Book Title: Anusandhan 2004 07 SrNo 28
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि (२८ श्री हेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद 2004 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसुत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसधान प्राकृतभाषा अने जैनसाहित्य-विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका || २८ संपादकः विजयशीलचन्द्रसूरि श्रीहेमचन्द्राचार्य कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद २००४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान २८ आद्य संपादक : डॉ. हरिवल्लभ भायाणी संपादक : विजयशीलचन्द्रसूरि संपर्क : C/o. अतुल एच. कापडिया A-9, जागृति फ्लेट्स, पालडी महावीर टावर पाछळ अमदावाद-३८०००७ प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद प्राप्तिस्थान : (१) आ. श्रीविजयनेमिसूरि जैन स्वाध्याय मन्दिर १२, भगतबाग, जैननगर, नवा शारदामन्दिर रोड, आणंदजी कल्याणजी पेढीनी बाजुमां, अमदावाद-३८०००७ (२) सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१ मूल्य : Rs. 50-00 मुद्रक : क्रिश्ना ग्राफिक्स, किरीट हरजीभाई पटेल ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-३८००१३ (फोन : ०७९-२७४९४३९३) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १. अज्ञातकर्तृक सुभाषितसञ्चय सं. विजयशीलचन्द्रसूरि 1 २. श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रद्वयम् सं. म. विनयसागर 29 ३. लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणुपेक्खा और प्रवचनसार की भाषा के कतिपय मुद्दोंका तुलनात्मक अभ्यास डॉ. शोभना आर. शाह 36 ४. भवस्थिति स्तवन सं. डॉ. कान्तिभाई शाह 42 ५. हर्षकुल रचित वसुदेवचुपइ सं. रसीला कडीआ 51 ६. विहंगावलोकन मुनि भुवनचन्द्र ७. पत्रचर्चा ८. माहिती भाण्डारकरशोधसंस्थान विषे ९. नवां प्रकाशनो Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञातकर्तृक सुभाषितसञ्चय : भूमिका सं. विजयशीलचन्द्रसूरि सम्भवतः १६मा शतकनी लखायेली, १० पत्रनी एक हस्तप्रति उपरथी तैयार करवामां आवेल आ सुभाषित-सञ्चयना रचयिता के संकलनकर्ता अज्ञात छे. जुदा जुदा २० पदार्थोने विषय बनावीने, ते प्रत्येक विषय पर रचायेला अष्टकोनो आ सरस सञ्चय छे. आ सञ्चयना अन्तिम अष्टक (आत्म)निन्दाष्टकनो सीधो सम्बन्ध जैन साधुना जीवन साथे होवाथी, तेमज १८मा अष्टकना पांचमा श्लोकनो विषय 'जिनपति' अटले के जैन तीर्थंकर होवाथी, आ सञ्चयना प्रणेता कोई जैन मुनि छे, ए वात स्वयं स्पष्ट थई जाय छे. अलबत्त, मोटा भागना श्लोको तो विविध कविओनी रचना-स्वरूप ज जणाय छे, छतां आमां संकलनकारे रचेलां पद्यो पण समाविष्ट होवानी सम्भावना नकारी तो न ज शकाय. खास करीने 'निन्दाष्टक' ए संकलनकारनी रचना होवानुं मानी शकाय. आ सञ्चयनी विशेषता ए छे के दरेक अष्टकमां आवनारा श्लोकोना प्रथम पदोनो क्रमिक समन्वय करीने ते ते अष्टकनो प्रथम श्लोक रचवामां आव्यो छे. अर्थात् प्रथम श्लोकमां ज पछीना बधा श्लोकोना प्रतीक-पदोनुं संयोजन रचीने ते अष्टकमां समाविष्ट श्लोकोनो निर्देश करी देवायो छे, अने साथे साथे ते ते अष्टक- नाम पण गुंथी लेवायुं छे. प्रथम दृष्टिए अष्टकनी संख्या २०नी छे, छतां खरेखर १९ अष्टको ज छे. १०मा क्रमांकना अष्टकमां मात्र प्रतीक-श्लोक ज छे, अन्य श्लोको नथी; वस्तुतः ते ज प्रतीक-श्लोक, आगळ जतां १९मा अष्टकना प्रारम्भे पुनः जोवा मळे छे. ए रीते विधिअष्टक के भग्नाशविधि-अष्टक ए बन्ने एक ज छे, जुदा नहि. आथी कुल १९ अष्टको ज होवानुं सिद्ध थाय छे. अष्टकोनां नामो क्रमशः आ प्रमाणे छे : हंसाष्टक, चकर वाक), भ्रमर, करभ, हरिण, सिंह, धवल, सज्जन, वानरवल्लभ, भग्नाशविधि, मेघ, समुद्र, सत्पुरुष, गज, वृक्ष, बप्पीह, रत्न, देव, विधि, निन्दाष्टक. आ अष्टकोमां गुंथायेला श्लोको मुख्यत्वे अन्योक्तिरूप छे के पछी सुभाषितरूप छे. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२८ ९मा अष्टकनुं नाम 'वानरवल्लभाष्टक' छे. तेना प्रथम पद्यमां 'वानरवल्लभेन' एवो प्रयोग छे, ते परथी ते कोई कवितुं नाम होवानुं अनुमान थाय छे. सुभाषितोना प्रसिद्ध संग्रहो जोवाथी आ विषे विशेष जाणकारी मळे ते सम्भवित छे. आ ज पद्यमां 'उल्लिङ्गनावृत्तमुदाजहार' - उल्लिङ्गना वृत्तनो (के उल्लिङ्गनाना चरित्रनो ?) दाखलो आप्यो' एवो प्रयोग छे, तेनुं तात्पर्य पण मेळवq रहे छे. पद्यसंख्या तपासीए तो प्रथम प्रतीक श्लोकने बाद करीने ज अष्टकोनी ८-८ श्लोकोनी संख्या प्राप्त थाय छे. तेथी १, ३, ४, ५, ७, ९, १२, १४, १७ आटला अष्टको मां ९-९ पद्यो छे. ते सिवायनां अष्टकोमा देखाती वधघट आम छे : २, ११, १५, १९, २०, आटलां अष्टकोमा १० पद्यो, ६मां ११ पद्यो, १३मां ७ पद्य, १६ अने १८ मां ८-८ पद्यो छे. कुल पद्य संख्या १७५ थाय छे. १३मा सत्पुरुषाष्टकमां प्रतीक-पद्यमां 'नम्रत्व' अने 'विपदि' ए बे प्रतीको होवा छतां ते प्रतीकथी प्रारंभाता श्लोको नथी. ते क्रमशः 'नम्रत्वेनो त्रमन्तः' तथा 'विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा' - ए बे प्रसिद्ध पद्यो होय तेम अनुमान थाय छे. १५मा अष्टकमां छठ्ठा पद्यनुं मात्र प्रतीक ज लखेल छे, पद्य नहि; ते ज रीते १६-२ तथा १९-८ विषे पण तेवू ज छे. १६मा अष्टकमां 'हहो चातक' एवं प्रतीक प्रथम श्लोकमां होवा छतां ते पद्य क्यांय छे नहि. तो १६मा अष्टकमां जोडवाना सूचक चिह्न साथे पत्र ८/१ना फाटेल हासियामां 'किमत्र'थी प्रारंभातो त्रुटित श्लोक जोवा मळे छे. १५मा अष्टकमां प्रथमपद्य-प्रदर्शित 'भुक्तं' अने 'तथैव च' प्रतीकवाळा श्लोको नथी, पण 'हहो' अने 'भ्राम्यद्' (पद्य ९-१०) ए शब्दोथी शरु थतां बे श्लोको छे. आ श्लोकोनो संकेत प्रतीक-पद्यमां नथी मळतो. १८मा अष्टकमां प्रतीक-पद्य ज नथी, अने ७मा श्लोक- १ चरण त्रुटित छे, तो एक चरण छ ज नहि. १७मा रत्नाष्टकना ८मा श्लोकमां एक मजानो शब्दप्रयोग छ : 'कस'. कवि कहेवा जाय छे के 'कः सः सुहृद्, यस्याऽयमावेद्यते', पण आ शब्दो आ ज रीते योजवा जतां छन्दोभंग थाय, एटले कवि आ शब्दोने बोलचालनी भाषाना अपभ्रष्ट प्रयोगमा ढाळीने लखे छे – 'कस सुहृद्' आवो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 प्रयोग कविसमयमा प्रचलित होय तो ते विष हुं अजाण छु. २०निन्दाष्टक ते अन्यत्र 'आत्मनिन्दाष्टक'ना नामे प्रसिद्ध छे. कठोर रीते स्व-आलोचना होवाने कारणे जैन साधुसंघमां आ अष्टकने खास प्रचार नथी मळ्यो. आ अष्टक ई. १८९६मां निर्णयसागर प्रेस द्वारा प्रकाशित 'काव्यमाला'ना ७मा गुच्छमां पृ. ९५-९६ मां प्रगट थयेल छे. त्यां पण तेना कर्ता, नाम नोंधायुं नथी. ते वाचनामां मळतां त्रणेक पाठान्तरो अत्रे टिप्पणीरुपे नोंध्यां छे; तथा तेमां रहेल क्षतिओ आ मुद्रणना आधारे सुधारी शकाय तेम छे. त्यां जोवा मळती क्षतिओ आ प्रमाणे छे : 'कर्मक्लेशविनाशसंभवविमुख्या(मुख्या)न्यद्यापि नो लेभिरे' (५) 'किमचरमगुणस्थानकं कर्मदोषात्' (६) 'शय्यापुस्तकपुस्तकोपकरणं' (७) "नितरामाजन्मवृद्धा वयं' (७) 'वणिग्दुर्वासनाशात्मिनाम्' (८) 'कोपेयं कृपणोऽकृपापरिवृतैः (?) कार्य' (९) आ तमाम पाठो प्रस्तुत प्रतिमां शुद्धस्वरूपे जोवा मळे छे. वधुमां त्यां ९-१० पद्योमां व्यत्यय जोवा मळे छे. आ अष्टकोमा संकलित सुभाषितो अने अन्योक्तिओ अत्यन्त प्रसन्नकर छे. एमांये केटलांक पद्यो तो वारंवार वांचवा-गावा गमे तेवां अने हृदयवेधी छे. कोई सहृदय भावक आ सुभाषितो, रसदर्शन करावे तो सरस रसास्वादकृति सर्जाय तेम छे. अष्टकानि ॥ (अज्ञातकर्तृकः सुभाषितसञ्चयः) . (१) यः सन्तापं गाङ्गं सन्त्यन्यत्रापि तटगतं स्मरसि । अपसरणमथ स्थित्वा गदितं हंसाष्टकं नाम ॥१॥ यः सन्तापमपाकरोति जगतां यश्चोपकारक्षमः सर्वेषाममृतात्मकेन वपुषा प्रीणाति नेत्राणि यः । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२८ तस्याप्युन्नतिमम्बुदस्य सहसे यन्न त्वमेतावता वर्णेनैव परं मराल ! धवलः कृष्णश्चरित्रैरसि ॥२॥ गाङ्गमम्बु सितमम्बु यामुनं, कज्जलाभमुभयं निमज्जतः । चीयते न च न चाऽपचीयते, राजहंस ! तव शुद्धपक्षता ॥३॥ सन्त्यन्यत्रापि वीचीचयचकितचलत्क्रोञ्चचञ्चुप्रभिन्नप्रोनिद्राम्भोजरेणुप्रकरविरचनाहारिवारिप्रवाहाः । किन्तु स्वच्छाशयत्वं जगति न सुलभं तेन गत्वाऽपि दूरं बद्धो क(त्कण्ठानुरागादनुसरति सरो मानसं राजहंसः ॥४॥ तटमनुतटं पद्मे पद्मे निवेसि(शि)तमानसं प्रतिकमलिनीपत्रच्छायं क्षणं क्षणमासितम् । नयनसलिलैरुष्णैः कोष्णां कृता जलवीचयो जलदमलिनां हंसेनाऽऽशां विलोक्य गमिष्यताम् ॥५॥ गतं तद्गाम्भीर्यं तटमुपचितं जालिकशतैः सखे ! हंसोत्तिष्ठ त्वरितममुतो यामि सरसः । न यावत् पङ्काम्भःकलुषिततनुभूरि विलसन् बकोटो वाचाटश्चरणयुगलं मूर्ध्नि कुरुते ॥६॥ सरसि सरसि वीची मन्ददोलायितानां तदनु विलसताऽग्रं त्वन्मुखाद् यन्मयाऽऽत्तम् । इति मनसि निविष्टामालपेन्नैव हंसी त्यजति विरहखेदाज्जीवितं राजहंसः ।।७।। अपसरणमेव युक्तं मौनं वा तत्र राजहंसस्य । कटु रटति निकटवर्ती वाचाटष्टिट्टिभो यत्र ॥८॥ स्थित्वा चिरं नभसि निश्चलतारकेण, मातङ्गसङ्गमलिनां नलिनी विलोक्य । उत्पन्नमन्यु परिघर्घरनिस्वनेन, हंसेन साश्रु परिहृत्य गतं निलीनम् ॥९॥ हंसाष्टकम् ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July 2004 (२) अस्तं मित्रे वापी कवलित शतगुण दिनान्त एकेन । उत्कूजति कथय [तथा] वदन्ति चक्राष्टकं नाम ॥१॥ अस्तं गतोऽयमरविन्दवनैकबन्धुर्भास्वान्न लङ्घयति कोऽपि विधिप्रणीतम् । चक्राङ्ग ! धैर्यमवलम्ब्य विमुञ्च शोकं धीरास्तरन्ति विपदं नहि दीनचित्ताः ॥२॥ मित्रे क्वापि गते सरोरुहवने बद्धानने क्लाम्यति क्रन्दत्सु भ्रमरेसु वीक्ष्य दयिताश्लिष्टं पुरः सारसम् । चक्राङ्गेन वियोगिना बिशलता ना (नो) खादिता नोज्झिता वक्त्रे केवलमर्गलेव निहिता जीवस्य निर्गच्छतः ||३|| वापीतोयं तटतरुवनं पद्मिनीपत्रशय्या | चन्द्रालोको विकचकुमुदामोदहृद्य: समीर: । यत्रैतेऽपि प्रियविरहिणो दाहिनश्चक्रनाम्नस्तत्रोपायः क इह भवतः प्राणसन्धारणाय ||४|| कवलितमिह नालं कन्दलं चेह दृष्टं इह हि कुमुदकोशे पीतमम्भः सुशीतम् । इति विरटति रात्रौ पर्यटन्ती तटान्ते सहचरपरिमुक्ता चक्रवाकी वराकी ॥५॥ श[त] गुणपरिपाट्यो पर्यटन्नन्तराले कुमुदकुवलयानामद्धरात्रेऽप्यखिन्नः । उपनदि दयितायाः क्वापि शब्दं निशम्य भ्रमति पुलिनपुष्टे चक्रवच्चक्रवाकः ॥६॥ दिनान्ते चक्रवाकेन प्रियाविरहभीरुणा । तथा निःश्वसितं तेन यथा नोच्छ्वसितं पुनः ||७|| 5 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२८ एकेनार्कं प्रकटितरुषा पाटलेनाऽस्तसंस्थं पश्यत्यक्ष्णाऽश्रुजललुलितेनाऽपरेण स्वकान्तम् । अह्नश्छेदे दयितविरहाशङ्किनी चक्रवाकी द्वौ संकीर्णौ रचयति रसौ नर्तकीव प्रगल्भा ॥८॥ उत्कूजति श्वसिति मुह्यति याति तीरं, तीरान् तरं तरुतलात् पुनरेति वापीम् । वापी न तिष्ठति न चात्ति मृणालखण्डं, चक्रः क्षपासु विरहे खलु चक्रवाक्याः ।।९।। कथय किमपि दृष्टं स्थानमस्ति श्रुतं वा, व्रजति दिनकरोऽयं यत्र नाऽस्तं कदाचित् । इति विहगसमूहान्नित्यमापृच्छतीदं, रजनिविरहभीतश्चक्रवाको वराकः ॥१०॥ चक्राष्टकम् ॥ (३) येन कृत्वापि मातङ्गेऽन्यासु निराचष्टे च दूराच्च । प्रतिवेशिनिरानन्दो भ्रमराष्टकमेतदाख्यातम् ॥१॥ येनामोदिनि केशरस्य मुकुले पीतं मधु स्वेच्छया नीता येन निशाशशाङ्कधवले पद्मोदरे शारिदै (शारदी ?) । भ्रान्तं येन मदप्रवाहमलिने गण्डस्थले दन्तिनां सोऽयं भृङ्गयुवा करीरविटपे बध्नाति तुष्टिं कुतः ॥२॥ कृत्वाऽपि कोशपानं, भ्रमरयुवा पुरत एव कमलिन्याः । अभिलषति बकुलकलिकां, मधुलिहि मलिने कुतः सत्यम् ? ॥३॥ मातङ्गेन मदावलिप्तमतिना यत्कर्णतालानिलै र्दानार्थं समुपागता मधुलिहो दूरं समुत्सारिताः । तस्यैधानमण्डनक्षितिरसौ भृङ्गाः पुनः सर्वतो जीविष्यन्ति वनान्तरेषु विकसत्पुष्पासवैः सीधुभिः ॥४॥ अन्यासु तावदुपमर्दसहासु भृङ्ग ! लोलं विनोदय मनः सुमनोलतासु । मुग्धामिमामसरसां कलिकामकाले, बालां कदर्थयसि किं नवमालिकायाः ? ॥५॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 निराचष्टे यष्टिं कुरुबकतरोरब्जसरसामसद्भावं ब्रूते वदति च(?)बकुलानामकुशलम् । वनान्ते चूतानामभवनमिहाख्यातवसतामसौ झिण्टीझोटे झट(टि)ति घटमानो मधुकरः ॥६॥ दूरादुज्झति चम्पकं न च भजत्यम्भोजराजीरजो नो जिघ्रत्यपि पाटलापरिमलं धत्ते न चूते रतिम् । मन्दारे मदनादरी विचकिलोपान्ते च सन्तप्यते तन्मन्ये क्वचिदङ्ग ! भृङ्गतरुणेनाऽऽस्वादिता मालती ॥७॥ प्रतिवेसी(शी) हंसजनः क्रीडाभवनानि पुण्डरीकाणि । हृद्य मधुजलममलं मधुकर ! तत्रै[व] यदि रमसि(से) ॥८॥ निरानन्दः कौन्दे मधुनि विधुरो बालबकुले न साले सालम्बो लवमपि लवङ्गे न रमते । प्रियाने नो सङ्गं रचयति न चूतेऽभिरमते स्मरन् लक्ष्मीलीलाकमलमधुपानं मधुकरः ॥९॥ भ्रमराष्टकम् ॥ सरलित न भवति चिन्ता रूक्षं दुःप्राप वक्रमायाते । चर करभ सहितमस्यां कथितं करभाष्टकं नाम ॥१|| सरलितगलनाली कन्धरां धत्स्व धैर्यात् करभ ! लघु शमीनां ग्रासमेकं गृहाण । सरसमधुरपत्रास्ताः कुतः पीलुजात्यो हरिततरुकरीरे रे ! मरौ याः प्ररूढाः ॥२॥ न भवति मिथुनानां प्रेम लावण्ययोगाज्जनयति सुखमन्तः कस्यचित् कोऽपि दृष्टः । पतति कुटिलदृष्टिदग्धदासेरकाणां जरठ भुरुटवल्लीपिञ्जरासु स्थलीषु ॥३॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२८ चिन्तां मुञ्च गृहाण पल्लवमिदं प्लक्षस्य शालस्य वा गङ्गा(गाङ्ग)स्याऽस्य जलस्य चन्द्रवपुषो गण्डूषये(मे)कं पिब । जीवन् द्रक्ष्यसि ताः पुनः करभ हे ! दासेरकेया भुवो रम्याः पीलुशमीकरीरबदरी: कूजत्कपोताकुलाः ॥४॥ रूक्षं वपुर्न च विलोचनहारिरूपं न श्रोत्रयोः सुखदमारटितं कदाचित् । इत्थं न साधु तव किञ्चिदिदं तु साधु तुल्ये रति करभ ! कण्टकिनि द्रुमे यत् ॥५॥ दुःप्रापमम्बु पवनः पु(प)रुषोऽतितापी (पः?) छायाभृतो न तरवः फलभाल(?) नम्राः । इत्थं सखे ! करभ ! वच्मि भवन्तमुच्चैः का सङ्गतिः खलु मरौ रमणीयतायाः ! ॥६॥ वक्रग्रीवमुदीक्षसे किमपरं बाष्पाम्बुपूर्णेक्षणः कः खेदः करभाऽधुना तृणलवैः सन्तर्पयैतद्वपुः । कान्तान्तःस्फुरदोष्टसम्पुटभुवो ये लीलयाऽऽन्दोलिता मुक्तास्तेन च नीलकन्दल[दल]श्यामाः शमीपल्लवाः ॥७॥ आयाते दयिते मरुस्थलभुवां संचिन्त्य दुर्लङ्घयतां गेहिन्या(:) परितोषबाष्पतरलामासाद्य सद्यो मुखे । दत्वा पीलुशमीकरीरकवलान् खे(स्वे)नाञ्चलेनादरात् उन्मृष्टं करभस्य केसरसटाभाराग्रलग्नं रजः ॥८॥ चर करभ ! यथेच्छं सन्ति शि(श)ष्पाण्यरण्ये बहुकुसुमसमृद्धाः पीलवश्च स्थलीषु । यदि गणयसि वाक्यं बन्धुवर्गस्य दूरात् परिहर करवीरं मृत्युरेवैष सद्यः ॥९।। करभाष्टकम् ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 (५) रज्वा स्थलीनामसकृत् प्रियायाः, छित्वा द्रुत त्यक्त समेतमन्याः । आद्यं पदं दर्शितमष्टभेदं, पूर्वप्रसिद्धं हरिणाष्टकस्य ॥१॥ रज्वा दिशः प्रविवताः सलिलं विष्ण पाशैर्मही हुतभुजा ज्वलिता वनान्ताः । व्याधाः पदान्यनुसरन्ति गृहीतचापाः कं देशमाश्रयति यूथपतिमूंगाणाम् ॥२॥ स्थलीनां दग्धानामुपरि मृगतृष्णामनुसरंस्तृषातः सारङ्गो विरमति न खिन्नेऽपि मनसि । अजानामस्त(स्ति)त्वं न च मृगयतेऽन्यत्र सरसीमभूमौ प्रत्याश्या न च फलति विघ्नं च कुरुते ॥३॥ असकृदतकृत्तन्नष्टां मृगा मृगतृष्णिकां (?) श्रमपरिगतोऽप्युत्पक्ष्माक्षः परैति पुनः पुनः । गणयति न तन्मायातोयं हृतः सलिलाशया भवति हि म[ति]स्तृष्णान्धानां विवेकपराङ्मुखा ॥४॥ प्रियायां स्वैरायामतिकठिनगर्भालसतया किराते चाकर्णीकृतधनुषि धावत्यनुदिनम् । प्रियाप्रेमप्राणप्रतिभयवशात् पश्य विवशो मृगः पश्चादालोकयति च मुहुर्याति च मुहुः ॥५॥ छित्वा पाशमपास्य कूटरचनां भक्त्वा बलाद् वागुरां पर्यन्ताग्निशिखाकलापजटिलान्निर्गत्य दूरं वनात् । व्याधानां शरगोचरादतिजवेनोत्पत्य धावन्मृगः कूपान्तः पतित: करोतु विमुखे किं वा विधौ पौरुषम् ? ॥६॥ द्रुततरमितो गच्छ प्राणैः कुरङ्ग ! वियुज्यतो(ते) किमिति चलितग्रीवं स्थित्वा मुहुर्मुहुरीक्ष्यते । विदधति हतव्याधा नैते मनागपि सार्द्रतां कठिनमनसामेषामेते विलोकितविभ्रमा(:) ॥७॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२८ त्यक्तं जन्मवनं तृणाङ्करवती मातेव मुक्ता स्थली विश्रामस्थितिहेतवो न गणिता बन्धूपमाः पादपाः । बालापत्यवियोगदुःखविधुरा मुक्ताऽर्धमार्गे मृगी मार्गं तत्पदवी(वीं) तथाप्यकरुणा व्याधा न मुञ्चन्ति माम् ॥८॥ अन्यास्ता मलयस्य काननभुवः स्वच्छश्रवन्निर्ज(झ)रास्तृष्णा यासु निवर्तते तनुभृतामालोकमात्रादपि । क्षुकां(ब्धाकां ?)क्षपरिग्रहो मरुरसौ स्फारीभवदधा(भ्रा?)न्तयः ता एता मृगतृष्णिका हरिण हे ! नेदं पयो गम्यताम् ॥९॥ हरिणाष्टकम् ॥ (६) क्षुत्क्षाममत्तेभमृगैर्मृगारि-रद्यापि निद्रा प्रकृतिर्यथेष्टम् । विश्रं वपुस्साम नयश्च लोके सिंहाष्टकं कस्य मुदे न पुंसः ? ॥१॥ क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राप्तो(यो)ऽतिकष्टां दशामापन्नोऽपि विपन्नदीध(धि?)तिरपि प्राणेषु गच्छत्स्वपि । मत्तेभेन्द्रविशालकुम्भदलनव्यायामबद्धस्पृहः किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहतामग्रेसरः केशरी ॥२॥ मृगैर्नष्टं शशैर्लीनं, वराहैर्वलितं रुषा । हयानां हेषितं श्रुत्वा, सिंहै: पूर्ववदासितम् ॥३॥ मत्तेभकुम्भनिर्भेद-कठोरनखराशनि(ः) । मृगारिरिति नाम्नैव लघुतामेति केशरी ॥४॥ मृगारिं वा मृगेन्द्रं वा, सिंहं व्याहरतां जनः । तस्य द्वयमपि व्रीडा, क्रीडादलितदन्तिनः ॥५॥ अद्यापि न स्फुरति केसरभारलक्ष्मीर्न प्रेषति ध्वनितमद्रिगुहान्तरेषु । मत्तास्तथापि हरिणा हरिणाधिपस्य पश्यन्ति भ्रान्तमनसः पदवीं वनेषु (?) ॥६॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 निद्राघूणितलोचनो मृगपतिर्यावद् गुहां सेवते तावत् स्वैरममी चरन्तु हरिणा: स्वच्छन्दसञ्चारिणः । उन्निद्रस्य विधूतकेसरसटाभारस्य निर्गच्छतो नादे श्रोत्रपथं गते हतधियां सन्त्येव दीर्घा दिशः ॥७॥ प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसां हेतुः । । सिंहः शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ॥८॥ यथेष्टं चेष्टध्वं मदमलिनगण्डाः करटिनः ।। तटान्यद्रेर्मन्दं विकषत विषाणैश्च महथाः (महिषाः) ।। सरागं सारङ्गां ! सह सहचरीभिर्विचरताऽ- . प्रचारः सिंहानामिह न विधिना हन्त विहितः ॥९॥ वित्रं वपुः परवधप्रवणं च कर्म तिर्यक्तयैव कथितः सदसद्विवेकः । इत्थं न किञ्चिदपि साधु मृगाधिपस्य, तेजस्तु तं स्फुरति यस्य जगद् वराकम् ॥१०॥ सामोपायनयः प्रपञ्चपटवः प्रायेण: ये भीरवः शूराणां व्यवसाय एव हि परं संसिद्धये कारणम् । विस्फूर्जद्विकटाटवीगजघटाकुम्भैकसंचूर्णनव्यापारैकरसस्य सन्ति विजये सिंहस्य के मन्त्रिणः ॥११॥ सिंहाष्टकम् ॥ मार्गे नखनसिचानसि नध्वानं गुरुर्यथात्र यस्यादौ । ऊ(व्यू)ढा येन सुधवलैर्गदितं धवलाष्टकं नाम ॥१॥ मार्गे कर्दमदुस्तरे जलभृते गर्ताशतैराकुले खिन्ने शाकटिके भरेऽतिविषमे दूरं गते रोधसि । शब्देनैतदहं ब्रवीमि महता कृत्वोत्थितां तर्जनीमीदृक्षे विषमे विहाय धवलं वोढुं भरः(रं) कः क्षमः ? ॥२॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 अनुसंधान-२८ नखनसिखुरैः क्षोणीपृष्टं न नर्दति सादरं प्रकृतिपरुषं प्रेष्यासन्नं न कुप्यति गोतरम् । वहति च धुरं धुर्यो धैर्यादनुद्धरकन्धरो जगति गुणिन(:) कार्यौदार्या[त्]परानतिशेरते ॥३॥ अनसि सीदति सैकतवर्त्मनि प्रचुरभारभरक्षपितोक्षणि । गुरुभरोद्धरणोद्धरकन्धुरं स्मरति सा[रथि]रन्यधुरन्धरम् ॥४॥ न ध्वानं कुरुते(?) न यासि विकृतिं नोच्चैर्वहस्याननं दोन्नोल्लिखसि क्षितिं खुरपुटैर्नाऽवज्ञया वीक्षसे । किन्तु त्वं वसुधातलैकधवलः स्कन्धाधिरूढे भरे तीव्राण्युच्चतटे विटङ्कविषमाण्युल्लङ्घयन् लक्ष्यसे ॥५॥ गुरुर्नाऽयं भारः क्वचिदपि न पन्थाः स्थपुटितो न ते कुण्ठा वोक्तिर्वहनमपि नाऽङ्गेन विकलम् । इह द्रङ्गे नाऽन्यस्तव गुणसमानस्तदधुना धुनानेन स्कन्धं धवल ! किमु मुक्तः पथि भरः ? ॥६॥ यथा भग्नः पन्थाः परुषविषमग्रावगहने गलानां नाऽङ्गानि स्पृशति च यथा सारथिरयम् । यथा चैते दृप्ताः खवलितभुवो यान्ति वृषभास्तथा दूरीभूतः स खलु धवलो नूनमधुना ॥७॥ यस्यादौ व्रजमण्डनस्य बहुभिरु(यू)ढा न गुर्वी धुरा धौर्येयैः प्रगुणीकृतो न युगपत् स्कन्धे समस्तैरपि । तस्यैव श्लथकम्बलस्य धवलस्योत्थापने साम्प्रतं द्रङ्गेऽत्रैव जरावसादिततनो!ः पुण्यमुद्दष्यते ॥८॥ व्यूढा येन महाधुरा सुविषमे मार्गे सदैकाकिना सोढो येन कदाचिदेव न निजे णष्टेन्य (?)शण्डध्वनिः । आसीद् यश्च गवां गणस्य तिलकस्तस्यैव संप्रत्यहो ! धिक्कष्टं धवलस्य जातजरसो गोः पुण्यमुद्दष्यते ॥९॥ धवलाष्टकम् ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 13 (८) दक्षो दानस्तब्धौ दुर्मन्त्री शुष्कमिन्धनं त्यजति । अर्ध:(र्थः) ऋ(र)तौ लोके वा, नरवृत्ताष्टकं नाम ॥१॥ दक्षः श्रियमधिगच्छति पथ्याशी कल्यतां सुखमरागी । उद्योगी विद्यात्वं धर्मार्थयशांसि च विनीतः ॥२॥ दानं दरिद्रस्य विभोः प्रशान्ति-यूनां तपो ज्ञानवतां च मौनम् । इच्छानिवृत्तिश्च सुखोचितानां, दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ॥३॥ स्तब्धस्य नश्यति यशो विषमस्य मैत्री नष्टक्रियस्य कुलमर्थपरस्य धर्मः । विद्याफलं व्यसनिनः कृपणस्य सौख्यं राज्यं प्रमत्तसचिवस्य नराधिपस्य ॥४॥ दुर्मन्त्रिणं कमु[प]यान्ति न नीतिदोषाः सन्तापयन्ति कमप[थ्य] भुजं न रोगाः । कं श्रीन दर्पयति कं न निहन्ति तृष्णा कस्कंत्तता (?) (कं कं तता) न विषयाः परितापयन्ति ॥५॥ शुष्कन्धनैर्वह्निरुपैति वृद्धि, मूर्खेषु कोपश्चपलेषु शोकः । कान्तासु कामो निपुणेषु वित्तं, धर्मो दयावत्सु महत्सु धैर्यम् ॥६॥ त्यजति भयमकृतपापं मित्राणि शठं प्रमादिनो विज्जा(द्या) । ही:(हीः) कामिन(नं) मलश्री: स्त्री क्रूरं दुर्जनो लोकः (?) ॥७॥ अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य वित्तं च वपुर्वयस्य । धर्मस्य दानं हि दयादमौ च, मोक्षस्य सर्वार्थनिवृत्तिरेव ॥८॥ रतौ विवाहे व्यसने पि(रि)पुक्षये प्रियासु नारीषु धनेषु बन्धुषु । यशस्करे कर्मणि मित्रसङ्ग्रहेष्वतिव्ययो नास्ति नराधिपाऽष्टसु ॥९॥ सज्जनाष्टकम् ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ( ९ ) माधुर्यमुत्साहसुजीर्णरूपं श्रुतेन शाठ्येन जवो हि वैद्यम् । नीतिप्रिया वानरवल्लभेन, उल्लिंगनावृत्तमुदाजहार ॥१॥ माधुर्यं प्रमदाजनेसु (षु) ललितं दाक्षिण्यमार्जे जने शौर्यं शत्रुषु मार्दवं परिजने धर्मिष्टता साधुषु । मर्मज्ञेष्वनुवर्त्तना बहुविधा मानं जने गर्विते शाठ्यं पापजने नरस्य कथितं पर्याप्तमष्टौ गुणाः || २ || उत्साहसम्पन्नमदीर्घसूत्रिणं, क्रियाविधिज्ञं व्यसनेष्वसक्तम् । शूरं कृतज्ञो (जं) दृढसौहृदं च, लक्ष्मीः स्वयं वाञ्छित (ञ्छति) वासहेतोः ॥३॥ सुजीर्णमन्त्रं सुविचक्षणः सुतः, सुशासिता स्त्री नृपतिः सुसेवितः । सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं तदीर्घकालेऽपि न याति विक्रियाम् ॥४॥ अनुसंधान- २८ रूपं जरा सर्वसुखानि तृष्णा, खलेषु सेवा पुरुषाभिमानम् । याच्या गुरुत्वं गुणमात्मशंसा, चिन्ता बलं हन्ति दयां च लक्ष्मीः ॥५॥ श्रुतेन बुद्धिर्व्यसनेन मूर्खता, प्रियेण नारी सलिलेन निम्नगा । निशा शशाङ्केन धृतिः समाधिना, नयेन चालंक्रियते नरेन्द्रता ||६|| शाठ्येन मित्रं कपटेन धर्मं, परोपतापेन समृद्धिभावम् । सुखेन विद्यां पुरुषेण नारी, वाञ्छन्ति ये व्यक्तमपण्डितास्ते ||७|| जवो हि सप्तेः परमं विभूषणं, त्रपाऽङ्गनायाः कृशता तपस्विनः । द्विजस्य विद्येव मुनेरपि क्षमा, पराक्रमः शस्त्रब[लो]पजीविनाम् ॥८॥ वैद्यं पानरतं नटं कुपठितं मूर्ख परिव्राजकं योधं कापुरुषं विटं गतवयं स्वाध्यायहीनं द्विजम् । राज्यं बालनरेन्द्रमन्त्ररहितं मित्रं छलान्वेषिणं भार्यां यौवनगर्वितां पररतां मुञ्चन्ति ये पण्डिताः ||९|| वानरवल्लभाष्टकम् ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 (१०) वीचीकैवर्तयद्भम्नं (?), तथा शशिदिवाकरैः । अलं सृजति पोष्याश्च, भग्नाशस्याष्टकं विधेः ॥१०॥ (११) सुखयसि विलपति यत्तत् तृषार्तमेतानि वितर हे मेघ ! । अयि जल मामभ्युन्नत-मिदमम्बुधराष्टकं नाम ॥१॥ सुखयसि तृषोत्ताम्यत्तालुस्खलद्ध्वनिविह्वलं कतिपयपयोबिन्दुस्यन्दैर्न चातकमागतम् । जलधर ! यदा कालात् कोऽपि प्रचण्डसमीरण: प्रवहति तदा न त्वं नाऽयं न ते जलबिन्दवः ॥२॥ विलपति तृषा सारङ्गोऽयं भवानयमुन्नतो जलमपि च ते संयोगोऽयं कथञ्चिदुपस्थितः । उपकृतिकृते प्रहूं चेतः कुरुष्व यदग्रतो भ्रमति पवनः क्व त्वं क्वाऽयं क्व वा जलसंहतिः ॥३॥ यत्तद् गर्जितमूर्जितं यदपि च प्रोद्दामसौदामिनीदामाऽम्बरडम्बरे विरचितं यद्दूरमभ्युन्नतम् । तेषां पर्यवसानमेतदधुना जातं यदम्भोधरं द्वित्रां कृत्रिमरोदनाश्रुतनवोन्मुक्ताः पयोबिन्दवः ॥४॥ तृषार्ते पाथोद ! प्रलपति पुरश्चातकशिशौ यदेतनष्ठुर्यं तदिह गदितुं मा त्वर इति । विपद् वा स्वाधीना किमुत जडता वा परिणता मरुद्वानो वास्यत्यथ घन ! शरद् वा न भवति ।।५।। एतान्यहानि किल चातकशावकेन, नीतानि कण्ठकुहरे स्थितजीवितेन । तस्यार्थिनो ज[ल]द ! पूरय वाञ्छितानि, मा भूत् त्वदेकशरणस्य बत प्रमादः ॥६॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२८ वितर [वारिद !] वारि तृषातुरे, त्वरितमुद्यतचातकशावके । मरुति विस्फुरति क्षणमन्यथा, क्व च भवान् क्व पयः क्व च चातकः ।।७।। हे मेघ ! मानमहितस्य तृषातुरस्य त्यक्तत्वदन्यशरणस्य च चातकस्य । अम्भःकणान् कतिचिदप्यधुना विमुञ्च नो चेद् भविष्यसि जलाञ्जलिदानयोग्यः ॥८॥ अय(यि) जलद ! यदि न दास्यसि, कतिचित् त्वं चातकाय जलकणिकाः । तदयमचिरेण भविता, सलिलाञ्जलिदानयोग्यस्ते ॥९॥ मामभ्युन्नतमागतोऽयमिति वा कामं समासेवते मच्छायामिति वा यदन्यविषयं तद् द्वेष्टि वारीति वा । सद्यो वर्ष वराक चातककृते नो चेदयं याचिता याच्ञा यावदुपेक्षणं च जलद ! व्रीडाकरं त्वादृशाम् ॥१०॥ मेघाष्टकम् ॥ (१२) एतस्मात् किं ब्रूमो लक्ष्म्या दूरादयमितोद्या(या)मा । आदाय पदैर्गदितं सुमुखि ! समुद्राष्टकं नाम ॥१॥ एतस्माज्जलधेर्जलस्य कणिकाः काश्चिद् गृहीत्वा ततः पाथोदाः परिपूरयन्ति जगतीं रुद्धाम्बरा वारिभिः । भ्राम्यन् मन्दरकूटकोटिघटनाभीतिभ्रमत्तारिकां प्रापैकां जलमानुषीं त्रिभुवने श्रीमानभूदच्युतः ॥२॥ किं ब्रूमो जलधेः श्रियं स हि खलु श्रीजन्मभूमिः स्वयं वाच्यं कि(किं) महिमापि यस्य हि नवद्वा(द्वी ?)पं महीति श्रुतिः (?)। त्यागस्तस्य स कोऽपि बिभ्रति जगद् यस्याऽथिनो ह्यम्बुदाः शक्तेः कैव कथा हि यस्य भवति क्षोभेण कल्पान्तरम् ॥३॥ लक्ष्म्यास्त्वं निलयो निधिश्च पयसां नि:शेषरत्नाकरो मर्यादानिरतस्त्वमेव जलधे ! ब्रूतेऽत्र कोऽन्यादृशम् । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 . 17 किन्त्वेकस्य गृह मेतस्य (हं त्वमस्य?) वडवावह्नेः सदा तृष्णा(ष्ण)या (?)। क्लान्तस्योदरपूरणेऽपि न सहो यत् तन्मनाग् मध्यमम् ॥४॥ दूरान्मार्गग्लपितवपुषो मारुतोत्तम्भितान्त:कल्लोलालीबहलवितृषो धाविता: पान्थसार्थाः । व्यावर्तन्ते तटमुपगता यस्य विच्छिन्नवाञ्छास्तस्याऽम्भोधेविफलपयसो वार्यतः किं न शुष्कम् ? ॥५॥ अयं वारामेको निलय इति रत्नाकर इति श्रितोऽस्माभिस्तृष्णातरलितमनोभिर्जलनिधिः । क एवं जानीते निजकरपुटीकोटरगतं क्षणादेनं ताम्यत्तिमिमकरमापास्यति मुनिः ॥६॥ इतो वसति केशवः पुरमितस्तदीयद्विषामितोऽपि शरणागताः शिखरिपक्षिणः शेरते । इतोऽपि वडवानलः सह समस्तसंवतकैरहो ! विततमूर्जितं भरहं(हरं ?) च सिन्धोर्वपुः ॥७॥ यामारोहति वाञ्छति स्थगयितुं तेजांसि तेजस्विनीमुच्चैर्गर्जति पूरयत्यतिमहीमम्भोभिरम्भोधरः । का(का)श्चिद् द्रागुपजीव्य तोय च(चु)लुकान् सिन्धो ! भवत्सन्निधौ पानीयप्रचयेषु सत्स्वपि न ते जातो विकारः क्वचित् ॥८॥ आदाय वारि परितः सरितां शतेभ्यः किं नाम साधितमनेन महार्णवेन । क्षारीकृतं च वडवावदने हुतं च पातालकुक्षिकुहरेषु निवेशितं च ॥९॥ समुद्राष्टकम् ॥ (१३) शीतांशुस्ते केचिन् नम्रग्व(त्वं) ये करे विपदि वाञ्छा । गर्वे(व)मिति चन्द्रवदने सत्पुरुषाष्टक[मिदं] गदितम् ॥१॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 शीतांशुः किं सुधायामभवदुत सुधैवाभवच्छीतरश्मावाहोश्चिद् द्वावपीमौ मृगदृशि घटितावेतयोः किं मृगाक्षी । एकैकं सज्जनाद्वा समजनि जनितः सज्जनो वा किमेभिः सन्देहश्चाऽयमित्थं कथमपि मनसो जीवतां न प्रयातः ॥ २॥ ते केचिन्निजकान्तिसुन्दरतया चेतश्चमत्कारिणो दृश्यन्ते परमोत्सवं नयनयोः सम्पादयन्तो जनाः । अन्तर्ये मनसः प्रविश्य सहसा तैस्तैः स्वकीयैर्गुणैराजन्मावधि नोत्तरन्ति हृदयादुत्कीर्णबिम्बा इव ||३|| ये प्राप्ते व्यसनेऽप्यनाकुलधियः सम्पत्सु नैवोन्नताः प्राप्ते नैव पराङ्मुखाः प्रणयिनि प्राणोपभोगैरपि । ड्रीमन्त: स्वगुणप्रपञ्चनविधावन्यस्तुतावुत्सुका धिग् ! धात्रा कृपणेन तेऽपि न कृताः कल्पान्तदीर्घायुषः || ४ || करे श्लाघ्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणयिता मुखे सत्या वाणी विजयिभुजयोः पौरुषमलम् । हृदि स्वच्छा वृत्तिः श्रुतमवितथं च श्रवणयोविनाऽप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ॥५॥ अनुसंधान - २८ वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद् भयम् । भक्तिश्चाऽर्हति शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले एते यत्र वसन्ति निर्मलगुणाः श्लाघ्यास्त एव क्षितौ ॥६॥ गर्वं नोद्दहते न निन्दति परं नो निष्ठुरं भाषते प्रोक्तः केनचिदप्रियाणि सहते क्रोधं च नालम्बते । श्रुत्वा काव्यमलक्षणं परकृतं सन्तिष्ठते मूकवत् दोषान् छादयति स्वयं न कुरुते चैतत् सतां लक्षणम् ॥७॥ सत्पुरुषाष्टकम् ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July 2004 (१४) चिन्तामन्तः कौपं रेवा दन्ते तथैव नो मन्ये । न चरति घासग्रासं गजाष्टकं विश्रुतं लोके ॥ १॥ चिन्तामिमां वहसि किं ग़जयूथनाथ ! योगीव योगविनिमीलितनेत्रयुग्मम् । पिण्डं गृहाण पिब वारि यथोपनीतं दैवाद् भवन्ति विपदः खलु सम्पदो वा ॥२॥ अन्तःसमुत्थविरहानलतीव्रताप सन्तापिताङ्ग ! करिपुङ्गव ! मुञ्च शोकम् । धात्रा स्वहस्तलिखितानि ललाटपट्टे को वाऽक्षराणि परिमार्जयितुं समर्थः ? ||३|| कौपं वारि विलोक्य वारणपते ! किं विस्मितेनाऽऽस्यते प्रायो भाजनमस्य संप्रति भवांस्तत् पीयतामादरात् । उन्मज्जच्छफरी - पुलिन्दललनापीनस्तनास्फालनस्फारी भूतमहोर्मिनिर्मलजला दूरेऽधुना नर्मदा ||४| रेवापय: किशलयानि च सल्लकीनां विन्ध्योपकण्ठगहनं स्वकुलं च हित्वा । किं ताम्यसि द्विप ! गतोऽसि वशं करिण्याः स्नेहो हि कारणमनर्थपरम्परायाः ॥५॥ दन्ते न्यस्तकरः प्रलम्बितशिरः (राः) सम्मील्य नेत्रद्वयं किं त्वं वारण ! खिद्यसे वनितया को नाम नो वञ्चितः । भूत्वा शान्तमना गृहाण क़वलं स्नेहोऽधुना त्यज्यतां ये मत्ता ह्यविवेकिनो विषयिणस्ते प्राप्नुवन्त्यापदम् ॥६॥ नो मन्ये दृढबन्धनक्षतमिदं नैवाङ्कुशोद्धट्टनं स्कन्धारोहणताडनात् परिभवो नैवाऽन्यदेशागमः । 19 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 अनुसंधान-२८ चिन्तां मे जनयन्ति चेतसि यथा स्मृत्वा स्वयूथं वने सिंहवासितभीतभीरुकलभा यास्यन्ति कस्याऽऽश्रयम् ? ||७|| न चरति वनराज्यां पल्लवान् शल्लकीनां न पिबति गिरिकुळे नैर्झरं वारि हारि । विततरदनकोटौ दत्तहस्तावलम्बो वहति विरहखिन्नः शोकभारं करीन्द्रः ॥८॥ घासग्रासं गृहाण त्यज करिकलभ ! प्रीतिबन्धं करिण्याः पाशग्रन्थिव्रणानामविरतमधुना देहि पङ्कानुलेपम् । दूरीभूतास्तवैते शबरवरवधूविभ्रमोभ्रान्तिदृष्टा रेवातीरोपकण्ठद्रुमकुसुमरजोधूसरा विन्ध्यपादाः ॥९॥ गजाष्टकम् ॥ (१५) किं जातोऽस्य न्व जातोऽसि, भुक्तं मूलं तथैव च । किं ते न्यग्रोधपान्थाश्च हंहो ! वृक्षाष्टकं शृणु ॥१॥ किं जातोऽसि चतुःपथे घनतरं छनोऽसि किं छायया छन्नश्चेत् फलितोऽसि किं यदि फलैः पूर्णोऽसि किं सन्नतः । हे सवृक्ष ! सहस्व संप्रति चिरं शाखाशिखाकर्षणं क्षोभो मोटनभञ्जनानि जनतः स्वैरेव दुश्चेष्टितैः ॥२॥ जातो मार्गे सुरभिकुसुमः सत्फलो नम्रशाखः स्फीताभोगो बहलविटपः स्वादितो योपगूढः । नैवात्मार्थं वहसि महतीं पादपेन्द्र ! श्रियं तामापन्नातिप्रशमनफलाः सम्पदो ह्युत्तमानाम् ॥३॥ मूलं योगिभिरुद्धृतं निवसितं वासोर्थिभिर्वल्कलं भूषार्थी च जनश्चिनोति कुसुमं भुङ्क्ते क्षुधातः फलम् । छायामातपिनो विशन्ति वि(नि?)चिता निद्रालुभिः पल्लवाः कल्पाख्यस्य तरोरिवेह भवतः सर्वाः परार्थाः श्रियः ॥४॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July 2004 किं ते नम्रतया० ॥६॥ न्यग्रोधे फलशालिनि स्फुटरसं किञ्चित् फलं पच्यते बीजाण्य ( न्य) ङ्करगोचरणि कतिचित् सिध्यन्ति तस्मिन्नपि । एकस्तेष्वपि कश्चिदङ्करवरो बध्नाति तामुन्नति यामध्यास्य जनः स्वमातरमिव क्लान्तिच्छिदे धावति ॥७॥ पान्थाधार इति द्विजश्रिय इति श्लाघ्यस्तरूणामिति स्निग्धच्छाय इति प्रियो दृश इति स्त्रा (स्था ) नं गुणानामिति । यावत् तत्क्षणमाश्रयन्ति गुणिनः क्लान्तिच्छिदे पादपं तावत् कोटरनिर्गतैरहिगणैर्दूरं समुत्सारिताः ॥८॥ हंहो पान्थ ! किमाकुलं श्रमवशादत्युद्धतं धावसि प्रायेणाऽस (स्य) महाद्रुमस्य भवतो (ता) वार्ताऽपि नाऽऽकर्णिता । मूलं सिंहसमाकुलं तु शिखरे प्रोच्चण्डतुण्डाः खगा मध्ये कोटरभाजि भीषणफणाः पूत्कुर्वते पन्नगाः ॥ ९ ॥ भ्राम्यद्भृङ्गधराऽवनम्रकुसुमः श्चोतन्मधूद्रन्धिषु छायावत्सु तलेषु पान्थनिचया विश्रम्य गेहेष्विव । निर्यन्निर्झरवारिवारिततृषस्तृप्यन्ति येषां फलैस्तेनेदं नु फलन्तु यान्तु च परामभ्युन्नतिं पादपाः ॥१०॥ वृक्षाष्टकम् ॥ (१६) बीजैरन्येहाधिक् योऽयं किं नाम विरम चान्यत्ते (न्ये ते) । हंहो चातकशब्दै- बप्पीहस्याष्टकं नाम ॥१॥ बीजैरङ्कुरितं० ॥२॥ अन्येऽपि सन्ति भुवि तामरसावतंसा हंसावलीवलयिनो जलसन्निवेशा: । कोsपि ग्रहो गुरुरयं हतचातकस्य पौरन्दरीं यदभिवाञ्छति वारिधाराम् ॥३॥ 21 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 अनुसंधान-२८ हा धिक् ! परव्यसनदुर्ललितस्य येन केनापि रे सरलचातक ! वञ्चितोऽसि । येनाऽम्बुवाहमपि याचसि याचितस्य यस्याऽस्य याचितुरिवाऽतिमलीमसत्वम् ॥४॥ योऽयं वारिधरो धराधरशिरस्यभ्युनत: केवलं गर्जत्येव गभीरधीरनिनदेनाऽयं सखे ! वारिदः । तत्ते चातक ! पातकस्य कतमस्यैतत् फलं पच्यते येनाऽसौ न ददाति याचितवते चेतोऽपि निर्विन्नताम् (?) ॥५॥ किं नाम दुःकृतमिदं भवतश्चकास्ति येनात्र दैन्यपिशुनं बत याचितोऽपि । एतेऽपि कामनिभृतोन्नतयोऽपि तृप्त्यै मुञ्चन्ति चातक ! पयो न पयोमुचस्ते ॥६॥ विरम चातक ! दैन्यमपास्यतां, बत चटूनि कियन्ति करिष्यसि ? । विधिविनिर्मितमम्बुकणद्वयं, किमधिकं कलयाऽपि भविष्यति ? ||७|| अन्ये ते जलदायिनो जलधरास्तृष्णां विनिघ्नन्ति ये भ्रातश्चातक ! किं वृथाऽत्र रटितैः खिन्नोऽसि विश्रम्यताम् । मेघः शारद एष काशधवलः पानीयरिक्तोऽधरो गर्जत्येव हि केवलं भृशमपां नो बिन्दुमप्युज्झति ॥८॥ किमत्र० बप्पीहाष्टकम् ॥ (१७) पथि परिहृत कनक मन स्तमित विरम रत्न केन संत्यन्ये । एकस्मिन् वणिगधिपतिपादे रत्नाष्टकं गदितम् ॥१॥ पथि परिहृतं कैश्चिद् दृष्ट्वा न जातु परीक्षितं विधृतमपरैः काचं मत्वा पुनः परिवर्जितम् । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 गवलगणनामन्यैः कृत्वाऽपघृष्टमपण्डितैर्मरकतमहो ! मार्गावस्थं कथं न विडम्बितम् ! ॥२॥ कनकभूषणसङ्ग्रहणोचितो यदि मणिस्त्रपुणि[प्रति]पद्यते । न च विरौति न चापि स शोभते, भवति योजयितुर्वचनीयता ॥३॥ कुस्त(मनस्ति ?)मितसारस्य (?), तेजसस्तद्विजृम्भितम् । येन पाषाणखण्डस्य मूल्य(ल्यं ?) मूल्यं वसुन्धरा ॥४॥ विरम रत्न ! मुधा तरलायसे, तव न कश्चिदिहास्ति परीक्षितः(क्षक:)। विधिवशेन परिच्युतमाकरात्, त्वमपि काचमणिः(णी)कृतमीश्वरैः ॥५॥ केनासीन: सुखमकरुणेनाऽऽकरादुद्धृतस्त्वं विक्रेतुं वा समभिलखि(षि)त: केन देशान्तरेऽस्मिन् । यस्मिन् वित्तव्ययभरसहो ग्राहकस्तावदास्तां नास्ति भ्रातर्मरकतमणे ! त्वत्परीक्षाक्षमोऽपि ॥६॥ सन्त्यन्ये झषकेतनस्य मणयः किं नोल्लसत्कान्तयः किं वा तेऽपि जने न भूषणपदं न्यस्ता न शोभाभृतः । अन्यः कोऽपि तथापि कौस्तुभमणिः स्फीतस्फुरद्दीधितिर्यः पूषेव नभः समुज्ज्वलयति स्फारं मुरारेरुरुः ॥७॥ एकस्मिन् दिवसे मया विरचि(चर)ता प्राप्तः कथञ्चिन्मणिर्मूलं यस्य न विद्यते भवति चेत् पृथ्वी समा(म)स्ता ततः । सोऽयं दैववशादभूदतितरां काचोपमः साम्प्रतं किं कुर्मः किमुपास्महे कस सुहृद् यस्याऽयमावेद्यते ॥८॥ (?) वणिगधिपतेः(ते !?) किञ्चित् कुर्म व्युत्कुम्मिह(?) मा कृथाः कथय निभृतं केयं नीति: पुरे तव संप्रति । मरकतमणिः काचो वाऽयं भवेदिति संशये लवणवणिजां ययापारः परीक्षितुमीक्ष्यते ॥९॥ रत्नाष्टकम् ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 अनुसंधान-२८ . (१८) जातस्त्वं भुवनाधिपो यदि ततः किं सिद्धमेतावता प्राप्तो वा यदि निःस्वतां विधिवशात् तेनापि किं ते गतम् । तस्मात् तोष-विषादबन्धनमिदं व्याधूय संचिन्त्यतां ज्योतिर्यत्र लयं गते त्रिभुवनेऽप्यामा(भा?)समालोक्यते ॥१॥ भ्रातर्मोह ! विमुञ्च खेदमसमं ये राज्यवचा(?)र्गलां भित्त्वा धा(सा?)रधियो वनाय चलितास्तेषां न मल्लो भवान् । प्रज्ञाभिर्दृढकर्मपाशवलये(यो)च्छेदाक्षमास्त(स्त्व)द्भयाद् दाराद्यैर्बिसतन्तुभिर्निगडितास्तिष्ठन्ति ये ते वयम् ॥२॥ त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं मा लोकमालोकितं (?) साक्षाद् येन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं साङ्गुलि । रागद्वेषभयामयान्तकजरालोकत्वलोभादयो नाऽलं यत्पदलङ्घनाय स महादेवो मया वन्द्यते ॥३॥ यो विश्वं वेद वेद्यं जननजलनिधेङ्गिनः पारदश्वा पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलङ्क यदीयम् । तं वन्दे साधुवन्धं सकलगुणनिधि ध्वस्तदोषद्विषन्तं बुद्धं वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥४॥ माया नास्ति जटा न चापि मुकुटं चन्द्रो न मूर्धावली खट्वाङ्गं न च वासुकिन च धनुः शूलं न चोग्रं मुखम् । कामो यस्य न कामिनी न च वृषो गीतं च नृत्यं पुनः सोऽयं पातु निरञ्जनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः ।।५।। दग्धं येन पुरत्रयं शरभुवा तीव्रार्चिषा वह्निना यो वा नृत्यति मत्तवत् पितृवने यस्याऽऽत्मजो वा गुहः । सोऽयं किं मम शङ्करो भयतृषारोषात्तिमोहक्षयं कृत्वा यः स तु सर्ववित् तनुभृतां क्षेमङ्करः शङ्करः ॥६॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 25 पत्राद् (?)येन विदारितं कररुहैदैत्येन्द्रवक्षःस्थलं सारथ्येन धनञ्जयस्य समरे योऽमारयत् कौरवान् । ................ नासौ विष्णुर्विशिष्टो मम ॥७॥ (?) एको नृत्यति विप्रसार्थ कु(क)कुभां चक्रे सहस्रं भुजामेकः शेषभुजङ्गभोगशयने व्यादाय निद्रायते । दृष्ट्वा चारुतिलोत्तमासु(मु)खमगादेकञ्चतुर्वक्त्रतामेते मुक्तिपदं वदन्ति विदुषामित्येतदत्यद्भुतम् ॥८॥ ( देवाष्टकम् ?) (१९) वीचीकैवर्त यद्भग्नं छित्वा शशिदिवाकरम् । अलं सृजति पौष्याश्च, भग्नाशस्याऽष्टकं विधेः ॥१॥ वीचीव्याप्त वियन्निरुद्धवसुधं क्वाऽगाधरन्ध्र पयो गोलाङ्गलविलोलपाणितुलिताः क्षुद्राः क्व ते माभृतः । बद्ध्वा दाशरथिस्तथापि जलधिं प्रत्याजहार प्रियां ग्रावाणोऽपि तरन्ति वारिणि यदा पुंसोऽनुकूलो विधिः ॥२॥ कैवर्तकर्कशकरग्रहणच्युतोऽपि जाले पुननिपतितः शफरो वराकः । जालादपि प्रगलितो गिलितो बकेन वामे विधौ बत कुतो व्यसनानिवृत्तिः ? ॥३॥ यद् भग्नं धनुरीश्वरस्य शिशुना यज्जामदग्न्यो जितस्त्यक्ता येन गुरोनिरा वसुमती बद्धो यदम्भोनिधिः । एकैकं दशकन्धरक्षयकृतो रामस्य किं वर्ण्यते दैवं वर्णय येन सोऽपि सहसा नीतः कथाशेषताम् ॥४॥ छित्त्वा पाशमपास्य कूटरचनां भक्त्वा बलाद् वागुरां पर्यन्ताग्निशिखाकलापजटिलान्निर्गत्य पारं वनात् । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२८ व्याधानां शरगोचरादतिजवेनोत्प्लुत्य धावन्मृगः कूपान्तः पतितः करोति विधुरे किंवा विधौ पौरुषम् ॥५॥ शशिदिवाकरयोर्ग्रहपीडनं गजभुजङ्गविहङ्गमबन्धनम् । मतिमतां च समीक्ष्य दरिद्रतां विधिरहो ! बलवानिति मे मतिः ॥६॥ अलङ्कारः शङ्काकरनरकपालं परिकरो विशीर्णाङ्गो भृङ्गी वसु च वृष एको गतवयाः । अवस्थेयं स्थाणोरपि भवति यत्राऽमरगुरोविधौ वको मूर्ध्नि स्थितवति वयं के पुनरमी ? ॥७॥ सृजति० ॥८॥ पौष्यां पञ्च शराः शरासनमपि ज्याशून्यमिक्षोलता जेतव्यं जगतां त्रयं स च पुनर्जेताऽप्यनङ्गः किल । इत्याश्चर्यपरम्पराघटनया चेतश्चमत्कारयन् व्यापारः सुतरां विचारपदवीवन्ध्यो विधेर्वन्द्यताम् ॥९॥ भग्नाशस्य करण्डपिण्डित(त)नोग्लानेन्द्रियस्य क्षुधा कृत्वाऽऽखुर्विवरं स्वयं निपतितो नक्तं मुखे भोगिनः । तृप्तस्तत्पिशितेन सत्वरमसौ तेनैव यातः पथा स्वस्थास्थिष्ठत दैवमेव हि नृणां वृद्धौ क्षये चाऽऽकुलम् ॥१०॥ दैवाष्टकम् ॥ (२०) श्रुत्वा श्रद्धाय सम्यक् शुभगुरुवचनं वेश्मवासं निरस्य प्रव्रज्याऽथो पठित्वा बहुविधतपसा शोषयित्वा शरीरम् । धर्मध्यानाय यावत् प्रभवति समयस्तावदाकस्मिकीयं प्राप्ता मोहस्य धाटी तडिदिव विषमा हा ! हताः कुत्र यामः ? ||१|| एकेनाऽपि महाव्रतेन यतिनः खण्डेन भग्नेन वा दुर्गत्यां पततो न सोऽपि भगवानीष्टे स्वयं रक्षितुम् । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 हत्वा तान्यखिलानि दुष्टमनसो वर्तामहे ये वयं तेषां दण्डपदं भविष्यति कियज्जानाति तत् केवली ॥२॥ कट्यां चोलपटं तनौ सितपटं कृत्वा शिरोलोचनं स्कन्धे कम्बलिकां रजोहरणकं निक्षिप्य कक्षान्तरे । वक्त्रे वस्त्रंमुखं विधाय ददतः श्रीधर्मलाभाशिषं वेषाडम्बरिणः स्वजीवनकृते विद्मो गतिं नाऽऽत्मनः ||३|| भिक्षा पुस्तकवस्त्रपात्रवसतिप्रावारलुब्धा यथा नित्यं मुग्धजनप्रतारणकृते कष्टेन खिद्यामहे । आत्मारामतया तथा क्षणमपि प्रोज्झ्य प्रमादद्विषां (षं) स्वार्थाय प्रयतामहे यदि तदा सर्वार्थसिद्धिर्भवेत् ॥४॥ पाषण्डानि सहस्रशो न ( ज ) गृहिरे ग्रन्था भृशं पेठिरे लोभाज्ञानवशात् तपांसि बहुधा मूढैश्चिरं तेपिरे । क्वापि क्वापि कथञ्चनापि गुरुभिर्भूत्वा मुदो भेजिरे कर्मक्लेशविनाशसम्भवसुखान्यद्यापि नो लेभिरे ॥५॥ किं भावी नारकोऽहं किमुत बहुभवा (वी) दूरभव्यो नभव्यः ? किं वाऽहं कृष्णपक्षी किमचरणगुणस्थानकी कर्मदोषात् ? । वह्निज्वालेव शिक्षा व्रतमपि विषवत् खड्गधारा तपस्या स्वाध्यायः कर्णशूची यम इव विषमः संयमो यद्विभाति ॥६॥ वस्त्रं पात्रमुपाश्रयं बहुविधं भैक्षं चतुर्द्धांषधं शय्यापुस्तकपुस्तिकोपकरणं शिष्यं च कृष्या (? शिक्षा ) मपि । गृह्णीमः परकीयमेव नितरामाजन्ममृद्धा वयं यास्यामः कथमीदृशेन तपसा तेषां हहा ! निःक्रयम् ॥७॥ अन्तर्मत्सरिणां बहिः शमवतां प्रच्छन्नपापात्मनां नद्यम्भः कृतशुद्धिमद्यपवणिग्दुर्वासनाशालिनाम् । पाखण्डव्रतधारिणां बकदृशां मिथ्यादृशामीदृशां बद्धोऽहं धुरि तावदेव चरितैस्तन्मे हहा ! का गतिः ? ॥८॥ १. ० लुञ्चनं । २. वस्त्रमथो । 27 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 अनुसंधान-२८ रागो मे स्फुरति क्षणं क्षणमथो वैराग्यमुज्जृम्भते द्वेषो मां भजति क्षणं क्षणमथो मैत्री समालिङ्गति । दैन्यं पीडयति क्षणं क्षणमथो हर्षोऽपि मां बाधते कोपोऽयं कृपणः कृपापरिभृतैः कार्ये(?) हहा ! कर्मभिः ॥९॥ येषां दर्शनवन्दनाप्रणमनस्पर्शप्रशंसादिना मुच्यन्ते तमसा निशा इव सिते पक्षे प्रजास्तत्क्षणात् । तादृक्षा अपि केऽपि केऽपि मुनयस्तेभ्यो नमः कुर्महे संविज्ञा वयमात्मनिन्दनमिदं कुर्मः पुनर्बोधये ॥१०॥ निन्दाष्टकम् ॥२०॥ शुभं भवतु ॥ १. स्तेषा । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीश्रीवल्लभोपाध्याय-प्रणीतम् श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रद्वयम् सं. म० विनयसागर अनुसन्धान अंक २६ (दिसम्बर २००३) में वाचक श्रीवल्लभोपाध्याय रचित 'श्रीमातृका-श्लोकमाला' के परिचय में श्रीवल्लभजी के व्यक्तित्व और कृतित्व का संक्षिप्त परिचय दिया है । इनकी कृतियों का विशेष परिचय 'अरजिनस्तवः' (सहस्र दल कमल गर्भित चित्रकाव्य) की भूमिका और 'हैमनाममालाशिलोञ्छ:'की भूमिका में मैंने दिया है । श्रीवल्लभोपाध्याय की साहित्य जगत को जो विशिष्ट देन रही है वह है कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य रचित लिङ्गानुशासन और कोशग्रन्थों की टीका करते हुए 'इतिभाषायां, इतिलोके' शब्द से संस्कृत शब्दों का राजस्थानी भाषा में किस प्रकार प्रयोग होता है, यह दिखाते हुए लगभग ३००० राजस्थानी शब्दों का संकलन किया है, जो अन्यत्र दुर्लभ है । अन्य टीकाकारों ने भी इस प्रकार की पद्धति को नहीं अपनाया है । इनके द्वारा संकलित लगभग ३००० शब्दों का 'राजस्थानी संस्कृत शब्द कोश' के नाम से मैं सम्पादन कर रहा हूँ जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा ।। श्रीवल्लभोपाध्याय द्वारा स्वयं लिखित दो प्रतियाँ अभी तक अवलोकन में आई हैं- १. वि०सं० १६५५ में लिखित महाराणा कुम्भकर्णकृत चण्डिशतक टीका सहित की प्रति राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर क्रमांक १७३७६ पर प्राप्त है और दूसरी स्वलिखित प्रति श्रीसुन्दरगणिकृत 'चतुर्विंशतिजिनस्तुतयः' की प्रति मेरे संग्रह में है । कवि, टीकाकार और स्वतंत्र लेखन के रूप में इनके ग्रन्थ प्राप्त थे किन्तु इनके द्वारा रचित कोई भी स्तोत्र मेरे अवलोकन में नहीं आया था । संयोग में अन्वेषण करते हुए दो दुर्लभ स्तोत्र प्राप्त हुए हैं वे यहाँ दिये जा रहे हैं । इसकी हस्तलिखित प्रति का परिचय इस प्रकार है - श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान भण्डार, पाटण, श्री तपाच्छ भण्डार, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 अनुसंधान-२८ डाबडा २४८ क्र० नं० १२३५७ पत्र १, साईज २५.५ x १२ सी.एम., पंक्ति १६, अक्षर ४६, लेखन अनुमानतः १७वीं शताब्दी, रचना के तत्कालीन समय की लिखित यह शुद्ध प्रति है । १. पार्श्वजिनस्तोत्र - यमकालङ्कार गर्भित है । इसके पद्य १४ हैं। १ से १३ तक पद्य सुन्दरीछन्द में है और अन्तिम १४वां पद्य इन्द्रवज्रा छन्द में है । कवि ने प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण में मध्ययमक का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है । उदाहरण के लिए प्रथम पद्य देखिए जिनवरेन्द्रवरेन्द्रकृतस्तुते, कुरु सुखानि सुखानिरनेनसः ॥ भविजनस्य जनस्यदशर्मदः, प्रणतलोकतलोकभयापहः ॥१॥ इसमें प्रथम चरण में 'वरेन्द्र-वरेन्द्र' द्वितीय चरण में 'सुखानि सुखानि', तीसरे चरण में 'जनस्य जनस्य' और चौथे चरण में 'तलोक तलोक' की छटा दर्शनीय है । यही क्रम १३ श्लोकों में प्राप्त है । २. तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्र - यह समस्या-गर्भित स्तोत्र है । कवि ने तिमिरीपुर स्थान का उल्लेख किया है । यह तिमिरीपुर आज तिंवरी के नाम के प्रसिद्ध है जो जोधपुर से लगभग २५ किलोमीटर दूर है । यह समस्या प्रधान होते हुए भी महाकवि गोस्वामी तुलसीदास के "जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे" के अनुकरण पर कवि की भावाभिव्यक्ति है । प्रभु के प्रातःकाल दर्शन करने पर निर्धन भी धनवान हो जाता है, मूक भी वाचाल हो जाता है, बधिर भी सुनने लगता है, पंगु भी नृत्य करने लगता है और कुरूप भी सौन्दर्यवान हो जाता है । १२ श्लोक है । इसमें कवि ने वसन्ततिलका आदि ७ छन्दों का प्रयोग किया है। अब दोनों स्तोत्रों का मूल पाठ प्रस्तुत है । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 31 श्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् (सुन्दरीच्छन्दः) ॥ ॐनमः।। जिनवरेन्द्रवरेन्द्रकृतस्तुते, कुरु सुखानि सुखानिरनेनसः ॥ भविजनस्य जनस्यदशर्मदः, प्रणतलोकतलोकभयापहः ॥१॥ अविकलं विकलंकमुनिः शिवं, विगतमो गतमोहभरः क्रियात् । विनयवन्ननयवन्नृभिरचितः प्रमददो मददोषमलोज्झितः ॥२॥ मुनिजने निजनेमियुजा मुदं, वितरतातरता च भवांबुधिम् । अविरतं विरतं स ददातु शं, शिवरमावरमापि हि येन वै ॥३॥ कलिकुमार्गकुमार्गमहामृगद्विपरिपोऽपरिपो परमं पदम् । वितरमे वरमे चरणाम्बुजे, रतिमतोऽममतो महितस्तव ॥