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___ उन्होंने कभी अपनी प्रतिष्ठा-पूजा का ख्याल न किया, किन्तु
वे प्राणी मात्र को प्रेम करने में अपने आप को भी भूल गये
और उन्होंने अपने महत्त्वाकांक्षा रहित जीवन को, पतित मनुष्य नाति के उद्धार में लगा दिया।
एक ओर तो इन बातों को स्वीकार करना और उनकी सराहना करना और दूसरी ओर यह कहना कि तीर्थकरों ने मूर्तियों के रूप में अपनी पूजा कराई और इसी पूजा के अनुपम सौंदर्य को मोक्ष-प्राप्ति का साधन बतलाया, उनके असाधारण और नि:स्वार्थ जीवन और उनके उपदेश किये ए पवित्र और स्वार्थ रहित सिद्धान्तों को कलंकित करना है । ये दोनों बातें इतनी असंगत हैं कि इसका एक दूसरे से मेल बैठना मानव बुद्धि-सामर्थ्य के परे है।
यदि कोई अपने विचारों से पक्षपात निकाल कर, अपने हृदय से धार्मिक ईर्षा को दूर करके और एक मात्र सत्य की खोज करने की इच्छा से इन दैवी आत्माओं के पवित्र जीवन पर क्षणभर शात चित्त से विचार करे. तो मूर्ति-पूजा के विषय मे उसका भ्रम अवश्य दूर हो जायगा और सत्य का संपूर्ण प्रकाश हो उठेगा, जिससे भ्रम में पड़े हुए मूर्ति-पूजकों का मूर्ति-पूजा मंडन का दीर्घकालिक सिद्धान्त एक क्षण भी नहीं ठहर सकेगा।
मूर्तिपूजा के विरुद्ध जैन सूत्रों से और भी बहुत से प्रमाण दिये जा सकते हैं, परन्तु यहां पर उनका उल्लेख