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-The TFIC Team.
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भएर सर्वसाधारण में जैन धर्म के सम्बन्ध में और विशेष कर श्वेताम्बर साधुमार्गी स्थानकवासी जैनियो के लामें गलत फहमी और मिथ्या विचार फैले हुए मालूम पड़ते है। म पुस्तक में जैन धर्म की तीन मुख्य शाखाओं के इतिहास पर हर तरह का पूरा प्रकाश डालने की चेष्टा की है। विश्वास पैदा कराने वाली दलीलो द्वारा मैने यह सिद्ध विगा कि स्थानकवासी जैन ही शुद्ध और मूल जैन धर्म के मोर मालिगा अनुयायी हैं। और दिगर मर और श्वेताम्बर यूनियन, मौलिक जैन धर्म की विकृत शाखाये हैं।
5 में बिलकुल विप्पा भाव से मैंने इस विषय की च , फिर भी संभव है कि ऐमा करते हुए अदनान नयी बातें कही गयी हों, जो दूसरे संप्रदाया की भावना को तुभाने वाली हों, यदि ऐसा हुआ है तो वह विवल का है क्यों कि विषय निरूपण में उनका
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२
उल्लेख अनिवार्य था । अनएव यह आवश्यक है कि पाठकगण उन बातों को उसी भाव में ग्रहण करे जिनसे प्रेरित होकर वे लिखी गई है ।
इस पुस्तक में मैंने संतोषजनक प्रमाणों द्वारा यह भी सिद्ध किया है कि जैन धर्म बहुत ही प्राचीन धर्म है, और तथाकथित प्राचीनतम वैदिक धर्म से भी पुराना है । बहुतेरे सज्जन मेरे इस चौंकाने वाले कथन को बड़ी हिचकिचाहट के साथ स्वीकार करेंगे, क्यों कि अब तक इस संबंध में वे कुछ और ही मानते आये हैं, फिर भी अपनी इस स्थापना के समर्थन में मैंने जो प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे इतने अधिक और जोरदार हैं कि वे अपने आप ही पाठकों को मेरे इस कथन को बुद्धि पूर्वक मान लेने के लिये विवश कर देंगे !
इस पुस्तक को निष्पक्ष भाव से पढने पर यदि पाठकों के दिल से आम तौर पर जैन धर्म और विशेषकर स्थानक वासियों के सम्बन्ध के समस्त मिथ्या विचार दूर हो सकें तो मैं अपने को कृतकृत्य समझँगा ।
मेरे विद्वान् और माननीय मित्र श्री के, बी, बिडवई, बी. ए. ने इस पुस्तक में जैसी दिलचस्पी ली है और मुझे जिस प्रकार प्रोत्साहित किया है, उसके लिए मैं उनका जितना ऋणी होऊं, उतना कम है । पुस्तक की हस्तलिपि को पढ कर उन्होंने कई उपयोगी सूचनायें दी हैं, हस्तलिपि में
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आवश्यक संशोधन किये हैं और प्रूफ-संशोधन में भी बड़ा परिश्रम उठाया है। उनकी इस अपूर्व सहायता के लिए मैं हृदय से उनका आभारी हूं।
इस पुस्तक के लिखने और छपाने में मुझे कई असुविधाओं का सामना करना पड़ा है। आशा है मेरे सूझ पाठक पुस्तक की त्रुटियों के लिए मुझे क्षमा करेंगे।
--अन्वेशक,
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उल्लेख अनिवार्य था । अतएव यह आवश्यक है कि पाठकगण उन बातों को उसी भाव में ग्रहण करें जिनसे प्रेरित होकर वे लिखी गई हैं ।
इस पुस्तक में मैंने संतोषजनक प्रमाणों द्वारा यह भी सिद्ध किया है कि जैन धर्म बहुत ही प्राचीन धर्म है, और तथाकथित प्राचीनतम वैदिक धर्म से भी पुराना है । बहुतेर सज्जन मेरे इस चौंकाने वाले कथन को बड़ी हिचकिचाहट के साथ स्वीकार करेंगे, क्यों कि अब तक इस संबंध में वे कुछ और ही मानते आये हैं, फिर भी अपनी इस स्थापना के समर्थन में मैंने जो प्रमाण उपस्थित किये हैं, वे इतने अधिक और जोरदार हैं कि वे अपने आप ही पाठकों को मेरे इस कथन को बुद्धि पूर्वक मान लेने के लिये विवश कर देंगे ।
इस पुस्तक को निष्पक्ष भाव से पढने पर यदि पाठकों के दिल से आम तौर पर जैन धर्म और विशेषकर स्थानक - वासियों के सम्बन्ध के समस्त मिथ्या विचार दूर हो सकें तो मैं अपने को कृतकृत्य समझँगा ।
मेरे विद्वान् और माननीय मित्र श्री के. बी. बिडवई, बी. ए. ने इस पुस्तक में जैसी दिलचस्पी ली है और मुझे जिस प्रकार प्रोत्साहित किया है, उसके लिए मैं उनका जितना ऋणी होऊं, उतना कम है । पुस्तक की हस्तलिपि को पढ़ कर उन्होंने कई उपयोगी सूचनायें दी हैं, हस्तलिपि में
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आवश्यक संशोधन किये हैं और प्रूफ-संशोधन में भी बड़ा परिश्रम उठाया है। उनकी इस अपूर्व सहायता के लिए मैं हृदय से उनका आभारी हूं।
इस पुस्तक के लिखने और छपाने में मुझे कई असुविधाओं का सामना करना पड़ा है। आशा है मेरे सूज्ञ पाठक पुस्तक की त्रुटियों के लिए मुझे क्षमा करेंगे।
-अन्वेशक.
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स्थानकवासी जैन इतिहास.
जैन धर्म के आदि प्रचारक क्षत्रिय हैं.
क्षत्रियों ने अपनी शूरवीरता के कारण संसार के इतिहासों में बडा नाम पाया है परंतु उन्होंने एक महान् धर्म का, जो हम को आत्मा पर विजय पाना सिखलाता है, प्रचारक बन कर इस से भी अधिक यश प्राप्त किया है, क्योंकि प्रबल शत्रुओं की सेना को जीतने की अपेक्षा आत्मा पर विजय प्राप्त करना कहीं अधिक कठिन है । ___इसी सुप्रसिद्ध श्रेष्ठ और यशस्वी क्षत्रिय जाति ने श्री ऋषभदेव से लेकर श्री महावीर तक चौवीस जैन तीर्थकरों को जन्म दिया है । इन महात्माओं ने इस असार संसार के क्षणिक सुख और संपत्ति पर लात मारकर साधुओ का अत्यंत सरल और संयमशील जीवन पसंद किया और संसार में “ अहिंसा परमो धर्मः " नामके सर्वोत्कृष्ट सिद्धांत का प्रचार किया।
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( २ )
इन वीरो ने शिकार, बलिदान अथवा अन्य किसी भी कार्य के लिये किसी जीवधारी की जान लेने का कड़ा प्रतिरोध करके बेचारे गूंगे जीवनधारी पशुओ की रक्षा की और सर्वत्र सुख-शान्ति व समृद्धी प्रस्थापित कर दी ।
आत्म-त्याग, उदारता, सत्य-प्रेम और ऐसे ही अनेक सद्गुणों के लिए, जो कि मनुष्य को वास्तव में श्रेष्ठ बना देते हैं, क्षत्रिय लोग अति प्राचीन काल से प्रसिद्ध चले आते हैं । युद्ध के संकटमय समय में भी उन्होंने सञ्चरित्रता, धीरता, आत्म-निरोध और कर्तव्य परायणता के ऐसे प्रमाण दिये हैं कि जिससे उनकी संतान उनके शुभ नामों का स्मरण बड़े ही सन्मान और आदर के साथ करती है ।
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इन्हीं नर-रत्नों ने जिनमें असली श्रेष्टता और महानता ठूंस ठूंस कर भरी थी; जैन तीर्थकरों जैसी पवित्र आत्माओं को जन्म दिया । इन तीर्थकरों ने असंख्य जीवों की जानें बचाई और एक ऐसे महान् धर्म का प्रचार किया कि जिसका यशोगान बेजबान जानवर भी अपनी मौन भाषा में निरंतर गाते रहते हैं ।
जैन धर्म के विषय में भ्रम.
जिस धर्म का प्रचार ऐसे कर्मवीर योगियों ने किया है, जिस धर्म में परमोत्तम सिद्धान्त भरे पड़े हैं, जिस धर्म ने
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(३) मानव जाति का अमित कल्याण किया है, जिस धर्म में ऐसी महत्वपूर्ण बाते मौजूद है कि जिनके सामने आज कल की आश्चर्यजनक वैज्ञानिक खोज बच्चों की तोतली बोली के समान मालूम होती है, और जो धर्म अनादि काल से चला आता है, खेद है कि उसी के विषय में यूरोपीय और अन्य विद्वानों ने बड़ी बड़ी भूलें की हैं। इसका कारण यही है कि जैन धर्म के अनुयायियों ने अपने धर्म के विषय में बड़ी ही उपेक्षा की।
कुछ विद्वानों ने जैन धर्म पर नास्तित मत होने का दोष लगाया है, कुछ लोगों ने उस को बौद्ध धर्म की शाखा माना है, कुछ लोगों ने उस पर दर्शन-शास्त्र रहित होने का इलजाम लगाया है, कुछ लोगोंने यह भी कह डाला है कि जैन धर्म की उत्पत्ति शङ्कराचार्य के बाद हुई है और कुछ लोगो ने तो यहां तक कहने का साहस किया है कि श्री पार्श्वनाथ और श्री महावीर कल्पित पुरुष हैं और जैन धर्म के असली जन्मदाता गौतमबुद्ध हैं।
इस प्रकार पाश्चिमात्य विद्वानों को ही नहीं किन्तु पौरात्य विद्वानों को भी हमारी प्राचीनता, हमारे सिद्धान्त
और हमारे दर्शनशास्त्र के विषय में बडा भ्रम हुआ है। यह बड़े खेद की बात है कि विद्वान् जैनों ने, जिनको जैन समाज का आभूषण कहना चाहिए, बहुत समय तक इस
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अपमान को सहा और इन विद्वानों की भूलों को सुधारने का कमी प्रयत्न ही न किया।
लेथब्रिज, एलफिस्टन, वेबर, वार्थ आदि विद्वानों ने जैन धर्म की उत्पत्ति बौद्ध धर्म से मानी है। इससे यही व्यक्त होता है कि उनको जैन, हिन्दू और बौद्ध शास्त्रों का ज्ञान बिलकुल न था। इसी प्रकार जो विद्वान् जैन धर्म को विशेष प्राचीन हिन्दू धर्म की शाखा मानते हैं वे भी हिन्दू और जैन शामों सम्बन्धी अपनी अज्ञानता बतलाते हैं ।
इस भ्रम के कारण. ___ आर्य भापाओं का ज्ञान रखने वाले कुछ विद्वानों ने जैन धर्म को बौद्ध धर्म की शाखा केवल इसलिए मान लिया कि इन दोनों धर्मों के कुछ सिद्धान्त आपस में मिलते हैं परन्तु अब बौद्ध शास्त्रों में ही ऐसे प्रमाण मिले हैं जिनने इन विद्वानों के बेबुनियाद मत को असत्य सिद्ध कर दिया है। इसी प्रकार सिद्धान्तों की एकता ही के कारण कुछ विद्वानों ने जैन धर्म को हिन्दू धर्म की शाखा मानी है ।
इन सब विद्वानों ने इस विपय मे निःसंदेह बड़ी भारी भूल की है । उन्होने न तो अपने भ्रमपूर्ण विचारों के समर्थन के लिए कभी कोई संतोपजनक प्रमाण दिये और न यह बतलाया कि हिन्दू धर्म अथवा बौद्ध धर्म से जैन धर्म की
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( ५ )
उत्पत्ति क्यों कब और कैसे हुई। मालूम होता है कि इन विद्वानोंने जैन, हिन्दू और बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का कभी गहरा अध्ययन ही नहीं किया । उन्होंने इन धर्मों के विषय मे केवल ऊपरी ज्ञान प्राप्त करके अपनी अपनी राय कायम करली। उन्होंने अपने तर्क की भित्ति अशुद्ध पुर्वावयवों पर खड़ी की और इस लिये वे अशुद्ध नतीजे पर पहुंचे ।
जर्मनी के प्रोफेसर हरमन जेकोवी नामक प्रौढ पंडित ने जैन और बौद्ध धर्मों के सिद्धान्तों की समानता की बहुत छानवीन की है और इस विषय की बहुत विस्तार के साथ आलोचना की है। प्रो. हरमन जेकोवी ने अकाट्य प्रमाणों के द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि जैन धर्म की उप्तत्ति न तो महावीर के समय में ( ५२७ - ४५५ ईसा से पुर्व ) और न पार्श्वनाथ के समय में ( ८७७-७७७ ईसा से पूर्व ) हुई किन्तु इससे भी बहुत पहले भारतवर्ष के अति प्राचीन काल में यह अपनी हस्ति होने का दावा रखता है ।
जैन धर्म की प्राचीनता.
जैन धर्म की प्राचीनता के विषय मे अब हम संक्षेप में विचार करेंगे ।
५. महावीर का निर्वाण कब हुवा इस विषय मे मतभेद है । कुछ लोग ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व और कुछ लोग ४६७ वर्ष पूर्व महावीर का निर्वाण समय मानते हैं ।
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जैन धर्म की उत्पत्ति शंकराचार्य के
बाद नहीं हुई। हम नीचे चलकर कई प्रमाण इस बात के देते हैं कि जैन धर्म की उत्पत्ति शंकराचार्य के बाद नहीं हुई।
(१) माधव और आनन्दगिरी ने अपने शंकरदिग्विजय नामक ग्रंथ मे और सदानंद ने अपने शंकरविजयसार नामक ग्रंथ में लिखा है कि शंकराचार्य ने कई स्थानों पर जैन पण्डितों के साथ शास्त्रार्थ किया था।
यदि जैन धर्म की उत्पत्ति शंकराचार्य के पीछे हुई होती ___ तो, यह बात कदापि संभव न होती।
(२) शंकराचार्य ने स्वयं स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जैन धर्म बहुत प्राचीन धर्म है, क्योंकि उन्होंने वेदव्यास के वेदान्त सूत्रों पर जो भाष्य रचा है उसके द्वितीय अध्याय के द्वितीय पद के ३३ से ३६ तक के सूत्र जैन धर्म के विषय
इन अकाट्य प्रमाणों के रहते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि जैन धर्म की उत्पत्ति शंकराचार्य के समय में अथवा उनके बाद हुई।
जैन धर्म बौद्ध धर्म की शाखा नहीं है।
इसी प्रकार जैन धर्म, बौद्ध धर्म की शाखा नहीं है, किन्तु उससे प्राचीन है। बौद्धो के धर्मशास्त्रों में जैनों का
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(७) और उनके सिद्धान्तो का जो उल्लेख पाया जाता है उस पर से प्रोफेसर जेकोबी ने उसका हवाला जैन सूत्रों की भूमिका में कई स्थानों पर देकर बडी योग्यता से सिद्ध कर दिया है कि जैन धर्म, बौद्ध धर्म से प्राचीन है। प्रोफेसर जेकोवी की दलीलों का सारांश इस प्रकार है:
(१) अनुगुत्तर निकाय के तृतीय अध्याय के ७४ वें श्लोक में वैशाली के एक विद्वान् राजकुमार अभय ने निग्रंथों अथवा जैनों के कर्म सिद्धान्त का वर्णन किया है ।
(२) महावग्ग के छठे अध्याय में लिखा है कि सीह नामक श्रावक ने जो कि महावीर का शिष्य था वुद्धदेव के साथ भेंट की थी।
(३) मग्घिम निकाय में लिखा है कि महावीर के उपाली नामक श्रावक ने बुद्धदेव के साथ शास्त्रार्थ किया था।
(४) अनुगुत्तर निकाय में जैन श्रावकों का उल्लख पाया जाता है और उनके धार्मिक आचार का भी विस्तृत वर्णन मिलता है।
(५) समन्नफल सुत्त में बौद्धों ने एक भूल की है। उन्होंने लिखा है कि महावीर ने जैन धर्म के चार * महाव्रतों
यह उल्लेख जैन साधुयोको सास व्रत ग्रहण करने के संबंध का है। पार्श्वनाथ के समय मे जैन साधुओं को (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, और (४) अपरिग्रह नामक केवल चार व्रत लेने पड़ते थे। पार्श्वनाय के चार व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रत और जोड दिया और इमप्रकार कुल मिलाकर पाच व्रत होगये । महावार से पहले ब्रह्मचर्य व्रत, चोथे अपरिग्रह व्रत में ही गर्मित था।
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का प्रतिपादन किया; किन्तु ये चार महाव्रत महावीर से २५० वर्ष पूर्व पार्श्वनाथ के समय में माने जाते थे । यह भूल बडेही महत्व की है क्यों कि उससे जैनों के उत्तराध्ययन सूत्र के तेईसवें अध्याय की यह यात सत्य सिद्ध होजाती है कि तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अनुयायी महावीर के समय में मोजूद थे।
(६) चौद्धों ने अपने सूत्रों में कई स्थानों पर जैनों को अपना प्रतिस्पर्धी माना है, किन्तु कहीं भी जैन धर्म को बौद्ध धर्म की शाखा, अथवा नव संस्थापित धर्म नहीं लिखा।
(७) मख्खलीपुत्र गोशाला महावीर का शिष्य था, परन्तु बाद में वह पाखण्डी-धर्मद्रोही हो गया । इसी. गोशाला और उसके सिद्धान्तों का बौद्ध धर्म के सूत्रों में कई स्थानों पर उल्लेख पाया जाता है।
(८) बौद्धों ने महावीर के शिष्य सुधर्माचार्य के गोत्र का और महावीर के निर्वाण स्थान का भी उल्लेख किया है ।
. प्रोफेसर जेकोबी ने जैन धर्म की प्राचीनता के जो प्रमाण दिये हैं उनमें से केवल थोडेसे प्रमाणो का ही उल्लेख ऊपर किया गया है। इनसे निस्सन्देह सिद्ध होजाता है कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की शाखा नहीं है, किन्तु उससे प्राचीन है ।
अब हम यह दिखलायेगे कि हिन्दुओ के शास्त्र उपरोक्त कथन का कहां तक समर्थन करते हैं। हिन्दू शास्त्रों में जैन
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3-८-१८७१ जन्म
अन्वेषक-श्री० केसरीचन्दजी भंडारी.
..... . .... ...
