Book Title: Abhamandal
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 14
________________ १. विपाक विचय करें, जिससे पुनर्बन्ध न हो, संक्लेश को पोषण न मिले। २. विपाक-जनित आवेगों से मुक्ति। देखा था, उसे रात में न मनुष्य अनेक चित्तवाला है। चित्त एक नहीं, अनेक होते हैं। चित्त अनेक होते हैं इसीलिए व्यक्तित्व नाना रूपी होता है। व्यक्ति के कितने रूप हैं, पहचाना नहीं जा सकता। जिस व्यक्ति को प्रातःकाल देखा था, उस व्यक्ति को मध्याह्न में पहचाना नहीं जा सकता और जिसको मध्याह्न में देखा था, उसे सांझ में नहीं पहचाना जा सकता। जिसको सांझ में देखा था, उसे रात में नहीं पहचाना जा सकता। इतना बदलता हुआ व्यक्तित्व इतने बदलते हुए रूप! यह अनुमान करना कठिन होता है कि जिस व्यक्ति को प्रातःकाल देखा था, सायं वही व्यक्ति है या दूसरा। बड़ी कठिनाई होती है समझने में। जिस व्यक्ति को प्रातःकाल में बहुत शान्त, शालीन और गंभीर देखा, उसी व्यक्ति को मध्याह्न में धूप की भांति तेज देखते हैं, क्रोध की आग में जलते देखते हैं, तब यह अनुमान भी नहीं होता कि यह वही व्यक्ति है जिसको प्रातः शांत और शालीन देखा था। प्रातःकाल जिस समुद्र को शांत देखा था, ज्वार के समय उसे देखा तो लगा कि तरंगें उछल रही हैं, सारा समुद्र हलचल से भरा है, अशान्त है, तब यह अनुमान करना कठिन हो गया कि क्या यह वही समुद्र है जिसे प्रातःकाल देखा था? ज्वार के समय समुद्र मिट जाता है, वह लहरमय बन जाता है, कोरी लहरें ही लहरें। सारा लहरों का जाल-सा बिछ जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति के भावों और आवेगों का रूप जब ज्वार बनता है तब व्यक्ति को पहचान पाना कठिन हो जाता है। इसीलिए यह कहना पड़ा-'अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे' -यह पुरुष अनेक चित्त वाला है। उसका चित्त एक नहीं है, अनेक है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है, जो एक चित्तवाला हो। चित्त बदलता रहता है-देश के साथ, काल के साथ और परिस्थितियों के साथ। वह इतने रूप धारण करता है कि दुनिया में बहुरूपिये भी इतने रूप धारण नहीं करते। जब चित्त बदलता है तब आसपास का सब कुछ बदल जाता है, भीतर का ४ आभामंडल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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