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भक्त उनपर अनेक उपाधियाँ लादकर उन्हें उनके उच्च स्थान से नीचे गिराते हैं-अधःपतन करते हैं, संसारी पामर मनुष्यो में उनकी गणना करते हैं और अपनी मनमानी कल्पना के अनुसार उनको अपने आधीन बनाते हैं।
यद्यपि ये लोग तीर्थंकरों को सिद्धशिला व्यापि मानते हैं तो भी वे उनको एक छोटी सी मूर्तिके रूप में वस्तु रूप बना. लेते हैं। उनको निराकार मानते हुए भी उनका पाषाण या धातु की मूर्ति में रूपान्तर कर देते हैं व उनको त्यागी मान कर भी उन पर सब प्रकार का भोग चढाते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि तीर्थकर नग्न रहा करते थे, परंतु फिर भी वे उन्हें नाना प्रकार के वस्त्रों से लादते हैं । वे उनको अहिंसा धर्म के सम्माननीय प्रचारक मानकर भी पुष्प इत्यादि अनेक वस्तुएँ चढाकर असंख्य जीवों की हिंमा उनके निमित्त करते हैं । पुनर्जन्म से मुक्त मानकर भी पाषाण या धातु के जडरूप में उनकी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। तीर्थकरों को मृत्यु से मुक्त मानकर भा नाश होने वाले पाषाण धातु आदि पदार्थ का रूप देने हैं। इतनाही नहीं किन्तु उन्हे सर्व शक्तिमान मानकर भी उन्हे और उनके आभूपणादि को चोरो के भय मे ताले में बंद कर देते हैं । सारांश यह है कि भ्रम में पडे हुए और मिथ्यात्व में फंसे हुए मूर्तिपूजको के कृती में इसी प्रकार के अगणित विरोध पाय जाते हैं।