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धर्म को बौद्ध धर्म की शाखा होना कहीं नहीं बतलाया। इन शास्त्रों में सब कहीं इन दोनो धर्मों को पृथक २ और एक
दूसरे से सर्वथा स्वतंत्र बतलाया गया है। इस बात के अनेक ___ उदाहरण इन शास्त्रों में से दिये जासकते हैं, परन्तु यह स्पष्ट है
कि ये उदाहरण उतने महत्वपूर्ण नहीं है जितने कि बौद्ध शास्त्रों के उदाहरण, जो हम ऊपर देचुके हैं। इसलिये अब हम हिन्दू शास्त्रों के उदाहरणो का उल्लेख यहां नहीं करते ।
__ यदि अब हम जैन शास्त्रों की ओर दृष्टि डालें और यह मालूम करें कि उनमें बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के विषय में क्या लिखा है, तो कुछ अप्रासंगिक न होगा।
बौद्ध धर्म का संस्थापक एक जैन साधु था।
दर्शनसार में, जिसे देवनंद आचार्य ने विक्रम संवत् ___ ९९० ( ईसवी सन् ९३३ ) मे उज्जैन ( मालवा ) में रचा
था, लिखा है कि पिहिताश्रव नामक जैन साधु के एक विद्वान् शिष्य ने जिसका नाम बुद्धकीर्ति था, बौद्ध धर्म की स्थापना की थी । जिस समय बुद्धकीर्ति पलाश नगर में सरयू नदी के किनारे पर तपस्या कर रहा था उस समय उसने एक मरी हुई मछली को पानी पर तैरते हुए देखा । उसने अपने मन में विचार किया कि इस मछली के खाने में हिंसा नहीं लग सकती, क्यों कि वह तो जीव रहित है। उसने तत्काल ही
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(१०) तपस्या को छोड दी और आगे, अपने आप में और जैन साधुओ में भेद करने के हेतु उसने गेरूआ-भगवे वस्त्र धारण कर लिए और एक नये धर्म का प्रचार किया जो उसके नाम पर बौद्ध धर्म कहलाया। एक जैन पद्यावली के अनुसार पिहिताश्रव, जो पार्श्वनाथ के तीर्थ का अनुयायी था, महावीर के समय में विद्यमान था । बुद्धकिति पिहिताश्रव का शिष्य था, इस लिए वह महावीर का समकालीन रहा होगा। इस से यह पता लगता है कि बौद्ध धर्म का मूल संस्थापक एक जैन साधु था । इस बात को पुष्ट करने वाले अन्य प्रमाण नही मिलते, इस लिए संभव है कि कुछ विद्वान् इस कथा की सत्यता पर सन्देह करे, परन्तु इस से हमारे ऊपर के परिणाम को कुछ भी बाधा नही आती ।
जैन धर्म हिन्दू धर्म से प्राचीन है।
कुछ विद्वानों का मत है कि जैनधर्म हिन्दूधर्म की शाखा है और उसके आदि प्रवर्तक पार्श्वनाथ ( ८७७-७७७ ईसा से पूर्व ) हैं । यह कल्पना भी वैसी ही निर्मूल है । मिध्दान्तों की समानता के कारण जिस प्रकार लैमेन, बार्थ, वेबर इत्यादी विद्वानोंने जैन धर्म को बौद्ध धर्म की शाखा मान लिया था उसी प्रकार भूलर और जेकोबी की भी मान्यता है कि जैन धर्म हिन्दू धर्म की शाखा है; किन्तु केवल सिद्धान्तो
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(११) की समानता उनके मतको सिद्ध नहीं कर सकती, क्यों कि जैन धर्म के तत्व हिन्दू धर्म के तत्वों से कई आवश्यक बातों में भिन्न हैं। उन्होंने भूल से जैन और हिन्दू सिद्धान्तों को समान मान लिया है, इसलिए मालूम होता है कि उन्होंने इन दोनों धर्मों का अध्ययन सरसरी तोर पर किया है व उनका केवल ऊपरी ज्ञान प्राप्त किया है । असली बात तो यह है कि जैन धर्म हिन्दू धर्म से भी बहुत प्राचीन है । इस बात के हम कई प्रमाण देते हैं। जैन धर्म का अस्तित्व रामचन्द्रजी के समय में था।
१ हिन्दु पुराणों में योगवासिष्ठ और हिन्दूओं के __ बहुत से अन्य ग्रंथों में जैन धर्म का उल्लेख कई स्थानों पर
पाया जाता है।
महाभारत के आदि पर्व के तृतीय अध्याय में २३ और २६ वें श्लोक में एक जैन मुनि का हवाला दिया है। शान्ति पर्व ( मोक्षधर्म अध्याय २३९ श्लोक ६ ) में जैनों के सुप्रसिद्ध सप्तभंगी नय का वर्णन है।
रामायण में भी जैन मुनियों का उल्लेख पाया जाता है। कहा जाता है कि महाभारत ईसा से ३००० वर्ष पहले हुवा था और रामचन्द्रजी महाभारत से १००० वर्ष पहले विद्यमान थे । इसलिए यह कहा जा सकता है कि जैन धर्म,
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(१२)
यदि अधिक प्राचीन न हो तो कम से कम रामचन्द्रजी के समय से पूर्व का अवश्य है।
जैन धर्म पाणिनी से बहुत पहले का है।
२ सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी में शाक्टायन का कई स्थानों पर हवाला दिया है। शाक्टायन एक जैन वैयाकरण थे जो पाणिनी के पहले हो चुके हैं। शाक्टायन का नाम ऋग्वेद के प्रति-आख्यों में, यजुर्वेद मे
और यास्क के निरुक्त मे आया है। कुछ विद्वानो का मत है कि पाणिनी ईसा से ८०० वर्ष पहले विद्यमान थे और कुछ विद्वान् , पाणिनी का समय ईसा से २००० वर्ष पहले मानते हैं । यास्क पाणिनी से कई शताब्दि पहले विद्यमान थे । रामचन्द्र घोषने अपने " Peep into the Vedic Age " नामक ग्रंथ में लिखा है कि यास्क कृत निरुक्त को हम बहुत ही प्राचीन समझते हैं । यह ग्रंथ वेदों को छोडकर संस्कृत के सब से प्राचीन साहित्य से संबंध रखता है ।
इस बात से यही सिद्ध होता है कि जैन धर्म का अस्तित्व यास्क के समय से भी बहुत पहले था।
३ कई ब्राह्मणों मे भी जैन धर्म का उल्लेख पाया जाता है। उदाहरणार्थ एतरेय ब्राह्मण में लिखा है कि कुछ यतियो को गीदडों के आगे फेक दिया गया था और इस प्रकार उनके साथ में कुत्सित व्यवहार किया गया था।
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(१३)'. ४ डॉक्टर राजेंद्रलाल मित्र ने योग सूत्रों की भूमिका में लिखा है कि सामवेद में एक ऐसे यति का वर्णन है कि जो बलिदान को निंद्य ममझता था।
“ ॐ पवित्रं नग्नमुपवि [ई ] प्रसामहे येषां नग्न [ नग्नये ] जातिर्थेषां वीरा ॥"
६ इसके सिवाय इसी वेद में जैनों के प्रथम और बाइसवें तीर्थंकर ऋषभदेव और अरिष्टनेमि का नाम आया है।
( के ) "ॐ नमोऽहन्तो ऋषभो ॐ ऋषभं पवित्रं पुरुहूतमध्वरं यज्ञेषु नग्नं परमं माहस स्तुतं वारं शत्रुजयं तं पशुरिंद्रमाहुरिति स्वाहा ॥” अध्याय २५, मंत्र १९ । ( ख ) ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनमि स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थमुपविधीयते सोऽस्माकं
अरिष्टनेमि स्वाहाः ॥” ७ ऋग्वेद सबसे प्राचीन वेद है । इसके अष्टक १, अध्याय ६, वर्ग १६ में २२ वे तीर्थकर अरिष्टनेमि का नाम आया है।
"ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तायो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो ब्रहस्पतिर्दधातु ।”
८ वेदव्यास के अध्याय २, पद २, सूत्र ३३ से ३६ मे जैनों के स्याद्वाद न्याय का उल्लेख पाया जाता है । इसमे
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(१४) प्रख्यात सप्तभंगी नय पर, जो कि जैन धर्म की विशेषता है, आक्षेप किया है। वे सूत्र इस प्रकार हैं:( ३३ ) नैकस्मिन्नसंभवात्-" एक ही वस्तु में
एक ही समय परस्पर विरोध गुण होना असम्भव है इसलिये यह सिद्धान्त नहीं माना जा सकता” यहां पर स्यात् आस्त और स्यात् नास्ति इत्यादि जैन सिद्धान्त के ऊपर
आक्षेप किया गया है। (३४) एवंचमाकान्यम्-" और इसी
प्रकार ( जैन तत्व के अनुसार यह सिद्धान्त निकलेगा कि ) आत्मा (जिन शरीरों में) रहती है ( उनके लिये ) वह उसी प्रमाण से बडी या छोटी है।
( ३५) न च पयार्यादप्यविरोधो
विकारादिभ्यः " यदि हम यह मानले कि आकार वारबार बदलता रहता है, तो भी परस्पर विरोध ( होने की कठिनाई ) दूर नहीं हो सकती " इसलिये यह मानना होगा, कि आत्मा में आवश्यकतानुसार फेरफार होता रहता है।
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(१५) (३६) अन्त्यावस्थिते श्चोभय नित्यत्वाद
विशषः-मान लिया जाय कि अंतिम आकार स्थायी होता है, ( तो भी यह सिद्धांत स्त्रीकृत नहीं होसकता, क्योंकि फिर उसी तर्क के अनुसार ( आत्मा और शरीर ) दोनों को
स्थायी मानना पडेगा। यहां पर यह याद रखना चाहिये कि उपरोक्त सूत्रों में जैनों के स्याद्वाद सिद्धान्त को विकृतरूप दिया गया है। ब्रह्मसूत्रों के टीकाकार शंकराचार्य इत्यादि ने उपरोक्त सिद्धान्त की आलोचना और उपहास करने में बडा अन्याय किया है। क्यों कि उन्होंने उस सिद्धांत के आशय को तोडमोड कर बदल दिया है।
हमने जो दलीलें ऊपर दी हैं उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि वैदिक काल में जैन धर्म का प्रचार न होता तो हमको ये उसके प्रमाण न मिलते। जैनों का स्याद्वाद न्याय, जो एक बहुत कठिन सिद्धान्त है, वेद व्यास के समय तक सागपूर्ण हो चुका होगा क्योंकि तभी तो वेदव्यास जैसे उद्भट विद्वान् का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुवा और इस सम्पूर्णता को प्राप्त करने में इससे पहले निःसन्देह कई शताब्दियां लग गई होंगी। ____अतएव यह निश्चित है कि स्याद्वाद न्याय, जो जैन धर्म का एक प्रधान अंग है, ब्रह्मसूत्रों के समय के पहिले मौजूद
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(१६) था । इस बात से और उन प्रमाणो से, जो कि जैन धर्म के विषय में वेदों में मिलते हैं, यह निश्वय पूर्वक सिद्ध हो जाता ..है कि वेद जो कि अति प्राचीन होने का दावा रखते हैं इन
से भी जैन धर्म वहुत पहिले ही उन्नत अवस्था में था। अतएव इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि वेदोने स्वयं जैन धर्म से कुछ बातें ग्रहण की हों। जैन धर्म संसार का सब से प्राचीन धर्म है ।
जनै धर्म संसार का सब से प्राचीन धर्म है, इस बात पर कई विद्वानों का विश्वास दिन प्रतिदिन दृढ होता जा रहा है। काशी निवासी स्वर्गीय स्वामी राममिश्र शास्त्री ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि जैन धर्म उतना ही प्राचीन है जितना कि यह संसार है । हम आगे चल कर यह दिखाते हैं कि उक्त पंडितजी के मत का समर्थन जैन और हिन्दुओं के धर्मशास्त्रों किस प्रकार से होता है । भगवान् ऋषभदेव मानव जाति के आदि गुरु थे।
जैन शास्त्रों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव स्वामी मानव जाति के प्रथम जैन धर्म गुरु थे और इस बात की पुष्टि ब्राह्मणों के कई ग्रन्थों से होती है। भागवत पुराण के स्कंध ५ अध्याय ३-६ में यह लिखा है कि सृष्टि के आदि में ब्रह्मने स्वयम्भू मनु और सत्यरूपा को उत्पन्न किया । ऋपभ
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(१७)
इन से पाचवीं पीढी में हुए, इन्हीं ऋषभदेव स्वामी ने जैन धर्म का प्रचार किया। वाचस्पत्य में ऋषभ को जिन देव । वतलाया है और शब्दार्थ चिन्तामणी में उनको आदि जिनदव कहा है। ____ यदि हम इससे यह अनुमान निकालें कि प्रथम जैन तीर्थंकर और जैन के संस्थापक ऋषभदेव, जिनको भागवत पुराण मे स्वयंभू-मनु से पाचवीं पीढी में बताया है, मानव जाति के आदि गुरु थे तो हमारा विश्वास है कि इस कथन में कुछ अत्युक्ति न होगी।
जैन धर्म अनादि है। किन्तु इस से यह न समझना चाहिये कि जैन धर्म का प्रचार ऋषभदेव के समय से ही हुआ है और उस से पहिले जैन धर्म का अस्तित्व ही न था क्यों कि जैन यह मानते हैं कि युगों का क्रम जिनको अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कहते हैं, अनादि काल से चला आता है वह अनंत काल तक रहेगा और प्रत्येक युग मे चौवीस तीर्थंकर जन्म लेते रहते हैं और जैन सिन्द्धान्तों का प्रचार करते हैं ।
अब हम को इस मान्यता पर कि वैदिक धर्म प्राचीन भारत का सब से पहिला धर्म है विचार करना चाहिये । सर्व साधारण को यह विश्वास है कि वैदिक धर्म सब धर्मों से
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(१८)
प्राचीन है परन्तु यह उनका भ्रम है । स्वयं वेदों में ही इसका संतोषजनक प्रमाण मिलता है कि वैदिक धर्म के पहिले और उसके साथ साथ, अन्य धर्मों का भी प्रचार था। यदि ऐसा न होता तो हमको वैदिक काल में ऐसे मनुष्यों के उल्लेख न मिलते कि जिनके सिद्धान्त वैदिक धर्म से विरुद्ध थे । इसके कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं।
(१) “ अग्नि पोमियं पशु हिंस्यात्" अर्थात् ऐसे पशुओं की हिंसा न करनी चाहिये जिनके देव अनि और सोम हैं।
(२) “ मा हन्यादु सर्व भूतानि" अर्थात् किसी जीवधारी की जान न लेनी चाहिये।
(३) ऋग्वेद के मंडल १, अष्टक २, वर्ग १०, अध्याय ५, सूक्त २३, ऋचा ८ में ऐसे मनुष्यों का वर्णन आया है कि जो सोमरस का निषेध करते थे।
(४) ऋग्वेद के मंडल ८, अध्याय १०, सूक्त ८९, ऋचा ३, मे भार्गव ऋषिने कहा है कि इन्द्र कोई वस्तुही नहीं है। चोथी ऋचा में इन्द्र ने अपने अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा की है और यह कहा है कि वो अपने शत्रुओं का नाश कर देता है।
(५) ऋग्वेद के अष्टक ३, अध्याय ३, वर्ग २१, ऋचा १४ में ऐसे मनुष्यों का उल्लेख है जो किक्त अथवा मगध मे रहते थे और यज्ञ दानादि की निन्दा करते थे।
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(१९) ___ हम अपने मत का समर्थन करने के लिये वेदों में से और भी अनेक उदाहरण दे सकते हैं । इन सबसे क्या सिद्ध होता है ? इससे निर्विवाद सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत मे, वैदिक धर्म का सबसे प्राचीन धर्म होने का दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता।
वेंदोंमे से जो प्रमाण उपर दिये गये हैं वही इस बातको सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि जैनधर्म अतीव प्राच न काल से चला आता है और जिस वैदिक धर्म को प्राचीन बतलाया जाता है उससे भी पहिले जैन धर्म अस्तित्व रखता था ।
जैन धर्म का अन्य धर्मों के साथ मुकाबला । ___यदि हम जैन धर्म के पूर्व इतिहास की तरफ देखते हैं तो मालूम होता है कि अन्य धर्मों की वैमनस्यता के कारण जैन धर्म को बडा साम्हना करना पड़ा था। कारण जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म था जो बडे साहस के साथ प्रत्येक जीव की हिंसा का प्रबल निषेध करता था। शेष सभी धर्म किसी न किसी रूप में हिंसा का विधान करते थे। इसके अतिरिक्त जैन धर्म अहिंसा के उत्कृष्ट और कल्याणकारी सिद्धान्त का उद्घोष करके ही न रहा, किन्तु उसने इससे भी बढकर यह किया कि इस सिद्धान्त को बडी सावधानी के साथ कार्य रूप में परिणत किया। वैदिक धर्म ने, जो इश्वरीय ज्ञान होने का दावा करता है,
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(२०)
मूक जीवों के साथ कहीं २ वडी निर्दयता का बर्ताव दिया है। इतनाहीं नहीं किन्तु उसने बलिदान के लिये सर्वोष्ठ जीवधारी मनुष्य की हत्या को भी विधय बतलाया है। एक समय गौ को भी जिसे ब्राह्मण अत्यत पवित्र समझते है प्राचीन ऋपि बडी निष्ठुरता के साथ बलिदान के लिये मार डालते थे और बलिदान किये हुए माम को जिसे वे पुरोडाश कहते थे, खा भी लेते थे। चूंकि वेद ऐसी अमानुपिक कार्रवाइयों का विधान करते थे। यही कारण है कि जैन इन वेदों को हिसक श्रुतियों के नामसे पुकारते थे।
हिन्दू धर्म--शास्त्र, ऐसे सिद्धान्तों से भरे पडे हैं जो अपने अनुयायियों को कल्पित देव और देवियों को प्रसन्न करने के लिये निरपराधी जीवों का खून बहाने की आज्ञा देते है।
उन्हीं सिद्धान्तो के कारण असंख्य जीवों का बलिदान हुआ है । यदि वे जीव न मारे जाते तो वे मनुष्य के लिये कई तरह से उपयोगी होकर उसके सुख और समृद्धि की वृद्धि करते । आज हम देखते है कि अमुक वकरी, अमुक भेड
और अमुक मैंस आनन्द पूर्वक चर रही है परन्तु दूसरे ही दिन यह दिखाई देता है कि संसार में उनका अस्तित्व ही नहीं है। परन्तु जैन धर्म ने इन भयंकर वलिदानो का बडी जोर के साथ निषेध किया, वेदो के कठोर रिवाजो की जड पर
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(२१) कुठाराघात किया, धर्म प्रचारकों की स्वार्थपरता को प्रकट किया, विना जाति और धर्म भेद के अपने द्वार समस्त प्राणियो के लिये खोल दिये और सार्वभौमिक दयाभाव और भ्रातृभाव के सिद्धान्तो को, कि जो जैन धर्म की विशेषताएं हैं, दूर दूर तक फैला दिया। सारांश यह है कि जैन धर्म ने किसी भी जीवधारी को अपनी पवित्र छत्रछाया के बाहर नहीं किया। जैन धर्म के विषय में झूठी बाल फैलाने के कार्य ।
इस प्रकार के हिन्दू-धर्म पर स्मरणीय आक्रमणों के कारण जैन धर्म ने अपने लिये अनेक शत्र उत्पन्न कर लिये
और उसके परिणाम मे उसे बहुत कुछ क्षति उठानी पड़ी। उन्होंने जैन धर्म की निन्दा करने का और उसके विषय मे भयकर भ्रामक विचारों को फैलाने का कोई अवसर मात्र हाथ से न जाने दिया। उन्होंने जैन सिद्धांतों की बड़ी खींचातानी की है और उसके विषय में सब प्रकार से विरोधीभाव पैदा करने में कोई कमर नहीं रक्खी ।
इर्षा और द्वेष के कारण कुछ लोगों ने तो यहां तक कह डाला है कि " हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेजन मंदिरम्" अर्थात् मदमत्त हाथी के आक्रमण करने पर भी किसीने अपनी रक्षा के लिये जैन मंदिर में प्रवेश न करना चाहिये।