४॥ सुरगुरूपमरूपमनोहरैः, प्रवरधीभिरधीभिरसंयुतैः । अभिनुतो भवतो भवतोऽवता ज्जिनवरोमररोमरकापहृत् ॥५॥ असुमतः सुमतः शुभतीर्थपः सुमहसोऽमहसोज्झितमाधुपः । विदितजातिरऽ जातिरतिः श्रियं, वितनुतात्तनुतामलदीधितिः ।।६।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-२८ सकलमुत्कलमुत्पललोचनं नमत तं मततन्त्रमगः प्रदम् । मुनिजना निजनायकमादरा दसितरुक्सितरुक्करुणापरम् ॥७॥ सुकविराजिविराजितपर्षदाश्रितमसंतमऽसंतमसंश्रिया । भजत मालतमाल समुधुतिप्रचुरमर्त्यरमर्त्यपहं गुरुम् ॥८|| भुजगचिह्नममंदममंदकं, चतुरसादरसादरमानकम् । भृशममंदतमंदतरांहसं, वसुमती तमतीतरसं भजे ॥९॥ मुनिपतेरमृतेरमृतेशितुश्चरणमक्षयमक्षयदं सदा अरितहन्तुरऽहन्तुरसाछ्ये वितरसोदरसोदरसङ्गरे ॥१०॥ भववृषाय वृषायतसंयमः, शुभवतो भवतो नवदो मम । सुखकृते खकृते विदितावधे, विमलधीमलधीरिमयुग्विभो ! ॥११॥ सुतनुभाऽतनुभा तनुभावुकं, वृजिनहज्जिनहत्कमलार्यमा । सततमाततमाननृपाचितो, विजयदो जयदोहदपूरकः ॥१२॥ सुमहितानि हितानि वचांसि यः, श्रुतिवशन्तवशंतनु पार्श्वराट् । नयति तस्यतितस्य च दुर्विशं, नरवरः स्तवरस्तमसोज्झितम् ॥१३।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 (इन्द्रवज्रा छन्दः) इत्थं स्तुतो यो यमकस्तवेन, वामाङ्गजः पार्श्वजिनो जनानाम् । भूयाद्विभूत्यै विभुताप्रशस्तः, श्रीवल्लभेनाचितपादपद्मः ॥१४॥ इति श्रीपार्श्वनाथजिनं यमकमयं स्तोत्रं समाप्तम् । तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्रम् समस्यामयं (वसंततिलकावृत्तम्) श्रीपार्श्वनाथजिनपं तमहं स्तवीमि, दृष्ट्वा यदीयवरधारिमवद्धनत्वम् । स्थूलोन्नतोऽपि जनमानसमुत्सुमेरुः, शैलो बिभत्ति परमाणुसमत्वमेषाम् ॥१॥ (इन्द्रवज्रा) वामेय सर्वीयमहं स्मरामि, त्रैलोक्यलोकंपृणवर्ण्यवर्णम् । धर्मोपदेशावसरे यदास्य चन्द्रो हि पृथ्व्यामुदितो विभाति ॥२॥ (वसंततिलकावृत्तम्) यस्तर्हि पश्यति मुखं सुषमं प्रभाते, निःस्वोऽपि पार्श्वजिन जायत इन्दुरौकाः । मूकः प्रजल्पति शृणोति च कर्णहीनः, पंगुश्च नृत्यति विभातितरां कुरूपः ॥३॥ (इन्द्रवज्रा) श्रीपार्श्वनाथः सततं करोतु, श्रेयांसि भूयांसि नताङ्गभाजाम् । यत्कीर्तिनक्षत्रलसत्तरङ्गर्देदीप्यते व्योमतले समुद्रः ॥४॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 (इन्द्रवज्रा) पार्श्वप्रभो ! त्वं तिमिरीपुरीशं, ध्यायंश्चिरं घातिकुकर्म हत्वा । ज्ञानौषधं प्राप विलासि तस्मादन्धो जगत् पश्यति दर्शरात्रौ ॥५॥ (वसन्ततिलकावृत्तम्) पापानि नाशय भवान्तरसञ्चितानि, स त्वं जिनेश रचयाशु च मङ्गलानि । यत्सद्विशुद्धयशसः स्फुरतस्त्रिलोक्यां, सोमश्चिरेण शुशुभे खलु नीलमूर्तिः ॥७॥ (तोटकवृत्तम्) प्रणतः सततं कुरुते स्तवनं, महनं च यकस्तव देवनरः । कुशलं कमलामरुजं च शिवं, लभते लभते लभते लभते ||६|| (मालिनीच्छन्दः) समवसरणमध्यासीनसन्नाष्टकर्मन्, प्रहतकुमतिमान त्वत्पदाभ्यर्चनार्थम् । जिनवर सुरनागैरागते रागवद्भिः, शुभभुवि भुवि दृश्येते छुपाताललोकौ ॥९॥ अनुसंधान - २८ (उपेन्द्रवज्रा) प्रापूयते नम्रसुरेन्द्रमयैदिवस्पृथिव्योरथ पार्श्वनाथः । यदीयगाम्भीर्यगुणाग्रतो वै, दधाति सिन्धुः सुरभी पदाभाम् ॥८॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 35 (इन्द्रवज्रा) स्वः सिन्धुपानीयसमानराजधुष्मद्यशोमंजुलमण्डलाल्या । विस्तारवत्या नभसा तदातर्देदीप्यते चन्द्र इवोष्णरश्मिः ॥१०॥ (इन्द्रवंशा) श्रीपार्श्वनाथस्स ददातु मङ्गलं, स्फूर्जद्यशोभिर्गुरुभिर्यदीयकैः । क्षीराम्बुनिध्यंतरशुभ्रिमोपमैर्देदीप्यते रूप्यनिभं हि कज्जलं ॥११॥ (स्रग्धराच्छन्दः) इत्थं श्रीपार्श्वनाथः शमयमवितदुर्मन्मथो वल्गुमार्गे, मुक्तिश्रीपत्तनाप्तोर्भवतु भुवि विशां भावुकानां प्रदाता । स्फूर्जत्छीपाठकज्ञानविमलसुगुरूपास्तिरक्तेन भक्त्या, धीमच्छ्रीवल्लभेन स्तुतकृतवचसा सत्समस्यास्तवेन ॥१२।। इति श्रीतिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथजिनराजप्रशस्य-समस्यास्तोत्रं समाप्तम् । कृतिरियं श्रीज्ञानविमलोपाध्यायमिश्राणां चरणसरसीरुहचञ्चरीकप्रकार वाचनाचार्यश्रीवल्लभगणीनामिति । श्रीरस्तु || C/o. प्राकृत भारती 13-A, मैन मालवीय नगर जयपुर-३०२०१७ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणुपेक्खा और प्रवचनसार की भाषा के कतिपय मुद्दोंका तुलनात्मक अभ्यास डॉ. शोभना आर. शाह जैन शौरसेनी आगम साहित्य में लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत और बारसअणुपेक्खा ये तीनों कृतियाँ कुंदकुंदाचार्य की रची हुई अथवा संकलित की हुई मानी जाती है। ये कृतियाँ कुंदकुंदाचार्य की ही है या किसी अन्य आचार्यों की रचनाएँ है, क्योंकि कई बार कई कृतियाँ किसी प्रसिद्ध आचार्य के नाम पर चढा दी जाती है । क्या ये कृतियाँ भी उनके नाम पर तो नहीं चढाई गई इसके बारे में इनमें उपलब्ध भाषा स्वरूप के आधार से चर्चा की जा रही है । भाषा के स्वरूप के विषय में कतिपय मुद्दों की चर्चा यहाँ पर की जा रही है । इन ग्रंथो की भाषा की जो विशेषताएँ है उनका स्वयं कुंदकुंदाचार्य की बहु प्रसिद्ध कृति प्रवचनसार की भाषा के साथ तुलना की जाने से यह जानकारी प्राप्त होगी कि क्या सभी कृतियों में एक समान भाषा है या अमुक ग्रंथ में पुरानी भाषा है या अमुक में परवर्ती काल की भाषा है। किसी भी ग्रंथ की भाषा में प्रयुक्त कारक प्रत्यय, क्रियापद और कृदन्तों के प्रयोगों पर से यह निश्चय हो सकेगा की उपलब्धि की संख्या पर कहाँ तक सहायक हो सकता है, यही इस शोध-पत्र का विषय है । अब हम एक एक मुद्दे की चर्चा करते हैं पहले पहल वर्तमान काल के प्रयोग को लेते हैं -ति (i) वर्तमानकाल तृ. पु. ए. व. के प्रत्यय -ति, -दि, इ, ते, - दे, – ए लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. प्रवचनसार संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत o O o O 0 O ० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 37 -दि -इ २९ ६ ७३% १५% ५ ४ ४२% ३३% ५० ११ ७४% १६% २१४ ९९% ० ० ve are in o . -दे ३ ७% १ ८% ६ ९% २ १% -ए १ ५% २ १७% १ १% ० ० ३९ १२ ६ ८ २१६ वर्तमानकाल तृतिय पु.ए.व. का प्रत्यय :-ति', 'ते', लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत और बारसअणुपेक्खा में एक बार भी नहीं मिलता है, जबकि'दि', प्रत्यय लिंगप्राभृत में २९ बार, शीलप्राभृत में ५ बार और बारसअणु. में ५० बार और प्रवचनसार में २१४ बार मिलता है और '-दे' प्रत्यय लिंगप्राभृत में ३ बार, शीलप्राभृत में १ बार और बारसअणु. में ६ बार और प्रवचनसार में २ बार मिलता है । - 'इ' प्रत्यय लिंगप्राभृत में ६ बार, शीलप्राभृत में ४ बार और बारसअणु० में ११ बार मिलता है। प्रवचनसार में मिलता ही नहीं है । - 'ए' प्रत्यय लिंगप्राभृत में १ बार, शीलप्राभृत में २ बार, बारसअणु. में १ बार मिलता है, जबकि प्रवचनसार में एक भी बार नहीं मिलता है। इस तालिका से यह स्पष्ट है कि - दि, -दे, प्रत्यय पूर्वकाल का (प्राचीन) है और -इ -ए प्रत्यय परवर्ती काल के है । (ii) भू धातु के प्राकृत रूप लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. प्रवचनसार संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत -भव ० ० ० . ० ० ० ५ ८% -भो ० ० ० ० ० ० ० ० -हव ० ० २ २५% २१ ६२% ४१ ६८% -हो ४ १००% ६ ७५% १३ ३८% १३ २४% ४ ८ ३४ ५९ ० ० . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 अनुसंधान-२८ लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणुपेक्खा और प्रवचनसार में भृ धातु के लिए प्राकृत रूप ‘भव', 'भो', 'हव', 'हो', का प्रयोग किया गया है । इनमें 'भो' का प्रयोग एक भी ग्रंथ में नहीं मिलता है और भव का प्रयोग सिर्फ प्रवचनसार में किया गया है । 'हव' लिंगप्राभृत में एक भी बार प्रयुक्त नहीं हुआ है, शीलप्राभृत में २ बार, बारसअणु. में २१ बार और प्रवचनसार में ४१ बार इसका प्रयोग मिलता है । 'हो' का लिंगप्राभृत में ४ बार, शीलप्राभृत में ६ बार, बारसअणु में १३ बार और प्रवनचसार में १३ बार किया गया है । 'भो', 'भव', रूप पूर्वकाल का है. इसमें 'भव' का प्रयोग सिर्फ प्रवचनसार में ही मिलता है इसलिए प्रवचनसार की भाषा तुलनात्मक दृष्टि से पूर्वकाल की है ऐसा प्रतीत होता है । यय (iii) नपुं. प्र.द्वि.ब.व. के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. ० प्रवचनसार -णि و اللہ اس ० ३ ३ कारक प्रत्ययों का विश्लेषण देखे तो लिंगप्राभृत और शीलप्राभृत में - "णि' प्रत्यय मिलता ही नहीं है, जबकि शीलप्राभृत में '-ई' प्रत्यय १००% मिलता है । बारसअणु. में – “णि' प्रत्यय ६६% और '-इं' प्रत्यय ३४% मिलता है, और प्रवचनसार में '-णि' प्रत्यय १००% मिलता है और '-इं' प्रत्यय मिलता ही नहीं है ।। इससे स्पष्ट होता है कि प्रवचनसार में '-इं' प्रत्यय मिलता ही नहीं है जबकि शीलप्राभृत और बारसअणु. में मिलता है, इसलिए ये दो कृतियाँ परवर्ती काल की है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 39 प्रवचनसार 0 ० 0 | ० (iv) स.ए.व.के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. -ए २ -म्हि ० -म्मि ४ ७७ उपरोक्त तालिका के अनुसार लिंगप्राभृत में - ए प्रत्यय ३३% और- म्मि प्रत्यय ६७% मिलता है । - "म्हि' प्रत्यय एक भी बार मिलता नहीं है । शीलप्रा. '-ए' प्रत्यय ८८% और- म्मि. प्रत्यय १२% मिलता है; '-म्हि' प्रत्यय एक बार भी नहीं मिलता है । बारसअणु. में - ए प्रत्यय ९५% ‘-म्मि' प्रत्यय ०% और 'म्हि' प्रत्यय ६% मिलता है । जबकि प्रवचनसार में '-ए' प्रत्यय ६०%, -म्मि प्रत्यय १३% और-म्हि प्रथ्यय २७% मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि- "म्हि' प्रत्यय जो पूर्वकालका है यह लिंगप्राभृत और शीलप्राभृत में मिलता ही नहीं है और प्रवचनसार में मिलता है इसलिए कह सकते हैं कि प्रवचनसार की भाषा पूर्वकाल की है। (v) सामान्य भविष्यकाल के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. -स्स . -हि,-ह ० ० सामान्य भविष्यकाल के लिए '-स्स', '-इस्स' '-हि' और '-ह' विकरणों का प्रयोग किया जाता है । -स्स विकरणवाला रूप प्रवचनसार के सिवाय अन्य तीनो ग्रंथों में नहीं मिलता है, उदा. भविस्सदि- ११२, जीविस्सदि १४७ इत्यादि । शीलप्राभृत और बारसअणु. में -स्स विकरण के स्थान पर '-ह' विकरण मिलता है । शीलप्राभृत- होहदि ११, बारसअणु. प्रवचनसार Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 अनुसंधान-२८ प्रवचनसार -च्चा -सिज्झिहहि ९० ये दोनों कृतिया प्रवचनसार से बाद की है क्योंकि '-स्स' के बदले में '-ह' या-'हि' का प्रयोग परवर्ती काल का लक्षण है । (vi) सं.भू.कृदन्त के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. -त्ता ० -च्चा ० -इय ० -तु -तूण १ -दूण ० -ऊण २ -ऊणं (संस्कृत जैसे रूप) -इय - यह तालिका देखने के बाद ऐसा मालूम होता है कि लिंगप्रा. और शीलप्रा. में -ऊण, -ऊणं का ही प्रयोग हुआ है. लिंगप्रा. में जैसे कि - काऊण १, १३ और शीलप्रा. में जैसे कि- णाऊण ३,७,८ वेदेऊण १६ 'ऊणं' प्रत्यय के उदाहरण-पणमिऊणं १, होऊणं १०, जबकि बारसअणु. में -ऊण का प्रयोग ५०% किया गया है, जैसे कि- काऊण ७७, गहिऊण ३३, चईऊण ३१, ७८, णमिऊण १, परिभाविऊण ८९, सेविऊण ३३, होऊण ७९. बारसअणु. में दूसरे प्रत्ययों का प्रयोग ५० % मिलता है जैसे कि - चत्ता ८१, किच्चा ७५, वज्जिय ६१, णिग्गहित्तु ७९, मोत्तूण ५४, ७३, ७४, हंतूण ३३. प्रवचनसार में -ऊण, -ऊणं प्रत्यय का प्रयोग एक भी बार नहीं मिलता है और अन्य प्राचीन प्रत्यय जैसे कि -त्ता, -च्चा, 'इय और -दूण २८% मिलते हैं । संस्कृत के समान रूप (ध्वनिपरिवर्तन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 के साथ) सिर्फ प्रवचनसार में ही मिलते है ये ७२% मिलते है जो दूसरे ग्रंथो में नहीं मिलते है । जैसेकि - पडुच्च (प्रतीत्य ) ५०, १३६, उवलब्भ (उपलभ्य ) ८८, पप्पा ( प्राप्य ) ६५, ८३, १६९, १७०, १७५, अभिभूय ( अभिभूय ) ३०, ११७, आसेज्ज (आसाद्य ) ५, १८३, २४३, आसिज्ज (आसाद्य) २०२, आदाय (आदाय) २०७, दिट्ठा (दृष्ट्वा) २५२, २६१ इससे स्पष्ट होता है कि प्रवचनसार की भाषा पूर्वकाल की है । प्रवचनसार में ऊण, -ऊणं प्रत्यय मिलता ही नहीं है जो महाराष्ट्री प्राकृत के प्रत्यय है । इससे स्पष्ट है कि प्रवचनसार प्राचीन कृति है । 41 शीलप्राभृत में सप्तमी ए. व. के लिए 'आदेहि' (आत्मनि) २७, रूप मिलता है, जो अपभ्रंश का प्रयोग है । प्रवचनसार में अपभ्रंश के ऐसे कोई प्रयोग मिलते नहीं है । इसके सिवाय अपभ्रंश के और भी प्रयोग मिलते हैं । लिंगप्राभृत में प्रथमा विभक्ति एकवचन के यः के लिए 'जो' के बदले में 'जसु' २१' ऐसा प्रयोग मिलता है । 1 लिंगप्राभृत में विभक्तिरहित प्रयोग भी मिलते है। इर्यावह (इर्यापथम् ) १५, तरुगण (तरुगणम्) १६ जो द्वितीया ए.व.का प्रयोग है । शीलप्राभृत में भी ऐसा प्रयोग प्रथमा ए.व.का मिलता है दम (दम:) १९ जो विभक्ति रहित है । - इसलिए लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणु नामकी ये कृतियाँ न तो कुंदकुंदाचार्य की रचनाएँ है, न पहले थी और न तो उन्होंने उनका संकलन किया है । इस अध्ययन से स्पष्ट है कि इन सब ग्रंथो की रचना कुंदकुंदाचार्य के बाद में की गई है। इन तीनों ग्रंथों और प्रवचनसार की भाषा में बहुत फर्क है और प्रवचनसार की भाषा पुरानी है जबकि अन्य तीनों ग्रंथों में परवर्ती काल के भाषिक रूपों के प्रयोग है जो प्रवचनसार में मिलते ही नहीं है । अन्तरराष्ट्रीय जैनविद्या अध्ययन केन्द्र, गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद- ३८००१४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री लक्ष्मीमूर्ति-विरचित भवस्थिति स्तवन - सं. डॉ. कान्तिभाई बी. शाह आ स्तवनना रचयिता श्री लक्ष्मीमूर्ति जैन साधु कवि छे. तेओ आचार्यश्री सकलहर्षसूरिना शिष्य छे. 'जै.गू.क.'मां जणाव्या प्रमाणे सकलहर्षसूरिने आचार्यपद सं. १५९७मां प्रदान थयुं हतुं. ते अनुसार आ कृतिना कर्ता श्री लक्ष्मीमूर्ति विक्रमनी १७मी सदीना पूर्वार्धना कवि ठरे छे. आ कृतिनी जे हस्तप्रत उपलब्ध थई छे एमां एनी ओळख 'भवस्थिति स्तवन'ने नामे अपाई छे. पण १६मा तीर्थंकर श्री शान्तिनाथने विनंतीरूपे आ रचना थई होई आ कृति 'शान्तिनाथ स्तवन' एवा अपरनामे पण ओळखाई छे. 'जै.गू.क.'नी संवर्धित बीजी आवृत्ति (ई.स. १९८७)मां आ रचना अप्रकाशित तरीके दर्शावाई छे. आ काव्य ७० कडीनुं छे, अने कविए एमां मुख्यत्वे दुहा अने चोपाई छन्द प्रयोज्या छे. ५८मी कडी 'वस्तु' छन्दमां छे तो ६९मी कडी रूपे आवतो श्लोक 'आर्या'मां छे. ५९ थी ६८ सधीनी दस कडीओ राग मेवाडु-धन्यासीमां गीतरूपे प्रयोजाई छे. अने 'सुणि सुणि स्वामी हो मोरी वीनती, तुं प्रभु परम दयाल' ए गीतनी ध्रुवपंक्ति छे. चार गतिमां भटकता जीवे जे अनन्तां भवभवान्तरो करवानां थाय छे ते पैकीना प्राप्त भवनुं जे आयुष्य जीव भोगवे छे ते एनी 'भवस्थिति' छे. नारकी, तिर्यंच, मनुष्य अने देव- ए चारेय गतिना जीवोनी भवस्थितिनुं अहीं संक्षिप्त वर्णन करवामां आव्युं छे. कृतिना अन्तमा, आ भवभवान्तरो अने जुदीजुदी भवस्थिति जे कर्मबन्धनी परिणति छे ए आठेय कर्मोना बन्धनो क्षय करी मुक्तिनुं उत्तम सुख आपवानी शान्तिनाथ प्रभुने विनंती करवामां आवी छे. 'कलश'नी अन्तिम कडीमां कर्तानाम अने गुरुनाम अपायां छे. हस्तप्रत-परिचय : जे हस्तप्रत परथी कृतिनी वाचना तैयार करवामां आवी छे ते प्रत Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 43 ला.द.भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अमदावादनी छे. हस्तप्रत सूचिक्रमांक : ला.द.भेट सू. ४१५०२ छे. प्रतनां कुल पत्र २ छे. बीजा पत्र उपरनी छेल्ली बाजुए प्रस्तुत कृति त्रीजी लीटीए पूरी थया पछी अन्य बे नानी कृतिओ लखायेली छे. १. शिवचंद कविकृत 'नेमिनाथ स्तवन', ५ कडीनु. २. जयवंतसूरिकृत 'सीमंधर स्वामि लेख', ५ कडीनुं. प्रतना पानानी लंबाई २६.