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(६०) यह बात याद रखने के योग्य है और महावीर के समय में मूर्ति-पूजा के अभाव को अकाट्य प्रमाणों से सिद्ध करती है। यदि उस समय जैन मंदिर होते, तो महावीर उनमे ही ठहरना अधिक अच्छा समझते । वे यक्षों के मंदिरों में। अथवा यों कहना चाहिये कि उन उपवनों में, जिनका नाम यक्षों के नाम पर रक्खा गया था, कभी न ठहरते ।
(८) जिस प्रकार उपासकदशांग में महावीर ने श्रावकों के लिये नियम बतलाये हैं उसी प्रकार उन्होने, आचाराङ्ग में साधुओं के वास्ते नियम दिये हैं। इस पिछले ग्रंथ में उन्होंने यह बतलाया है कि साधुओं अथवा साध्वियो को कितने वस्त्र रखना चाहिये, उनकी लम्बाई चौड़ाई कितनी हो, उनका रंग कैसा हो और वे किम प्रकार के हों । उन्होंने यह भी लिखा है कि साधुओं को कितने और किम प्रकार के पात्र रखने चाहिए। इसके सिवाय उन्होने बड़े विस्तार के साथ चलने, बैठने, बोलने, खाने, पीने इत्यादि के नियम दिये हैं। साधुओं को धर्म संबंधी जितने कार्य करने चाहिये उन्में से प्रत्येक को उन्होंने बहुत अच्छी तरह समझा दिया है। सारांश यह है कि उन्होंने इस विषय का ऐसा विस्तार पूर्वक विवेचन किया है कि आचाराङ्ग साधुओं के लिए एक समय-विभाजक-चक्र बन गया है, परन्तु उनके नित्यप्रति के धर्म मंबंधी कार्यों में मूर्तियों को व मंदिरों को स्थान नहीं दिया गया ।