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________________ ९५ उपदेश किये हुए सिद्धान्तो के अनुसार चलने में और तीर्थकरों की पवित्रता का और सद्गुणों का अनुकरण करने में वे ऐसे आवेश में आजाय कि वे कुछ जैन सिद्धान्तो के अनुकरण करने की हद्द कर दें तो उनका यह दोष क्षमा करने योग्य है | परंतु सदाचार की कभी अतिशयोक्ति नहीं की जा सकती। जो लोग स्थानकवासी साधुओ को इस अतिशयोक्ति का दोषी ठहराते हैं वे एक सच्चे धर्म के उदार उद्देशों के ज्ञान से संपूर्ण वंचित हैं ऐसा समझना चाहिये | अपने चारित्र को सर्वथा निष्कलंक बनाना, अपने हृदय को बिलकुल पवित्र करना, सबके ऊपर दया और क्षमा का भाव रखना, ये प्रत्येक बडे धर्म के आदि सिद्धान्त हैं । जो लोग इन आदेशों के अनुसार आचरण करते हैं उनको दोषी ठहराना तथा उनका उपहास करना न्याय के सर्वथा विरुद्ध है और जो लोग ऐसा करते हैं वे अपने इर्पायुक्त व शून्य हृदय का परिचय देते हैं । यह बड़े खेद की बात है कि श्वेताम्बर मूर्ति पूजक, स्थानकवासी साधुओं की पवित्रता को देखकर ईर्षा करते हैं क्यों कि स्थानकवासी साधुओं के आचार व विचार की वे बराबरी नहीं कर सकते । इन कारणों से उनमें कभी मैत्री भाव नहीं रहा है। मूर्ति पूजकों ने स्थानकवासियों से सदा वैर भाव रक्खा और उनको सताया है । उन्हों ने स्थानकवासियों
SR No.010241
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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