० से.मि. छे तथा पहोळाई ११. से.मि. छे. बन्ने बाजु २.० से.मि.नो हांसियो छे. हस्तप्रतना पत्रनी दरेक बाजुए १९/ २० लीटी छे. बीजा पत्रनी छेल्ली बाजुए १८ लीटी छे. एक लीटीमां घणुंखरूं ५८ अक्षरो छे. प्रत सुवाच्य छे. अक्षरो मध्यम कदना एकधारा लखायेला छे. पडिमात्रा अने ऊभीमात्रा बनेनो उपयोग थयो छे. ___ कृतिना आरंभे भले मींडं करायुं छे. पुष्पिकामां कृति 'भवस्थिति स्तवन'ने नामे ओळखावाई छे. भवस्थिति स्तवन (ढाल दूहानु) त्रिभुवनपति जिनपय नमी, संति जिणेसर राय, कर जोडी करूं वीनती, लही सहिगुरु सुपसाय. सवि संसारी जीव जे, बिहुं भेदे ते होई, पहिलु अव्यवहारीओ, वली व्यवहारी जोई. कर्म अनादि रोलव्या, जीव अनंता जाणि, दुःख अनंतां भोगवई, काल अनंत प्रमाणि. सास-ऊसासह एकमां, साढी सत्तर वार, एक क्षुल्लक भव आऊखइ, वली वली लहि अवतार. केवि तेह थानक थकी, कर्म तणा लही पार, नवि पांम्या नवि पांमसइ, पृथिव्यादिक अवतार. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 अनुसंधान-२८ कर्मराशि त्रूटइ थिकइ, हुआ व्यवहारी केवि, पृथिवी-पाणी-अगनि भव, वाउ वणस्सइ लेवि. विगल असन्त्री सन्निआ, तिरि मणु-नारय-देव, संक्षेपिं हवि एहनी, कहुं भवनी स्थिति हेव. भव पामी चिहुं मांहिल्यु, निज भव केलं आय, प्राणी पूरुं भोगवइ, ते भवस्थिति कहिवाय. गुरु-लहु बिहुं भेदे सुणु, ते भव-आउ विचार, जिण दरिसण विण जीवडई, जे लीधा अवतार. (चुपई) भन्यु जीव भव कोडि अनंत, कर्म बहुल नवि पामइ अंत, वली मरइ वली वली अवतरइ, इणी परि चिहुंगति मांहि फिरइ.१० सुहम पंच थावरमां जाइ, गुरु-लहु अंतमुहुत्तह आय, पज्जत्ता अपज्जत्ता जेह, गुरु-लहु अंतमुत्तह तेह. वरस सहस बावीस विचारि, बादर पृथिवीकाय मझारि, सात सहस जलमांहि रहइ, अगनिकाय दिन त्रिणि जि लहइ. १२ वरस सहस रहिउं त्रिण्णि प्रमाणि, बादर वाउकायमां जांणि, वणस्सई प्रत्येक मझारि, वरस सहस दस पुहचइ पारि. १३ जघन्य आउ ए पंचह तणुं, एक जि अंतमुहत्तह भणुं, ए पांचइ अपज्जत्ता जाणि, गुरु-लहु अंतमुहुत्त वखाणि. १४ वली पृथिवी छ भेदे कही, मरुअ भूमि पहिलुं तिहां लही, वरस सहस एकनी स्थिति हवइ, बीजी बार सहस अनुभवइ. १५ सुद्धा भूमि तेहगें अभिधान, चऊद सहस वेलूनुं मान, सोल सहस मणसिल हरीयाल, वरस मानिइं ए जाणु काल. १६ अढार सहस वरसेका करी, आय पूरइ उत्कृष्टउं धरी, खर पृथिवी छठी वली कही, पर्वत पाहण सिला ते सही. १७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 45 वरस सहस बावीस एह तणी, स्थिति उत्कृष्टी प्रवचनि भणी, इम अकेकी कांइ भम्यु, काल असंख अनंतु गम्यु. (ढाल) हविं बे दी तणुंअ आय, बार वरस प्रमाण, एगूणा पन्नास, दिवस ते दी माण, चउरिंदी छम्मास, आय पंचिंदी जाणु, बिहुं भेदे असन्नी, सन्नी तिरियंच वखाणु. असन्नि जलचारी जीव मल्यादिक केरी, पूव्व कोडि एक स्थिति कही उत्कृष्ट भलेरी, थलचर तिरि असन्नी जेह भूइं ऊपरि चालइ, वरस सहस चउरासी आय पूरुं इम माहलइ. खचर असन्नी तिरिय पंखी पंखाला जेह, वरस सहस बिहुत्तिरि आय उत्कृष्ट तेह, उरपरिसर्प असन्नि जेह हईइ करी हीडई, वरस सहस त्रिपन्न आय पूरी भव छंडई. भुजपरिसर्प असन्नी जेह नकुलादिक जाणउं, वरस बइतालीस सहस आय उत्कृष्ट अj, हविं सन्नी गर्भिज कहुँ जलचारी केलं, उर-भुजचारी सर्प- पूव्व कोडि भलेलं. गर्भ चतुष्पद महिषी महिष वृषभादिक सोइ, सुहम पल्योपम त्रण्णि आय उत्कृष्ट होइ, गर्भज पखी तणुंय पल्य असंख्यातमु भाग, आय उत्कृष्ट तिरि तणुं बोल्युं लही लाग.. बि-ति-चउरंगी असन्नी सन्नि अपज्जत्ता केरी, गुरु-लहु अंतमुहुत्त एक स्थिति कहीय भलेरी, पज्जत्ता एहां तणी लहु एह ज मान, हवइं गर्भज मानुष तणुं सुणयो सावधान. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 त्रणि पल्योपम सुहम आय उत्कृष्टु कहीइ, लहु एक अंतमुहुत्त मान आय पूरुं लहीइ, असन्नी अपजत्त होइ नहु होइ पजत्त, गुरु - लहु सरीखुं जाणिज्यो एक अंतमुहुत्त. (दूहा) मानुष सरीखा आऊखा, हस्त्यादिकनां होइ, तुरगादिक तिरियंचना भाग चउथइ ते जोइ. छाली छगलादिक तणां, अठम भागई आय, गो-खर - महिषादिक सुणउ, पंचम भाग कहिवाय. उष्ट्रादिक वली एहनां, पंचम भागई जाणि, सुणहादिकनां आउखां, दसमा भाग प्रमाणि. जहिं जेहवां मानुष तणां, आय उत्कृष्टां होइ, तेह मान आदि करी, हस्त्यादिकनां जोइ. पंचम आरइ आजनइ, वीसोत्तरसउ आय, सूत्रमतिं मानुष तणुं, एह थकी तिरि पाय. भवि भवि भमतां जीवडई, बांध्युं नारक आय, नरग पहिलइ पुहुतु वली, तिहां सागर एक ठाय. वरस सहस दस लहु हुइ, हवई बीजइ कहुं जोइ, सागर त्रणि पूरा लहइ, लघु एक सागर होइ. आय उत्कृष्टुं लहि वली, त्रीजइ सागर सात, लघु सागर त्रिणि जांणीइ, चउथानी सुणउ वात. दस सागर लघु सत्त तिहां, सतर सागर वली आय, पंचम नरगिं प्राणीउ, दस सागर लघु ठाय. छठइ नरगिं नारकी, लहइ सागर बावीस, सतर सागर लघु जाणीइ, सुणु छेहिलि तेत्रीस. अनुसंधान - २८ २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July 2004 सागर बावीस हुइ लघु, सत्तम नारक ठामि, एणी पइरिं नारक भवि भम्यु, तारि तारि हविं स्वामि (चुपई) दान - सील - समकित आचरी, आय बंध्युं सुभ भावि करी, पायु देव तणी गति सार, तेह तणा छिं च्यारि प्रकार. पहिलु भेद भवनपति तणउ, असुरादिक दस भेदे सुणउ, दक्षण उत्तर भेदे स्वामि, दोइ दोइ इंद्र अकेकइ ठामि. प्रथम चमरचंचानु धणी, एक सागर स्थिति कही तेह तणी, बलिचंचा स्वामीनुं कहिउं, सागर एक अधिकेरु लहिउ. शेष निकाय स्वामी जे सुण्या, दक्षिण उत्तर भेदे भण्या, धरणादिक दक्षिण नव तणुं, पल्य डुढ उत्कृष्टु भणुं. उत्तरनी पासाना जेह, भूतानंद प्रमुख नव तेह, पल्योपम देसूणां दोइ, स्थिति एहवी उत्कृष्टी होइ. चमर तणी स्त्रीनी स्थिति जाणि पल्योपम साढात्रिणि आणि, बलिचंचा-स्वामी नारिनी, पल्योपम साढाच्यारिनी. अर्ध पल्य दक्षिण नव तणी, देवीनी स्थिति एहवी भणी, उत्तरना नवनी जे नारि, पल्य एक देसूण विचारि. कुंड - नदी - द्रह - नगनइ विषइ, पल्योपम पूरइ आऊखइ, वसइ देवदेवी एह तणी, लक्ष्म्यादिक इच्छाचारिणी. वरस सहस दस लहु जांणीइ, हवई व्यंतर सुरवर काणी, पल्योपम उत्कृष्टु आय, वरस सहस दस लहु कहिवाय. अर्ध पल्य पालइ व्यंतरी, हवइ ज्योतिष कहुं भावि करी, चंद्र तणु जाणुं सविवेक, लाख वरिस पल्योपम एक. सूर्य आय पल्योपम तणुं, वरस सहस अधिकेरुं भणुं, पल्य एक ग्रहनी स्थिति कही, एह अर्ध त्रिहुं स्त्रीनी लही. ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ 47 ४६ ४७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधाम-२८ ४८ . ५१ अर्ध पल्य नक्षत्रह लागि, तारानुं पल्य चउथइ भागि, नक्षत्रनी वली देवी तणुं, साधिक पा पल्योपम भणुं. ___ ४८ तारानी देवी, कहिउ, पल्लट्ठम भाग साधिक लहिउं, चंद्रादिक देवदेवी हवइं, जघन्य आयु केतुं अनुभवई. ४९ युगल च्यारि चंद्रादिक जेह, पल्य भाग चउथानु तेह, तारा देवदेवीना आय, पल्य भाग अट्ठम ते पाय. (तव चडीउ घण माण गजे - ए ढाल) हवि वैमानिक सुर कहुंय, कल्प प्रथम तिहां वार तु, पहिलइ दोइ सागर सुहम, जघन्य पल्योपम धार तु, बीजइ साधिक दोइ तणुं, जघन्य साधिक पल्य जाणि तु, त्रीजइ सागर सत्त हुइ, लघु सागर दोइ आणि तु. चउथइ साधिक सत्त तणुं, लघु वली साधिक दोइ तु, सागर एतां जाणिज्यो ए सुणु पंचम सुरलोइ तु, दस सागर लघु सत्त तिहां, छठुइ चऊदस माण तु, दस सागर लघु जाणीइ ए, सुणु सत्तम सुरठाण तु. सतर सागर लघु चऊद तj, हवि अट्ठम सुरथांन तु, अट्ठारस सागर तणुं य सतर सागर लघु मान तु, ओगणीस, मइ कहिउं आ अट्ठार सागर लघुमान तु, दसमइ सागर वीस हुई लघु उगणीस समान तु. एकवीस सागर लहिअ एकादस सुर जेह तु, वीस सागर लघु जांणीइ उ, सुणु बारस सुर एह तु, तिहां सागर बावीस, अ, लघु सागर एकवीस तु, हवि नव ग्रैवेयक भणुं अ, सुणु पहिलइ त्रेवीस तु. बीजइ गुरु चउवीस, अ, इंम नउमइ इगत्रीस तु, हविं लघु वीसथी गणुं ए, नुमइ सागर त्रीस तु, पंचानुत्तर सुर तणुं य, तेत्रीस सागर होइ तु, लघु सागर इगत्रीस, अ विजयादिक चिहु जोइ तु. ५५ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 49 ५७ बिहु भेदे देवी हुइ अ सौधर्मइ ईशानि तु, एक कुलवधू सरिखी, इतर वेश्या सरिखी मानि तु, सौधर्मइ कुलवहु तणुंअ, वेश्या सरिखी जेह तु, पल्य सात पंचासनु अ आय उत्कृष्टउं तेह तु. लघु एक पल्योपम कहिउं अ इंम ईशान मझारि तु, नव पल्य पंचावन तणुं अ अनुक्रमि हईडइ धारि तु, लघु साधिक एक पल्य- अ अहिं देवी उपपात तु, गति सहसार लगइ परि अ सुर केवल बहु सात तु. (वस्तु) इंणइ अनुक्रर्मि [इणई] अनुक्रमि काल अस्संख, थावर चिहुं मांहिं वस्यु काले नंत वण कांइ जाणुं अ, विगल असन्नी संख पुण असंख तिरिय नरमांहिं आणुं अ, तेत्रीस सागर गुरुअ लहु वरस सहस दस मान, सुर नारक लहु सेसनई अंतमुहुत्त समान. ५८ (राग मेवाडु धन्यासी) एणी पर प्राणी हो काल अनादि तु, पामी चिहुं गति आय, नव नव वेसे हो रंगिसुं रम्यु, हवि पाम्या तुह्म पाय, सुणि सुणि स्वामी हो मोरी वीनती, तु प्रभु परम दयाल, बंधन छोडी हो आठइ कर्मनां, आपु सुक्ख विशाल. सुणिसुणि० ५९ ज्ञानवरणी हो ज्ञाननई आवरइ, दरिसनी दरसन रोध, वेदनी दुखसुखनुं देवं करइ, मोहनी बोध संरोध. सुणिसुणि० ६० हडिनई सरिखां हो चिहु गतिनां दीइ, पंचम कर्म ते आय, नाम प्रभाविं हो नरगादिक तणा, पामइ नवनवा काय.सुणिसुणि० ६१ उंचे-नीचे हो गोत्रे आंणीउ, आठमुं जे अंतराय, तेह प्रभाविं हो एणइं प्राणीइं, दानादिक नवि थाइ. सुणिसुणि० ६२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 अनुसंधान-२८ ज्ञानावरणी हो दरिसन वेदनी, वली चुथु अंतराय, सागर कोडा हो कोडी त्रीसनी, अनुक्रमई स्थिति कहिवाय. सुणिसुणि० ६३ मोहनी मोहिउ रे एह जि जीवडु, सत्तिरि कोडा हो कोडि, सागर कोडा हो कोडी वीसनी, नामि गोत्रिं हो जोडि. सुणि सुणि० ६४ तेत्रीस सागर आउखा तणी, स्थिति उत्कृष्टी हो जाणि, वेदनीनी वली बार मुहुर्तनी, जहन्नपणई वखांणि. सुणि सुणि० ६५ नाम तणी स्थिति आठ मुहुर्तनी, एह जि गोत्र- मान, सेसह पंचनी लहु जाणिज्यो, अंतमुहुत्त समान. सुणि सुणि० ६६ । एणे कर्मे हो प्राणी रोलव्यु, आव्यु हुं तुह्म पासि, सेवक ऊपरि स्वामि कृपा करी, आपु सुक्खनिवास. सुणि सुणि० ६७ सफल हुउ हविं दिन मझ आजून, भेटिया नयणा हो णंद, दरिसण दीठइ हो जिन(जग)पति तुह्म तणइ, मुज हुओ परमाणंद. सुणिसुणि० ६८ (आर्या) श्रीमत्सोमगणव्योम-सोमः सर्वकलानिधिः । सूरिः श्रीसोमविमलो, भूयान्मे वंछितप्रदः (कलस) इय संति जिनवर नमित सुरनर कुमरगिरिवरमंडणो, श्रीसकलहर्षसूरिंद सुहकर सकलं दुक्खविहंडणो, वीनव्यु भगतिं भाव युगतिं सुणिअ अचिरानंदणो, श्रीलच्छिमूरति सीस जंपइ, देहि सुह मणनंदणो. इति भवस्थिति स्तवनं संपूर्णम् ॥ श्रीः ॥ छः ॥ ७० C/o. ७, कृष्ण पार्क गगनविहार पासे, खानपुर अमदावाद-३८०००१ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्षकुल रचित वसुदेवचुपइ रसीला कडीआ ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिरना ग्रन्थभण्डारमाथी सू. नं. ८४६० नंबरना गुटकामांथी, पृ. ५१ थी ६० पर्यन्तना पृष्ठोमां आवेली प्रस्तुत कृति 'वसुदेव चुपइ'ने श्री लक्ष्मणभाई भोजकना मार्गदर्शन हेठळ तैयार करवामां आवी छे. १० पृष्ठ अने ३५८ कडीयुक्त आ कृति वसुदेवचरित्र तरीके हाल उपलब्ध तेमनां चरित्रोमां एक विशेष उमेरारूप कृति छे. वळी, तेमां प्रशस्ति तथा पुष्पिका आपेल होई, तेमां रचनाकारे पोताना नाम तथा गुरु परंपरानो उल्लेख करेल होइ तथा रचना संवत आपेल होवाथी कृति मूल्यवान बनेल छे. आ ज रीते लिपिकारे पण पोतानुं नाम, स्थळनाम तथा लखवानो हेतु जणाव्यो छे. वि.सं. १५५७मां लास नगरमां तपागच्छना शणगारसमा श्री लक्ष्मीसागरसूरिना शिष्य सुमतिसागर - हेमविमलना शिष्य कुलचरणना सुपंडित शिष्य हरखकुल अर्थात् हर्षकुले प्रस्तुत कृति 'वसुदेवचुपई' रचेल छे अने सिरोहीनगरमां भट्टारक विद्यासागरसूरिना लक्ष्मीतिलकसूरिना शिष्य श्री मुनि कर्मसुन्दरे आ कृतिने पोताना गच्छ माटे लखी होवा जणाव्युं छे. तेओए लेखन संवत आपी नथी कृति राग गुडीमां रचाई होवानुं अन्ते जणावेल छे. जैन गूर्जर कविओ भा. ७नी संशोधित आवृत्तिमां वसुदेव चोपाइ तथा रासनी माहिती आपेल छे तेमां आ कृतिनो उल्लेख छ अने तेना पहेला भागमां पृ. २१४ उपर रचनाकार श्रीहर्षकुलनो परिचय आपेल छे. आ कविले 'बन्धहेतूदयत्रिभंगीसूत्र' रचेल छे. हर्षकलशना नामे पण आ कृति मळे छे. प्रस्तुत कृतिमां केटलेक स्थाने भ्रष्ट पाठ मळता होई, पूर्वापर सम्बन्धे अनुमानित शब्दने [ ] चोरस कौंसमां मूकेल छे पण कडी ३०९ मां एक अक्षर भ्रष्ट होइने अवाच्य रह्यो छे त्यां खाली जग्या राखी खाली चोरस कौंस करेल छे. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 अनुसंधान-२८ कथासार : सौरिपुरनगरमा हरिवंशना यदुनरेन्द्र सूरराय तथा तेमनी पटराणी सूरप्रियाने अन्धकवृष्णि तथा भोजकवृष्णि नामना बे पुत्रो हता. अन्धकवृष्णिने अनुक्रमे समुद्रविजय, अक्षोभ, स्तिमित, सागर, धरण, पूरण, हिमवंत, अचल, अभिचन्द्र अने दसमा वसुदेवकुमार; जेओ दसार तरीके ओळखाता, एवा दस दीकराओ हता. भोजकवृष्णिने बे दीकरा पैकी एक उग्रसेन, बीजा देव. समुद्रविजय सोरिपुरमा राज्य करता हता त्यारे पोताने त्यां पधारेला ज्ञानी गुरुने वन्दन करवा गयेला अने पोताने "प्रिय एवा नाना रूपवंता भाई वसुदेवना मनमोहक रूप विशे पृच्छा करतां तेओने एना पूर्वभवनी माहिती प्राप्त थाय छे. वसुदेव पूर्वभवे नन्दिषेण तरीके दुर्भागी अने कुरूप बाळक हतो जेना मातपिता बाळपणमा मृत्यु पाम्या होवाथी मामाने त्यां आश्रये रहेQ पडेलुं. त्यां मामानी सात दीकरीओमांथी एकेय तेनी साथे परणवानी ना पाडतां अने मामाए अन्य कन्या शोधवा प्रयत्न करवा छतां क्यांय ठेकाणुं न पडतां आत्महत्या करवा प्रवृत्त थाय छे त्यारे मुनिनो मेळांप थतां धर्म पामे छे. साधुओनी वैयावच्च करवानुं व्रत लई सुपेरे पाळतां, देवे उग्र कसोटी करी अने ते तेमांथी पार उतरे छे. अन्तकाळे तेणे रमणीजनने वल्लभ बने तेवू निआणुं बांधेल तेथी वसुदेव मनमोहक रूप साथे जन्म्यो छे. मथुरामां राज्य करता उग्रसेन राजाए रामवाडीमां तापस जोतां मासखमणना पारणा माटे त्रण त्रण वार बोलावी, भिक्षा न आपतां, तापसना कोपनो भोग बने छे अने तेने त्यां ज अवतरे छे अने रायमांसनो दोहद थतां राणी धारिणी जन्मतांवेंत आवा दीकराने कांसानी पेटीमां सुवर्ण अने पुत्रनी ओळख साथे यमुना नदीमां पधरावी दे छे जे सुभद्र शेठने त्यां कंस तरीके उछरे छे. पण बाळपणनां तेना क्रूर तोफानोथी वाज आवी ते राजा समुद्रविजय पासे आवीने, तेना जन्मनी वात कहेतां, वसुदेव आ बाळक कंसने प्रीतिपूर्वक पोतानी पाते राखे छे. धारिणीनो बीजो पुत्र ते अइमत्त कुमार. मगधदेशना बृहद्रथ राजानो पुत्र जरासन्ध सोरीपुरना समुद्रविजयने जणावे छे के पोतानी आण न माने तेने बांधीने लावे तेवी व्यक्तिने ते पोतानी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July 2004 दीकरी जीवयशा परणावशे. कंस तथा वसुदेव लडवा जाय छे अने समुद्रविजयनी सूचनाथी कंसना पराक्रमने आगळ धरी वसुदेवने बदले कंसने जीवयशा परणाववामां आवे छे. 