संस्कृत नाटको के पढने से मालूम होता है कि उनमें कई स्थानो पर जैन यतियो को नीचे दर्जे के सेवकों की तथा
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( २२ )
चोरों की पात्रता दी गई है और इसी प्रकार समस्त हिन्दू साहित्य में उनको नीची श्रेणी मे रक्खा है और घृणा की दृष्टि से देखा गया है । इन बातों से इस बात का यथेष्ट ज्ञान हो जाता है कि संस्कृत के ब्राह्मण विद्वानों ने इन्हीं जैनों के साथ, कि जिन्होंने दर्शन शास्त्र, नीति शास्त्र, न्याय शास्त्र, अध्यात्म विद्या, विश्व विवरण विद्या, गणित और फलित, ज्योतिष, व्याकरण, कोष, अलंकार और अन्य भिन्न भिन्न विषयों पर बडे बडे पांडित्य पूर्ण प्रन्थ लिखकर संस्कृत साहित्य की अभिवृद्धि की है, कैमा कुत्सित व्यवहार किया है ।
महावीर के निर्वाण के पीछे कई शताब्दियों तक जम्बू स्वामी, प्रभव स्वामी, यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु, स्थूलभद्र इत्यादि प्रखर प्रतिभाशाली बडे धर्मात्मा विद्वान् तात्कालीन साहित्य मंडल में बड़े आदर के साथ चमकते थे और अपने प्रतिद्वन्दियों के हृदय में विस्मय उत्पन्न करते रहे । उनके आगे राजा महाराजा सिर झुकाते थे, उनके शांतिमय प्रभाव के सामने अत्याचार नष्ट हो जाता था, उनके मुख की दिव्य प्रभा से प्रतिस्पर्धियों का घमंड चूर चूर हो जाता था, और उनकी उपस्थिति में कुछ ऐसा तेज था कि उसके सामने विधर्मियों का सिर नीचा हो जाता था । इन महान् विद्वानो के बाद मानतुंगाचार्य, हरिभद्रसूरि, शांतिसूरि, हेमचन्द्राचार्य, मेरुतुंगाचार्य, और बहुत से अन्य विद्वन् हुए, जिन्होंने
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(२३) मूर्तिपूजा का विधान करके और कल्पित धार्मिक सिद्धांतों का प्रचार करके जैन धर्म को यद्यपि एक नया और विचित्र रूप दे दिया तथापि उन्होंने कई शताद्वियों तक अपने अगाध पांडित्य और अविभांत परिश्रम से भीर और नीच प्रतिद्वन्दियों की ओर से आघात पहुंचते हुए भी अपनी मर्यादा को अविछिन्न रक्खा उसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं। हिन्दू और अन्य धर्मावलम्बी राजाओं
पर जैन धर्म का प्रभाव। इन महान् विद्वानों का ऐसा प्रभाव था कि जिसके ___ कारण कुमारपाल आदि अनेक शक्तिशाली राजा जैन धर्मावलबी हो गये और उनके हृदयों में दया भाव का ऐसा संचार हुआ कि उन्होंने जैनों के निवास स्थानों में पशुहिंसा रोकने के लिये फरमान (आज्ञा-पत्र ) जारी कर दिये । कई मुसलमान बादशाहों ने आज्ञा पत्रों द्वारा समस्त भारतवर्ष में जहां जहां जैन मतावलम्बी रहते थे वहां पजूसन (पयूषण पर्व) पर पशु हिंसा न करने के लिये आज्ञा पत्र प्रकट कर दिये थे। सम्राट अकबर का एक ऐसा ही फरमान अब भी उपलब्ध है। कई देशी रियासतों में जैनो को अब भी यह अनूठा स्वत्व प्राप्त है।
टॉड साहिब के राजस्थान नामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक __ ग्रन्थ से पता लगता है कि तत्कालीन राजपूत राणाओं और
महाराणाओ पर जैनों का इससे भी अधिक प्रभाव था।
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( २४ )
बडे बडे राजपूत राजाओ ने जैन साधुओ को बहुत से महत्वपूर्ण धार्मिक हक्क दिये थे । उनके उपायों के पास होकर कोई मनुष्य वध निमित्त पशु नहीं ले जा सकता था । बहुत से फरमानो मे से हम यहां पर केवल एक फरमान काही उल्लेख करते है जिने महाराणा श्री राजसिहजी ने नारी किया था कि जैनियो के उपाथयों के पास से कोई भी नर या मादा पशु वध करने के लिये निकाला जायगा वह अमर कर दिया जावेगा - ( याने उसे कोई जान से न मार सकेगा ) । वर्तमान मे भी कई देशी रियासतो मे इस तरह के हक हकूक आज भी चालू हैं कि जिस मुहल्ले वा बाजार में जैन लोग बसते हैं उस मुहल्ले से वध के लिये पशु नहीं ले जा सकते । अतएव साहित्य की अभिवृद्धि करके, बहुत से शक्तिशाली राजाओ को जैन धर्मावलंबी बनाकर निरपराध मूक जानवरो की रक्षा करके और देश के हर एक कोने कोने में जैन धर्म का प्रचार करके जैनो ने मानव जाति का बहुत बडा, और स्थायी कल्याण किया है। 1
जैनों का उपहास और उनपर अत्याचार | परन्तु काल की गति बडी विचित्र है । जैन धर्म शनैः शनैः राजाओ के आश्रय से हटता गया और तब से केवल छोटे से व्यापारी वर्ग मे ही रह गया । इन शताब्दियो मे जैनों में बहुत कम नामी विद्वान् हुए जिससे उसक प्रतिवादियों का बहुत कम साम्हना हुआ । जब जैन धर्माव
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(२५) लंबियों में इस प्रकार निर्बलता आ गई तब उसके प्रतिवादियों की बन आई। उन्होंने जैनों के धर्म शास्त्रों को जला दिये, उनके पवित्र स्थानों को अपवित्र कर दिये, उनके सिद्धांतों का उपहास किया और उनको संसार की दृष्टि से गिराने का यथाशक्ति प्रयत्न किया। यद्यपि तत्कालिन स्थिति का यह
केवल अंशमात्र दिग्दर्शन है तथापि इसके प्रतिवादियों का ___ नो अत्याचार इमपर हुआ है उसका अनुमान मात्र इससे हो सकता है।
जैन धर्म का साहित्य अनुपलब्ध है। ____ कहीं बचाखुचा साहित्य भी नष्ट न हो जाय, इस भय से जैनों ने उसे तहखाने में छिपा दिया । बहुत से बहुमूल्य हस्तलिखित ग्रन्थ कीटकों के भक्षस्थान को प्राप्त हुए। अब भी जो कुछ बहुमूल्य जैन साहित्य बचा है वह भी विद्वानों को उपलब्ध नहीं है क्योंकि जैन साहित्य-भंडारों के स्वामी दूसरों को अपने ग्रन्थ दिखाने में वडा पक्षपात और विरोध करते हैं। उस पक्षपात और अत्याचार के जमाने मे ग्रन्थों को इस प्रकार छिपाकर रखना आवश्यक था परन्तु वही पद्धति अब भी प्रचलित रखना किसी भी प्रकार जैन साहित्य की वृद्धि को हितकर नहीं हो सकती। पाश्चिमात्य विद्वानों को जैन धर्म के विषय
में भ्रम क्यों हुआ। अतएव यह बात स्वाभाविक थी कि पुरातत्व की खोज करते समय पूर्वीय भाषाएं जानने वाले योरोपीय विद्वानों
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(२६)
को पहले पहल ब्राह्मणों का साहित्य हाथ लगा जो कि ठुस ढूंसकर पक्षपात और उपहास से भरा था ।
उन विद्वानों को जैन साहित्य उपलब्ध न होने से उनको जैन धर्म के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिये ब्राह्मणो के ग्रन्थो का आश्रय लेना पड़ा। हम पहले ही कह चुके हैं कि ब्राह्मणों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे अपने जैन प्रतिद्वंदियों के सिद्धांतों को पक्षपात रहित आलोचना करें।
पाश्चिमात्य विद्वानों ने ब्राह्मणों के ग्रन्थों में जैन धर्म को विकृत रूप में पाया और इसालिये उनके हृदय मे जैन धर्म के विषय मे कुत्सित और घृणास्पद विचार पैदा हो गये । उन्होंने अशुद्ध सामग्री को लेकर तर्क करना शुरू किया और इसलिये वे सत्य को न ढूंढ सके। ____ अभीही कुछ वर्षों से चन्द विद्वानोंने जिनके नेता प्रोफेसर जेकोबी है हमारे कुछ ग्रन्थों की छानवीन करना शुरू की है और जैन धर्म के विषय में जो भ्रमात्मक विधान फैले हुए हैं वे कुछ अंश मे उनके द्वारा दूर हुए हैं । परन्तु अभी बहुत कुछ बाकी है । जैन साहित्य का क्षेत्र बहुत विस्तृत है और उसमें काम करनेवाले बहुत थोडे हैं इसलिये जैन धर्म के विषय मे फेली हुई गलतफहमियों को दूर करने में और उस उसके उच्च पद पर आसीन करने मे अभी अधिक समय की आवश्यकता है।
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(२७) यह बडे खेद की बात है कि युरोपियन विद्वानों का समागम जैनों के साथ न होने से जैन धर्म के विषय में उनका ज्ञान अशुद्ध और पक्षपात से भरा हुआ है। यही कारण है कि उन्होंने जैन ग्रन्थों का __ अनुवाद करने में उन प्रन्थों के असली अभिप्राय और अर्थ
को नहीं समझा और इसलिये जैन धर्म के विषय में उन्होंने अपने अशुद्ध मत कायम कर लिये।
जैन धर्मकी प्राचीनता पर अन्तिम वक्तव्य । __ हमने पिछले पृष्टों में जैन धर्म को अतीव प्राचीन सिद्ध कर दिखाया है। बहुत से इस पर आश्चर्य करेंगे और हमारे इस मत को शायद स्वीकार न करेगे। उनका इस प्रकार संदेह करना स्वाभाविक ही है, क्योंकि भिन्न भिन्न धर्मों के अनुयायियों के हृदय में जैन धर्म के विषय में बहुत दिनों से विरोधाभाव घुसा हुआ है और हिन्दुओं एवं मुसलमानों ने जैनों के मन्दिरों का विध्वंस किया है और जैनों के धार्मिक साहित्य के बहुत से भाग को जला दिया है। यदि यह साहित्य उपलब्ध होता तो उससे इस बात का पत्यक्ष प्रमाण देने में बडी सहायता मिलती कि जैन धर्म शेष सभी धनों से प्राचीन और उत्कृष्ठ है ।
___ हम ऊपर कह चुके हैं कि एक समय वह था जब जैन धर्म को बौद्धधर्म की शाखा माना जाता था परन्तु अब यह
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(२८) सिद्ध होगया है कि यह मान्यता गलत है । इसी प्रकार अब शीघ्र ही वह समय आवेगा जब इस महत्वपूर्ण समस्या पर अधिक प्रकाश पड़ेगा। उस समय बड़े बड़े कट्टर विद्वानो को भी यह मानना होगा कि जैन धर्म सब धर्मों से प्राचीन धर्म है और शेष सभी धर्म उससे पीछे के हैं और इन धर्मों ने अपनी दार्शनिक और धार्मिक व्यवस्था के स्थिर करने मे जैन धर्म से बहुत सहायता ली है ।
इस जगह इतना स्थान नहीं है कि हम इस विषय पर अधिक विस्तार के साथ लिखें, परन्तु हमने अपने मत के समर्थन में अबतक जितने प्रमाण दिये हैं वे सक्षिप्त होने पर भी ऐसे ठोस और अकाट्य हैं कि उनसे यह निस्मन्देह मिद्ध हो जाता है कि जैन धर्म के संस्थापक न तो पार्श्वनाथ थे न महावीर, किन्तु इस धर्म के आदि प्रवर्तक ऋषभदेव थे जिनका, अस्तित्व हिन्दुओ ने सृष्टि के आरंभ मे स्वीकार किया है ।
जैनों के तीन मुख्य सम्प्रदाय । जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने में अब हम श्वेताम्बर और दिगम्बरों का वर्णन करेंगे और यह भी बतलायेगें कि ये दोनों लम्प्रदाय एक दूसरे से किस प्रकार पृथक हुए और फिर श्वेताम्बरो के मूर्ति पूजक और साधुमार्गी विभाग कैसे बने ।
अंत मे हम यह भी दिखलायेगे कि इन तीनो सम्प्रदाय मे से ___ कौनसा सम्प्रदाय महावीर के असली उपदेशों का अनुयायी है।
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(२९) जैनों के मुख्य तीन सम्प्रदाय हैं:-(१) दिगम्बर ( २) श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ( ३ ) श्वेताम्बर साधुमार्गी या जिनको स्थानकवासी भी कहते हैं।
__इन तीनों सम्प्रदायो में से कौनसा सम्प्रदाय मब से प्राचीन है और जैन धर्म के असली सिद्धान्त के अनुसार चलता है, इसपर गत बहुत वर्षों से वाद विवाद चला आता है परन्तु इसका समाधान अभी तक संतोषजनक व प्रामाणिक तौर पर न हुआ। पिछले कुछ वर्षों में कुछ दिगम्बर और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक भाइयों ने जैन धर्म पर कुछ पुस्तक अंग्रेजी में भी लिस्त्री हैं, परन्तु विषेश कर धार्मिक पक्षपात के कारण ये पुस्तकें तीनों सम्प्रदाय के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश नहीं डालती।
प्रोफेसर हरमन जकोबी ने जैनों के श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में विभाजित होने की समस्या को हल करने की चेष्टा की है परन्तु वे सत्य की खोज न कर सके । इसके दो कारण हैं । एक तो उन्होंने जैन सूत्रों के अर्थों को बिना समझे अपने तर्कों पर खडे किये व दूसरा उन्होंने सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिये जैन साधुओं से स्वयं पूछताछ नहीं की।
श्वेतांबर और दिगंबर दोनो सम्प्रदायो में उनके उत्पत्ति के विषय में परस्पर विरोधी कथाएं प्रचलित हैं और प्रत्येक
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( ३० )
संप्रदाय अपने आपको दूसरे से प्राचीन बतलाता है । परंतु यह संतोषपूर्वक सिद्ध किया जासकता है कि दिगंबरों की उत्पत्ति वेतांबरों के पीछे हुई है और वे महावीर के निर्वाण के बहुत समय बाद असली संघ से पृथक हुए हैं । परंतु ऐसा कहने के पहले यह आवश्यक है कि हम दोनों संप्रदायों के धार्मिक ग्रंथों पर सरसरी निगाह डालें ।
मूर्तिपूजक श्वेतांबरों के सिद्धांत-सूत्र पैंतालिस है परंतु साधु मार्गियों को इनमें से केवल बत्तीस सूत्र मान्य हैं । इसके विपरीत दिगम्बर भाई इन सूत्रों को नहीं मानते और यह कहते हैं कि महावीर के कहे हुए असली सूत्र नष्ट हो गये । यद्यपि श्वेताम्बर सूत्रों के नाम असली सूत्रों के नामोंसे मिलते हैं तथापि उन्हों ने अपने सूत्र पीछे मे गढे हैं । अतएव दिगम्बरों ने अपने शास्त्र स्वयं ही बनाये हैं और ये शास्त्र श्वेताम्बरों के शास्त्रों से कई आवश्यक यातों में नहीं मिलते ।
महावीर के सच्चे अनुयायी श्वेताम्बर हैं या दिगम्बर, इस प्रश्न का उत्तर उसी समय दिया जा सकता है जब दोनो सम्प्रदायों के शास्त्रों का रचना - काल ठीक ठीक मालूम हो जाय । जिस सम्प्रदाय के पास महावीर के कहे हुए असली सूत्र हैं और जो उनके अनुसार चलता है वही सम्प्रदाय जैन धर्म का सच्चा अनुयायी कहला सकता है । अतएव यह
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(३१) मालूम करना अभीष्ट और आवश्यक है कि दोनों नाम्प्रदायों में से किसके पास असली और प्राचीन शास्त्र हैं।
प्रोफेसर हरमन जेकोबी ने जैन सूत्रों के अनुवादी भूमिका में बड़ी योग्यता से सिद्ध कर दिया है कि शेताम्बगे के वर्तमान शास्त्र महावीर के कहे हुए ही हैं और परम्परा से ज्यों के त्यों चले आते हैं।
उन्होंने अपने मत के समर्थन में जो मुख्य प्रमाण दिये हैं उनको हम यहां संक्षेप में देते हैं।
(१) " बहुतसा प्राचीन जैन साहित्य अब उपलब्ध हो गया है और जो लोग जैन सम्प्रदाय के प्राचीन इतिहाम के लिये सामग्री इकठ्ठी करना चाहते हैं उनको इस माहित्य से बहुत कुछ सहायता मिल सकती है । यह मामग्री ऐमो नहीं है कि जिसकी प्रामाणिकता पर हम सन्देह करें । हम जानते हैं कि जैनों के धर्म शास्त्र प्राचीन है; जिस संस्कृत साहित्य को हम प्राचीन कहते हैं जैन शास्त्र निस्संदेह उससे भी प्राचीन हैं।
उनमें पुरातत्व की सामग्री कितनी है, इस विषय में हम यह कह सकते हैं कि उनमें से बहुत से शास्त्र उत्तरी बोद्धो के सबसे प्राचीन ग्रन्थों का मुकाबला कर सकते हैं चूंकि इन पिछ ले ग्रन्थों से बुद्ध और बौद्ध धर्म के इतिहास की सामग्री
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(३२)
प्राप्त करने में बड़ी सफलता हुई है, इसलिये ऐम। कोई कारण नहीं है कि हम जैन शास्त्रों को जैन इतिहास का प्रामाणिक साधन न मानें |"
(२) ये सब बाते सिद्ध यह करती हैं कि जैन शास्त्रों के लिपिबद्ध होने के पहिले भी जैनों का धर्म मर्यादा रहित एवं अनिश्चित नहीं था कि जिसके कारण उसमें अन्य भिन्न २ धोके कारण हेरफेर होने और बिगड़नेका डर रहता, किंतु उस समय भी जैन धर्म में छोटी से छोटी बाते मी निश्चित रूप से वर्णित की गई थी। जैनों के धार्मिक सिद्धान्तों के विषय मे जो कुछ सिद्ध किया गया है, उसी प्रकार उनकी ऐतिहासिक जैन श्रुतियों के विषय में भी सिद्ध किया जा सकता है ।
( ३ ) जैन श्रुतियां एक मत होकर कहती हैं कि वल्लभि की सभा में और देवर्द्धि के सभापतित्वमें जैन सिद्धांत की व्यवस्था हुई है और कल्पसूत्र मे इस घटना का समय जो सन् ४५४ ई० है दिया है। जैन अतियों से मालूम होता है कि देवर्द्धि को यह भय हुआ कि कही सिद्धांत लुप्त न होजाय इसलिये उन्होने उसे शाखों मे लिपिबद्ध करा दिया ।
अतएव जैनों के धार्मिक साहित्य के साथ देवर्द्धि का जो संबंध है उसके विषय में हमारा मत जन साधारण के मत से कुछ भिन्न है। यह प्राय: ठीक मालूम होता है कि
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(३३) देवर्द्धि ने उस समय की उपलब्ध हस्तलिखित सामग्री को सिद्धांत के रूप में व्यवस्थित कर दिया और जो ग्रन्थ उस समय लिपिबद्ध न थे उनको विद्वान् धर्माचार्यों के मुख से सुन कर लिख डाला । इसलिये इस सिद्धान्त की वह श्रावृत्ति जिसका सम्पादन देवर्द्धि ने किया है, उन शास्त्रों का केवल सुव्यवस्थित रूप है जो उनके पहले प्रायः उसी रूप में मौजूद था।"
(४) " परंतु एक बडी महत्वकी दलील यह है कि हमको सिद्धांत मे ग्रीस की ज्योतिर्विद्य की गंध भी नहीं आती।xxx चुंकी ग्रीस की ज्योतिर्विद्या का पदार्पण भारतवर्ष में इस्वी सन् की तीसरी या चौथी शताद्वि से माना जाता है इसलिये जैनों के शास्त्र उससे भी पहिले लिपिबद्ध हुए थे"।
(५) " हम सिद्ध कर चुके हैं कि जैन सिद्धांत के सब से प्राचीन ग्रंथ ललित विस्तार की गाथाओं से भी पुराने हैं। चूकि यह कहा जाता है कि ललित विस्तार का अनुवाद चीनी भाषा में इस्वी सन् ६५ के लगभग हुवा था इसलिये हम वर्तमान जैन साहित्यकी उत्पत्ति ईसवीसन से भी पहलेकी मानते हैं"।
(६) " यदि हमारी उपरोक्त खोज का परिणाम मानने के योग्य है, क्यों कि मुझे उसके विरुद्ध कोई दलील नहीं देख पड़ती-तो वर्तमान जैन साहित्य की उत्पत्ति इसा से ३०० वर्ष से अधिक ज्यादा पहिले नहीं मानी जा सकती।
