बाहर का भी बदलता है। भीतर और बाहर-दोना आंदोलित हो उठते हैं, तरंगित हो उठते हैं। चारों ओर तरंगें ही तरंगें, लहरें ही लहरें, कंपन ही कंपन। कोई आदमी नहीं चाहता कि वह बुरा आचरण करे, कोई नहीं चाहता कि उसमें बुरे भाव आएं। बुरा चिन्तन, बुरा भाव और बुरा कर्म कोई नहीं चाहता। किन्तु नहीं चाहने पर भी बुरा चिन्तन आता है, बुरा भाव आता है और बुरा कार्य भी होता है। ऐसा क्यों होता है-यह एक प्रश्न है। कोई आदमी बुरा करना चाहे और वह बुरा करे तो यह स्वाभाविक बात हो सकती है। तब कहा जा सकता है कि उसने जैसा चाहा वैसा किया। किन्तु बुरा करना न चाहने पर भी यदि बुरा होता है, तब यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हुआ? यह बहुत बड़ा प्रश्न है। आदमी अच्छा भी करता है और बुरा भी करता है। कभी अच्छा करता है-अच्छा चिन्तन, अच्छा भाव और अच्छा कार्य। कभी बुरा करता है-बुरा चिन्तन, बुरा भाव और बुरा कार्य। यह द्वन्द्व चलता है। एक ही व्यक्तित्व में ये विरोधी बातें चलती हैं। एक ही व्यक्तित्व कभी अच्छा और कभी बुरा होता है। ऐसा क्यों होता है-यह प्रश्न हजारों ने नहीं करोड़ों व्यक्तियों ने पूछा है और अपने-आप से भी यह प्रश्न पूछा गया है। हमारा मन बार-बार क्यों बदलता है? भाव क्यों बदलते हैं? विचार क्यों बदलते हैं? मनुष्य ने इन प्रश्नों का समाधान पाने का प्रयल भी किया। मनोविज्ञान ने भी इसका समाधान प्रस्तुत किया। पर वह भी संतोषजनक नहीं है, पूरा समाधान नहीं है। मनोविज्ञान का उत्तर पूरा इसलिए नहीं है कि वह पूरी मंजिल तय नहीं कर पाया। उसने जहां तक पहुंचकर उत्तर दिया वह ठीक है, पर पहुंचने के लिए और आगे भी बहुत अवकाश है। व्यक्तित्व को जानने के तीन साधन हैं-इन्द्रियां, मन और चित्त या बुद्धि। हम इन्द्रियों से काम लेते हैं, मन और बुद्धि से काम लेते हैं। इनके अलावा हमारे पास और कोई साधन नहीं है। इन्द्रियों को हम जानते हैं, मन का पता भी चल जाता है, बुद्धि का पता भी चलता है, किन्तु इनके आगे हमारी पहुंच नहीं होती। व्यक्तित्व के बदलते रूप ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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