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इस मान्यता के लिये उनके पास प्रबल प्रमाण भी इस विषय पर इस जगह विषयान्तर के भय से अधिक विवेचन करना आवश्यक नहीं है ।
परन्तु
श्वेताम्बर मूर्ति पूजक मूर्तिओं को पूजते हैं और कर्म के बन्धन से छुटकारा पाने के लिए यात्राएँ करते हैं, परन्तु स्थानकवासी ऐसा नहीं करते क्यों कि उनका विश्वास है कि ये यात्राएँ न केवल जैन धर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध किन्तु ये ( यात्राएँ ) अपने उद्देश को पूरा नहीं कर सकतीं । वे यह भी मानते हैं कि आत्म-संयम, सच्चरित्रता और आत्मत्याग के द्वारा ही इच्छित उद्देश ( मोक्ष प्राप्ति ) की पूर्ति हो सकती है ।
इसके अतिरिक्त एक बात तो यह है कि मूर्ति पूजकों के साधु तीन वर्गों में विभाजित है और दूसरी बात यह है कि जब वे परिग्रह में फॅसे रहते हैं तो उनका आचार जैन धर्म के सिद्धान्तों के अवश्य ही विरुद्ध होता है । स्थानकवासी साधुओं के ऐसे विभाग नहीं हैं और वे निरन्तर धर्म शास्त्रों के अध्ययन में लगे रहते हैं या आत्मोन्नति के लिए क्रियाएँ करते रहते हैं | इस कारण उनको न तो इस बात के लिए समय और अवसर मिलता है और न उनकी यह इच्छा ही होती है कि वे लौकिक बातों पर ध्यान दें ।