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( ३५ )
साफ लिखा है कि महावीर ने स्वयं जैन धर्म का उपदेश अपने शिष्यों को दिया और फिर इन शिष्यों ने अंगों की रचना की। ये ही अंग जैन सिद्धान्त के मुख्य अंश हैं । परन्तु इस विषय में प्रोफेसर जेकोबी का मत भिन्न है । वे कहते हैं कि जैन जिस साहित्य को पूर्व कहते हैं वह अंगों के भी पहले विद्यमान था और उसमें महावीर और उनके धार्मिक प्रतिद्वंदियों के बीच में जो वाद विवाद हुआ था उसका हाल लिखा था । अपने मत के समर्थन में वे कहते हैं कि प्रत्येक पूर्व का नाम " प्रवाद " अर्थात् वादविवाद है और इसलिये वे दार्शनिक वादविवादों से भरे हुए थे जैसा कि उन नामों से प्रकट होता है ।
इसके सिवाय वे यह भी कहते हैं कि चूंकि पूर्वो में वाद विवाद युक्त साहित्य था, इसलिये जब महावीर के प्रतिद्वंदी मर गये तब पूर्वो की उपयोगिता जाती रही और इस तत्कालीन स्थिति के अनुकूल ईसा से ३०० वर्ष पहले पाटलिपुत्र की सभा में एक नया सिद्धांत रचा गया ।
जेकोबी साहब का उपरोक्त मत बिलकुल गलत है और उनका समर्थन किसी प्रकार नहीं हो सकता । वे अपने मत के समर्थन में जैनों की एक जनश्रुति का हवाला देते
परन्तु अभयदेव ने समवायांग सुत्र की टीका में इस जनश्रुति को असत्य ठहराया है और लिखा है कि महावीर ने
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( ३४ )
असाधारण
( ७ ) " हमारा वादविवाद यहीं पर समाप्त होता है । मैं आशा करता हूं कि इससे यह सिद्ध हो गया है कि जैन धर्म के विकास मे किसी समस भी किसी घटना के कारण कोइ बड़ी रुकावट पैदा नही हुई । हम इस विकास को शुरू से अबतक क्रमशः देख सकते हैं और जैन धर्म दूसरे धर्मों से व विशेषकर बौद्ध धर्म से इतना स्वतंत्र है जितना कि कोई धर्म हो सकता है । इस विषय का विस्तारपूर्वक विवेचन भविष्य की खोजो से हो सकेगा परंतु मैं आशा करता हूं कि जैन धर्म की स्वतन्त्रता के विषय में और जैन धर्म के प्राचीन इतिहास के निर्माण के लिये जैन शास्त्रों के विश्वसनीय होने मे कुछ विद्वानों को जो संदेह है उनको मैने दूर कर दिया है " ।
ऊपर की दलीलों से स्पष्ट होगया होगा कि प्राफेसर हरमन जेकोबी ने ईसा से पूर्व तीसरी सदी तक अर्थात् महावीर के दोसौ वर्ष बाद तक जैन सिद्धान्त की प्राचीनता संतोष पूर्वक क्रमानुसार दिखला दी है । अव हमको केवल दोसौ वर्ष के उस मध्यवर्ती समय को पूरा करना है जो महावीर के निर्वाण काल और प्रोफेसर जेकोबी द्वारा निश्चित जैन सिध्दान्तो के उत्पत्ती काल के बीच मे पडता है ।
इस कार्य के लिये हमको यह जानना आवश्यक है कि इस विषय मे जैन साहित्य क्या कहता है ? जैन ग्रंथों मे
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(३५) साफ लिखा है कि महावीर ने स्वयं जैन धर्म का उपदेश अपने शिष्यों को दिया और फिर इन शिष्यों ने अंगों की रचना की। ये ही अंग जैन सिद्धान्त के मुख्य अंश हैं। परन्तु इस विषय में प्रोफेसर जेकोबी का मत भिन्न है। वे कहते हैं कि जैन जिस साहित्य को पूर्व कहते हैं वह अंगों के भी पहले विद्यमान था और उसमें महावीर और उनके धार्मिक प्रतिद्वंदियों के बीच में जो वाद विवाद हुआ था उसका हाल लिखा था। अपने मत के समर्थन में वे कहते हैं कि प्रत्येक पूर्व का नाम "प्रवाद" अर्थात् वादविवाद है और इसलिये वे दार्शनिक वादविवादों से भरे हुए थे जैसा कि उन नामों से प्रकट होता है।
इसके सिवाय वे यह भी कहते हैं कि चूंकि पूर्वो मे वाद विवाद युक्त साहित्य था, इसलिये जब महावीर के प्रतिद्वंदी मर गये तव पूर्वो की उपयोगिता जाती रही और इस तत्कालीन स्थिति के अनुकूल ईसा से ३०० वर्ष पहले पाटलिपुत्र की सभा मे एक नया सिद्धांत रचा गया ।
जेकोबी साहब का उपरोक्त मत बिलकुल गलत है और उनका समर्थन किसी प्रकार नहीं हो सकता। वे अपने मत के समर्थन में जैनों की एक जन-श्रति का हवाला देते हैं, परन्तु अभयदेव ने समवायांग सुत्र की टीका में इस जनश्रुति को असत्य ठहराया है और लिखा है कि महावीर ने
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(३६.) जैन सिद्धांतो का उपदेश गणधरो को दिया और फिर उन्होंने आचारांग आदि को लेकर द्वादश अंगोकी रचना की । उन्होंने आगे चलकर लिखा है कि बारहवे अंग में पूर्व, सम्मिलित थे। समस्त अंगों और उनकी टीकाओं में समान रूप से यही लिखा है कि पूर्व, बारहवें अंग में सम्मिलित थे और इसलिये अन्य अंगों के साथ मे मौजूद थे।
पूर्वो में क्या लिखा है। इसके सिवाय जेकोबी के मतानुसार सभी पूर्वो में वादविवादयुक्त साहित्य न था। पूर्वो की संख्या चौदह थी। इनके नाम और इनमें लिखित विषयों का संक्षिप्त वर्णन जैन सूत्रों में दिया है और इस वर्णन से हम जान सकते हैं कि केवल कुछ पूर्वो में ही वादविवादयुक्त बातें थीं और शेष पूर्वी में केवल जैन दर्शन का वर्णन किया गया था।
पूर्वोके संबंध में प्रो. जेकोबी के अनुमान का खंडन ।
प्रोफेसर जेकोबी का मत है "कि पूर्वो का, अस्तित्व, केवल भद्रबाहु के समय तक अर्थात् महावीर के निर्वाण के लगभग दोसौ वर्ष बाद तक ही रहा और इम समय के वाद पूर्व सर्वथा विलुप्त हो गये”। यह मत स्वीकार नही किया जा सकता, क्यो कि पूर्वी का अस्तित्व वल्लभि की सभा तक जो ४५४ ई० मे हुई थी, मिलता है, जैन पट्टावली और
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(३७) अन्य प्राचीन ग्रन्थों में लिखा है कि वल्लभि की सभा के सभापति देवर्द्धिगणी को, जो पट्टावली में २७ वे पाट परहै, महावीर के निर्वाण के बाद लगभग एक पूर्व का ज्ञान था ।
देवर्द्धि के पहले जो २६ आचार्य हो गये हैं उनमें से कुछ __ तो समस्त चौदह पूर्वो का ज्ञान रखते थे और कुछ को __ चौदह से कम पूर्वो का ज्ञान था । इन आचार्यों के सिवाय
वल्लभि की सभा के पहले बहुत से अन्य विद्वान् साधु भी ऐसे थे जिनको पूर्वो का न्यूनाधिक ज्ञान था । देवगिणी अन्तिम पूर्वधारी थे और फिर उनके बाद पूर्वो का ज्ञान सर्वथा विस्मृत होगया । अतएव मालूम होता है कि महावीर के निर्वाण के १००० वर्ष बाद भी पूर्वो के कुछ अंश का ज्ञान मौजूद था।
जब विश्व में ऐसे विश्वसनीय प्रमाण मौजूद हैं। तब यह मानना न्याय संगत नहीं है कि पूर्व का अस्तित्व, अंगों के पहले था, वे वाद विवादपूर्ण थे, वे शनैः शनैः लुप्त हो गये और एक नया सिद्धान्त जो अभी कायम है, पाटलीपुत्र की सभा में ईसा से तीन सो वर्ष पहले तैयार किया गया । __ परन्तु कुछ विद्वान् यह स्वीकार करने पर भी कि पूर्व अंगों मे ही सम्मिलित थे, इस बात पर आपत्ति करेंगे कि अंगों की रचना महावीर के समय मे हुई थी। क्यो कि पाटलीपुत्र की सभा के पहले अंगों की प्राचीनता सिद्ध करने
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(३८) के लिये कोई प्रमाण नहीं मिलते। परन्तु इस आपत्ति में बहुत थोड़ा सार है क्यों कि यह मानना युक्तिसंगत नहीं है कि महावीर और पाटलीपुत्र के मध्य वर्तीकाल में अर्थात् दोसी वर्ष से भी अधिक समय तक जैनो के पास धार्मिक पथ दिखाने वाला साहित्य ही न था ।
इसी प्रकार यह मानना भी उतना ही असंगत है कि पाटलीपुत्र की सभा के पहले महावीर के समय में किसी दूसरे ही सिद्धान्त का प्रचार था और फिर उपरोक्त सभा मे एक नया सिद्धान्त गढ़ा गया । यदि उस समय पहले के सिद्धान्त अन्य मौजूद होते तो उनका उल्लेख उस सिद्धान्त में अवश्य पाया जाता जो पाटलीपुत्र की सभा में रचा गया बतलाया जाता है और साथ ही साथ वे हेतु भी लिख जाते, जिनके कारण प्राचीन सिद्धान्त-ग्रन्थों के स्थान मे नवीन ग्रन्थ रचे गये । परन्तु जैन साहित्य के समस्त संग्रह में इन बातों का उल्लेख कही नहीं मिलता। इसलिये हम प्रोफेसर जेकोबी की कल्पना को स्वीकार नहीं कर सकते ।
इसके साथ यह भी याद रखना चाहिये कि जैन ग्रन्थो में स्पष्ट लिखा हुआ है कि पाटलीपुत्र मे जैन सिद्धान्त का केवल संग्रह किया गया था, उनकी रचना नहीं की गई थी। इसके सिवाय प्रोफेसर जेकोबी की दलीले ऐसी मजबूत नहीं हैं कि हम जैन ग्रन्थो के स्पष्ट टेखों को अस्वीकार करें।
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(३९) महावीर और पाटलीपुत्र के मध्यवर्ती काल की इस प्रकार पूर्ति करने में केवल यही नतीजा निकलता है कि हम इस बात पर विश्वास करें कि जिन सिद्धान्त ग्रन्थो का संग्रह पाटलीपुत्र में हुआ था वे सभा के पहले मौजूद थे और उनकी रचना पहले पहल महावीर के गणधरों (शिष्यों) ने की थी। सिद्धान्त-ग्रन्थों और उनकी टीकाओं मे भी यही बात मिलती है।
सिद्धान्त-अन्थों की रचना शैली, प्रश्नों और उत्तरो के लिखने की रीति, समस्त साहित्य का क्रम और बहुत सी अन्य महत्वपूर्ण बातें जिनको विस्तार के मय से यहां पर नहीं लिस्न सकते । उपरोक्त कथन का बहुत कुछ समर्थन करती है। उपरोक्त प्रमाणों के समर्थन में चौद्ध सूत्रों
के प्रमाणःबौद्धों के मग्धिम निकाय नामक ग्रंथ में महावीर के शिष्य उपाली और गौतम बुद्ध में जो विवाद हुआ था, उसका वर्णन है। जेकोबी ने इस वर्णन को इस प्रकार लिखा है:निग्गंथ उपाली कहते है कि दंड तीन प्रकार के होते हैं ( १ ) काया का दंड ( २ ) वचन का दंड ( ३ ) और मनका दंड । स्थानांग सूत्र के त्रितीय उद्देशक में जो जैन सिद्धान्त दिया है वह ज्यों का त्यों यही है।
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(४०) __ यह और अन्य जैन सिद्धान्त बौद्ध-सूत्रों में प्रायः उन्ही शब्दों में लिखे हुए मिलते हैं । जिन शब्दो में वे वर्तमान जैन सूत्रों में दिये हुवे हैं । ये वात बड़े महत्व की है और इससे अंगो की प्राचीनता के विशय में सभी संदेह दूर हो जाते हैं। इम एक बात से ही विपक्ष में जितनी दलीले उठाई जांय वे सब रद्द हो जाती हैं।
उपरोक्त दलीलें इस बात को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि देवद्धि के समय में श्वेताम्बरों के सिध्दान्त-ग्रंथ केवल लिपिवद्ध हुए थे। उस समय से पहले वे प्रायः कण्ठस्थ थे
और वे अब तक उसीरूप में चले आते हैं, जिस रूप में गणधर ने उनकी रचना की थी।
जैन सिद्धान्तों का ऐतिहासिक महत्व ।
अतएव इतिहास के महत्वपूर्ण प्रश्नों को हल करने में हम इस प्राचीन साहित्य से निर्भय होकर सहायता ले सकते है। इसी बात के आधार पर हम यह सिध्द कर सकेंगे कि दिगम्बर अर्वाचीन हैं और वे महावीर के कई सदियों बाद अपनी सम्प्रदाय से जुदा हुवे हैं। अपनी प्राचीनता के विषय में दिगम्बरों का दावा।
दिगम्बर यह कहते हैं कि सब तीर्थकर नग्न रहते थे, महावीर ने साधुओं का नग्न रहने का उपदेश दिया था और हमारे
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ई
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(४१) साधु नग्न रहते हैं और इसी कारण हम अत्यन्त प्राचीन काल से दिगम्बर कहलाते हैं और इमलिये हम जैन धर्म के सबसे प्राचीन और असली अनुयायी हैं । वे यह भी कहते हैं कि तीर्थंकरों के नियमों के विरुध्द श्वेताम्बर साधु वस्त्र पहनते हैं, उनके धर्म शास्त्र प्रामाणिक नहीं हैं, उनकी उत्पत्ति दिगम्बरों से हुई है, और इसलिये वे अर्वाचीन हैं। .
दिगम्बरों के उक्त दावे झूठे हैं। ... दिगम्बरों की इन उक्त दलीलों में कुछ' भी सार नहीं है यह निम्न लिखित बातों से मालूम होगा:
(१) उपरोक्त पृष्ठों में हमने संतोषपूर्वक सिध्द करदिया है कि श्वेताम्बरो के शास्त्र सब से प्राचीन हैं। उनको महावीर के शिष्यो ने रचा था । वे परंपरा से प्रायः उसी रूप में अब तक चले आते हैं और जैन इतिहास के निर्माण के लिये उनपर सब से अधिक विश्वास किया जा सकता है । इन दलीलो के आधार से दिगम्बरों के दावे के सम्बन्ध में अधिक विवेचन करना आवश्यक नहीं रहता । हम अब उनके अन्य प्रतिवादों का उत्तर देते हैं।
(२) दिगम्बरों का कथन है कि महावीर ने मुनियों को नग्न रहने का उपदेश दिया और उस समय सभी मुनि "नम्न रहते थे। अब यह मालूम करना चाहिये कि तिथंकरों
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(४२) ने सभी मुनियों को नम रहने का उपदेश दिया था या नहीं। धर्म शास्त्रों से यह स्पष्ट रीति से मालूम होजायगा कि महावीर ने यह उपदेश कदापि नहीं दिया कि सभी साधु नग्न रहे।
जैन शास्त्रों में लिखा है कि यदि कोई साधु नग्न रहना चाहे तो रह सकता है। जब वह आत्म-ज्ञान की सीढ़ियों पर ऊंचा चढ़ जाय तब वह अपनी इच्छानुसार वस्त्रों को त्याग कर नम रह सकता है। परन्तु वम धारण करने से आत्मा की उन्नति में किसी तरह की बाधा न आनेसे नम्रता को अनिवार्य नहीं रक्खा गया किन्तु मुस्य मुख्य प्रसंगों में ही इसका विधान किया गया। वैसे ही उस समय की परिवर्तित स्थिति के अनुसार महावीर के निर्माण के कुछ समय बाद ही यह प्रथा बंद कर दी गई । अतएव साधु अपनी इच्छानुसार नम्र रह सकते थे । नमता अनिवार्य नहीं थी । इसलिये यह सिद्ध होता है कि शामों में अनिवार्य नम रहने का उपदेश नहीं है। बौद्ध सूत्रों में इस यातके प्रमाण मिलते हैं
कि जैन साधु वस्त्र धारण करते थे। (३) बौद्ध सूत्रों से यह मालूम होता है कि जैन साधु वस्त्र धारण करते थे। हरमन जैकोबी ने जैन सूत्रो की भूमिका में लिखा है कि" बौद्ध अचेलको और निग्गंथों में भेद मानते
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(४३) हैं। उदाहरणार्थ बुद्धघोषने धम्मपदम् पर जो टीका लिखी है उसमें कुछ भिक्कुओं के विषय में लिखा है कि वे अचेलकों को निग्गंथों में अच्छा समझते थे, क्यों कि अचेलक सर्वथा नग्न रहते थे और निग्गंथ किसी न किसी प्रकार का वस्त्र लज्जा के लिये धारण करते थे । यह कल्पना भिक्कु की गलत थी। बौद्ध, मक्खलि गोशाला के अनुयायियों को अचेलक कहते थे।"
___ अतएव बौद्ध सूत्रों में निग्गंथ अर्थात् जैन साधुओं के इस हवाले से मालूम होता है कि महावीर के समकालीन बुद्ध देव के समय में जैन साधु वस्त्र धारण करते थे । यदि महावीर और अन्य तीर्थंकरोंने वस्त्र धारण करने का सर्वथा निषेध किया होता तो साधुओं के लिये शात्रों के आदेश के प्रतिकूल आचरण करना संभव न होता । इस से यह स्पष्ट है कि महावीर के समय में दिंगबरों के कथनानुसार सभी जैन साधु नन नहीं रहते थे। अतएव वे नमवा के आधार पर महावीर के असली अनुयायी होने का दावा नहीं कर सकते।
(४) हमारे पास एक ऐसी ही अकाट्य दलील और है जिससे मालूम होता है कि जैन सूत्रों में सर्वथा नग्नता की अनुज्ञा नहीं हैं । इस को सिद्ध करने के लिये हम उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्याय में से एक ऐसे अंश का उल्लेख करते हैं
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(४४) जो इतिहास के लिये वडे काम का है। परन्तु ऐसा करने से पहले जैकोबी द्वारा संपादित जैन सूत्रों की भूमिका में से एक अवतरण दिया जाता है जिससे यह मालूम हो जायगा कि वह अध्याय विश्वसनीय है। जैकोबी ने लिखा है कि " अब सब लोग मानने लगे हैं कि यह प्रायः ठीक ही है कि पार्श्व (जो जैनों के २३ वें तीर्थंकर थे और महावीर के २५० वर्ष पहले विद्यमान थे ) ऐतिहासिक पुरुष थे। महावीर के समय में उनकी संप्रदाय के नेता केसी नामके मुनि थे। केसी का नाम जैन सूत्रों में कई बार ऐसी गंभीरता के साथ आया है कि हमको उन लेखों के प्रामाणिक होने में कुछ भी मंदेह नहीं मालूम होता।" तेईसवें अध्याय का सारांश यह है:
केसी और गौतम जो जैन धर्म के दोनों संप्रदायों के ( अर्थात् पार्श्वनाथ और महावीर के संप्रदायो के ) प्रनिनिधी और नेता थे । अपने शिश्यों के सहित श्रावस्ती के निकट एक वाटिका में एकत्रित हुए। दोनो संप्रदायों में जैन साधुओं के महाव्रतों के विपय में और उनके वस्त्रों के रंग रूप और संख्या के विषय मे कुछ मतभेद था । उन दोनों ने मिलकर पिना वादविवाद कियेही इन मतभेदों के कारण समझकर एक्यता करली।
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(४५)
२९, ३०, और ३१ नम्बर के पद्य अधिक महत्व के हैं और उनसे उस प्रश्न पर जो हमने उठाया है बहुत प्रकाश पडता है । इन पद्यों की व्याख्या, टीका में बहुत स्पष्ट दी हुई है और इसलिए मैं नीचे उनका संक्षिप्त अनुवाद देता हूं ।
केसी गौतम से पूछते हैं कि " चौवीसवें तीर्थंकर वर्धमान ने साधुओं को परिमित संख्या में सफेद और साधारण वस्त्रों को धारण करने की आज्ञा दी है; परन्तु तेईसवें तीर्थकर पार्श्वने वस्त्र धारण करने की आज्ञा देनेमें रंग रूप अथवा संख्या की कोई मर्यादा नहीं रखी है ।
""
हे गौतम ! जब कि दोनोंने एक से उद्देशों को सामने रख कर नियम बनाये हैं तो फिर इस मतभेद का क्या कारण है ? हे गौतम ! क्या आपको वस्त्र संबंधी इस दोहरे नियम के कारण कुछ संदेह नहीं होता ?
