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उपदेश किये हुए सिद्धान्तो के अनुसार चलने में और तीर्थकरों की पवित्रता का और सद्गुणों का अनुकरण करने में वे ऐसे आवेश में आजाय कि वे कुछ जैन सिद्धान्तो के अनुकरण करने की हद्द कर दें तो उनका यह दोष क्षमा करने योग्य है | परंतु सदाचार की कभी अतिशयोक्ति नहीं की जा सकती। जो लोग स्थानकवासी साधुओ को इस अतिशयोक्ति का दोषी ठहराते हैं वे एक सच्चे धर्म के उदार उद्देशों के ज्ञान से संपूर्ण वंचित हैं ऐसा समझना चाहिये | अपने चारित्र को सर्वथा निष्कलंक बनाना, अपने हृदय को बिलकुल पवित्र करना, सबके ऊपर दया और क्षमा का भाव रखना, ये प्रत्येक बडे धर्म के आदि सिद्धान्त हैं । जो लोग इन आदेशों के अनुसार आचरण करते हैं उनको दोषी ठहराना तथा उनका उपहास करना न्याय के सर्वथा विरुद्ध है और जो लोग ऐसा करते हैं वे अपने इर्पायुक्त व शून्य हृदय का परिचय देते हैं ।
यह बड़े खेद की बात है कि श्वेताम्बर मूर्ति पूजक, स्थानकवासी साधुओं की पवित्रता को देखकर ईर्षा करते हैं क्यों कि स्थानकवासी साधुओं के आचार व विचार की वे बराबरी नहीं कर सकते । इन कारणों से उनमें कभी मैत्री भाव नहीं रहा है। मूर्ति पूजकों ने स्थानकवासियों से सदा वैर भाव रक्खा और उनको सताया है । उन्हों ने स्थानकवासियों