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९३ कि हम महान् तीर्थंकरों के कहे हुए उत्कृष्ट आदेशों के अनुसार सदैव आचरण करें। हमको स्वार्थ की ओर ले जाने वाली इच्छाओं का व पाप की ओर झुकाने वाले विचारों का बहिष्कार कर देना चाहिये और परिग्रह को सर्वथा त्याग देना चाहिये। केवल इन्हीं बातों से हम सच्चे शिष्यकहे जा सकते हैं । जैन धर्म की मान्यता है कि सदाचार ही परम धर्म है और वह प्रेम, पवित्रता, दया, आत्म त्याग इत्यादि लोकोत्तर सद्गुणों का विरोध करने वाली मानसिक और शारीरिक बातों को त्याग देने से प्राप्त होता है। जब तक मनुष्य विषय वासनाओं में फंसा रहता है
और जब तक वह संसार से अपने आपको दूर नहीं रखता तब तक उसे शिश्य नहीं कह सकते ।
तीर्थंकरों के उपदेशों का एक मात्र उद्देश यही है कि मनुष्य सद्गुण और पवित्रता सखेि और मन तथा कृती से प्रेम और दया में लिप्त हो जाय जिससे कि उसकी आत्मा ससार के बंधन से मुक्त हो सके | अपने मन मे केवल यह समझ लेना कि तीर्थकर सदा दया, पवित्रता और सदाचार की मूर्ति थे किसी काम का नहीं है जब तक कि हम इन सद्गुणों का अनुकरण करने की स्वयं चेष्टा न करें। केवल यह जान लेना कि तीर्थकर सद्गुण, दया व पवित्रता की मूर्ति थे, किसी काम का नहीं है जहा तक कि हम भी वैसे ही गुण प्राप्त करने की चेष्टा न करें। वैसाही यह जान लेना भी पर्याप्त नहीं है कि तीर्थंकर