गौतम उत्तर देते हैं कि हे केसी ! तीर्थकरों ने अपने केवल - ज्ञान द्वारा इस बातका निर्णय करके साधुओं की प्रवृत्तियों के अनुसार ( धार्मिक जीवन के लिये ) साधनो और बाह्य चिन्हों की आज्ञा दी है। एक तरफ तो उन्हों ने ऐसे वाह्य चिन्ह बतलाये हैं जो सरल स्वभाव व तेज विचार वाले साधुओं के लिए उपयुक्त हैं और दूसरी तरफ उन्होंने उन साधुओं के लिए बाह्य चिन्छ बतलाये हैं जिनकी मनोवृत्ति इसके प्रतिकूल है" ।
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(४६) "महावीर के अनुयायियों का स्वभाव वक्र और लापरवाही करने का था, इसलिए संभव था कि वे रंगीन वस्त्रों का पक्ष ग्रहण करके उनकी ओर मन चलाते | यही कारण था कि उनको केवल श्वेत वस्त्र धारण करने की आज्ञा का आदेश किया गया। परन्तु पार्श्वनाथ के अनुयायी सरलता और सदाचार की तरफ झुके हुए थे, इसलिए वे वस्त्रों को अपनी नगनत्व लज्जा ढकने का साधन मात्र समझते थे और वस्त्रों के प्रति तनिक भी मोह अथवा पक्षपात न रखते थे। इन्हीं पृथक् पृथक् बातो के कारण भिन्न भिन्न प्रकार के वस्त्रों का आदेश दिया गया" ।
जैनधर्म के दो प्रसिद्ध आचार्य केसी और गौतम के उपरोक्त वार्तालाप से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि महावीर ने केवल रंगीन वस्त्रों की जिनको पाश्वे के अनुयायी धारण करते थे, मनाई की थी और परिवतित परिस्थितियों की आवश्यक्ताओं के अनुसार रंगीन वस्त्रों के स्थान में केवल श्वेत वस्त्र धारण करने का आदेश किया था।
इससे निकलनेवाला परिणाम । जब ऐसे पुष्ट प्रमाणो से यह सिद्ध होता है कि पार्श्व और महावीर दोनों ने ही वस्त्र धारण करने की आज्ञा दी, तब दिगम्बरों का यह कहना कि हम ही महावीर के मब से प्राचीन और असली अनुयायी हैं और तीर्थंकरों ने सर्वथा
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(४७) नग्न रहने का ही आदेश किया था, युक्ति संगत नहीं है। इसके प्रतिकूल अनेक हेतुओं द्वारा हम इसी नतीजे पर पहुंचते हैं कि पार्श्वनाथ अथवा महावीर स्वामी के समय दिगंबर संप्रदाय अस्तित्वमें न था । प्राचीनताके विषय में दिगंवरों के दावे
की सत्यासत्यता । अब हमको जैन और बौद्ध सूत्रों की भी छानबीन करनी चाहिए और यह मालूम करना चाहिए कि उनमें कोई उल्लेख एसा भी है जिससे दिगंबरों के प्राचीन होने के दावे का समर्थन हो सके।
(१) बौद्ध सूत्रों में जैनों का उल्लेख कई स्थानों पर मिलता है, परंतु उनमें जैनों को श्रमण अथवा निग्गंध कहा गया है। किसी स्थान पर भी उनको दिगंबरों के नाम से नहीं पुकारा गया ।
(२) जैन और बौद्ध सूत्रों में ऐसे अनेक धर्मों का उल्लेख मिलता है, जिनका प्रचार महावीर और बौद्ध के समय था। उदाहरणार्थ जैनों के भगवती सूत्र में और बौद्धों के मग्घिमनिकाय सूत्र में गोशाला और उनके धार्मिक सिद्धान्तों का सपूर्ण विवरण मिलता है। यदि उस समय दिगंबरों जैसी कोई संप्रदाय का अस्तित्व होता तो महावीर और बुद्ध
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(४८)
दोनों ही उसका उल्लेख करने से न चूकते, क्यों कि वे सर्वथा नग्न रहने के विषय मे दिगंबरों से मतभेद रखते थे। चूंकि । इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता इसलिए यह सिद्ध " होता है कि उस समय दिगंबर इस नामकी संप्रदाय की
सर्वथा अभाव था। - (३) दिगंबर यह भी मानते हैं कि स्त्रियां मोश्न प्राप्त नहीं २ कर सकती । जैन और बौद्ध सूत्रों में कहीं भी इस सिद्धान्त - का उल्लेख नहीं मिलता । यह सिद्धांत केवल दिगंबरों को ही
मान्य है और लगभग सभी धर्मों के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। यदि प्राचीन भारत में ऐसे सिद्धान्तो को मानने वाला कोई धर्म होता, तो बौद्ध और जैन सूत्रों मे उसका खाम तौर पर उल्लेख मिलता और उसमें उसकी कड़ी समालोचना भी मिलती।
(४) स्वयं दिगंबरों के शास्त्रो में अनेक पुष्ट प्रमाण मिलते है जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वे और उनके धार्मिक सिद्धांत अर्वाचीन हैं। हम पहले ही बतला चुके हैं कि दिगंबर संप्रदाय का अथवा श्वेताम्बरो के शास्त्रो से भिन्न = दिगंबर शास्त्रों का उल्लेख न तो जैन शास्त्री में मिलता है - और न बौद्ध शास्त्रों में । दिगंबर शास्त्री में श्वेताम्बर और
उनके सूत्रों का उल्लेख कई स्थानों पर मिलता है । कई स्थानों पर श्वेताम्बरों पर कटाक्ष किये गये हैं और यह बदलाया
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(४९)
गया है कि उनके सिद्धांत दिगंबरों के सिद्धांतों से भिन्न हैं । दिगंबरों के शास्त्रों में श्वेताम्बरों का कई बार उल्लेख हुआ है परंतु श्वेताम्बरों के शास्त्रों में दिगंबरों का उल्लेख एक वार भी नहीं हुआ इस बात से सिद्ध होता है कि दिगंबर तथा उनके शास्त्र श्वेताम्बरों से पीछे के हैं ।
(५) दिगंबर ग्रंथ - कर्ताओं ने अपने ग्रंथों में जो रचनाकाल दिये हैं उनके देखने से भी मालूम होता है कि दिगंबरों के ग्रंथ अर्वाचीन हैं । इससे निस्संदेह सिद्ध हो जाता है कि दिगंबरों की उत्पत्ति महावीर के बाद बहुत पीछे हुई |
(६) दिगंबर मूर्तिपूजक हैं, परंतु महावीर ने मूर्ति पूजा का विधान नहीं किया । इसलिए दिगंबरों को जैन धर्म का सच्चा अनुयायी नहीं माना जा सकता । श्वताम्बरों का वर्णन करते समय हम मूर्ति पूजा का सविस्तार विवेचन करेंगे |
अब हम जैन मूर्तियों के लेखों से यह सिद्ध करत हैं कि दिगंबर अर्वाचीन है ।
उपलब्ध जैन मूर्तियों में से सब से प्राचीन मूर्तियाँ केवल १८०० वर्ष की पुरानी हैं और वे भी दिगंबर संप्रदाय से संबंध नहीं रखती यह जैनो के उवासग्गदसा नाम के सातवें अंग पर रूडॉल्फ हार्नले साहेब ने लिखी हुई प्रस्तावना के निम्न लिखित अवतरण से स्पष्ट हो जाता है ।
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(५०)
" मथुरा से कुछ लेख ऐसे मिले हैं जिन से इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलजाता है कि इसवी सन् की पहली सदी में श्वेतांबर संप्रदाय का अस्तित्व था। ये लेख जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों के पदों पर मिले हैं और इनमें कनिष्क हुविष्फ और वासुदव नामक प्रसिद्ध राजाओं का संवत् दिया है । ये राजा सिथिया देश के थे, परन्तु भारतवर्प पर भी
राज्य करते थे । मालूम होता है कि इनका संवत् अब शक __ के नाम से प्रसिद्ध है, जो ईसवी सन ७८-७९ से शुरू होता
है । इन लेखो में लिखा हुआ है कि ये मूर्तियाँ श्वेताम्बर ___ संप्रदाय के अनुयायियों की भक्ति का स्मारक हैं । इन मूर्तियो
की स्थापना करने वाले दिगंबर न थे किन्तु श्वेताबर थे, इस बात का पता यों लगता है कि मूर्तियों पर जो लेख हैं उनमे जैन साधुओं के कुछ गणो के नाम लिखे हैं और इन गणों के नाम श्वेतांबरों के कल्प सूत्र की स्थविरावली में भी मिलने हैं। अतएव यह सिध्द होता है कि ये मूर्तियां श्वेतावर संप्रदाय की हैं। इस बात का हम एक उदाहरण देते हैं । इन मूर्तियो के लेखों मे से एक लेख कनिष्क के राज्य काल के नवे वर्ष का ( अर्थात् ईसवी सन् ८७-८८ का ) है । उममे लिखा है कि उस मूर्ति की स्थापना कोटिया ( अथवा कोटिक गण ) के नागनंदिन नामक धर्मगुरु के उपदेश से विकटा नामक एक जैन श्राविका ने की थी । इस गण की स्थापना स्थविरावली के अनुसार स्थविर सुस्थित
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ने की थी जो ई. स. पूर्व १५४ महावीर के ३१३ वर्ष पीछे मोक्षगामी हुवे। इस प्रकार परोक्ष रूप से मथुरा के लेख इस बातकी साक्षी देते हैं कि इसा से पूर्व दूसरी शताब्दी के मध्य में श्वेतांबर संप्रदाय का अस्तित्व था।
उपरोक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि मथुरा में जो जैन मूर्तियां भूगर्भ से निकाली गई हैं वे दिगंबर संप्रदाय की नहीं किन्तु श्वेतांबर संप्रदाय की हैं। इस बात का भी पता लग चुका है कि उन मूर्तियों को छोडकर जिनका पता पुरातत्त्वज्ञों ने लगाया है भारतवर्ष के जैन मंदिरों की असंख्य मूर्तियों में दिगंवर संप्रदाय की एक मूर्ति भी नहीं है जो मथुरा में मिली हुई मूर्तियों के बराबर प्राचीन हो । अतएव यह मानना गलत नहीं है कि इसवी सन् की पहली सदी मे दिगंबरों का अस्तित्व न था और इसलिए यह स्पष्ट है कि वे अर्वाचीन हैं।
८ दिगंबर शास्त्रों मे महावीर के प्रसिद्ध प्रतिद्वंदी मक्खलीपुत्र गोशाला का उल्लेख कहीं नहीं मिलता परन्तु जैन और बौद्ध सूत्रों में गोशाला के जीवन चरित्र और सिद्धान्तों फा संपूर्ण वृतान्त दिया है । यह बात बडे महत्व की है और निश्चित रूप से सिद्ध कर देती है कि दिगंवर तथा उनके सूत्र अर्वाचीन हैं।
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(५२)
इस बात की पुष्टि करने के लिये और दलीलें देना व्यर्थ क्यों कि हम ऊपर काफी दलील दे चुके हैं जिनसे निर्पक्ष मनुष्य यह परिणाम निकाल सकते हैं कि दिगंबर और उनके शास्त्र निस्संदेह अर्वाचीन हैं और असली तथा मूल संघ से उनकी उत्पत्ति पीछे हुई है ।
दिगंबरों की उत्पत्ति ।
कैसे
अब यह मालूम करना चाहिये कि दिगंबर कब और जुदा हुए | इस विषय में हमको धर्मसागर कृत प्रवचन परिक्षा नामक ग्रंथ से सहायता मिलती है। इस ग्रंथ में दिगंबरों की उत्पत्ति इस प्रकार दी है:--
रथवीरपुर नामक नगर में शिवभूति उर्फ सहस्रमल नामका एक मनुष्य रहता था। वह उस नगर के राजा का खास सेवक था । एक दिन राजा की माता ने उसपर वडा क्रोध किया इसलिये वह तुरंत ही नौकरी छोडकर जैन साधु बन गया । एक बार राजा ने उसको एक बहुमूल्य दुशाला दिया । इस दुशाले से उसको मोह हो गया । उसके गुरु आर्यकृष्ण उसपर बडे कुपित हुए क्यों कि सांसारिक पदार्थों से मोह रखना साधुओं के धर्म के विरूद्ध है और इसलिये उन्होंने उसे दुशाला त्याग देने की सम्मति दी, परन्तु उसने अपने गुरु की आज्ञा का पालन न किया । एक दिन जब शिवभूति कहीं गया हुआ था आर्यकृष्ण ने
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(५३) उसके दुशाले को फाडकर टुकडे २ कर डाले । दुशाले को इस प्रकार नष्ट किये जाने पर शिवभूति को बहा क्रोध आया और वह तर्क करने लगा कि यदि वस्त्रों से मोह उत्पन्न हो जाता है
तो उनको सर्वथा ही त्याग देना उचित है । इतना कहकर ___ उसने नग्न रहने का व्रत धारण कर अपने गुरु को त्याग दिया व एक नवीन धर्म का प्रचार कर उसके सिद्धान्तों में नग्नता को प्रधानता दी । वह अपने आप को दिगंबर कहने लगा और उसी समय से दिगंबर संप्रदाय का संस्थापन होगया । उसकी भगिनी उसके धर्म की अनुयायी होगई
और उससे नग्न रहने की आज्ञा मांगी। शिवभूति ने उसे ऐसा करने से रोका और यह उपदेश दिया कि स्त्रियां मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती। कहा जाता है कि यह घटना ईसवी सन् की दूसरी शताब्दी के मध्य में हुई थी। इस प्रकार दिगंबरों की उत्पत्ति की कथा है। परन्तु यदि इस कथा की सच्चाई पर संदेह भी किया जाय तो दिगंबरों के अर्वाचीन होने की जो दलीलें ऊपर दी गई हैं उनकी सत्यता पर किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता, क्यों कि वे ऐतिहासिक प्रमाणों पर अवलम्बित हैं।
जैनों का नाम श्वेतांबर कैसे पड़ गया।
जब शिवभूति ने नग्न रहने का व्रत धारण कर लिया और दिगंवर संप्रदाय की स्थापना की, तब यह स्वाभारिक
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(५४) ही था कि लोग मूल संघ को जिस में सर्वथा नग्न रहने __ का सिद्धांत न था और जो श्वेत वस्त्र धारण करने का
निषेध नहीं करता था, श्वेतांवर संप्रदाय कहने लगे, क्यों कि ऐसा करने ही से मूल संघ और नवीन दिगंबर संप्रदाय में भेद प्रगट किया जा सकता था।
श्वेतांबर, दिगंबरों से प्राचीन हैं।
यह सिद्ध करने के बाद कि दिगंबर और उनके सिद्धांतग्रंथ अर्वाचीन हैं, हम संक्षेप में यह भी बतलायेंगे कि श्वेतांबर दिगंबरों से प्राचीन क्यों हैं।
दिगंबरो की आलोचना करते समय हम यह बतला __चुके हैं कि समस्त बौद्ध सिद्धान्तों मे और प्रामाणिक प्राचीन
जैन शास्त्रों में भी दिगंबर संप्रदाय ऐसे नामका कहीं उल्लेख नही किया गया । असली बात यह है कि मूलसे ही जैनों का केवल एक ही संप्रदाय था परन्तु जब शिवभूति ने सर्वथा नग्न रहने का उपदेश दिया और इस प्रकार दिगंबर संप्रदाय की स्थापना की तब इस नवीन संप्रदाय से भेद करने के लिये असली जैन, श्वेतांबर कहलाने लगे । इसी कारण हमको प्राचीन जैन और बौद्ध शास्त्रों में श्वेतांबर इस नामका का भी उल्लेख नहीं मिलता।
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(५५)
जैन और बौद्ध शास्त्रों में जैन साधुओं को सर्वत्र निग्गंथ, श्रमण अथवा मुनि कहा गया है और उनके गृहस्थ शिष्यों को श्रावक कहा गया है । दिगंबर अथवा श्वेताम्बर जैसे सांप्रदायिक नामों का उल्लेख इन ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता। श्वेताम्बर ही जैन धर्म के असली और सबसे
प्राचीन अनुयायी हैं। हम यह भी अच्छी तरह दिखला चुके हैं कि हम आज कल जिन ग्रंथों को श्वेताम्बर जैन सिद्धांत कहते है वे ही सब से प्राचीन और प्रामाणिक जैन शास्त्र हैं और महावीर के समय से लगाकर आजतक परंपरा ले श्वेताम्बरों मे उनका प्रचार चला आता है। वैसे ही हम यह ऊपर बतला चुके हैं कि श्वेताम्बर नाम का उसी समय अस्तित्व हुआ जब दिगंबर लोग जैन धर्म के असली अनुयायियों मे पृथक् हो गये और उनका एक जुदा संप्रदाय बन गया। ऐसी सूरत में यह स्वाभाविक परिणाम निकलता है कि श्वेताम्बर यद्यपि दूसरे नाम से पुकारे जाते थे महावीर के रामय के पहले भी मौजूद थे और इसलिए वे जैन धर्भ के सब से प्राचीन अनुयायी हैं। केवल सूर्ति पूजा न करने वाले श्वताम्बर ही
जैन धर्म के सचे अनुयायी हैं। श्वेताम्मरों की प्राचीनता सिद्ध करके अब हम इस बात
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का निर्णय करेंगे कि श्वेताम्बरों का कौनसा संप्रदाय-मूर्तिपूजा न करने वाला या मूर्तिपूजा करने वाला-महावीर के असली उपदेशों का सच्चा अनुयायी है व मूर्तिपूजकों के इस कथन में कि मूर्ति पूजा न करने वाले (स्थानक वासी ) जैन धर्म के सच्चे अनुयायी नहीं है और इसलिए वे अर्वाचीन हैं कुछ सार है या नहीं।
जैन धर्म के कुछ सिद्धांतों की निर्पक्ष और गहरी छानबीन करने से ही यह अत्यंत महत्वपूर्ण और पेचीदी समस्या हल की जा सकती है।
__ सबसे पहला प्रश्न मूर्तिपूजा का है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों का यह कथन है कि तीर्थंकरों ने मुक्ति प्राप्त करने के लिए मूर्ति पूजा का विधान किया है, परन्तु मूर्तिपूजा न करने वाले इसका विरोध करते हैं।
मूर्तिपूजा के प्रश्न पर कई सदियों से लगातार वादविवाद हुआ है और निर्पक्ष और परमेश्वर से डरने वाले मनुष्यों को यह दिखाई देगा कि यह प्रश्न सदा के लिए संतोप जनक हल हो चुका है। जैन धर्म में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है।
समस्त जैन शास्रों में तीर्थकरोंने मूर्तिपूजा का विधान कहीं नहीं किया। विधान ही क्या, उन्होंने इस बात का
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किंचित इशारा भी नहीं किया। हम इस अपने मत का समर्थन करने के लिए आगे चलकर कई दृष्टियों से इस प्रश्न पर प्रकाश डालते हैं:
१ उपासकदशांग और आचारांग नामके दो जैन सूत्र इस विषय पर बहुत प्रकाश डालते हैं और इस लिये इन प्रों की छानबीन करेंगे।
उपासकदशांग में महावीर के मुख्य दस श्रावकों के सविस्तार जीवन चरित्र दिये हैं और उसमें जैन श्रावकों के आचार व्यवहार के नियम और व्रत ठीक उसी प्रकार समझाये गये हैं जिस प्रकार आचारांग मे जैन साधुओं के लिए नियम और व्रत दिये है।
श्रावक और साधुओं को आचार के नियमों को ठीक ठीक समझने के लिए खामकर इन्हीं दो ग्रंथों का आश्रय लेना पडता है । इन दो प्रामाणिक अंगों में व अन्य शास्त्रों में भी मूर्तिपूजा का जिसे मूर्तिपूजक मुक्ति प्राप्त करने का एक मात्र साधन बताते हैं, तनिक भी उल्लेख नहीं है। यदि महावीर मूर्तिपूजा को जैन धर्म का आवश्यक अंग समझते तो वे साधुओं और श्रावकों के व्रतों में मूर्तिपूजा का समावेश करने से कदापि न चूकते।
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(५८)
२ उपासकदशांग सूत्र में महावीर के दस श्रावकों के धन और संपत्ति का पूर्ण विवरण दिया है । उनकी संपत्ति का उल्लेख करने में तीर्थंकरों की पूजा के निमित्त मंदिरो का उल्लेख कहीं नही आया ।
३ जैन शास्त्रों में हमको ऐसे श्रावकों के वर्णन मिलते हैं जो झुण्ड के झुण्ड महावीर को वंदन करने के लिये गये परन्तु यह कहीं नहीं लिखा कि वे मंदिरों के दर्शन करने के लिये या तीर्थ यात्रा करने के लिये गये हों।
४ जब महावीर के दस श्रावकों ने गृहस्थाश्रम तथा संपत्ति को त्याग कर श्रावकों की पडिमाओ को धारण किया तब वे पापधशालाओं में गये परन्तु वे ऐसे मंदिरों मे न गये जिनमें तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ थी । यदि उस समय मंदिर होते और मूर्तिपूजा का प्रचार होता तो ये श्रावक चित्तको आकर्पण न करनेवाली पौपधशालाओं में न जाकर तीर्थंकरो की मूर्तियों से पवित्र किये गये मंदिरो में ही जाते ।
