Book Title: Aagam 05 BHAGVATI Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(०५)
"भगवती”- अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [७९७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [०५], अंग सूत्र - [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
[७९७]
व्याख्या
विशुद्ध चमानलक्षणसूक्ष्मसम्परायद्वयभावाचतस्रः प्रतिपत्तयः सूक्ष्मसम्परायसंयतत्वे भवन्ति, 'अहक्खाए' इत्यादी 'उको-IP२५ शतके प्रज्ञप्तिः 5 सेणं दोन्नित्ति उपशमश्रेणीद्वयसम्भवादिति । नानाभवग्रहणाकाधिकारे 'छेओवट्ठावणीयस्से'त्यादी 'उकोसेणं उवरि
उद्देशा अभयदेवी- नवण्हं सयाणं अंतोसहस्स'त्ति, कथं ?, किलैकत्र भवग्रहणे पइविंशतय आकर्षाणां भवन्ति, ताश्चाष्टाभिर्भवैर्गुणिता आकार या वृत्तिः२
नव शतानि षष्ट्यधिकानि भवन्ति, इदं च सम्भवमात्रमाश्रित्य सङ्ख्याविशेषप्रदर्शनमतोऽन्यथाऽपि यथा नव शतान्यधि- सू७९७ ॥९१६॥
कानि भवन्ति तथा कार्य, 'परिहारविसुद्धियस्से'त्यादौ 'उकोसेणं सत्त'त्ति, कथम् , एकत्र भवे तेषां त्रयाणामुक्तस्वात् भवत्रयस्य च तस्याभिधानादेकत्र भवे त्रयं द्वितीये द्वयं तृतीये द्वयमित्यादिविकल्पतः सप्ताकर्षाः परिहारविशुद्धिकस्येति, 'सुहमसंपरायस्से'त्यादी 'उकोसेणं नव'त्ति, कथं ?, सूक्ष्मसम्परायस्यैकत्र भवे आकर्षचतुष्कस्योक्तत्वाद्भवत्रयस्य च तस्याभिधानादेकत्र चत्वारो द्वितीयेऽपि चत्वारस्तृतीये चैक इत्येवं नवेति । 'अहक्खाए' इत्यादी 'उक्कोसणं पंच'त्ति, कथं !, यथाख्यातसंयतस्यैकत्र भवे द्वावाको द्वितीये च द्वावेकत्र चैक इत्येवं पञ्चेति ॥ कालद्वारे। सामाझ्यसंजए णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं देसूणएहिं नवर्हि वासेहिं ऊणिया पुचकोडी, एवं छेदोवट्ठावणिएवि, परिहारचिसुद्धिए जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं देसूणरहि एकूणतीसाए वासेहिं ऊणिया पुषकोडी, मुहमसंपराए जहा नियंठे, अहक्खाए जहा सामाइयसंजए।
8॥९१६॥ सामाइयसंजया णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ, गोयमा! सबद्धा, छेदोवडावणिएसु पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अहाहनाई वाससयाई उक्को. पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्साइं, परिहारविसुद्धीए पुच्छा,
दीप
अनुक्रम [९५२]
ACOCCASE
SARERatininemarana
संयत, तस्य स्वरुपम्, सामायिकसंयत आदि पञ्च-भेदा:, संयतस्य विविध-वक्तव्यता
~1836~
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