53 वसुदेवकुमार नगरमां परिभ्रमण करता रहे छे त्यारे तेना रूपथी स्त्रीओ एटली तो खेंचाय छे के महाजनो समुद्रविजय पासे आवी, स्त्रीओनी लाज लोपाती होवानुं जणावी योग्य उपाय करवानुं जणावे छे. तेथी राजा वसुदेवने ते कृश थया होवानुं बहानुं बतावी राजमहलमां ज रहेवानुं जणावे छे. पण एकवार सुगंधी द्रव्य लईने जती दासी पासेथी वळगीने ए द्रव्य लई लेतां, समुद्रविजये महेलमा रहेवानी सजा आवा स्वभावने कारणे करी छे तेनी वात जणावी देतां दुभायेला वसुदेव नगर बहार जई, एक मडदुं चितामां मूकी, चिठ्ठी लखी, पोते आत्महत्या करी छे ते जणावी गुप्तवेशे नीकळी पडे छे. बांधव समुद्रविजय विलाप करे छे. वसुदेव एमनी आ भ्रमणयात्रामां कनकवती, विद्याधरी, रोहिणी, देवकी जेवी अनेक कन्याओ स्वबळे परणे छे, अनेक पुत्रोना पिता बने छे. रोहिणी साथेना लग्न वखते जरासन्ध अने कंस स्वयंवरमां उपस्थित छतां वसुदेव पसंद कराता युद्ध थाय छे अने त्यां समुद्रविजय भाई वसुदेवने पिछाने छे अने ते मर्यो नथी जाणी आनन्द पामे छे. कंस ज्यारे ज्ञानी भगवंत द्वारा वसुदेवना दीकरा थकी पोतानुं तथा ससरा जरासन्धनुं मृत्यु थशे तेम जाणे छे त्यारे कपट करीने बेन देवकीना साते गर्भने जन्मता वेंत मांगी ल्ये छे. कंसे पिता उग्रसेन तथा माता धारिणी पर तो वेर लीधुं ज हतुं. पिताने काष्ठपिंजरमां पूर्या हता. देवकीना सात पुत्रोमांना छ पुत्रो भद्दिलपुरिनी सुलसाना मृत बाळकोने बदले आपवामां आव्या अने कंसे ते छ मृत बाळकोने शिला पर पटकीने मारी नांख्या. सातमा गर्भने बाळकने देवने प्रभावे ऊंघेला चोकीदारनी नजरमांथी चूकावीने नंदनारीनी जन्मेली बेटीना बदलामां मूकवामां आवे छे. नारी थकी मारुं मृत्यु नथी ज एम गणीने आ दीकरीनुं मात्र नाक छेदीने पाछी आपवामां आवे छे. पर्व निमित्ते देवकी गोकुल पुत्रने मळवा जाय छे. गोकुळमां कृष्ण नामधारी आ बाळक शैशवमां ज पोताना पराक्रमो दाखवतो Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 अनुसंधान-२८ मोटो थई रह्यो छे. कंस ज्ञानीनां वचनो द्वारा पोतानो वैरी हजु जीवतो जाणीने अने मारवा प्रवृत्त थाय छे. कृष्णजन्म समये समुद्रविजयने त्यां नेमिकुमारनो जन्म थयो होय छे. सत्यभामाना स्वयंवरना मिषे बन्ने भाई बलदेव-कृष्ण बे मल्लोने हरावे छे, दुर्दान्त अश्व अने वृषभने वश करे छे. अने अन्ते कंसनो वध करीने उग्रसेनने काष्ठपिंजरमांथी छोडावे छे. ____ कंसपत्नी जीवयशा पोतानाभाई जरासन्ध पासे जई पतिना खून- वेर लेवाने कहे छे. आ बाजु कृष्ण सत्यभामा साथे परणे छे. ए समये नैमित्तिकने पूछतां जणावे छे के यादवो साथे तमे सौ दक्षिण दिशामां जाव. सत्यभामाने युगल पुत्र जन्मे त्यां वसी जजो. आम दशारो यादवकुल साथे दक्षिणे जाय छे. विन्ध्याचल सुधी जरासन्धपुत्र कालक तेओने मारवा पीछो करे छे. यादव-कुलदेवीनी सहायथी कालक चितामां पडीने सळगी जाय छे. सत्यभामा पुत्रोने जन्म आपे छे त्यां धनदनी सहायथी सुवर्णनी द्वारिका नगरीनुं निर्माण थाय छे. द्वारिकानी प्रशंसानी वात सांभळतां, जरासन्ध जाणे छे के यादवो हजु जीवे छे तेथी बन्ने वच्चे युद्ध भीषणतया जामे छे जेमां जरासन्धनो नाश थाय छे. आ युद्धमां नेमिनाथनी सहाय मोटी होय छे. एकदा आयुधशाळामां पहोंचेला नेमिकुमार कृष्णनो शंख वगाडे छे. पोतानो प्रतिस्पर्धी जन्म्यो के शुं तेनी अवढवमां कृष्ण भाई नेमिनी बाहुबल परीक्षा ले छे अने तेना सामर्थ्यने ते पिछाणे छे. कृष्णने जाणवा मळे छे के ते निरागी छे, राज्यमां तेने रस नथी. आम छतां, पत्नीओनी मदद लई जळक्रीडाने बहाने लग्न माटे तैयार न थयेला छतां नेमिकमार तैयार छे तेवं पोतानी स्त्रीओ जणावे छे त्यारे राजुल साथे लग्न नक्की करे छे. जान तेडी जतां, पशुओनो पोकार सांभळी, तेओने छोडावी, तोरणथी पाछा फरेला नेमिकुमार दीक्षा ले छे. राजुल पण विलाप बाद, नव भवना स्नेहीने मार्गे ज छे. मोक्षमार्ग ज पाळे छे, मदथी छकेला कृष्णपुत्रो द्वारिका तथा यादवविनाशनुं कारण बने छे, आ पहेलां देवकी पोताना जन्मतावेंत छोडेला, साधु बनेला छ पुत्रोने जोईने ज अपार मातृत्वनो अनुभव करे छे अने स्तन्यपानथी वंचित रहेल देवकी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 गजसुकुमालनी माता बने छे जे यौवनवये ज दीक्षा लई, ससरा द्वारा माथे सगडीना हारथी, समता थकी कर्म खपावी मोक्ष पामे छे. द्वारिकानी पडती थतां, कृष्ण-बलराम वनमां जाय छे ज्यां कृष्ण माटे पाणी लेवा जतां बलरामनी गेरहाजरीमां जराना बाण द्वारा कृष्ण मृत्यु पामे छे अने बळरामने भानुं मृत्यु स्वीकार अघरुं थई पडे छे अंते बलराम पण मासक्षमण अने तप द्वारा कर्म खपावी, देवलोक सिधावे छे. 55 वसुदेव पण द्वारिकानी पडती थाय ते पहेलां, बहु नारीओ साथे, अणसण लई देवलोक पामे छे. अंते रचनाकार प्रशस्ति पुष्पिकामां पोतानो परिचय आपे छे. प्रस्तुत प्रतमां ज्यां 'ष' खना अर्थमां छे त्यां तेनो ख कर्यो छे. वळी, प्रतनी कडीओना नंबरो आप्या छे त्यां बेएक स्थळे नंबर आपवो रही गयो छे के एक ज नंबर बे वार अपायो छे. जेमके - कडी नं. २२९ दर्शाववानो रही गयो छे जेने [ ]मां जणाव्यो छे. कडी नं. २३४ ने २३५ नंबर आप्यो छे अने ते पछी २३५ नंबर फरीवार आवे छे तेने सुधारी लीधेल छे. कडी नं. २६३ने २६४ नंबर आप्यो छे तेथी तेने सुधारी ते पछीनी बधी ज कडीओना नंबरो फेरव्या छे. आथी प्रतमां ३६० कडीनी जे कृति जणाय छे ते वास्तवमां आ रीते, ३५८ कडीनी लिप्यन्तरमां बनी छे तेनी पण नोंध लेवी घटे, वळी, 'छ' छे त्यां त्छ लखवानी टेव जोवा मळी छे. 'श्रीत्रिषष्ठीशलाकापुरुषचरित्र' मां पर्व ८ना बीजा सर्गथी 'वसुदेवचरित्र' आलेखायुं छे. ११मा सर्गमां द्वारिकादहन समये द्वारिकामांथी बहार जतां, अणसण करी, दाहथी मृत्यु पामता वर्णव्या छे. आनी अन्तर्गत ज नेमिकुमारचरित्रनी वात ज समांतरे चाले छे. अहीं पण एम ज थयेल छे छतां, अहीं वसुदेवचरित्रमांनी घणी बधी विगतो अहीं संक्षेपे जणावी छे. जेमके - विद्याधर कन्याओनी साथेना लग्नोनी विस्तृत वात अहीं मात्र एक ज लीटीमां छे. वळी, कनकवती, रोहिणी, नळदमयंती कथानक वगेरे खूब ज लाघवथी वर्णवाया छे. शिशुपालवध के रुक्मिणी के पांडव द्रौपदी स्वयंवरकथा, प्रद्युम्नचरित्र, नारदनुं पात्र वगेरे अनेक बाबतो आ कथानकमां जोवा मळती नथी. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - २८ प्रस्तुत कृतिना रसकेन्द्रोनो निर्देश जरूरी छे. यादवो अने जरासन्धना युद्धमां कविनी वर्णनकला खीली ऊठी छे, लोकभोग्य दृष्टान्तोथी कथानक रोचक बने छे. अहीं एक दृष्टान्त जणावुं. १७०मी कडीमां मदमस्त बनेली जीवयशानो अइमत्त मुनिनां वचनोथी नशो उतरे छे ते जणाववा आपेलां दृष्टान्तो केटला रोचक छे ! मदहानि पामती व्यक्तिनी दशा खरेखर आवी ज होय छे. 56 क्यांक कविनी वर्णनकला ओर खीली ऊठे छे. वसुदेवथी मोहित थती नगरनारीओनी चेष्टाओना अतिशयोक्तिसभर वर्णन बाद कवि लज्जा ए शील छे ते विषये नानकडो निबंध ज आपी दे छे. (जुओ : कडी ९२ थी ९६ मां). साहित्य समाजनुं प्रतिबिंब छे ते उक्ति अहीं सार्थक बने छे. कडी १२९मां वसुदेव ज्यां ज्यां जाय छे. त्यां त्यां सुन्दर कन्याओ परणे छे ते जणावी कहे छे. "हंसानइ सर सरोवर घणा, कुसुम घणा भमराई सपुरिसनइ थानक घणां, देशविदेश गयाई. " वसुदेवचुपइ सकल मनोरथ सिद्धि कर, धुरि चउवीस जिणंद पय प्रणमुं भाविं करी, भविया नयणानंद ॥१॥ कासमीर मुखमंडणी, मनि समरुं सरसत्ति कविअण वंछित पूरणी, दिइ वाणी सरसति ॥२॥ जे वसुदेव सोहामणउ, यादव कुल शिणगार चरित्र रचउं हुं तेहनुं, सुणियो अति उदार ||३|| वस्तु जंबुदीवह (जंबुदीवह) भरहषि (खि) त्तंमि, सोरिपुर वर नयर यदुनरिंद हरिवंसमंडण तसु संतानि सोहामणउ, सूरराय अरिअण विहंडण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 तस पटराणी सूरप्रिया, बे सुत अंधकवृष्णि राज करइ मथुरापुरी, बीजउ भोजकवृष्णि ॥४॥ अंधकवृष्णि तणइ छइ सार, दस बेटा ते दसई दसार पहिलु समुद्रविजय अक्षोभां थिमित्त अनइ सागर अक्षोभ ||५|| धरण अनई पूरण हिमवंत, अचल अनइ अभिचंद महंत अनुपम रूप जिसउ हुइ देव, दसमउ पणि नामइ वसुदेव ||६|| . भोजकवृष्णि तणइ सुत बेड, उग्रसेन देव कहइ तेउ समुद्रविजय सोरिपुरधणी, राज करइ लीला आपणी ॥७॥ ज्ञानी गुरु आव्या एकवार, समुद्रविजय बंधव परिवार हरखि हरखि गुरु(रु) वंदणि सहु जाइ, अवसर लहीनई पूछई राई ||८|| मझ बंधव दसमउ वसुदेव, दीसई जिम दोगंडुगदेव सोहग सुंदर साहस धीर, गिरुउ सहजि गुणह गंभीर ||९|| रूप अनोपम कहीई किसउं, अभिनव इंद्र तणउं नही तिसउं नरनारी मन मोहण हेलि, इच्छा हीड करतुं गेलि ॥१०॥ अधिक पुण्य किसिउं छइ एह, न्यान करी मझनई कहुं तेअ गुरु कहइ ए संबंध छइ घणउं, इहां थीकु भव त्रीजउ सुणउ || ११|| नंदिषेण नामि एक गामिइ, बंभणपुत्र हतु तिणि ठामि अति करूप दोभाग बहूत, मातपिता परलोक पहूत ॥१२॥ बालपणइ मामा घरि रहइ, नंदिषेणनइ मामा कहइ बेटी सात अछइ अम्ह तणी, इक परणाविसु तुज हितभणी ||१३|| पुत्रीइ ते जाणी वात, पुत्री बोलइ सांभली तात वरि विस पीईनई हुं मरुं, ए दोभागी नवि पति करु || १४ || 57 सातइ पणि पुत्री इम कहइ, मामउ हीइ विमासइण वहइ थानकि थानकि कन्या जोइ, नंदिषेण[ ने] दिइ नइ कोइ ॥ १५॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 अनुसंधान-२८ ते जाणि अधिकुं दुख धरइ, नंदिषेण मनि चिंता करइ हुँ अभागीउ सरजीउ ईसिउ, माहरउ माणसनुं भव किसउ ॥१६॥ मझ देखइ स्त्री थूकइ बहू, मझ देखइ मुख मोडइ सहू हिव मझ मरण तणी छइ आहि, इम चीतवतुं गयउ वन माहि ॥१७॥ ऊंचा पर्वत उपरि चडइ, खोह माहि जव हेठउ पडइ तव मुनिवर तिहां बोलइ एकं, कुमरण म करि वछ अविवेक ॥१८॥ ढाल वयण सुणी मुनि पासइ, नंदिषेण गयउ विमासइ पूरव करम प्रकासइ, तुंइ मुनिवर भासइ ॥१९॥ करम न छूटइ ए कोई, राजा हरिचंद जोइ डुंब तणइ घरि नीर, वहइ ते साहस धीर ॥२०॥ नामई ब्रह्मदत्त भणीइ, चक्रव्रती अंध ते सुणीइ सनतकुमार ज उत्कुष्ट, हीअडइ न थयुं ते दुष्ट ।।२१।। करमि तीर्तंकर नडीआ, पांडव वनमाही पडीआ कर्मह एवडी आहि, राम भमइ वनमाहि ॥२२॥ जउ तु मरइ अखूटइ, परभवि करम न छूटइ लाख चउरासीअ भमीउ, काल अनंत नीगमीउ ॥२३॥ कीजइ जिणवर धम्मो जीव लहइ शिवशर्म नरभव दुर्लभ अपार, करि वछ पुण्य ते सार ॥२४॥ चउपइ ऋषि प्रतिबोधि चारित्र लेई, निर्मल दुक्खर तपह करेई हिअडइ उपशम आणइ घणउं, मुनिवर करम खपइआ पणउ ॥२५॥ न सकइ डीलिं मुनिवर जेअ, मई वेआवच्च करिवउं तेअ एहवउ नियमनि निश्चयउ धरइ, तेहनी इंद्र प्रसंसा करइ ॥२६।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 59 नंदिषेण[ मुनि] मानवलोकि वैयावच्च करइ सुविवेक सुरवर चालिउं न चलइ किमइ, एह वयण सुर एक नवि गमइ ॥२७॥ मायारोग विकुवी घणउं, मुनिवर रूप करी आपणउं ते सुर आवइ वनह मझारि, बीजउ साधु थइ तिणि वारि ॥२८॥ नंदिषेण जव लिइ आहार, तव मायामुनि आविउ बारि रीसई कहइ नथी तुझ सान, हवडां खावा बेइठउ धान ॥२९।। अतीसारीउ मुनि सुविचार, बाहिरि पडिउ तु न करई सार वेयावच्च नउं निश्चउ धरइ, असत्य वचनि तप निष्फल करइ ॥३०॥ नंदिषेण ऊठइ आणंद, हुं वरांसिउ कहइ मुणिंद विहरणि चालिउ साहसधीर, तव असूजतुं सघले नीर ॥३१॥ असावधान सुर थिऊ एकवार, तुं ति सूजतुं विहरी वारि जइ वनमाहि पधारु कहइ, तुं वेदन माहरी नवि लहइ ॥३२॥ ताहरि परि हुं न लिलं आहार, आतलइ आविउ दुखि अपार हुँ रोगि पीडिउ छउं ईम, हीडी न सकउं आवउं कीम ॥३३॥ इम करतां कंधोलइ करइ, ऋषि मुनिवर मारगि संचरइ वांकु कां हीडई इम कहइ, अतीसार खंधोलइ वहइ ॥३४॥ हीयडई ते वह्यइ दुर्गंध, ते सुरवर जाणी संबंध करी प्रसंसा प्रणमइ पाय, देवलोकि खमावी जाइ ॥३५|| अंतकालि ऋषि अणसण लीइ, निय अभाग संभारइ हीइ सौभागइ अधिकहुं हुं जउं, बहु नारी निश्चई परणिजउ ॥३६।। तपह तणी तिणि आणी सीम, ऋषि नीआणुं कीधुं ईम अणसण पालीउ गिउ सुरलोकि, सहजिं सुख भोगवइ अनेकि ॥३७॥ दुहा आउखुं पूरी करी पुण्य प्रभावइ देव तुझ बांधव दसमउ हूउ, ते नामइं वसुदेव Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 अनुसंधान-२८ एहवी गुरुवाणी सुणी, हिअडइ हरखि राउ नगर माहि आवइ सहू, सहिगुरु प्रणमी पाय ॥३८॥ समुद्रविजय बंधव सहित, करतुं पुण्यह काज राजनीति संभारतुं, पालइ पुहवी राज ॥३९॥ चउपई हिव मथुरानगरीनु राय, उग्रसेन नामि बोलाइ एकवार रइवाडी जाइ, वनमाहि दीठउ तापसराय ॥४०॥ मासखमण करइ ते सदा, नगरमाहि न रहइ ए कदा एक जि घरनी भिख्या(क्षा)लीइ, बीजइ घरि वली पग नवि दीइ ॥४१॥ राइ तें आमंत्रण कीध, घरि आविउ, भिक्षा नवि लीध अणबोलाविउ पाछउ वलिउ, निय आखडी थिकु नवि चलिउ ॥४२॥ मासखमणनउ तप उचरइ, वली राजा आमंत्रण करइ राय घरि भिक्षा न दीइ कोई, तप उचरी रहइ वनि सोइ ॥४३।। त्रीजीवार थयउं ते जाम, तापस कोपि चडीउ ताम एहनइ दुक्ख तणउ देणहार हुं घा(खा)झिउ (?)जउ तप हुइ सार ।।४४।। रीसइ एह नीआणुं करइ, नीय आउखुं पूरे करइ उग्रसेननइ गुणधारणी, पटराणी नामि धारणी ॥४५॥ तास उअरि तापस उपन्न, अधम डोहला मइलउ मन्न जाणइ पाप सवे आचरुं, रायमांसनुं भक्षण करुं ॥४६।। बुद्धि डोहलउं पूरुं कीउ, अशुभ दिवसि सुत ते जनमीउ कांसानी तव पेई करी, माहे सोवन्न रतने भरी ॥४७॥ मथुरानगरी उग्रसेन राय, पिता एहनुं धारणिमाइ इम लिखीनइ चीठी करइ, ततखिणी पेई मांहि धरी ॥४८॥ पुत्र सहित यमुना नय माहि, मेल्ही पेई गई प्रवाहि छोरु शुद्धि रायानई कही, बेटी जाइ जीवी नही ॥४९॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July 2004 बीज गर्भ धरइ धारणी, इच्छा थाइ धर्मह तणी अहनिसि दान दिउ सुविचार, शुभ वेलां सुत जायउ सार ॥५०॥ अयमतउ तसु दीधूं नाम, वाधइ रूपकला अभिराम परणावि उचत्त आचार, अहनिसि निरखइ धर्मविचार ॥५१॥ वस्तु नयर मथुरा नयर मथुरा, राय उग्रसेन, पटराणी गुणधारणी तास उअर अरि तापस उप्पनह, पुत्रजन्म की (कं) सा तणी पेई भरी कंचण सुवन्नह, प्रवाहि वहिउं ते गयु, मूकिउ यमुना ठामि बीजउ सुत हिव जाइइ, तस अयमतउ नाम ॥५२॥ चउपइ पेई वहती यमुना तीरि, पहुती सोरीपुरनइ तीरि नदी कंठि बइठउ व्यवहारि, पेई दीठी अतिहि उदार ॥५३॥ घरि आणी उघडाइ जिसइ, उत्तम बालक दीठउं तिसइ ए निश्चवइ राजानुं अंश, चीठी वाची जाणिउ वंश ॥५४॥ सुभद्र सेठि धरि वाधइ बाल अठमि ससिहर दीपइ भाल मानस सरवरि जिम रायहंस, नाम तेहनउ दीधउ कंस ॥ ५५ ॥ आठ वरस वउलिया तस जाम, शास्त्र शा(श) स्त्र भणी अभिराम बुधि आगलउ अति बलवंत, बाहरि जाइ रामति करंत ॥ ५६ ॥ पांच सात बालक तिहां मिलइ, रमतां माहोमाहइ भिलइ कूड रमीनइ आणइ डंस, तु कूटइ बालनइ कंस ॥५७॥ ते बालक रोतु घरि जाइ, कंसइ कूटिऊ इम कमाइ सुभद्र सेठि करइ घरबारि, ऊलंभा दिई आवी नारि ॥५८॥ पुत्र आपणउं राखु तम्हे, एहवुं सांसहिस्युं नहीं अम्हे पुत्र पीआरा मारी जाइ, नगर माहि स्यु थइ छइ राय ॥५९॥ 61 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 अनुसंधान - २८ इस्या दिन प्रति घर घर तणा, उलंभा दिइ आवी घणा मावीत्र वार्य न करइ किमइ, बाहरि जइनइ तिम जि रमइ ॥६०॥ दुहा ए अति जूठउ कंस सही राजानुं अंश ॥ ६१ ॥ सुभद्र सेठि विमासीउं, माहरि घरि छाजइ नही, राजसभा राजा तणी, सुभद्र सेठि ग्यु हेवि भूपतिनइ इम वीनवइ, पासइ छइ वसुदेव ॥६२॥ यमुना वहतुं आवीउ, पेई माहि पहूत लेख लिखइ मइ जाणीउं, उग्रसेन रायपूत ॥६३॥ वृद्धिवंत मझ घरि हूउ, कंस कहीइजइ नामि राजपुत्रनइ रायनी, सेवा युगति स्वामि ||६४|| एह वयण राजा सुणी, तिहां तेडावइ कंस तेजवंत देखी करी, जाणीउं विद्यावंस ॥६५॥ वसुदेवि ते राखिउ, प्रीतइ आपण पासि स्नेह बिनइ अधिक धरई, रमइ कला अभ्यासि ॥ ६६ ॥ वस्तु नदीय यमुना नदीय यमुना तणइ परवाहि पेई दीठी आवती सुभद्र सेठि निअ गेहि आणीअ, बालक देखी सोहामणउ कंस नाम दीधउं स जाणीय, अतिबलवंत ते हूउं जणाविउ राय पासि, वसुदेव ते राखीउ, प्रीत आपण पासे ॥ ६७ ॥ चउपइ मगध देस माहि जाणीइ, राजगृह नयर वखाणीइ तिहां बृहदरथ राजा तणउ, पुत्र अछइ अति सोहामणउ ||६८ || जरासिंध नामि, सुविशाल, त्रिहुं खंड केरु भूपाल यादव जेहनी मानइ आण, चित्तिहि अति आणइ अभिमान ॥ ६९ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 63 जरासंध कहावइ एकवार, समुद्रविजयनइ एह विचार सीमाहेडउ सोरीपुर पासि, एकइ गामि वसइ छइ वासि ॥७०॥ माहरि आण न मानइ तेअ, एहनइं बांधी आणइं जेअ जीवयस्या मझ पुत्री सारी, तेहनइ परणावंउ सुविचार ||७१।। दूतमुखि ते एहवं सुणी, चिंतइ सोरीपुरनउ धणी जरासंधनी विसमी आण, कीधी जोईइ ते परमाण ॥७२।। कटक सजाइ राय गहगहइ, तव वसुदेव कुमर इम कहइ स्वामी एह काज मझ कहवु, तुम्हे सुखइ समाधइं रहउं ॥७३।। तुं नान्हउ ए वात अबूझ, दोहिलू करीय न जाणइ झूझ दडे रमतां छइ सोहिलउ, मस्तक झूझ सवे दोहिलूं ॥७४।। इम कहीउं मानइ नहीं खेव, कंस सहित चालिउ वसुदेव सीमाहंडेउ छइ विसमइ ठामि, कटक लेइ गिउ तीणइ ठामि ॥७५।। बिहु पासे तव मंडिउं झूझ, माहोमाहि प्रकासइ गूझ सुभट सवे मचकोडिआ जिसई, वसुदेवइ आकीउ तिसइ ॥७६।। ताकीनइ एक मूंकिउ बाण, सीमाहडआ भागउ सपराण कंस ते अति बल बोलतुं, रथि बांधी घालिउ जीवतुं ॥७७॥ कटक लेइ पाछउ वलिउ, सोरिपुर आविनइ मिलिउ समुद्रविजय साहमुं आविउ, वसुदेव हरीखइ बोलावीउ ॥