५ महावीर ने राजाओ और रईसों मे भी जैनधर्म के सिद्धान्तो का प्रचार किया और उन्होंने यह उपदेश दिया कि केवल आत्म-निरोध, आत्म-संयम और अन्य सद्गुण, जिनके लिय स्वार्थ त्याग करना पडता है, मुक्ति प्राप्त करने के माधन है । परन्तु उन्होंने यह उपदेश कभी नहीं
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(५९) दिया कि मूर्ति-पूजा करने से तथा मंदिर बनवाने से निवार्ण की प्राप्ति हो सकती है।
६ स्वयं जैन सूत्रों में ही कई विशाल नगरों के वर्णन लिखे हैं, जिनमें यक्षो की मूर्तियो और मंदिरों का कई बार उल्लेख आया है परन्तु जैन मंदिरो अथवा तीर्थंकरों की मूर्तियों का जिक्र कहीं नहीं हुआ यह बात बडे महत्व की है और मूर्तिपूजा के अस्तित्व को झूठा सावित करने के लिये एक अकाट्य प्रमाण है । यदि उस समय मूर्तिपूजा का प्रचार होता तो यह असंभव था कि शास्त्रो में उसका उल्लेख बिलकुल न किया जाता।
(७) महावीर ने साधु-व्रत ग्रहण करने के बाद कई नगरो में विहार किया था। जैन सूत्रों में जहां पर उनके विहार का वर्णन है वहां पर यक्षों के कई मंदिरों का उल्लेख किया है, परन्तु जैन मंदिरो अथवा मूर्तियो का उल्लेख कहीं नहीं है । सूत्रो में यह भी लिखा है कि महावीर ऐसे उपवनों में ठहरे जिनका नाम उनमें पधराई हुई यक्ष-मूर्तियों के नाम पर रक्खा गया था, परन्तु समस्त शास्त्र-संग्रह में यह कहीं नहीं लिखा कि विहार करते करते महावीर ऐसे मंदिरों में ठहरे जिनमें तीर्थंकरों की मूर्तियां थीं अथवा उन्होंने ऐसे उपवनों में विश्राम किया जिनका नाम उनमें स्थापित की हुई जैन मूर्तियों के नाम पर रखा गया हो।
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(६०) यह बात याद रखने के योग्य है और महावीर के समय में मूर्ति-पूजा के अभाव को अकाट्य प्रमाणों से सिद्ध करती है। यदि उस समय जैन मंदिर होते, तो महावीर उनमे ही ठहरना अधिक अच्छा समझते । वे यक्षों के मंदिरों में। अथवा यों कहना चाहिये कि उन उपवनों में, जिनका नाम यक्षों के नाम पर रक्खा गया था, कभी न ठहरते ।
(८) जिस प्रकार उपासकदशांग में महावीर ने श्रावकों के लिये नियम बतलाये हैं उसी प्रकार उन्होने, आचाराङ्ग में साधुओं के वास्ते नियम दिये हैं। इस पिछले ग्रंथ में उन्होंने यह बतलाया है कि साधुओं अथवा साध्वियो को कितने वस्त्र रखना चाहिये, उनकी लम्बाई चौड़ाई कितनी हो, उनका रंग कैसा हो और वे किम प्रकार के हों । उन्होंने यह भी लिखा है कि साधुओं को कितने और किम प्रकार के पात्र रखने चाहिए। इसके सिवाय उन्होने बड़े विस्तार के साथ चलने, बैठने, बोलने, खाने, पीने इत्यादि के नियम दिये हैं। साधुओं को धर्म संबंधी जितने कार्य करने चाहिये उन्में से प्रत्येक को उन्होंने बहुत अच्छी तरह समझा दिया है। सारांश यह है कि उन्होंने इस विषय का ऐसा विस्तार पूर्वक विवेचन किया है कि आचाराङ्ग साधुओं के लिए एक समय-विभाजक-चक्र बन गया है, परन्तु उनके नित्यप्रति के धर्म मंबंधी कार्यों में मूर्तियों को व मंदिरों को स्थान नहीं दिया गया ।
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(६१)
तीर्थकरों ने साधुओं और श्रावकों के विषय में इतना विस्तारपूर्वक विवेचन किया है, परन्तु उन्होंने मंदिगे और मूर्तिपूजा के विषय में कुछ नहीं कहा-यह बात ध्यान देने योग्य है और बड़े महत्त्व की है।
(९) बहुत से अन्य शास्त्रो मे भी साधुओ और भावकों के लिए आचार संबंधी नियम लिखे हैं, परन्तु उनमें मूर्तिपूजा का विधान कहीं नहीं मिलता | यदि मूर्ति-पूजकों के कथनानुसार मूर्तियों और मंदिरों के बनवाने से मुक्ति मिलती होती, तो सर्वज्ञ महावीर, सूत्रों में इस महत्वपूर्ण विषय का समावेश बिना किये कभी नहीं रहते।
(१०) यदि तीर्थंकरो ने मूर्ति-पूजा करने और मदिर बनवाने का विधान किया होता, तो वे यह बताना न भूलते कि मूर्ति किस आसन मे होनी चाहिए, किस पदार्थ की बननी चाहिए, उसकी प्रतिष्ठा और पूजन के समय किन मंत्रों का उच्चारण करना चाहिए, आभूषण किस प्रकार के होने चाहिए, पूजन किस प्रकार होना चाहिए, उनमें किस सामग्री का प्रयोग करना चाहिए और मूर्तियों से संबंध रखने वाले अन्य कार्य कैसे होने चाहिए।
(११) यह बात प्रसिद्ध है कि महावीर, गौतम बुद्ध के समकालीन थे और इसलिए बौद्ध सूत्र महावीर के बतलाये
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हुए जैन सिद्धान्तो मे और जैन साधुओ और श्रावको के आचारो के हवालो से भरे पड़े हैं। परन्तु बौद्ध शास्त्रों में यह कहीं नहीं लिखा कि जैनधर्म के सिद्धान्तों मे मूर्ति-पूजा का भी विधान है। यदि महावीर ने मूर्ति-पूजा का उपदेश किया होता तो बौद्ध जैनों पर तीव्र कटाक्ष करने से और उनका उपहास करने से कभी न चूकते, क्यों कि मूर्ति-पूजा का प्रचार, जो बौद्धो के केवल एक सम्प्रदाय मे अभी पाया जाता है, गौतम बुद्ध के निर्वाण के बहुत समय बाद हुआ है।
(१२) बौद्ध सूत्रो में उन जैन सिद्धान्तों पर जो बौद्ध सिद्धान्तो से भिन्न है, तीव्र कटाक्ष किया गया है और उनको गलत समझाया गया है । इसलिए यदि जैनधर्म मे मूर्ति-पूजा का विधान होता तो हम को वौद्ध सूत्रों में अवश्य ही इस सिद्धान्त की कड़ी समालोचना मिलती।
चूंकि बौद्ध ग्रंथो में मूर्ति-पूजा पर कोई कटाक्ष अथवा नाम मात्र के लिए भी कोई हवाला नहीं मिलता, इसलिए हम केवल एक ही नतीजे पर पहुच सकते हैं और वह यह है कि महावीर के समय में जैनों में मूर्ति-पूजा न थी और महावीर ने न कभी इस विपय का उपदेश दिया ।
(१३) पुगतत्व की खोज करते समय भारतवर्ष के भिन्न भिन्न प्रदेशों में कई जैन मूर्तिया भूगर्भ से निकाली गई
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हैं, परन्तु अभतिक एक भी मूर्ति ऐसी नहीं मिली जिसके लेख से यह सूचित होता हो कि वह महावीर अथवा उनके पूर्ववर्ती अन्य तीर्थंकरों के समय की हो । सबसे प्राचीन मूर्तियॉ, जो डॉक्टर फूहरर को मथुरा में मिली हैं केवल १८०० वर्ष की पुरानी हैं।
(१४) मूर्तिपूजकों का मन है कि पालीताना, गिरनार आबू, तारंगा, शत्रुजय और अन्य पर्वतों पर जो मंदिर और मूर्तियां हैं वे बहुत प्राचीन हैं और इसलिए वे कहते हैं कि मूर्तिपूजा का प्रचार तीर्थंकरों ने किया है । परन्तु पुरातत्वज्ञों ने इन मूर्तियों और मंदिरों के समस्त लेखों की देख भाल की है और उन्होंने यह निर्णय किया है कि ये अर्वाचीन हैं, इनकी स्थापना महावीर के बाद कई सदिया बीत जाने पर हुई है और ये मथुरा में मिली हुई मूर्तियों के बरोबर भी प्राचीन नहीं हैं । हम ऊपर वतलाही चुके हैं कि मथुरा की मूर्तियों भी डॉक्टर फूहरर के कथनानुसार १८०० वर्ष की प्राचीन हैं।
(१५) उन मूर्तियों के अतिरिक्त, जो पुरातत्वज्ञों ने खोदकर निकाली हैं, भारतवर्ष में हजारों जैन मंदिर हैं और लाखों मूर्तियाँ हैं, परन्तु उन में एक मूर्ति भी ऐसी नहीं है जिसके लेख और संवत यह सूचित करते हों कि वह महावीर पार्श्वनाथ अथवा अन्य किसी पूर्ववर्ती तीर्थंकर के समय की हो।
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(६४) यह बात बडी विचित्र और महत्वपूर्ण है। इससे सिद्ध होता है कि मूर्तिपूजा की प्राचीनता के पक्ष में मूर्तिपूजकोंकी दलील बहुत कमजोर है। यदि मूर्तिपूजा वास्तव में इतनी प्राचीन होती जितना कि मूर्तिपूजक बतलाते हैं, तो हम को अवश्यमेव कुछ मूर्तियाँ भी ऐसी मिलती जिनके संवत और लेख मूर्तिपूजकों के पक्ष की पुष्टि करते ।
__ यदि हम इस प्रश्न पर दूसरी दृष्टि से विचार करे, तो मालूम होगा कि तीर्थकरों के सिद्धान्त और जीवन ऐसे स्वाभाविक हैं और जैनधर्म के उपदेश ऐसे उदार हैं कि इस बात की तनिक भी संभवना नहीं की जा सकती कि तीर्थंकरों ने पत्थर और धातुओं की मूर्तियों को पूजने का आदेश दिया हो अथवा मूर्तिपूजा का किसी और प्रकार से उपदेश किया हो।
तीर्थकरों ने मोक्ष-मार्ग बतलाते हुए श्रीमंतों को तथा कंगालों को, बडों को तथा छोटों को अपने शिष्यों को तथा विद्यार्थियों को अर्थात् जानिपॉति का भेदमाव छोडकर सब को यह समान उपदेश दिया है कि प्रत्येक जीव को अपने कमों का नाश ( निर्जरा करने ही से मुक्ति मिल सकती है और कमों का नाश-इन्द्विय दमन, स्वार्थत्याग, अमित दया, आत्मनिरोध, घोर तप और अपरिग्रह के द्वारा हो सकता है। उन्होंने स्पष्ट रीति से इस सत्य का उपदेश दिया है कि मनुष्य
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अपने भाग्य का विधाता स्वयं ही है, उसका भविष्य सर्वथा उसी के कर्मों पर, अवलम्बित है और अनंत शान्ति तथा सुख प्राप्त करने के लिए देवताओं अथवा देवियों का पूजन आवश्यक नहीं है।
तीर्थकरों ने इन सिद्धान्तों का केवल उपदेश देकर ही सन्तोष न किया, किन्तु उन्होंने अपना जीवन भी अपने बतलाए हुए आदर्श के अनुसार बना लिया और वे दूसरों को जिन श्रेष्ठ उपदेशों का अनुगामी बनाना चाहते थे उन्हीं आदर्श उपदेशों के उदाहरण उन्होंने स्वयं अपने जीवन में दिनाये । सभी श्रेष्ठ और दैवी गुण तीर्थकरों के जीवनों में गर्भित हैं और इन सद्गुणों की प्राप्ति को प्रत्येक जैन धर्मानुयायी को अपना सौभाग्य समझना चाहिये । इसलिये जैनधर्म के असली भाव समझने के लिए व आंतरिक मर्म से तादात्म्य होने के वास्ते यह आवश्यक है कि जैन शास्त्रों के अर्थ इन पवित्र तीर्थंकरों के जीवनों की घटनाओं की सहायता से लगाये जाये, और जब इस प्रकार अर्थ लगाया जायगा तब मालूम होगा कि जैन तीर्थकरों के जीवन-चरित्र में मूर्ति रजा का लेश भी नहीं है । ___उन्होंने मुक्ति प्राप्ति के लिए मूर्तिपूजा का कष्टरहित मार्ग प्रण नहीं किया। उन्होंने निर्वाण पद पाने के लिए पापाण की मूर्तियों के सामने चार में डाल देने वाली
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पूजन विधियों का अनुसरण नहीं किया । उन्होने कर्म के बंधन मे छुटकारा पाने के लिए मूर्तियों की पूजा करने का अथवा उन पर द्रव्य चढाने की कभी चेष्टा न की । वे जानते थे कि मूर्तिपूजा करना एक प्रकार से रिशवत (चूंस) देना है। घोर तपस्या, अपरिगृह, स्वार्थत्याग, और कष्टसाधना के द्वारा ही उन्होने अपने कमों के बंधन को तोडा और मुक्ति पद को प्राप्त किया, क्यों कि वे इस बात को भली भांति जानते थे कि तीर्थकर न तो किसी दूसरे को कर्म बंधन मे मुक्त कर सकते हैं और न वे प्रकृति के कार्यकारण नामक छः नियम के विरुद्ध चल सकते हैं।
तीर्थकर अपने विश्वव्यापी प्रेम के कारण, अपने अद्वितीय स्वार्थत्याग के कारण, अपनी अखूट दया के कारण व विशषतः मानव जाति पर की हुई अमूल्य सेवाओं के कारण भावी प्रजा की ओर से अमित आदर व प्रतिष्ठा के योग्य है । परन्तु इसके साथ ही साथ यह भी याद रखना चाहिए कि उनकी सब से बडी महत्ता इस कारण है कि वे आत्मनिरोध करत थे, अत्यंत दीन भाव से रहते थे और अपने आपको बिलकुल भूल गये थे । यदि उनमे ये दैवी गुण न होते. तो वे करोडो मनुष्यो के हृदय पर अधिकार जमाने मे सर्वथा असमर्थ और अयोग्य होते । वे दूसरों को देते थे, परन्तु उनसे कुछ लेने का ख्याल भी अपने जी में न लाते थे।
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___ उन्होंने कभी अपनी प्रतिष्ठा-पूजा का ख्याल न किया, किन्तु
वे प्राणी मात्र को प्रेम करने में अपने आप को भी भूल गये
और उन्होंने अपने महत्त्वाकांक्षा रहित जीवन को, पतित मनुष्य नाति के उद्धार में लगा दिया।
एक ओर तो इन बातों को स्वीकार करना और उनकी सराहना करना और दूसरी ओर यह कहना कि तीर्थकरों ने मूर्तियों के रूप में अपनी पूजा कराई और इसी पूजा के अनुपम सौंदर्य को मोक्ष-प्राप्ति का साधन बतलाया, उनके असाधारण और नि:स्वार्थ जीवन और उनके उपदेश किये ए पवित्र और स्वार्थ रहित सिद्धान्तों को कलंकित करना है । ये दोनों बातें इतनी असंगत हैं कि इसका एक दूसरे से मेल बैठना मानव बुद्धि-सामर्थ्य के परे है।
यदि कोई अपने विचारों से पक्षपात निकाल कर, अपने हृदय से धार्मिक ईर्षा को दूर करके और एक मात्र सत्य की खोज करने की इच्छा से इन दैवी आत्माओं के पवित्र जीवन पर क्षणभर शात चित्त से विचार करे. तो मूर्ति-पूजा के विषय मे उसका भ्रम अवश्य दूर हो जायगा और सत्य का संपूर्ण प्रकाश हो उठेगा, जिससे भ्रम में पड़े हुए मूर्ति-पूजकों का मूर्ति-पूजा मंडन का दीर्घकालिक सिद्धान्त एक क्षण भी नहीं ठहर सकेगा।
मूर्तिपूजा के विरुद्ध जैन सूत्रों से और भी बहुत से प्रमाण दिये जा सकते हैं, परन्तु यहां पर उनका उल्लेख
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करने की आवश्यकता नहीं है, क्यों कि हम अब तक जितने प्रमाण दे चुके हैं वे स्वयं ऐसे दृढ हैं कि निपेक्ष मनुष्य को इस बात में अब कुछ भी संदेह नहीं रहेगा कि जैन सूत्रों मे मूर्तिपूजा का सर्वथा अभाव है ।
महावीर के निर्वाण के सातसौ वर्ष बाद मूर्तिपूजा का प्रचार हुआ ।
अब यह प्रश्न स्वाभाविक ही पैदा होता है कि यदि मूर्तिपूजा का प्रचार महावीर ने नहीं किया, तो उसका प्रचार किस तरह हुआ और कब हुआ ? परन्तु इस प्रश्न पर विचार करने का यह स्थान नहीं है । यहां पर इतना ही कह देना पर्याप्त है कि मूर्तियों के सबसे प्राचीन लेखों और उन के संवतों से हम को मालूम होता है कि मूर्तिपूजा का प्रचार आज से १८०० वर्ष पहले या यों कहिए कि महावीर के निर्वाण के ६०० या ७०० वर्ष बाद हुआ है ।
मूर्तिपूजकों को श्वेताम्बर कहना अनुपयुक्त है ।
अब हम को यह देखना चाहिये कि श्वेताम्बरों का मूर्तिपूजक संप्रदाय वस्त्रों के रंग के विषय में महावीर के आदेशो के अनुसार चलता है या नहीं | क्यो कि इन्हीं वस्त्रो के कारण जैन साधुओं को अन्य धर्मावलंबी साधुओ से पहिचाना जा सकता है ।
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उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्याय में हम देख चुके कि केसी और गौतम ने पार्श्वनाथ और महावीर के शासनों का एकीकरण किस तरह किया और पार्श्वनाथ के अनुयायियो ने किस प्रकार रंगीन वस्त्र त्याग कर महावीर के नियमों के अनुसार श्वेत वस्त्रों को धारण कर लिया ।
यद्यपि मूर्तिपूजक संप्रदाय अपने आप को "श्वेताम्बर " कहलाता है ( श्वेत वस्त्र धारण करने वाला ) तो भी यतियों को छोड़ कर इस संप्रदाय के साधु श्वेत वस्त्र धारण नहीं करते, जैसी के हम उनसे आशा कर सकते थे । इससे यह स्पष्ट है कि इस संप्रदाय ने जैन साधुओं के वस्त्रों के विषय में महावीर के आदेशों का सर्वथा अनुकरण नहीं किया ।
विमुख होगया
आदर्श जैन साधु के जीवन की संक्षिप्त व्याख्या । यह बतलाने के लिए कि महावीर के असली उपदेशों और सिद्धान्तों से यह संप्रदाय किस तरह हम अब महावीर के आदेशो के अनुसार जैन साधु की व्याख्या करेंगे और फिर तुलना करके यह बतलायेगे कि मूर्ति-पूजक संप्रदाय के जैन साधु का जविन असली ऊँचे आदर्श मे किन किन बातों में गिर गया है ।
के जीवन
जैन माधु को घर घर गोचरी - भिक्षा करके अपना भोजन प्राप्त करना चाहिये । उसे न तो स्वयं भोजन
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बनाना चाहिये और न किसी दूसरे से भोजन बना देने के लिए कहना चाहिए । उसे गोचरी के लिए किसी का आमंत्रण स्वीकार न करना चाहिए, किन्तु पहले से किसी प्रकार की सूचना दिये बिना ही उसे गोचरी के लिए जाना चाहिये । उसको न तो सवारी में बैठ कर जाना चाहिए और न स्वयं किसी सवारी को चलाना चाहिये, बल्कि उसको सदा पैदल चलना चाहिये और अपनी निगाह नीचे जमीन पर रखनी चाहिए जिसमे कि उसके पैरों के नीचे कोई जीव जन्तु न कुचल जाय । उमको केवल वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चार मास तक ठहरना चाहिये और शेष ऋतुओं में एक स्थान पर एक मास से अधिक न ठहरना चाहिए। उमको स्वयं अपने हाथों से केश-लुवन करना चाहिये और किमी नाई से हजामत न बनवानी चाहिये । उसको जैन शास्त्रों में कहे हुए बाईम परिषहो को शान्ति और संतोष पूर्वक सहन करना चाहिये और अखंड ब्रह्मचारी रहना चाहिए। उपको अपने पास न तो द्रव्य (रुपया-पैसा आदि) रखना चाहिये और न ऐसी चीजें रखना चाहिये जैसे मकान, जमीन इत्यादि और उसे अपना समस्त समय धार्मिक कार्यों में लगाना चाहिए। सारांश यह है कि उसे प्रत्येक प्रकार के परिग्रह से दूर रहना चाहिए
और शास्त्रों में कहे हुए साधुओं के पंच महाव्रतों क पालन में अपना समय लगाना चाहिए। ये जैन साधु के जीवन • की खास २ बाते हैं। अब हम इम जीवन से मूर्ति-पूजक - संप्रदाय के साधुओं के जीवन का मिलान करेंगे।
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मूर्तिपूजक श्वेताम्बर संप्रदाय के साधु के जीवन का मिलान ।
मूर्ति-पूजक श्वेताम्बर संप्रदाय के साधुओ के तीन विभाग हैं: - (१) यति, (२) श्रीपूज्यजी, और ( ३ ) संवेगी | न तो ये विभाग जैन सूत्रों में बतलाये गये हैं और न संवेगी और श्री पूज्य ये शब्द जैन अथवा बौद्ध सूत्रों में कही आये हैं । अतएव इनको अर्वाचीन ही मानना होगा। वैसे ही जब कि इस संप्रदाय में साधुओ के तीन विभाग है तो इन तीनों विभागों के लिए आचार के भिन्न भिन्न नियमों का होना आपही से सिद्ध होता है !
