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(१४) प्रख्यात सप्तभंगी नय पर, जो कि जैन धर्म की विशेषता है, आक्षेप किया है। वे सूत्र इस प्रकार हैं:( ३३ ) नैकस्मिन्नसंभवात्-" एक ही वस्तु में
एक ही समय परस्पर विरोध गुण होना असम्भव है इसलिये यह सिद्धान्त नहीं माना जा सकता” यहां पर स्यात् आस्त और स्यात् नास्ति इत्यादि जैन सिद्धान्त के ऊपर
आक्षेप किया गया है। (३४) एवंचमाकान्यम्-" और इसी
प्रकार ( जैन तत्व के अनुसार यह सिद्धान्त निकलेगा कि ) आत्मा (जिन शरीरों में) रहती है ( उनके लिये ) वह उसी प्रमाण से बडी या छोटी है।
( ३५) न च पयार्यादप्यविरोधो
विकारादिभ्यः " यदि हम यह मानले कि आकार वारबार बदलता रहता है, तो भी परस्पर विरोध ( होने की कठिनाई ) दूर नहीं हो सकती " इसलिये यह मानना होगा, कि आत्मा में आवश्यकतानुसार फेरफार होता रहता है।