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बनाना चाहिये और न किसी दूसरे से भोजन बना देने के लिए कहना चाहिए । उसे गोचरी के लिए किसी का आमंत्रण स्वीकार न करना चाहिए, किन्तु पहले से किसी प्रकार की सूचना दिये बिना ही उसे गोचरी के लिए जाना चाहिये । उसको न तो सवारी में बैठ कर जाना चाहिए और न स्वयं किसी सवारी को चलाना चाहिये, बल्कि उसको सदा पैदल चलना चाहिये और अपनी निगाह नीचे जमीन पर रखनी चाहिए जिसमे कि उसके पैरों के नीचे कोई जीव जन्तु न कुचल जाय । उमको केवल वर्षा ऋतु में एक स्थान पर चार मास तक ठहरना चाहिये और शेष ऋतुओं में एक स्थान पर एक मास से अधिक न ठहरना चाहिए। उमको स्वयं अपने हाथों से केश-लुवन करना चाहिये और किमी नाई से हजामत न बनवानी चाहिये । उसको जैन शास्त्रों में कहे हुए बाईम परिषहो को शान्ति और संतोष पूर्वक सहन करना चाहिये और अखंड ब्रह्मचारी रहना चाहिए। उपको अपने पास न तो द्रव्य (रुपया-पैसा आदि) रखना चाहिये और न ऐसी चीजें रखना चाहिये जैसे मकान, जमीन इत्यादि और उसे अपना समस्त समय धार्मिक कार्यों में लगाना चाहिए। सारांश यह है कि उसे प्रत्येक प्रकार के परिग्रह से दूर रहना चाहिए
और शास्त्रों में कहे हुए साधुओं के पंच महाव्रतों क पालन में अपना समय लगाना चाहिए। ये जैन साधु के जीवन • की खास २ बाते हैं। अब हम इम जीवन से मूर्ति-पूजक - संप्रदाय के साधुओं के जीवन का मिलान करेंगे।