मूर्ति पूजक अपने साधुओं की सबसे अधिक प्रतिष्ठा करते हैं । इन संवेगियो के आचार की परीक्षा करने से मालूम होगा कि महावीर के बताये हुए नियमों से ये बहुत पतित हो गये हैं । इन्होंने अपने वस्त्रों में बड़ा परिवर्तन कर ढाला है । ये जैन धर्म के नियमों के विरुद्ध पीले वस्त्र धारण
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करते हैं और इसी प्रकार अन्य पदार्थों का उपयोग करते हैं । इनमे से कुछ रुपये-पैसे का लेन-देन भी करते हैं । यह बात अन्य दो विभागों के विषय में भी ठीक है । यतियों और श्रीवृज्यों के पान घड़ी बटी मिलकियतें हैं और वे सन प्रकार के धंदे करते है । यह पात महावीर के स्पष्ट आदेश के सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि उनका यह उपदेश है कि किसी जैन माधु
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को तनिक भी परिग्रह रखना नहीं चाहिए । कदाचित् इन साधुओं में कुछ ऐसे भी होंगे कि जिनके जीवन ऐसे पवित्र हों किं वे समस्त जैनों की प्रतिष्ठा के पात्र बन सकें; परन्तु इस बात से हमारे इस मत का तनिक भी खंडन नहीं होता कि इनमें का अधिकांश भाग उस आदर्श पर जो कि महावीर ने जैन साधुओं के जीवन के लिए निर्धारित किया था जमा हुआ नहीं है ।
स्थानकवासी जैन साधुओं के जीवन की परीक्षा ।
यदि हम स्थानकवासी अर्थात् मूर्ति-पूजा न करने वाले संप्रदाय के साधुओं के आचार की परीक्षा करें, तो हमको मालूम होगा कि वे न तो अपने पास द्रव्य रखते हैं, न सवारी में बैठ कर फिरते हैं, न मिलकियत रखते हैं, न गोचरी के लिये आमंत्रण स्वीकार करते हैं, न नियमों के विरुद्ध एक ही स्थान पर बहुत दिनों तक ठहरते हैं, न यात्राएँ करते हैं, न मूर्ति पूजा करते हैं, न रंगीन वस्त्र धारण करते हैं और न अपना समय संसार के झंझटों में लगाते हैं । सारांश यह है कि वे शास्त्र-वर्जित सभी बातों से अलग रहते हैं और यथाशक्ति उस आदर्श जीवन का अनुचरण करते हैं जो महावीर ने साधुओं के लिये बतलाया है ।
ऊपर कही हुई बातों से प्रत्येक समझदार मनुष्य को विश्वास हो जायगा कि मूर्ति पूजक संप्रदाय के साधुओं का
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जीवन शास्त्र-विहित नियमों के अनुकूल नहीं है, अतएव ऐसे साधुओं के श्रावकों से शास्त्र-विहीत नियमों के अनुसार चलने की और भी कम आशा की जा सकती है।
जो साधु परिग्रह रखते हैं, सूत्रों के नियमो के अनुकूल नहीं चलते और संसार के सुखो की खोज में रहते हैं, उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि वे अपने अनुयायियो को सत्य की शिक्षा दें और इसीलिए वे अपने शिष्यों के चरित्र को उत्तमतर बनाने के अयोग्य हैं। वे जैन धर्म के सच्चे सिद्धान्तों का प्रचार करने से डरते हैं, क्यों कि वे जानते हैं कि उनके आचरण में और उनके उपदेशित सिद्धान्तों में जो बहुत बडा भेद दिखलाई देगा उसके कारण उनके प्रति उनके अनुयायियों की श्रद्धा कम हो जायगी व संघ उनको बहिष्कृत फर देगा । इसका फल यह हुआ कि मूर्ति पूजक संप्रदाय के साधु और उनके प्रावक दोनों ही जैन धर्म के असली सिद्धान्तों से परान्मुख होगये ।
उपसंहार । ऐसी अवस्था में मूर्ति पूजक संप्रदाय न्याय पूर्वक इस यात का दावा नहीं कर नकते कि वे महावीर के अमली और सपचे अनुयायी ६ । इसलिये यही मानना होगा कि वे मूल संप से अलग होगरे है और उन्होंने अपना एक पृथक प्राय बना लिया है।
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हमने ऊपर जो तुलना की है उसमें मूर्तिपूजक संप्रदाय साधुओं के जीवन चरित्र में जो भिन्नताएँ प्रकट रूप में दिखाई देती हैं उनका दिग्दर्षन मात्र है । यदि हम जैन सूत्रों के अनुसार उनकी अच्छी तरह परिक्षा करें तो हमारे इस मत का और भी समर्थन होगा कि वे किसी भी तरह महावीर के असली और सच्चे अनुयायी नहीं कहे जा सकते ।
यह सिद्ध करके कि दिगंबर तथा मूर्ति पूजक श्वेताम्बर महावीर के असली अनुयायी नहीं है, अब हम मूर्ति पूजा न करने वाले संप्रदाय का, जो कि जन साधारण में स्थानकवासी के नाम से प्रसिद्ध है, और महावीर का असली व सच्चा अनुयायी है, कुछ वर्णन करेगे । यही संप्रदाय महावीर का असली और सच्चा अनुयायी है ।
मूर्ति पूजा के हानिकारक फल |
इसके लिए यह आवश्यक है कि हम भूत काल पर दृष्टिपात करें । हम ऊपर यह सिद्ध कर आये हैं कि मूर्ति पूजा का प्रचार महावीर के बहुत बाद हुआ है और मूर्ति पूजा के साथ ही उससे उत्पन्न होने वाली अनेक बुराइयां भी आईं। धार्मिक सिद्धान्तों पर जिन साधुओं को संदेह था उन्होंने अपनी स्वार्थ वृत्ति को पुष्ट करने के लिए मूर्ति पूजा का प्रचार किया। स्वार्थ साधन के लिए उनको द्रव्य की
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आवश्यकता हुई, परन्तु दूसरों से द्रव्य मांगने का व उसे प्रकट रूप में अपने पास रखने का जब वे साहस न कर सके तब उन्होंने मूर्ति पूजा की नई तरकीब निकाली और अपने अनुयायियों को मूर्तियों के पूजन और दूसरे खर्च के लिए द्रव्य दान करने का उपदेश दिया । जैसी कि आशा की जा सकती थी मूर्ति पूजा उनको लाभप्रद हुई और वे साधु धीरप और चतुराई से इस खजाने का दुरूपयोग करने लग गये। ज्यों ज्यों समय बीता वे इन्द्रियों के क्षणिक सुख में लिप्त होते गये और विपय वासनाओं के दास बन गये। जब उनक धार्मिक भावों का लोप हो गया तब वे दांभिक हो गये। सच्चे साधुओं का मार्ग तलवार की धारा के समान तेज-कठिन होता है किन्तु जब वे इस मार्ग पर न चल सके, तव अपने स्वार्थ साधन के निमित्त व अपने पतित आचरणोंके अनुकुल हो इस प्रकार शास्त्रो का विपरीत अर्थ करने लगे । जब वे धार्मिक तत्त्वों के असली अभिप्राय को समझने की शक्ति को खो बैठे, तय उन्होंने लौकिक वातों को आध्यात्मिक में, नाश को प्राप्त होने वाले पदार्थों को स्थायी में और असत्य को सत्य में उलझा दिया।
अहंकार के आजाने से सत्य का लोप हो गया और जब साधु धार्मिक निडान्नों को उलटी दृष्टि से देखने लगे
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तब वे अर्थ का अनर्थ करके अपना मतलब गांठने लगे। इस स्वार्थ-साधन के कारण कई बुराइयां उप्तन्न हो गई। इस प्रकार जब वे संसार के झगडों मे बुरी तरह उलझ गये, अपने अनुयायियों की सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति करने के अयोग्य हो गये, व अपना स्वार्थ साधन करने के लिये कल्पित सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने लगे।
मनुष्य प्राणी स्वाभाविकतया मोज शोक और ऐश आराम को पसंद करता है। इन्ही स्वाभाविक मानसिक वृत्तियों का लाभ लेकर इन स्वार्थी और पतित साधुओं ने मूर्तिपूजा की अनेक मनमानी रीतियां निर्माण की और शास्त्रों के आदेशों की ओर से मुँह मोड लिया। उन्होंने मुक्ति-प्राप्ति का भाव सस्ता कर दिया। इस प्रकार असली बातों के स्थान में बनावटी बातों का प्रचार करके उन्होंने धर्मका रूप बिलकुलही बदल दिया और उसे एक विलकुल नया और विचित्र रूप दे दिया।
___उपरोक्त कथन की सत्यता की जांच करने के लिये अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों के मंदिरों मे जो धार्मिक क्रियाएँ प्रचलित हैं उनसे हमारे कथन की सत्यता मालूम हो सकती है। इन निरर्थक क्रियाओंका जैन शालों में कहीं भी उल्लेख न होनेका कारण यही है कि मोक्ष प्राप्ति के लिये जिस
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स्वार्थ-त्याग व मानसिक पवित्रता की आवश्यकता होती है वह इससे मिल नहीं सकती।
लूर्तिपुजा की विचित्रता। यद्यपि मूर्तिपूजा जैनधर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध है तो भी इस अशुद्ध पूजन मे भी मूर्तिपूजकों की मूर्ति संबंधी कृति लिकुल ही असंगत है। वे तीर्थंकरों पर रागद्वेषादि मानसिक वृत्तियों और दोपों को आरोपित करते हैं परंतु तीर्थकर संसार के समस्त झंझटों से परे थे। तीर्थकरों को सर्वोश आदर्श मान कर उनका कनुकरण करने की जगह वे उनको अपने कर्मों का न्यायकर्ता समझते हैं। वे, त्यागी तीर्थकर और अन्य मतावलम्बियों के देवताओ में जो कि उनके भक्तों की पूजा व खुशामद से प्रसन्न होकर भक्तो की भक्ती के प्रमाण से अनुग्रह करते हैं, कुछ भी भेद नहीं समझ सकते।
___एफ पुत्र प्राप्ति के लिए मूर्ति को प्रणाम करता है तो दूसरा धन के लिए व तीसरा अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये । इस प्रकार हर एक अपन स्वार्थवश मूर्ति की पूजा करता है। हमारे देखने में कई बार आता है कि फई लोग तीर्थफरों की अपने सामारिक इच्छाओं की पूर्ति फे लिए माननाएं परते हैं और उनके नाम पर जहां तक उनकी पूछा पूरी न हो जाय यहां तक किनी न किसी
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वस्तु को खाने का त्याग कर देते हैं। वैसे ही अपने भले या बुरे कामों में सफलता को पाने के लिए कई लोग मूर्तियों को छत्र, चंवर, अंगी, केशर अथवा अन्य पदार्थ चढ़ाने का वचन देते हैं। जो लोग तीर्थकरों को इस प्रकार के पदार्थ और अन्य कीमती वस्तुएँ भेंट करने का गलत और धोका देने वाले ख्याल से पचन देते हैं उनकी यह समझ है कि तीर्थंकर, जो आकांक्षा, लोभ और संसार की अन्य तुच्छ बातों से अलग हैं, अचल न्याय के प्रवाह को बदल कर उनके कर्मों का ख्याल न कर उनकी इच्छानुसार न्याय देंगे।
__ भ्रम में पड़े हुए इन बेचारे अनुयायियों पर बड़ा तरस आता है ! महावीर द्वारा उपदेशित ऊंचे और श्रेष्ठ सिद्धान्तों को वे न समझ सके और इसी कारण वे ऐसी स्वार्थ से भरी हुई इच्छायें किया करते हैं जो कि उनको उत्तम तत्त्वो की प्राप्ति से वंचित रखती है ।
हम ऊपर जो कुछ कह चुके हैं उसकी सत्यता मे संदेह करने की आवश्यकता नही है। क्या यह कोई बतला सकेगा कि मूर्तिपूजकों में से कितने मनुष्य ऐसे हैं जो केवल आत्मिक उन्नति करने के लिये और मुक्ति प्राप्त करने के हेतु ही यात्राएँ करते हैं, मूर्तियों के सामने धनधान्यादि चढाते हैं और लंबी च.डी पूजाएँ करते हैं ? यदि प्रत्येक
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मूर्तिपूजक अथवा प्रत्येक यात्री इस प्रश्न का उत्तर प्रामाणिकता से और अपनी सदसद्विवेक बुद्धिके अनुसार दे, तो उसको उपरोक्त कथन की सत्यता अच्छी तरह मालूम हो सकती है ।
___मूर्तिपूजा के संबंध में एक बात तो वडीही विचित्र है । यदि हम तीर्थकरों की मूर्तियों का सूक्ष्म निरीक्षण करें तो हम को मालूम होगा कि वे सदा ध्यानावस्था में पाई जाती हैं । इससे मालूम होता है कि उनका चित्त बिलकुल अडोल है और उनकी दृष्टि नासिकाग्र लगी हुई है। इससे यह सूचित होता है कि वे न केवल पाप और पुण्य, किन्तु यों कहना चाहिये कि सारे संसार की ओर से उदासीन हैं। सारांश यह है कि मूर्तियों में बाह्य व आंतरिक शान्ति झलकती है।
मूर्तिपूजा, विधेय है या नहीं, इस बात को छोडकर हम को बडे खेद के साथ कहना पडना है कि मूर्तिपूजक पूजन के समय मतियों के साथ वडा अन्याय करते हैं । वे गहरे प्यान में नम हुई हुई मूर्तियों को घंटाओं की घनघनाहट से नगाहो फी वेढय ध्वनी से मंत्रों के उटपटांग उच्चारण से जगाते हैं, मोना-चांदी के आभूषणों के भार से लादते । नया मृर्तियां देख सकेंगी दम जागा ने उनको जपरम पार पा सटिक के नेत्र लगान है । इस प्रकार उनके
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भक्त उनपर अनेक उपाधियाँ लादकर उन्हें उनके उच्च स्थान से नीचे गिराते हैं-अधःपतन करते हैं, संसारी पामर मनुष्यो में उनकी गणना करते हैं और अपनी मनमानी कल्पना के अनुसार उनको अपने आधीन बनाते हैं।
यद्यपि ये लोग तीर्थंकरों को सिद्धशिला व्यापि मानते हैं तो भी वे उनको एक छोटी सी मूर्तिके रूप में वस्तु रूप बना. लेते हैं। उनको निराकार मानते हुए भी उनका पाषाण या धातु की मूर्ति में रूपान्तर कर देते हैं व उनको त्यागी मान कर भी उन पर सब प्रकार का भोग चढाते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि तीर्थकर नग्न रहा करते थे, परंतु फिर भी वे उन्हें नाना प्रकार के वस्त्रों से लादते हैं । वे उनको अहिंसा धर्म के सम्माननीय प्रचारक मानकर भी पुष्प इत्यादि अनेक वस्तुएँ चढाकर असंख्य जीवों की हिंमा उनके निमित्त करते हैं । पुनर्जन्म से मुक्त मानकर भी पाषाण या धातु के जडरूप में उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। तीर्थकरों को मृत्यु से मुक्त मानकर भा नाश होने वाले पाषाण धातु आदि पदार्थ का रूप देने हैं। इतनाही नहीं किन्तु उन्हे सर्व शक्तिमान मानकर भी उन्हे और उनके आभूपणादि को चोरो के भय मे ताले में बंद कर देते हैं । सारांश यह है कि भ्रम में पडे हुए और मिथ्यात्व में फंसे हुए मूर्तिपूजको के कृती में इसी प्रकार के अगणित विरोध पाय जाते हैं।
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मूर्तिपूजकों के पक्ष की परीक्षा और खंडन ।
मूर्तिपूजकों का यह मत है कि तीर्थंकरों की पापाण की मूर्तियां उनको तीर्थंकरों के सद्गुणों की याद दिलाती हैं और उनके __अंत:करणो में उन सद्गुणों का अनुकरण करने की प्रबल __इच्छा उत्पन्न करती हैं । परन्तु उनके आचार व्यवहार पर
इस बात का बहुत कम अमर नजर आता है। प्रतिमाओं
के बहुमूल्य और चमकीले आभूपण, मंदिरों की चकाचौंध ___ कर देने वाली रोशनी, अनेक चित्तार्कपक पदार्थ, मधुर और
हृदयग्राही गान ( जो प्रतिमाओं के सामने गाया जाता है , भडकीले वस्त्र पहने हुए छोटे छोटे वालकों का सुंदर नृत्य और उनके मधुर भजन तथा उनके पैरों के घुघरुओ की मुरीली सनकार, प्रतिमाओं के सामने जलाये हुए घूप की उन्मत्त पारने वाली सुगंध, ये सब बातें भ्रमजाल में फले हुए भत्तो को मुक्ति प्राप्त करने के लिये न तो मोक्षमार्ग पर ले जाती हैं और न उनके हृदय में जैसा कि वे समझते है तीर्थकरों के सदगुणों के अनुकरण करने की इच्छा उत्पन्न करती, हैं किन्तु उनको संसार के क्षाणक मुखों की भूलभुलइयाँ में फैमा देती है।
__ यदि सच पूछा जाय तो इन मूर्तियों और क्रियागंटों पीति सार्थवाही हुई है और इस उद्देश को लेकर ही । ये लोग अग्नेय भत्तां के मन इन और झुकाते हैं। जब
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कोई भक्त मंदिर में प्रवेश करता है तो वह वहांका दृष्य देखते ही चकित हो जाता है और रोषनी की झगमगाहट से उसकी दृष्टि चकाचौंध हो जाती है। उस समय उसकी मनोवृत्तियां चक्कर में पड़ जाती है और उसे ऐसा मालूम होता है कि मानो वह कोई बड़ा स्वप्न देख रहा हो । अन्य पूजा करने वालो से प्रथम पूजा करने का अवसर पाने की धुन में व पूजन के व द्रव्यादि चढाने के आवेग से भरे हुए भक्त की उस समय जो दशा रहती है उस दशा में उससे यह आशा कदापि संभव नहीं हो सकती कि वह उस समय ठहर कर अपनी सदसदविवेक बुद्धि से यह सोचे कि वह जो कुछ कार्य कर रहा है वह बुद्धिवानी का है या बेसमझी का है। उसे इस बात का भी ज्ञान नहीं होता कि इस प्रकार मूर्ति पूजन से केवल उसकी वासनाओं की तृप्ति होकर वह सत्य से वंचित हो जाता है। पूज्य तीर्थकों के उच्च सिद्धान्तों से अनभिज्ञ होनेसे वह ऐसे आडंबरों में धन का नाश करता है और अपने जीवन के बहुमूल्य समय को अनुपयोगी पूजन विधियों में निरर्थक खोता है। साधुओं के दबाव और डर के कारण श्रावकों ने जरा भी चू न की और स्वार्थी साधुओ की बताई हुई नई पूजन विधियों को शांति पूर्वक स्वीकार कर लिया । यह शोचनीय अवस्था अब भी मौजूद है और जैनों के मूर्तिपूजक संग्रदाय में पिछले कई सौ वर्षों से चली आती है।
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ये निरर्थक पूजन विधियां व क्रिया- आडंबर आत्मकल्याण के साधन होना तो दूर रहा किन्तु व्यर्थ का बोझ है, क्यों कि मनुष्य निसर्ग से आत्मोन्नतिशील प्राणी है । जब पूजन विधियां बढती चली गई और उनसे अकल्याण की सम्भावना होने लगी तब स्वाभाविकतया लोगों के हृदय में आत्मा को संतोष देने के लिये किसी अच्छे साधन के खोज करने की इच्छा पैदा हुई और वे जुलमी साधुओं के शासन से छुटकारा पाने के लिए उत्कंठित हो उठे ।
लोकाशाह द्वारा मूर्तिपूजा का निषेध |
ऐसी अवस्था में परिवर्तन होना बिलकुल स्वाभाविक था । नीचे लिखी हुई विचित्र घटना से अहमदाबाद के लोकशाह नामके एक बडे व्यपारी के चित्त को ऐसी ठेस लगी कि उसके जी में मूर्तिपूजा की निरर्थकता दिखाने की प्रशंसनीय इच्छा उत्पन्न हो गई और वह मनुष्य जाति की रक्षा करने में तत्पर हुआ । वह घटना इस प्रकार है कि जब वह एक पार एक मंदिर में गया तब वहां उसने किसी माधु को अपने अंध भंडार की व्यवस्था लगाते हुए और उनकी जीर्ण ग्रंथ शीर्ण अवस्था पर ओढा सांस डालते हुए देखा । नाधु ने बोकाशाह ने जीर्ण पोधियो की रक्षा करने में नहायता देने के लिये पूछा । पाशाह बहुत सुन्दर अक्षर लिखते थे और पे पड़े धर्मात्मा भी थे इसलिये उन्होंने पोथियों की नर
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करने का भार अपने ऊपर ले लिया और तुरंत ही काम शुरू कर दिया। जब उन्होंने यह देखा कि सूत्रों में दिये हुए सिद्धांत बडे ही उच्च श्रेणी के हैं और उनमे न तो मूर्ति पूजा का विधान है और न जैन साधुओं को परिग्रह रखने और लौकिक सुख भोगने का तब उन्हें बडा भारी आश्चर्य हुआ । उन्हे मालूम हुआ कि ग्रंथों में जो सिद्धान्त लिखे हैं वे उन सिद्धान्तों से बिलकुल भिन्न थे जिनका प्रतिपादन उस समय के साधु किया करते थे।
इस घटना से उनके चित्त में अचानक एक क्रांति पैदा हो गई और उनके विचार सर्वथा वदल गये । उन्होने प्रत्येक ग्रंथ की गुप्त रूप से दो नकले उतार ली जिनमें से एक नकल तो उन्होने साधु को दे दी और दूसरी नकल को अपने पास रख लिया। इसके बाद उन्होंने सूत्रो का गहरा अध्ययन किया और महावीर के सिद्धान्तो को खूब समझा । यद्यपि उनका जन्म और पालन पोपण मूर्ति पूजक सम्प्रदाय मे हुआ था, तथापि उन्होने मूर्ति पूजा को तुरन्त ही त्याग दिया और जैन समाज को जोरो के साथ यह कहा कि जो साधु मूर्ति पूजा की आज्ञा देते हैं वे धून हैं, क्यो कि सूत्रो में मूर्ति पूजा का विधान कही भी नहीं है । उनमे महान् आत्मिक बल था और इसीलिये वे अपने मत को साहस पूर्वक प्रकट करने मे जरा भी न घबराये । उन्होने उस समय के साधुओ की
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स्वार्थता का भंडाफोड कर दिया और शास्त्रों मे लिखे हुए असली जैन सिद्धान्तों का प्रचार शुरू कर दिया । शीघ्र ही कुछ मनुष्य उनके अनुयायी हो गये और उनकी सहायता से उन्होने पवित्र और असली सिद्धान्तों का प्रचार करना शुरू कर दिया | इस प्रकार बहुत से उन्मार्गगामी मनुष्यों को सन्मार्ग पर लगा दिया । जब स्वार्थी साधुओ को अपनी अवस्था डांवांडोल और शोचनीय हो जाने का तथा मान्यता नष्ट हो जाने का भय हुआ तब उन्होंने लोकाशाह और उनके अनुयायियों का छल करना शुरू कर दिया । उन्होंने लोकाशाह पर बुराइयों की दृष्टि करना और उनके अनुयायियों के चारित्र को कलंकित करना चाहा । अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए और एक बडी भारी संख्या के विरोधी समाज का सामना करते हुए लोकशाह और उनके अनुयायियों ने उसी जोर शोर के साथ अपना पवित्र उपदेश पत्र काम जारी रक्सा । स्वार्थी माधुओं की मान्यता शीघ्र ही घटने लगी और लोगों के बु के सुड शीघ्र ही लोकाशाह की शरण में आने लगे । लोकाशाद ने सम्यक्ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश किया और यह प्रकाश भारत वर्ष के एक सिरे से दूसरे निरे तक शत्र कल गया और शांति का साम्राज्य छागया । सत्य के प्वाजल्यमान प्रवाश में अमल और धूर्तता का लोप होने लगा और चारों वर्ष के भीतर ही पाच वास भूले हुए
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मनुष्य ठीक रास्ते पर आगये अर्थात् वे जैन धर्म के पवित्र और असली सिद्धान्तों के अनुयायी बन गये ।
स्थानकवासी नाम क्यों धारण किया गया।