७८।। नगर माहि कीधउ परवेस, नगर महोत्सव हुइ सविसेस समुद्रविजय तेडइ एकंत, सुणि वसुदेव कहुं वृत्तंत ॥७९॥ तुझ गियां तापस आविउ छेक, ज्ञानवचन कहीउं तिणि एक जीवयशा कन्या पापिणी, बिहुं वंशनइ क्षयकारिणी ॥८॥ जरासिंधु तुझ देसिइ सखे, ते तुं कन्या परणइ रखे कंसजनइ दिवरावे सिरइ, सीगिई सांकल जिम ऊतरइ ॥८१॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 अनुसंधान-२८ इम सुणी वसुदेवकुमार, कंस साथि लेइ परिवार सीमाहडउ साथइ चालीउ, राजगृह नयरी आवीउ ॥८२॥ जरासिंधनइ कीध प्रणाम, प्रतिवासुदेव बोलावइ ताम सीमाहडउ आणीउ कणइ, कंसतणउं बल वसुदेव भणइ ॥८३।। जरासिंध जव जाणिऊ वंश, तु पुत्री परणाविउ कंस . पिता वयरी तिणि मथुरापुरी, करमोचनि मागी वसि करी ॥८४॥ दूहा कंस पितानइ पाछिलउं, वयर वालवा काजि जरासिंध बइसारीउ, मथुरानगरि राजि उग्रसेन कठपंजरइ, कंसइ घालिउ राय पूर्व नियाणउं जे कीउ, ते निष्फल किम थाइ ? ॥८५॥ धारणिमाता इम भणइ, तुझ पिता नहीं दोस। सघलां वानां मइ कीआं, तु मझनइ करि रोस ॥८६।। मातवचन मानइ हीइं, कंस पिता दुःख देइ । अइमत्तु हिव पिता दुखि, वइरागउ व्रत लेउ(इ) ॥८७।। चारित्र पालइ निरमलउं न्यान उपन्नउ सार तव संयम आराधउं, वसुहा करइ विहार ॥८८।। कटकसहित हिव आविउ, सोरिपुरि वसुदेव राजरिद्धि लीलां करइ, जिम दोगंदुक देव ॥८९॥ वस्तु मगधदेसह मगधदेसह तणउ भूपाल, जरासिंधु आदेशथी कंस सहित वसुदेवकुमरि, सीमाहडउ बांधी बिन्ह ते पहूत राजगृह नयरि, जीवजस्या परणी करी, कंस करइ निय काज पिता वयरी मागी लिउ, मथुरानगरी राज ॥९०॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 65 ढाल (वीरजिनेसर चरणकमल ए ढाल) हिव वसुदेवकुमारउं, जे कुतिग वीत ते सुणिज्यो सहू सावधान लइ जगह वदीउ, रूप मयण करी अवतरिउं अश्विनीकुमार, नयर माहि रामति रमइ ए वसुदेवकुमार ॥९१॥ जे जे देखइ कुमर रूप, तेह मनि अति भावइ रूपि मोही नगरनारि, सहू जोवा आवइ एक अटाले चडइ नारि, वेला नवि चूकई एक नारि भरतारनइ अप्रीसिउं मूंकई ॥९२।। बालक रोतुं नवि लइ, इक जाई पूठिइ कुंवर रूप जोवा भणी ए, अधजिमति ऊठई एक आखि आंजी करी, बीजी अणआंजई ढलतुं घी मूकइ घणी ए, तस जोवा काजि ॥१३॥ करिय विमासण सयल लोकि वीनवीउ राय सामी अम्ह वसवा भणी तुम्हे आपु ठाय राजा कारण पूछीउ ए माहाजनइ इम बोलइ सोभागि वसुदेव रूप बीजउं नवि तोलइ ॥९४॥ तीणइ मोही सयल नारि, दिन रात न जाणई धान अलूणउ नवि लहइ, पति मोह न आणइ एह रीति रूडी नही, स्त्री लोपइ लाज स्वामी उत्तम कुल तणुं ए, इम विणसइ काज ॥१५॥ लाजइं पालई शील एक लाजि दिइ दाम लाज लगई इक तप तपई ए भवदेव समान धरम काज लाजि करइं, लाजइ व्रत राखइं कहीइ धरमइ जोग जीव जे लाजह पाखइं ॥९६।। महाजननइ राजा कहइ, तुम्हे पुहचउ ठामि वारिसुं हुं वसुदेवनइं, सुखि वसज्यो गामि Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 समुद्रविजय तेडी कहइ, सांभलि वसुदेव बाहिरि वछ न हीडीइ उन्हालउ हेव ॥९७॥ सयल दिवसि भमतां शरीरि तावड तुझ लागइ राल गुन माहि रह्युं वच्छ सिरि तु कृश आगइ एह वयण मानी करी परहीउ मनरंगि निय आवासि रामति रमइ लीलां करई अंगि ॥ ९८ ॥ A बावन - चंदन सुरही घसी कसतूरी साथइं भरीय कचोलउ शिवादेवी दिई दासी हाथि राय भणी ते मोकलिउं दीठउं वसुदेवि दासी देखाइ नही विलगीनइ लेवि ॥ ९९ ॥ नाखिउ महीअलि सुरही - द्रव्य रहीउ निअ अंगि कुंअर लगाडइ ताम दासि बोलइ मनभंगि राइ न्याइ राखीउं तुं बंदीखाणइ कुंअर वयण ते सांभली ए मनि शंखा आणइ ॥ १००॥ दूहा सीह किवार हलि वहइ, दीणयर ढांकिउ जाइ हुं बंदीखाणइ रहुं, वात हीई न समाइ ॥१०१॥ नगर मांहि कीधउ नथी, महं काइ अन्याय विण कारणि कां राखिउ, बंदिखाणइ राय ॥ १०२ ॥ मई काइ उध्धतपणइ, लोपी भूपति आण तेह भणी सही मझ हूउ दासी वयण प्रमाण ॥१०३॥ अनुसंधान-२८ धन वंछइ एक अधम नर, उत्तम वंछइ मान ते थानकि सही छंडीइं, जिहां लहीइ अपमान ||१०४ || दंत केश नख अधम नर, निय थानकि शोभंति सपुरिस सीह फणिंद मणि, सघले मान लहंति ॥१०५॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 AV दीसई कुतिग विविह परि, सघले वचन वदंति सजण दुजण अंतरु, जाणिजइ परदेसि ॥१०६।। इम चीतवतुं नीकलिउं, निसि भरि खडगह बेलि पोलि बाहरी जाई करी, ईधण मेल्ही हेल ॥१०७॥ मृतक माहि मूकी करी, चिहि परजाली एक पोलइ परगट बंधीउं, पत्र लखी सविवेक ॥१०८।। मइ अन्याय कीयउ घणउ, खमयो सहूइ लोक आपणपुं मइ छइ दहुं, कोई म करयो शोक ॥१०९।। पत्र लिखी इम वालीउ, आघउ वनह मझारि पाछलि वसुदेव सोधीउ, समुद्रविजय दुःख भारि ॥११०॥ पत्र लिखिउ देखी करी, समुद्रविजय भूपाल वाचंति धरणि ढलिउ, बंधुसहित तत्काल ॥११॥ राग केदारुं समुद्रविजय विलवलइ घणउं रे, साथइ सहू परिवार हा हा देव किसिउं कीउं रे, सूनु आज संसार ॥११२॥ बंधव जी कांई मेल्हीउ गयु ............... तुं तु विनयवंत वरवीर, तुं तु सोहगसुंदर धीर ॥११३ आंकणी माहरु मोह न आणीउ रे, नीठर थयुं निटोल साद करतां सहोदर रे, एकवार दिई बोल ॥११४॥ बंधव० वीसारतां न वीसरइ रे, तुझ गुण न लहु पार हीअडउ हेजि हेलविउं रे, साथि आवणहार ॥११५।। बंधव० नयण रोअंता रहिइं नहीं रे, जिम निझरणे नीर दुख भरी भूपति इम भणइ रे, दिइ दरिसण मज्झ वीर ॥११६।। पोतइ पुण्य न सींचीउ रे, तु मझ भाय वियोग पुण्य पसाई संपजई रे, सुख संपति संयोग ॥११७॥ ... Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 अनुसंधान-२८ चउपई समुद्रविजय अधिकु दुख धरई, प्रेतकाज सवि तेहनां करइ दुक्ख धरंतु पालइ राज, अहनिसि धर्म करइ महाराज ॥११८॥ हिव चालई वन माहि कुमार, थिउ प्रभात उगिउ दिनकार खडग सखाइ तु पालउ पुंलइ, तुं वाटइं बांभणरथ मिलइ ॥११९।। बांभणरथ बेसारिउ कुमर, जोअण पाच दस आविउ नयर तिहां नृपकुंअर प्रतिन्या एह, गीतकला जीपइ पति तेह ॥१२०॥ पडह छबी देखाडी कला, कुंअरि मनि भागा आंमला पाणिग्रहण करी तिहार रहिउ, केते दिनि आघउ संचरिउ ॥१२१॥ विद्याधर नगरी जांइ, कन्या परणइ मोटा राय पांच पांचसइ कन्या सार, विद्याधरी पणमइ इकवार ॥१२२।। करमविहूणउ जे नर होइ, सफल मनोरथ तास न होइ पुण्यवंत नर जिहां जिहां जाइ, तिहां तिहां रानी वेलाउल थाइ ॥१२३।। पोढउं नयर अछइ पेढाल, राज करइ हरिचंद भूपाल कनकवंती तस बेटी नाम, रूपि रंभा अति अभिराम ॥१२४|| नल राजानी जे स्त्री हती, पूरव भवइ दमयंती सती ते कनकवती भरतार, कुंअर हुउ ते पुण्यप्रचार ॥१२५।। ए पूरव तपह प्रमाण, सघले महिमा मेरु समान जिन भाखीउ तप कर्यो खरु, जिम लीला भवसायर तरु ॥१२६।। कुंअर भमंता जिहा जिहां जाइ, तिहां तिहां उत्सव हरख न माइ जे थानक पणि छंडी जाइ ते वसउं पणि शून्य कहाइ ॥१२७॥ दूहा हंसा जिहि गय तिहि गया, महि मंडणा हवंति छेह उ तांह सरोवरा, जे हंसे मुच्चंति ॥१२८।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 69 हंसानइ सर सरोवर घणा, कुस(सु)म घणा भमरांइ सपुरिसनई थानक घणां, देश विदेश गयाइं ॥१२९।। चउपइ कुअर भमंतु देस विदेश, आविउ अरिठ नयरि नववेस रूधिरराय बेटी रोहिणी, यौवन वय परणावा भणी ॥१३०॥ सयंवरा मंडपसु विचार, जरासिंधु नइ नवइ दसार बीजा राय कटक परवरिया, आपइ रूपि इंद्र अवतरिआ ॥१३१।। कूबड वेस करी तिहां रहइ, प्रज्ञप्ती विद्या तव कहइ पडह वाअंता निश्चय करिउ, वसुदेव कुंमर रोहिणीइं वरिउ ॥१३२॥ जरासिंध सोरिपुरधणी, कंस सहित ऊठइ रण भणी आपण छतां ए परणइ नारी तु अयुगतुं हुइ अपार ॥१३३॥ रणि रंगि दीठउ झूझंत, जरासिंध कहइ ए बलवंत समुद्रविजय जव मंडिउ झूझ, बाण लिखी तव कहीउं गूझ ॥१३४|| तव जाणी वसुदेवकुमार, हेज हरखनुं न लहुं पार हरख अवधरतां सवि मिल्या, सहजि सकल मनोरथ फऱ्या ॥१३५॥ विद्याधर कुमरी जे घणी, परणी छइ ते तेडा भणी विद्याधरी आवी आकासि, तव वसुदेव रहिउ विमासी ॥१३६॥ मिलिवा दीधी अनुमती राय, वसुदेवि ते पणमी पाय विलंब रहित वछ वहिलउ वले सोरीपुर आवीनइ मिले ॥१३७॥ समुद्रविजय सोरीपुर गयउ, कुंअर आवतां अति साम्यहउ वसुदेव ठामि ठामि स्त्रीवृंद, परिवरीउ जिम तारा चंद ॥१३८।। महाविमान रवी आकाशि, तव आव्यउ सोरीपुर पासि राय महोत्सव करइ प्रवेस, उत्सव अधिका नयर निवेस ॥१३९।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 दूहा भाव विरूपी नीकल्यउ, हुंतुं कुंअर विदेसि बहुत्तरि सहस अंतेउरी, परणिओ नव नव वेस ॥१४०॥ पुण्य सुखसंपद मिलेइ, पुण्यई नव नव रिद्धि पुण्य लगइ सहू संपजइ, पुण्यई वंछित सिद्धि ॥ १४१ ॥ पुण्य करी वसुदेवनंइ, रिद्धि अर्चिती जोइ भावठि भंजण मानवी, पुण्य करु सहू कोइ ॥ १४२॥ अनुसंधान - २८ हिव हत्थिणाउरि च्छइ एक सेठि, ललइतना सुत सुललित देठि बीज गंगदत्त सुत होइ, कर्मभावि माइ न गमइ सोइ ॥ १४३ ॥ दासी हाथि छंडावर जिसइ, सेठि छानउ राखिउ तिसिइं वृद्धिवंत माता जाणिउ, तु काढिउ बाहिरि ताणीउ || १४४ || गिउ वनमाहि मुनीश्वर दीठ, तव तस हीअडइ हरख अनीठ तस प्रतिबोधइ चारित्र लेइ, ललितकुमार पणि तिम जि करेइ || १४५|| चारित्र अणसण पाली रोक पामिउ महाशुक्र सुरलोक वल्लभ पणइ नीआणउं करइ, गंगदत्त वली तिहां अवतरइ ॥ १४६॥ वसुदेवह रोहिणी कलत्र, धज, सायर, गज, सीह पवित्र च्यारई सुपन निसि नीद्र मझारि, देखइ हिव तेहनइ विचार ॥ १४७॥ देवलोकि ललतांगकुमार, जीव चिवीनइ पुण्य प्रकारि, रोहिणी गर्भवासि उपन्न, उत्तम डोहलां हुइ धनधन्न ॥१४८॥ सुत जायु ते जिइ अभिराम नाम तेहनुं दीधउं राम वरस आठनउं लील विलास, भणिउ गुणिउ अति बल अभ्यासि ॥ १४९॥ वस्तु कुंअर वसुदेव कुंअर वसुदेव अतिहिं सुविसाल बहुत्तरि सहस अंतेउरि, सपरिवार पुरंदर रोहिणीसुत हिव ज नमिउ तास नाम बलदेवसुंदर, कंसई हिव तेडावीउ धरी सनेह बहूत समुद्रविजय पुच्छी कुमर, मथुरा नयरी पहुत ॥ १५०॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 ढाल कंस दसार बेहू मिल्याए, तेह प्रीति मनोरथ सवि फल्या ए कंस कहइ सुणि तुं कुमार, अच्छर वृत्तिका नगरी नयर सार || १५१॥ मझ पीतरीउ कुमर राज, तिहां देवक नामिइ करइ राज देवकन्यां जिसी देवकीओ, तस बेटी नामइ देवकीए || १५२ || तेहनूं रूप तुंह जि वरुए, इणि वातइं थावुं सादरू अ बेउ वृत्तिकापुरि गया ए, तिहां देवक राइ कीधी मया ॥१५३॥ कंस कहइ सुणउ स्वामि सार सोभागी ए दसमुं दसार देवकीयोग्य वर अति भलउ ए, संयोगिई पुन ही सोहिलुं ए ॥१५४॥ दूहा सिसिहर विण पूनिम किसी, विण पूनिमसिउं चंद सुकुलीणी स्त्री सुगुण नर, जडती जोडि नरिंद ॥ १५५ ॥ हंसा रच्चंति सरे, भमरा रच्चंति केतकीकुसुमे चंदनवने भोअंगा, सरिसा सरिसेहि रच्वंति ॥१५६॥ हंसा राच्चइ सरवरे, चंदनि चतुर भूअंग केतक राच्चइ भमरला, ए संयोग सरंग ॥१५७॥ 71 ढाल एह ज वयण साचुं सुणीए, देवकराजा इहां भणीओ कन्या देव मन कीयुं ए, तव ढूंकडउं लगन जोइ लीउं ए || १५८।। मणहर मंडप मंडीइ ए, वली अशुभ अंशुक सवि छंडीइ अ केलवीइं नवरसवती ए, जिमइ जासक जन ते रसवती ए ॥ १५९ ॥ कन्या रूप सिणगारीइ ए, करी ऊगदि (टि) अंग समारीइ ए वेणी लहकइ ढलकती ए, चंद्रानदि चालइ चमकती अ ॥ १६०॥ मृगनयणी मन मोहती ए गय गमणी चतुर चंपकवनी अ पाणि सुकोमल बांहडीओ, कर कयणर (कणयर) केरी कांबडी जे || १६१ ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 अनुसंधान-२८ सीहलंकी सुंदरि इसीओ, ऊरु थंभकेरी कलहंसी ए हेम हुइ मही महमहंत, सिणगारी जउ इसी रूपवंत ॥१६२॥ कुंअर वरघोडइ चडइ चडइए, वाजिंत्रई अंबर गडगडइ ए सकल कला जिम चंदलउं ए, तिम कुंअर हिसिउं अवनितिलउ ए ॥१६३॥ धवल मंगल दीइ अंगनाओ, सवि भाव धरइ अंगना ए तस आगलि नाचई सोलही ए, नर नारी जोवा सवि मिलइ ए ॥१६४॥ लाडण तोरणे आविउ ए, तव सूहवि हरखि वधावीउ ए चतुर चउरीसीहि आवीउ ए, तव विधिकन्या परणावीउ ए ॥१६५॥ लाख गाइ तणउ जेअ स्वामि, करमोचनि आपीउं नंदन नामि कंस कुमर सहू संचरीओ, हिव हरखि आव्या मथुरापुरीए ॥१६६।। चउपइ कंसि कन्या परणावा तणउ, नगर महोच्छव मांडिउ घणउं मदर्भिभल जीवयशा नारि, अयमत्तउ मुनि आविउ बार(रि) ॥१६७|| मदवंतीणी मुनि राय देउर विगोइ कीधइ वाय तव मुनि कोपि चडिउ इम कहइ, गहिली गर्व किसीउ ए वहइ ॥१६८॥ देवकी नारि गर्भ सातमउ, अति बलवंत हूसिइ ए समुं तुझ भरत्तार अनइ तुझ तात, बिहुं तणउ करसिइ उपघात ॥१६९।। आभ पडल जिम वाइ टलइ, सिंघनादि मयगलमद गलइ जळ सिंचीउ जिम दव उल्हाइ, जिम रवि ऊगिइ रयणी जाइ ॥१७०॥ जिम निर्धन नर मूंकइ माण, रणि जिम कायर पडइ परांण तिम मुनि वयण तणइ परमाणि, जीवयशानई हुइ मदहांणि ॥१७१।। जइनइ कंस कहिउं ततकाल, कंसइ माग्या सातइ बाल वसुदेव आपइ उत्तम पणइ, क्षुद्र भावि नवि हिअडइ सुणइ ॥१७२।। द्रोह करइ मित्रह तणउ, ए दुर्जन आचार रोस न आणइं तेहनिइं, ए सज्जन आचार ॥१७३।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 उत्तम अतिहिं पराभव्यु, हीअडइ न धरइ डंस च्छेद्यु भेद्यु दूहव्यु, मधुरु वाजइ वंस ॥१७४।। ते स्वरूप जाणी करी, कंस तणउ वसुदेव पच्छितावइ नीअ हीइ पणि, वाच न मिल्हइ खेव ॥१७५।। मेरु सिखर अविचल वलइ, रवि ऊगिइ निसिहो सपुरिस निअ मुखि उच्चरी, वाच न मिल्हइ तोइ ॥१७६।। चउपइ भद्दिलपुरि जिन धरम सनामि, नागनारि छइ सुलसा नामि सुत कारणि आराधिउ देव, मृतबालक तू इम कहइ हेव ॥१७७|| देवकीना उत्तम छइ पुत्र, कंस मारिवा थिउं अपवित्र ते तुझ आणी आपसि, इहां मृत ताहरा मुकिसु तिहा ॥१७८॥ हरिणगमेसी सुर इम कहइ, मृत बेटा ते कंस जि हरइ शिला आस्फाली नाखइ सवइ, गर्भ सातमउं सुणज्यो हवइ ॥१७९।। दिणयर सीह अनइ गजराज, वन्हि विमान जिसिउं सुरराज पदमसरोवर धज देवकी, सात सुपन देखइ देवकी ॥१८०॥ महाशुक्र सुर कहू चवी, गंगदत्त सुरसुख भोगवी सात सुपन सूचित बहु पुन देवकी केरइ उदरि उपन्न ॥१८१॥ अभिनव पुण्य मनोरथ थाई, गर्भ दिहाडा हरखि जाइं पूरे दिनि सुत जनमिउ किसु, अभिनव रविमंडल हुइ तिस्यउं ॥१८२।। कंसि पाहरी मुक्या जेअ, देवप्रभाविउ उंध्या तेअ सुत लेइ वसुदेव नीकलिउं, बाहरी गोकुलमाहे भिलउ ॥१८३॥ नंदह नीअ सुत आपइं धणी, नंदनारि तव बेटी जिणी कही वृत्तंत लेइनइ सुता, नगरमाहि आविउ हरि पिता ॥१८४।। देवकिनइं जव आपी सुता तव पीहरी हूआ जागता सिउं जायुं इम पूछई जिसिइं, बेटी लेइ आपी तिसिइं ॥१८५।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 अनुसंधान-२८ कंसि लगार एक छेदी नाक, पाछी आपी जाणी ताकं नारी थिकुं मझ मरण न होइ, ऋषितुं वचन वृथा सही होइ ॥१८६।। ते सुत सहजइ शरीरि कृष्ण नंदिई नाम दीउ तसु कृष्ण गोकुल माहि देवकि माइ, परव मिसिइ सुत मिलवा जाइ ॥१८७|| गोकुल रक्षा काजि राम सुत पासिइ मुकिउ अभिराम माधव कला कुतूहल करइ, राम सहित इछा संचरइ ॥१८८।। वस्तु देवलोकह देवलोकह आउ पूरेवि गंगदत्तसुर देवकी उअरि-सात सपने उपन्नह शुभवेलां सुत जाइउ, कृष्ण नाम दीधउ सुधन्नह वृद्धिवंत गोकुलि हुइ किसु न जाणइ भेउ राम सहित रामति करई मथुरा बाहिरि बेउ ॥१८९।। ढाल त्रिपदीउ अचलपुरी धन नृप सुविचारी धनवइ नामि अछइ तस नारी भव पहिलई अवतारी ॥१९०।। देवलोकि पहिलइ भवि लीजइ चित्रगति नाम विद्याधर त्रीजइ रयणवइसिउ रीझइ ॥१९१।। सरगलोकि चउथइ सुख दीपति महाविदेहि अपराजित भूपति प्रियमति तस पटराणी ॥१९२।। सुरलोकि एकाधिक दसमइ शंखराय हूआ भवि सातमइ यशोमतीसिउं रमइ ॥१९३।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 75 महाविमान अपराजित नामि भवि आठमइ दोइ तिणि ठामि हिव सोरीपुर गामि ॥१९४।। समुद्रविजय राजा पटराणी शिवादेवि नामि सहिनाणी रयणि सपन लहेति ॥१९५॥ चउद सुपन महिमा अणुसरीउ शिवादेवी कूखइ अवतरीउ ते सुर तिजी विमान ॥१९६॥ शुभ वेलां सुत हूउ जनम दिशिकुमरी विरचइ शुचिकर्म जनम महोत्सव इंद ॥१९७।। स्वामि नेमिनाथ सुविचक्षण बहुत्तरि कला बत्रीसइ लक्षण यौवनवइ अणसरीउ ॥१९८॥ नेमिसर त्रिभुवन मनमोहन मेघवन्न कांति अति सोहइ लहूउ लील विलास ॥१९९।। वस्तु नेमिनाथह नेमिनाथह, जनम सुविचार मथुरा नगरी सांभळी हीआ हरखी कीजइ महोत्सव कंस देवकी घरि आविउ, छिन नाक दीठी सुता हिव गर्भ सातमउं सांभरिउं, असत्य वयण मुनि सोइ घरि आविउ शंका धरइ, निमित्तअ पूछइ ॥२००॥ ज्ञानि मुनिवर इम पभणेइ, अरिट्ठअश्व दुर्दत वृष मल्ल बेउ चाणुर मुट्ठीय एतां हणी वडाविसिइ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 अनुसंधान-२८ धनुष सार सारंग मुट्ठय यमुना द्रह जो नाथसिइ कालीनाग महंत गर्भ सातमुं देवकी, ते तुझ करसई अंत ॥