जैन धर्म के इन सच्चे अनुयायियों का उपनाम मूर्ति पूजकों ने वैरभाव के कारण दूढिया रख दिया। अपने आपको मूर्ति पूजकों से पृथक रखने के लिये लोकाशाह के अनुयायि, बल्कि यों कहना चाहिये कि महावीर के असली उपदेशों के सच्चे भक्त अपने आपको स्थानकवासी कहने लगे। द्वेष के कारण मूर्ति पूजक श्वेताम्बर, स्थानकवासियों को मूल संघ की एक शाखा बतलाते हैं और यों कहते हैं कि स्थानक. वासियों की उप्तत्ति को केवल ४०० वर्ष हए हैं।
लोकाशाह जैन धर्म के असली सिद्धान्तों के
प्रचारक थे। __ ऊपर के पृष्ठों में यह बात अच्छी तरह सिद्ध कर दी ___ गई है कि स्थानकवामी सम्प्रदाय जैसा कि मूर्ति पूजक कहते
है, जैन धर्म की शाखा नहीं है, द्रव्योपार्जन करने वाले साधुओं __ की स्वार्थ परता के कराण ही प्रायः जैन समाज भलनी दिशा
पर और कुर्मार्ग पर चला गया। केवल एक दैवी घटना के कारण ही लोकाशाह को असली सूत्रों के दर्शन हुए और इस
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लिए उनको सत्य का पता लग गया और वे तत्कालीन असत्य विचारों और सिद्धान्तों का विरोध करने में समर्थ हुए । लोकाशाह ने जैन धर्म के असली सिद्धान्तों का प्रकाशन किया और लोगों में उनका प्रचार किया। इसका फल यह हुआ कि टोक जैन धर्म के उन श्रेष्ठ और उदात्त सिद्धान्तों को देखकर चकित हो गये जो कितनी ही शताब्दियों से साधुओं की धूर्तता के कारण दवे छिपे पडे थे ।
जिसके निमल हृदय में स्वार्थता का अंश मात्र नहीं था और जिसके सद्विचार, उपदेश और आचार केवल सत्य प्रेम से ही प्रेरित थे ऐसे धर्मवीर लोकाशाह के सरल, सष्ट और सुदर उपदेश की ओर अत्याचार ने घबराये हुए और सत्य के सहारे की खोज में लगे हुए जन समुदाय का लक्ष् विच गया और सत्य का प्रकाश उनके हृदय पर अंकित हो गया । यदि सच पूछा जाय तो लोफाशाह ने न तो कोई अपने नये सिद्धान्त स्थापित किये और न किसी दर्शन पद्धति के निर्माण का दावा किया। उन्होंने लोगों को जैन शास्त्रों में क्या लिखा है यह बतलाने में व उस समय के प्रचलित ऐहिक व सा से भरे हुए सिद्धान्तों मे वचने पर मार्ग मिलाने में हो अपना समाधान मान लिया । तगुरु फाशाह के पटाये
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में इन सिद्धान्तों के ऊपर शांत होकर विचार किया और उन्हे दृढ विश्वास हो गया कि ये सिद्धान्त सच्चे, पवित्र और सर्वाङ्ग पूर्ण हैं और तत्कालीन नामधारी धर्मात्मा लोगों के प्रचलित सिद्धान्त मनमाने और संकीर्ण है। इस प्रकार विश्वास हो जाने पर परमात्मा से डरने वाले और बुद्धिमान मनुष्यो ने तुरन्त ही असली और प्राचीन धर्म का अंगीकार कर लिया परन्तु जो लोग पक्षपाती और कट्टर थे उन्हों ने पूजा के पाखंड को और अन्य क्रियाओं को, जिनकी आज्ञा जैन धर्म के असली प्रचारकों ने कभी न दी थी न छोडा ।
उपरोक्त बातो के कारण स्थानकवासी संप्रदाय प्राचीन धर्म की शाखा है यह कदापि कहा नहीं जा सकता | इसकी जगह मूर्ति पूजक संप्रदाय पर ही मूल धर्म से पृथक् हो जाने का व महावीर के आदेशित सिद्धान्तो के विरुद्ध भिन्न संप्रदाय उत्पन्न करने का आरोप लगाना चाहिये।
किसी मत को किसी धर्म की शाखा उसी समय कह सकते है कि जब वह मत उस धर्म के असली प्रचारको के सिद्धान्तो का खंडन करता हो। हमने ऊपर के पृष्ठों में यह निर्विवाद सिद्ध कर दिया है कि श्वेताम्बरों का मूर्ति पूजक संप्रदाय ही एसा है जो सिद्धान्तों में और व्यवहार में भी महावीर और अन्य तीर्थंकरों के सिद्धान्तो के सर्वथा विरद्ध है । इसलिये यह कहना युक्तियुक्त है कि यह संप्रदाय प्राचीन
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धर्मकी शाखा मात्र है और उसके असली तत्वों से विमुख हो गया है। स्थानकवासी संप्रदाय ही तीर्थकरों के असली उपदेशों को मानता चला आ रहा है और इस लिए यह नहीं कह सकते कि वह किसी प्रकार भी असली मूल की शाखा है।
ऐसी अवस्था में निर्पक्ष पाठक मेरे साथ इस बात में अवश्य ही सहमत होंगे कि जैनों में यदि कोई संप्रदाय महावीर फा असली और सच्चा अनुयायी होने का दावा कर सकता हो तो वह केवल स्थानकवासी संप्रदाय ही है।
स्थानकवामी जैन धर्म के असली और सच्चे अनुयायी है और श्वेताम्बर मूर्ति पूजक संप्रदाय मूल सघ की शाखा है इस बात को और भी पुष्ट करने के लिये यह आवश्यक है कि हम उन लक्षणों की जांच पड़ताल फरें कि जिनमे हम महावीर फे सपचे अनुयायी बन सकते है और फिर उन सिद्धान्तों की पासौटी पर परीक्षा करें कि इन दोनों सम्प्रदायों में मे कौनमा सम्प्रदाय ऐसा है जो वास्तव में असली जैन धर्मापलम्बी फारा जा सकता है।
मूर्तिपूजकों और स्थानकवासियों की तुलना ।
ताम्बर मूर्ति पूलक ४५ शाखों को मानते हैं, परन्तु स्थानश्वानी नमें से केवल १२ को ही मानते हैं। उनकी
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इस मान्यता के लिये उनके पास प्रबल प्रमाण भी इस विषय पर इस जगह विषयान्तर के भय से अधिक विवेचन करना आवश्यक नहीं है ।
परन्तु
श्वेताम्बर मूर्ति पूजक मूर्तिओं को पूजते हैं और कर्म के बन्धन से छुटकारा पाने के लिए यात्राएँ करते हैं, परन्तु स्थानकवासी ऐसा नहीं करते क्यों कि उनका विश्वास है कि ये यात्राएँ न केवल जैन धर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध किन्तु ये ( यात्राएँ ) अपने उद्देश को पूरा नहीं कर सकतीं । वे यह भी मानते हैं कि आत्म-संयम, सच्चरित्रता और आत्मत्याग के द्वारा ही इच्छित उद्देश ( मोक्ष प्राप्ति ) की पूर्ति हो सकती है ।
इसके अतिरिक्त एक बात तो यह है कि मूर्ति पूजकों के साधु तीन वर्गों में विभाजित है और दूसरी बात यह है कि जब वे परिग्रह में फॅसे रहते हैं तो उनका आचार जैन धर्म के सिद्धान्तों के अवश्य ही विरुद्ध होता है । स्थानकवासी साधुओं के ऐसे विभाग नहीं हैं और वे निरन्तर धर्म शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते हैं या आत्मोन्नति के लिए क्रियाएँ करते रहते हैं | इस कारण उनको न तो इस बात के लिए समय और अवसर मिलता है और न उनकी यह इच्छा ही होती है कि वे लौकिक बातों पर ध्यान दें ।
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इसके विपरीत मूर्ति पूजक साधुओं में बहुत से ऐसे है जो अपने पास द्रव्य रखते हैं तथा और भी ऐसी चीजें रग्यते हैं जिनकी ऑक्षा शास्त्रों में नहीं है। स्थानकवासी साधु अपने पास केवल वही पदार्थ रखते हैं जिनकी खास आक्षा जैन सिद्धान्त मे दी गई है।
इस प्रकार दोनों संप्रदायों के साधुओं में इतनी भिन्नताएँ हैं कि उन सबका उल्लेख करने में कई पृष्ट भर जाने की आशंका से यहां उनका स्पष्टीकरग न करते व हमारे सूक्ष पाठकों का अधिक समय नष्ट न करत संक्षेप में इतना ही लिपना पर्याप्त होगा कि यद्यपि दोनों मंप्रदाय एक ही शाग्यो को मानते हैं च एक ही तीर्थंकरो के अनुयायी होन या शवा रग्यते हैं तथापि इनके आचार विचारों में इतना भेद नजर आता है कि यदि कोई विदेगी इन्हों का अवलोक्न गरे तो उमा यही निविदा मन होगा कि ये दोनों संप्रदाय विलग मित भित्र धर्म के अनुयायी है, और इन्हें
रिसालों में किसी प्रकार ? समानता है।
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उनमें कोई ऐसा दोष नहीं है जिसके कारण वे सत्य का उपदेश न दे सकेँ । संसार को त्यागने में और लौकिक सुखों को ठुकराने मे उनका एक मात्र यही उद्देश है कि वे उन उच्च सद्गुणों का पालन कर सकें कि जिनके कारण तीर्थंकरों का नाम अमर होगया है । सारांश यह है कि ये महावीर के सच्चे भक्त होने की पात्रता रखते हैं इसलिए जैन धर्म के पवित्र और असली सिद्धान्तो का उपदेश देने की सबसे अधिक योग्यता इनमें ही पाई जाती है । इन सिद्धान्तों का प्रचुर प्रचार मनुष्य जाति के व्यवहार में का ही इनके जीवन का खास उद्देश होने से ये ही महावीर के सच्चे अनुयायी कहलाने के पात्र हैं ।
करने
उन लोगों को हम महावीर के सच्चे शिष्य नहीं कह सकते जो अपने आप को धर्मात्मा कहते हैं, केवल अपनी हो चिन्ता मे लगे रहते हैं, संसार को त्याग कर भी संसार में फॅसे रहते हैं और अपना ही मतलब गांठने में व लोगों को धोखा देने में जरा भी नहीं डरते !
सच्चे शिष्य बनने के लिए कौन सी बातों की आवश्यकता है ।
सच्चे शिष्य बनने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम तीर्थंकरों की बाह्य उपचारों से पूजा करे जैसा कि मूर्ति पूजक किया करते हैं । आवश्यकता केवल इस बात की है
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कि हम महान् तीर्थकरों के कहे हुए उत्कृष्ट आदेशों __ के अनुसार सदैव आचरण करें। हमको स्वार्थ की ओर
ले जाने वाली इच्छाओं का व पाप की ओर झुकाने वाले विचारों का बहिष्कार कर देना चाहिये और परिग्रह को मर्वथा त्याग देना चाहिये। केवल इन्हीं बातों से हम सचे शिष्यकहे जा सकते हैं । जैन धर्म की मान्यता है कि सदाचार ही परम धर्म है और वह प्रेम, पवित्रता, दया, आत्म त्याग इत्यादि लोकोत्तर सद्गुणों का विरोध करने वाली मानसिक और शारीरिक पातों को त्याग देने से प्राप्त होता है। जप तक मनुष्य विषय वामनाओं में फंसा रहता है
और जय तक वह मंमार से अपने आपको दूर नहीं रखता तब तक उसे शिश्य नहीं कह सकते । ___ तीर्धकरों के उपदेशों का एक मात्र उद्देश यही है कि मनुष्य सद्गुण और पवित्रता मन्वेि और मन तथा कृती से प्रेम और दया में लिप्त हो जाय जिसमे कि उसकी आत्मा मसार के बंधन मे गुरा हो सके । अपने मन में फेवल यह ममझ टेना कि नीकर सदा दया, पवित्रता और सदाचार की मूर्ति पेपिनी पार पा नहीं है जब तक कि हम इन सदगुणों का अनुकरण करने की रपटा न करें। देवल यह जानना कि. तीवर मद्गुग, दया व पवित्रता की मूर्ति थे, किमी पान फा नही दानर कि हम भी मे ही गुण प्राम करने की चेष्टा न परे । नाही यह जान लेना भी पचान नहीं है पि वीर
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उनमें कोई ऐसा दोष नहीं है जिसके कारण वे सत्य का उपदेश न दे सकें। संसार को त्यागने में और लौकिक सुखों को ठुकराने मे उनका एक मात्र यही उद्देश है कि वे उन उच्च सद्गुणों का पालन कर सकें कि जिनके कारण तीर्थंकरों का नाम अमर होगया है । सारांश यह है कि ये महावीर के सच्चे भक्त होने की पात्रता रखते हैं इसलिए जैन धर्म के पवित्र और असली सिद्धान्तो का उपदेश देने की सबसे अधिक योग्यता इनमें ही पाई जाती है । इन सिद्धान्तों का प्रचुर प्रचार मनुष्य जाति के व्यवहार में करने का ही इनके जीवन का खास उद्देश होने से ये ही महावीर के सच्चे अनुयायी कहलाने के पात्र हैं।
__ उन लोगों को हम महावीर के सच्चे शिष्य नहीं कह सकते जो अपने आप को धर्मात्मा कहते हैं, केवल अपनी ही चिन्ता में लगे रहते हैं, संसार को त्याग कर भी संसार में फंसे रहते हैं और अपना ही मतलब गांठने में व लोगों को धोखा देने में जरा भी नहीं डरते।
सच्चे शिष्य बनने के लिए कौन सी बातों की
__ आवश्यकता है। __ सच्चे शिष्य बनने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम तीर्थंकरों की बाह्य उपचारों से पूजा करें जैसा कि मूर्ति पूजक किया करते हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है
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९३ कि हम महान् तीर्थंकरों के कहे हुए उत्कृष्ट आदेशों के अनुसार सदैव आचरण करें। हमको स्वार्थ की ओर ले जाने वाली इच्छाओं का व पाप की ओर झुकाने वाले विचारों का बहिष्कार कर देना चाहिये और परिग्रह को सर्वथा त्याग देना चाहिये। केवल इन्हीं बातों से हम सच्चे शिष्यकहे जा सकते हैं । जैन धर्म की मान्यता है कि सदाचार ही परम धर्म है और वह प्रेम, पवित्रता, दया, आत्म त्याग इत्यादि लोकोत्तर सद्गुणों का विरोध करने वाली मानसिक और शारीरिक बातों को त्याग देने से प्राप्त होता है। जब तक मनुष्य विषय वासनाओं में फंसा रहता है
और जब तक वह संसार से अपने आपको दूर नहीं रखता तब तक उसे शिश्य नहीं कह सकते ।
तीर्थंकरों के उपदेशों का एक मात्र उद्देश यही है कि मनुष्य सद्गुण और पवित्रता सखेि और मन तथा कृती से प्रेम और दया में लिप्त हो जाय जिससे कि उसकी आत्मा ससार के बंधन से मुक्त हो सके | अपने मन मे केवल यह समझ लेना कि तीर्थकर सदा दया, पवित्रता और सदाचार की मूर्ति थे किसी काम का नहीं है जब तक कि हम इन सद्गुणों का अनुकरण करने की स्वयं चेष्टा न करें। केवल यह जान लेना कि तीर्थकर सद्गुण, दया व पवित्रता की मूर्ति थे, किसी काम का नहीं है जहा तक कि हम भी वैसे ही गुण प्राप्त करने की चेष्टा न करें। वैसाही यह जान लेना भी पर्याप्त नहीं है कि तीर्थंकर
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संपूर्ण क्षमा के सागर व संपूर्णता की मूर्ति थे, किन्तु उसके साथ यह भी आवश्यक है कि हम भी उनकी बतलाई हुई उपरोक्त बातों को अपने व्यवहार में लाने का भरसक प्रयत्न करें। साथ में यह भी आवश्यक है कि हम भी वैसे ही दयावान् और सर्वगुण सम्पन्न बनें और उन्होंने अपने जीवन में जिन दैवी आदेशों का अनुकरण किया था उनको हम भी अपनावें ।
केवल स्थानकवासी साधु ही महावीर
के सच्चे शिष्य हैं। इस प्रकार स्थानकवासी साधुओं का जीवन, उन मोक्षगामी महात्माओं के उपदेश और आदेशों का एक छोटा सा किन्तु प्रत्यक्ष जीता जागता नमूना है। ___स्थानकवासी साधु तीर्थकरों के बतलाये हुए उत्कृष्ट जैन सिद्धान्तों के अनुगामी बनने की यथाशक्ति चेष्टा करते हैं और अपने आचरण को भी वैसा ही बनाउ है। चूंकि जैन धर्म शरीर की सुन्दरता को अथवा सुख को कुछ महत्व नहीं देता लेकिन वह आत्मा को सुन्दर और उन्नत नाना सिखलाता है, इसलिए स्थानकवाली साधु अपने शरीरकी सुन्दरता तथा सुखकी कुछ परवाह नहीं करते, किंतु वे अपना पवित्र और निकलक आचरण रखने की चेष्टा करते है और लौकिक पदार्थों और मोह से अलिप्त रहते हैं। यदि महावीर के
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उपदेश किये हुए सिद्धान्तो के अनुसार चलने में और तीर्थकरों की पवित्रता का और सद्गुणों का अनुकरण करने में वे ऐसे आवेश में आजाय कि वे कुछ जैन सिद्धान्तो के अनुकरण करने की हद्द कर दें तो उनका यह दोष क्षमा करने योग्य है | परंतु सदाचार की कभी अतिशयोक्ति नहीं की जा सकती। जो लोग स्थानकवासी साधुओ को इस अतिशयोक्ति का दोषी ठहराते हैं वे एक सच्चे धर्म के उदार उद्देशों के ज्ञान से संपूर्ण वंचित हैं ऐसा समझना चाहिये | अपने चारित्र को सर्वथा निष्कलंक बनाना, अपने हृदय को बिलकुल पवित्र करना, सबके ऊपर दया और क्षमा का भाव रखना, ये प्रत्येक बडे धर्म के आदि सिद्धान्त हैं । जो लोग इन आदेशों के अनुसार आचरण करते हैं उनको दोषी ठहराना तथा उनका उपहास करना न्याय के सर्वथा विरुद्ध है और जो लोग ऐसा करते हैं वे अपने इर्पायुक्त व शून्य हृदय का परिचय देते हैं ।
यह बड़े खेद की बात है कि श्वेताम्बर मूर्ति पूजक, स्थानकवासी साधुओं की पवित्रता को देखकर ईर्षा करते हैं क्यों कि स्थानकवासी साधुओं के आचार व विचार की वे बराबरी नहीं कर सकते । इन कारणों से उनमें कभी मैत्री भाव नहीं रहा है। मूर्ति पूजकों ने स्थानकवासियों से सदा वैर भाव रक्खा और उनको सताया है । उन्हों ने स्थानकवासियों
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को कलंक लगाये हैं और उनके तरह २ के नाम रख कर चिढाया है । उन्हों ने स्थानकवासियों के विषय में मनमानी बातें कही हैं, उनके साथ बहुत कठोर व्यवहार किया है और उनको ढूंढिया कहकर बदनाम किया है । उन्होंने ने स्थानकवासियों को बदनाम करने में कोई कसर न की । उन्होंने ईर्षा और द्वेप के कारण स्थानकवासी साधुओं का इस बात पर उपहास तक कर डाला है कि वे अहिंसा के उच्च और कल्याण कारी सिद्धान्त पर जो कि जैन धर्म का सार है, बडी सावधानी के साथ चलते हैं । अहिंसा जैन धर्म का आदि तत्व है और जैन शास्त्रों के प्रत्येक पृष्ठ में उसकी झलक दिखाई देती है । अहिंसा का महान् और कल्याणकारी सिद्धान्त आर्यों के सभी धर्मों का प्रथम और मूल सिद्धान्त है । जो लोग इस सिद्धान्त पर चलते हैं उनकी हँसी उड़ाना और उनको बदनाम करना उत्तम और उत्कृष्ट वातों की जड पर कुठाराघात करना है । श्वेताम्बर मूर्ति पूजकों ने स्थानकवासियों का केवल यही दोष नहीं बताया किन्तु अपने आपकी और जैन शास्त्रों से विरोधी सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिये उन्होंने स्थानकवासी साधुओं के पवित्र जीवन और निष्कलंक चारीत्र की ऐसी बुरी व अन्याय पूर्ण आलोचना की है कि उससे केवल स्थानकवासियों ही के विषय में नहीं किन्तु समस्त जैन धर्म के विषय में लोगों को भयंकर भ्रम हो सकता है। हम कई
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कारणों से इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक लिखना नहीं चाहते । इस लिए हम पाठकों का ध्यान केवल उन पिछले पृष्टों की
ओर आकर्षित करते हैं जहां कि हमने स्थानकवासी और श्वेताम्बर मूर्ति पूजकों के आचार और चारित्र की तुलना की है । जिन पाठकों ने दोनों सम्प्रदायों के साधुओं के दर्शन स्वयं किये हों, उनके नित्यप्रति के व्यहार को ध्यान पूर्वक देखा हो और उसकी जाँच की हो वे मेरे कथन की सत्यता को समझ सकते हैं ।
मैं समझता हूँ कि मैंने इस छोटी सी पुस्तक में उन कठिनाइयों और संकटों का पर्याप्त वर्णन कर दिया है जिनका सामना स्थानकवासियों को मूर्ति पूजक सम्प्रदाय की ईर्षा
और घृणा के कारण करना पड़ा है। इसके साथ ही साथ इस संप्रदाय की उत्सत्ति कत्र व कैसे हुई यह भी बतला चुका हूँ। अब मेरे सूज्ञ पाठकों के लिये चार शब्द लिख कर इस विषय को समाप्त करता हूँ। __ इस विषय का विवेचन मैंने बिना किसी प्रकार के पक्षपात के व सब बातो का विचार करके ही किया है । जिन प्रमाणों को मैंने सामने रक्खे है, संभव है कि उनमें से थोड़े वादग्रस्त भी हों, किन्तु उनमे मेरी उन दलीलों की सत्यता मे जो कि जैन, बौद्ध व हिन्दू शास्त्रों के प्रमाणों से सिद्ध की गई हैं, जरा भी वाधा नहीं आ सकती। इस
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विषय के सारे विवेचन में जो जो बातें प्रकाश डाल सकती हैं उन सब बातों का व घटनाओ का मैंने पूरा विचार किया है और तदनंतर ही मैंने अपना मत कायम किया है । मेरी दलीलों मे संभव है कि कोई ऐसी भी हों जो कि समाधानकारक मालूम न हों किन्तु मुझे इतना तो विश्वास है कि वे मेरे सूज्ञ पाठकों को उन पर विचार करने को तो अवश्य ही बाध्य करेगी। यदि ये वादग्रस्त विषय हम थोडे समय के लिये अलग भी रख दें तो भी मेरे इस मुख्य विषय की यह सत्यता सिद्ध करने मे किसी प्रकार की आपत्ति नहीं आती कि थानकवासी हो महावीर के असली व सच्चे अनुयायी हैं व श्वेताम्बर मूर्ति पूजक व दिगम्बर ये दाने संप्रदाय नकली हैं ।
इस कारण मेरे सूज्ञ आलोचकों से मेरा अनुग्रह है वे इस पुस्तक को पक्षपात भरे हृदय से न पढे किन्तु में मत को पुष्ट कर े के लिये जो जो प्रमाण मैने दिये हैं उन छानबीन करके उन्हें न्याय की तराजू में तोले व फिर इ विषय में अपना मत कायम करे ।
अन्वेषक
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विषय के सारे विवेचन में जो जो बातें प्रकाश डाल सकती हैं उन सब बातों का व घटनाओं का मैने पूरा विचार किया है और तदनंतर ही मैंने अपना मत कायम किया है। मेरी दलीलों मे संभव है कि कोई ऐसी भी हों जो कि समाधानकारक मालूम न हों किन्तु मुझे इतना तो विश्वास है कि वे मरे सूज्ञ पाठकों को उन पर विचार करने को तो अवश्य ही बाध्य करेगी। यदि ये वादग्रस्त विषय हम थोडे समय के लिये अलग भी रख दे तो भी मेरे इस मुख्य विपय की यह सत्यता सिद्ध करने मे किसी प्रकार की आपत्ति नहीं आती कि थानकवासी ही महावीर के असली व सच्चे अनुयायी हैं व श्वेताम्बर मूर्ति पूजक व दिगम्बर ये दोनो संप्रदाय नकली हैं।
इस कारण मेरे सूज्ञ आलोचकों से मेरा अनुग्रह है कि वे इस पुस्तक को पक्षपात भरे-हृदय से न पढे किन्तु मेरे मत को पुष्ट कर के लिये जो जो प्रमाण मैंने दिये हैं उनकी छानबीन करके उन्न, न्याय की तराजू मे तोले व फिर इस विषय में अपना मत कायम करे ।
अन्वेपक.
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