२०१।। चउपइ अश्व वृषभ मेल्हिय, वन माहि, मल्लं बिहूनी अधिकी आहि शस(शस्त्र) अभ्यास करइं ते दोइ, नगर माहि नवि जीपइ कोइ ॥२०२॥ राम सहित केसव वनमाहि, भमइ रमतां माहोमाहि अरिट्ठ अश्वनइ वृषभ महंत, हरि देखी धाइ दुर्दत ॥२०३।। केशव कोपि मुष्टि प्रहारि, बे पुहचाड्या यम घरिबारि रमलिइं हिव आंघो संचरइ, यमुनाजल माहि क्रीडा करइ ॥२०४।। तेह माहि द्रह एक अताग, सहस फणुं त्तिहां काली नाग लोक भयंकर अति विकराल, नारायणि नाथ्यु ततकाल ॥२०५।। ते स्वरूप कंसिं सुणी, नीय वयरी जाणेवा भणी सत्यभामा छइं भगिनी सार, रवितलि रूपी अतिहिं उदार ॥२०६॥ यौवन वेस कला अभिराम, मयण राय लीला आराम सयंवरा तस मंडिउं जंग, आपीउं धनुष तिहां सारंग ॥२०७॥ नगर माहि जाणावी वात, मल्ल बिहुं मु करी उपधात सारंग धनुष चडावइ जेअ, सत्यभामा सही परणई तेअ ॥२०८।। सुणीअ वात गोकुल माहि जिसिइ, नगर माहि बे आव्या तिसिइ वासुदेव साथई बलदेव, बिह्नई कंस सई बोलइ हे ॥२०९।। तेडउ मल्ल जे च्छइ बलवंत, तेहसिउं झूझ करउ एकांत कंस हसी बोलइ गोवाल, तुम्हे पहरा जाउ बिहू बाल ॥२१०॥ गिरिवर सिखर चलइ जिम वाय, आंकतूल किम मंडइ छाइ जेह सिउ सुभट न मंडइ पाग, तिहां तुम्हारउं केहउं लाग ॥२११॥ तिहां आविउ वसुदेव कुमार, नगर लोक सहूइ परिवार मन माहि शंकइ वसुदेव, राम कृष्ण सिउं करसिइ हेव ॥२१२।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 कहई कृष्ण अम्ह छू गोवाल, मल्ल बिहु बलवंत भूआलि जाणीसइ बल तणु प्रमाण, तेडउ मल्ल अतिहिं सपराण ॥२१३।। शमि युध करि बल चंड मुष्टिष्क (मस्तिष्क) मूठि कीउं शतखंड सिरि पाखलि केरी चाणूर, कीधउ मल्ल चतुभुजि चूर ॥२१४॥ सारंग धनुष चडाविउं जाम, कंस कटक हक्कारिउं ताम सही जीवतुं जाइ रखे, ए वयरी वीटु चिहुं पखे ॥२१५।। रामकृष्ण बेहूं बलवंत, कटक साथि दीसई झूझंत एक सुभट धाइं धसमसइ, एक रण देखिनइं उल्हसइं ॥२१६।। एक कायर देखी कमकमई, कृष्ण पाय आवी एक नमई भागा सुभट सवे अति डंस, युध करई नव केसव कंस ॥२१७॥ वेणिधारीनई कंसह पूठि, वास(सु)देव तव मूकि मूठि कंस भवंतरि पुहतु कीउ, देखी लोक सहू वस कीउ ॥२१८॥* हरि[व]वसुदेव पणमी पाउं, नेहि बोलावइं देवकि माइं नगरलोक चिंतइ ए किसउं, कवण पुरुष कहीइ ए किसिउ ॥२१९॥ गोकुल वृद्धवंत अतिरूप, कहिउं वसुदेवि कान्ह सरूप प्रेतकाज सहू कंसह करई, जीवयिशा अधिकुं दुख धरइ ॥२२०॥ मुझ भरतार हणी दुख सोइ, सूतु सीह जगावीउ सोइ जरासंध मझ मोटउ तात, थोडे दिने करीसइ तुम्ह घात ॥२२१॥ थी(जी)वयशा कोपि इम कही, पीहरि पुहचइ राजगृही जरासिंध आगलि दुख कहइ, रोखता रोती नवि रहइं ॥२२३।। जरासिंध कहइं वछि म रोइ, यादवनइ सुड कीधउं जोइ एहवं वयण सुणी गहगही, जीवयशा पीहरि सुखि रही ॥२२३।। * अहीं १८ नंबर नथी अपायो भूलथी सीधो १८ ने स्थाने १९ छे अने तेने में योग्य क्रमे सुधार्यु छे. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 अनुसंधान-२८ ढाल विवाहलउ मथुरा नगरी मांडीउ वसुदेवि जंग सरूप रे कठपंजरा थिकु तव काढीउं उग्रसेन भूप रे ॥२२४|| जोसी. लगन गणावीउं कान्हु कुमर परणावीइं रे नाचई निरुपम नारीय, अमरीरूप हरावीइं ए ॥२२५।। तलिया तोरण ललकइ, लहकइ ए वन्नर वालि रे घरि घरि हुइ वधामणां, रंग हुइ सवि साल रे ॥२२६।। धवल मंगल सवि सूहवि, गावई निअ मनि रंग रे सत्यभामा सिणगारीअ, सारीअ ऊगटि अंग रे ॥२२७।। श्रीपति भोग पुरंदर, सुंदर अति सुकुमाल रे । गुहिर मृदंग वजावई, गावइ गीत रसाल रे ॥२२८॥* इणि परि सयल महोत्सव, नरवर धरी उत्साह रे केशव सत्यभामा तणउं, मन रंग कीध वीवाह रे ॥२२९।। तव नेमित्तिय आवीउ, पूछइ इसिउं विचार रे जरासंध इम (अम्ह) ऊपर्नु वयरअइ अनिवार [रे] ॥२३०॥ कहइ नैमित्तिय सांभलु, मेली सहि परिवार रे दक्षण दिशि तुम्हि संचलं, लिहिसिउं तु जयजयकार रे ॥२३१।। सत्यभामा प्रसवइ जव, पुत्रयुगल जिणि ठामि रे निरभय यादव सहू मिली, वसज्यो तिणि ठामि रे ॥२३२।। इसिउ सुणी सवि यादव, मेलि कटक बहूत रे छडे पीआणे चालीआ, वीझ गिरिंद पहूत रे ॥२३३।। दूहा जरासिंध हिव सांभली, यादव गया विदेसि कटक सजाई तुं करई, पूठि जावा रेसि ॥२३४॥ * नोंध : २२९ नंबर अपायो नथी. में रही गयेल नंबर सुधारीने मूकेल छे.) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 कालिक सुत इम वीनवई, यादव केही माउ एह काज मझन कहु ए छई थोडी वात ॥ २३५ ॥ जिहां जाइ तिहां थां ( थी) मिली, तिह करूं संहार अहणि पाछउं नवि वलउं, एह प्रतिज्ञा सार ॥ २३६ ॥ कटक लेइनइ चालीउं, व्यंधाचलि आवंत यादव सघले जाणीउ, तस भय अधिक धरंत ॥ २३७॥ तव यादव कुलदेवता, सानधि भाव धरेवि वंध्याचिलगिरि पांखत्ती, चिहिना सहस करेइ ||२३८|| ते परजालि चिहि घणी, डोकरी रूप धरिइ कुलदेवति करुणासरइ, गाढइ रुदन करेइ ॥२३९॥ कटक सहित ( सहित) कालिककुमर, तिहां आविउ पूछेइ संध्यावेला एकला, ए सिउ रुदन करेइ ? ॥२४०|| तुझ आवंता भय थिका बीहना यादव लक्ष चिहि माहे आ सवि बलइ, दीसइ छई परतक्ष ॥ २४९ ॥ हुं केशवनी धावि छउं, मोहि करु विलाप इम कहीन देवता, चिहि माहि दीधी झाप ॥ २४२ ॥ जिहां हुइ तिहांथी काढिवा, चिहि माहि झंपा दीध कालक काल करिउं तिसिहं, काज न पूरिउं सीध ॥ २४३ ॥ दिणयर ऊगिउं जाईउ, चिहि नवि दीसह एक कालक क्षय जाणी करी, नासइ कटकसु छेक ॥२४४ ॥ सूषि (खि) पहूतां यादव सवे, सोरठ देश मज्झारि सत्यभामा सुत जाइंआ, भीरु भीमक सुविचार ॥ २४५ ॥ तिहां अठ्ठमुं तप करी, हरि आराध्य हेव पुण्य प्रभावइ आवीउं, धनद अनोपम देव ॥२४६॥ 79 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 अनुसंधान-२८ सोवनवर आवास घर चउपट पोलि पगार नगरी नामई द्वारिका, कीधी धनदइ सार ॥२४७॥ वस्तु अमरनगरी अमरनगरी तणउं अवतार दीसई धनपति धवलहर . गिरुअ गोगु(मु)ष(ख) भमरी मनोहर देवभूअण घण दीपता, कनक सार प्रकार सुंदर ॥२४८॥ नव बारी निरुपम नगरी, जोयण बार विशाल देवह नीमी द्वारिका, यादव वसइ भूआल ॥२४९।। चउपइ यादव कुल कोटि छपन्न, तेह माहि निवसइ धनधन्न बाहरि तिहां बहुतरि कुल कोडि, यादव वसई नहीं इक खोडि ।।२५०।। केते वरसि गो इक वार, सारथवाहि कहिउं वचार द्वारिका नगरी यादव सुणी, जरासिंधु राई सुधि सुणी ॥२५१॥ पूरव वयरि चिंतइ इसिउं, हजी यादव जीवि ए किसिउं पुत्र जमाई बे मुझ हण्यां, हिव ए सही देवि अवगण्या ॥२५२।। जरासिंध तव थिउं विकराल, दह दिसि कटक मिलई ततकाल एक असुर जिम काल कृतांत, मोडई मूछ महा बलवंत ॥२५३॥ मदबिंभल मयगल माचता, तरल तुरंगम सवि नाचता रथ पायका नवि लहीइ पार, दंडायुध छत्रीसइ अपार ॥२५४॥ पाष(ख)र टोपनई जरह रह नइ जीण, सुभट कोइ नवि दीसइं दीण वाजइ मदनभेरि रणतूर, चालइ कटक समुद्रह पूर ॥२५५॥ वाटइ पर्वत कीजइ चूरि, षे(खे)हाडंबरि छायु सूर शेषनाग पणि न सहइ भार, जाणे धरणे धूजइ थाहर ॥२५६।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 81 छडे पीआणे कटक अपार, पहंतु सोरठ देस मझारि ते जाणी यादव गहगहइ, वैरि पराक्रम नवि सांसहई ॥२५७।। कृष्ण राम नेमीसर नाथ, समुद्रविजय वसुदेवह साथ यादव तणी मिलइ कुल कोडि, दसई दसार सबा(ब)ल नही खोडि ॥२५८॥ साम्हा आवी मंडई झूझ, घणा दि वदतुं प्रगटइ गूझ गयमर कु(कुं)भि करइं एक घाउ, एक वयरी सिरिपर परठिई पाउ ॥२५९॥ कोपि मस्तक विण एक भिडई, झूझंता धरणि तलि पडइं एक भड ऊडइ मोडी मूझ, मयगलनां छेदइ सिरि पूछ ॥२६॥ नागपाश बधई बल बंड, इक त्रोडि नाखइं शतखंड घाय तणउं तिहां न पडई चूक, भड भाजीनइं कीजई चूक ॥२६१॥ यादव अति दीसइ झूझार, जरासिंध तव करीय विचार मेल्ही जरा यादवदल माहि, सुभट सवे छंडाव्या आहि ॥२६२।। यादव कटकि जरा विस्तरी, ततखिणी सुभट पड्या थरहरी इकि वयण भरि छांडइ चीस, कर कंपावई धूणइ सीस ॥२६३॥ धरणि पड्या मुहि मूकई लाल, बोल न बोलइ जाणे बाल विगति न नाण निसिनइ दीस, हयगयनी नवि सुणीइ हीस ॥२६४।। नेमिनाथ नारायण विना, सुभट सहु नाठी चेतना चिंतातुर माधव मन माहि, इहां कहीनी नवि लागइ आहि ॥२६५।। सिउं होसई पूछई जिनराय, नेमिसरि तव कहिउ उपाय पायालि छई प्रतिमा पास, ते.सुर नरनी पूरई आस ॥२६६॥ तेहना पगर्नु आवइ नीर, तुं सवि हुइ निराकुल वीर ते किम आवइ हरि नवि लहइ, वलतु नेमीसर इम कहइ ॥२६७॥ अट्ठम तप करि तुं गोविंद, तप महिमा आवइ धरणिंद अवधिज्ञान करी जाणिसिइ, ते सुर पगथी धोअण आणसइ ॥२६८॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 अनुसंधान-२८ हरि बोलइ ए साचुं मेल, नगर माहि पडसिइ पणि भेल । कहइ नेमि तुम्हि म करु खोह, जरासिंधु दल करिसुं निरोह ॥२६९।। इम कही तप कीआ गोविंद, पुण्यभावि आविउं खा(धर)णंद वात कही ते जलनी इसी, सुरवर बोलइ इम तव हसी ॥२७०॥ काइ कीधु एवडु उपाय, एह जि जिनना उहली (?) खाय काइं न छांटउं सेना सवे, विघन रोग नवि आवइ भवे ॥२७१॥ लाख राय जिणि रुंध्या जोइ, सोइ पुरुष सामान्य न होइ एह वातनुं न लहइ थाय, ते तु कहीइ मूरख राय ॥२७२।। अनंत बल जिनवर देव, चउसट्ठि इंद्र करइ पयसेव विघन सवे दूरइ नीगमइ, रोग शोक नामई उपशमई ॥२७३॥ हरि बोलई अह्मि न लहउ सार, तु सुर आणी आपिउ वारि छाटिउ सेन निराकुल अंग, तु वली सुभट धरइ रणरंग ॥२७४॥ एक निरता वीजोइ वाह, लीधइं टोप अन्नइ सन्नाह बाण तणी धारा धारणी, तिणि वयरी कीधा रेवणी ॥२७५॥ समरभूमि दीसई अति क्रूर, रुधिर नदीना पसरियां पूर जरह जीणनइ त्रूटइ जोड, वीर सवे तिहां पूरई कोड ॥२७६।। समरांगण जोवा सुर मिलई, सिंहनादि तेहूं खलभलइं वेणिधर इक नाखई दूरि, सुभट तिहां मचकोडिआ भूरि ॥२७७|| बिहुं कटक करतां संग्राम, छ मास हुआ जिम रावण राम जरासंध नारायण तेउ, युध करइ हिव साथइ बेउ ॥२७८।। पंचायण परि बिहु बलवंत, विविध परइं दीसई झूझंत मुष्टि धाय पर्वत चूरंति, दंडायुध छत्रीस धरंति ॥२७९॥ ए वयरी दुर्जेय अभंग, जरासिंध चिंतइ मनभंग अगनिझाल झलकंति विशाल, चक्ररयण मूकिउ ततकाल ॥२८०॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 सिर पाखलि परदक्षिण देइ, ते आवी हरि हाथ रहेइ वलतउ तेह जे हरि मूकेइ, प्रति वासुदेव प्राण चूकेइ ||२८१|| चक्र लेइ आविरं तस सीस, पुहती यादव तणी जगीस सुरवर पुष्पवृष्टि तव करइ, बंदण जय जय उच्चरइ ॥ २८२ ॥ वासुदेव नवमउ ए सही, हरखी सुर जाइ इम कही सात रयण ऊपना जिसई, त्रिणि खंड हरि साधइ तिसई ॥२८३॥ देव असुर नवि लोपइ आण, कोडि सिलाधर अधिक पराण सोलि सहस नृप मुकुट धरंति, वासुदेव उलग सारंति ॥ २८४॥ उमावइ गोरी गंधारि अनइ सुसीमा लक्षण नारि सत्यभामा रुक्मणि जंबुवइ, आठि अग्रमहिषी हरि हवइ || २८५ ॥ एवं सहस छत्रीसइ नारि, वासुदेव परणइ सुविचार सांब पजून प्रमुख सुत सार, अऊठ कोडि दुर्दैत कुमार || २८६ ॥ द्वारिकानगरी नव नव रंग, वासुदेव नवमउ अति चंग महामहोत्सव अतिहि उदार, दिनि दिनि यादव जयजयकार ॥२८७॥ जिम जिम वाधई ते कुमर ए-ढाल हिव निरूपम गुण नेमि जिण, समुद्रविजय सुत सार तुं नगर माहि रामति रमइ ए, मेल्हइ राग विकार तुं ॥२८८॥ एक वार भमतुं गयु ए, हरिनी आयुध शाल सधर धनुष सारंग तिहां, चाडावर चउसाल तु ॥ २८९ ॥ गदाचक्र हथीआर सवे, शम्मी मेल्हा नेमि वासुदेव विण कहिं नरिं, न चलई निश्चइ खेम तु ॥ २९०॥ शंखनाद जव पूरीउ ए, थरहरीउ ब्रह्मांड अचल चलइ गिरिवरसिहर, त्रासइ अति बलवंत ॥ २९९ ॥ नाद सुणि नारायणि ए, चंता कीधी चिंतिउ इंद्र किसिउं ए अवतरिउ ए ए नही रूअडी रीति तु ॥ २९२ ॥ 83 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 मुझ टाली पूरि सकइ अ, सबल शंख ए कुंण तु नेमिकुमर जाणी करी अ, हरि चिंतइ मनि खूण तु ॥ २९३ ॥ अनुसंधान- २८ हरि नेमीसर तेडीउंए, बाह नमावइ, बेउ तु कमलनाल जिम बांह हरि तुं, नेमिइ वाली लेउ तु ॥ २९४ ॥ नेमि बाह हरि वालतु ए, माधव वलगु एम तु तरुअर डालि हींचतु ए, कपिवर दीसइ जेम तु ॥ २९५ ॥ अति बल जाणी चतवइ ए, लेसई ए मज्झ राज तु हरिनइ रामि इसिउ कहिइ ए, ए नही राजिं काज तु ॥ २९६ ॥ एक नारि परणइ नहींअ, नेमीसर नीराग तु हरि तेडइ वइसिउं सणी, गिउं अंतेउर अति राग तु ||२९७|| अभिनव रूप अंतेउरीअ, साथ नेमि लेयंतु वनि जाइ तव आवीउ ए, महीयलि मास वसंत तु ॥ २९८ ॥ मुरीयडा सहकार सवि चंपकनइ नारिंग तु कामकुं भमरु ( ? ) रुणझुण ए, चीति धरंतु रंग तु ॥ २९९ ॥ कोइलडी कलिरव करई ए विर[ ही] हीअडां न सुहाइ तु चंदन परिमल महमहइ ए, वा मलयानिल वाइ तु ॥ ३००॥ हरि नारी सवि मोकलीय, खडोखली झीलंति तु सुरहि नीर सींगी भरीयां, नेमीसर छाटंति तु ||३०१|| हावभाव अधिक धरई ए, देउर मनावइ नारि तु नेमिकुमर नीराग मन, पुहचइ नही विकार तु ॥ ३०२ || पाणिग्रहण मानइ नहीय, तव नारीय पभंणति तु देउर एक नारी तणउं ए, तइ निर्वाह वहंति तु ॥ ३०३|| इस्यां वचन बहु बोलीयां ए, नवि बोलइ जिनराय तु मानिउँ मानिउं इम कहीअ, जणाविउं हरिराय तु ॥ ३०४|| Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 उग्रसेन बेटी सगुण, राजीमती सरंग तु नेमि वीवाहनु मेलीउ ए, माडिउ मोटउ जंग तु ॥ ३०५ ॥ उहिव रुअडउ देश ए-ढाल लगन लेई सविचार, सार महोत्सव सवि करई ए सज्जन दीजई मान, गान मनोहर आलविइ ए ॥ ३०६ ॥ नेमिकुमर वर जान, मानव महीअलि त [व] वस्यु अ गयमर चडई कुमार, हार मुकुट सिरि मणहरु ए ||३०७ || चामर ढालइ चउसाल, साल सदा फूल अभिनवउ ए चालइ जान सुचंग तु, रंग हुई वली नव नवु ए ॥ ३०८ ॥ पहुतां तोरण बारि, पसुअ पोकारित तव सुणइ हे सारथि वचन विचार, एह [ - ] न सारही इम सुणइ हे ||३०९ ॥ कटरे लोग अयाण, जाण नही निय मनि इसिउं हे जीव हणिइ नही धर्म, कर्म करि जोउ इ जन इसिउं हे ॥३१०॥ सवि हुं धर्मविचार, तारण जीवदया कहइ हे रुलीया ते संसार, सारदया जे नवि लहई हे ॥ ३११ ॥ दया न जाणइ नाम, ठाम वंच्छि जे सुख तणउ ए ते नर विसआहारि, जीवअ वच्छइं आपणउ हे || ३१२ || अति थाओ करतां रीव, जीव छोडि सवि जिणवरू ए ए संसार असार, सार मार मथिउ सादरू अ ||३१३|| देइ संवत्सर दान, मानव सवि ऊरण करइ रेवइ गिरिवर शृंगि, रंगि संयम सिरि वरइ ए ॥३१४|| चउपन्न दिन कीअ थान, न्यान अनंतु ऊपनुं ए वसुहां विहरइ स्वामि, नामिं नवनिधि संपजइ ए ॥३१५॥ 85 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 अनुसंधान-२८ राग मेघ तोरणि आवीउ वली गयु, सुणीय पसू पोकार रे विरहि दाझइ राणी रायमइ, हीइ हार अंगार रे ॥३१६।। राजलि राणी वीनवइ, मोरा नीठर नाहा रे सुणि न वयण स्वामी सोमलां, न छोडउ तोरी बांह रे ||३१७|| सद्गुण तुं विण दोस दई, ईम दाखि न छेह रे वली वीसारि म वल्हहा, नव भव तणउ नेह रे ॥३१८॥ चंदन चंदन केवडी, नही राजलि रंग रे करई वेदन वली केवडी, नही चंपक चंग रे ॥२१९॥ राजलि केडइं संचरइ गिरनारि नरनइ शृं(सं)गि रे झिरिमिरि वरसइ इच्छइ मेहलउ, घण भीजइ छइ अंग रे ॥३२०॥ जिणवर हाथि चारित्र लीउं, संवेग [रंग] अभंग रे केवलि पामी सिद्धिगइ, हुइ अविचल रंग रे ॥३२१॥ चउपइ बावीसमउं जिणेसर सामि, पाप पडल सवि नासइ नामि द्वारिका नगरी पुहतां जिसिइं, देवे समोसरण कीउ तिसई ॥३२२।। चउसठि इंद्र करई जस सेव, आवई हिव नवमुं वासुदेव अभिगम पंच धरी वंदेइ, जिनवर वाणी अमृत वरसेइ ॥३२३।। देवकिना उत्तम छय पुत्र, जिणवरि हाथि लीउं चारित्र देवकि घरि आव्या वहिरवा, अनुक्रम दीठा ते अभिनवा ॥३२४॥ नेह अधिक उपन्नउं इसिउं, जिन पूच्छई सामि ए किसउं जिन कहइ ए तुझ सुत जूजूआ, सुलसा घरि वृद्धिवंता हूआ ||३२५॥ संवेगी ए संयम लीध, देवकि हीइ विमासण कीध सात पुत्र माहरइ सविवेक, स्तन्यपान न कराविउ एक ||३२६।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 87 अपुत्रीणी छते सुत सात, दुक्ख धरंती दीठी मात हरि आराधई हरिणगमेस, देव कहई सांभलि सविवेक ॥३२७॥ देवकिपुत्र हुसइ अतिसार, चारित्र लेसिइ त्यजी संसार थानकि इम कही गिउ देव, देवकि गर्भ उपन्न हेव ॥३२८॥ पूरे दिने सुत आव्यु जाम, गयसुकुमाल दीउ तसु नाम, वृद्धिवंत गुणवंतु वीर, पुण्यप्रभावइ गुणगंभीर ॥३२९।। राजकन्या नइ विप्रह सुता, सोमशर्म नामि तस पिता करीय महोत्सव माधव सोइ, तव परणाविउ कन्या दोइ ॥३३०॥ समोसरीआ तव श्री जिनराय, भवियण बइसइ पणमीय पाय जिन भाखइ संसार प्रपंच, सुणइ सहू सुर नर तिर्यंच ॥३३१।। जामण मरण दुक्ख भंडार, चिहुं गते कहीइ संसार फिरि फिरि जीव भमिउ बहुवार, भवसायर नवि लाधउ पार ॥३३२।। धनयौवन जे हूंउ जलबिंद, जीवी कृष्णपक्षि जिम चंद राजरिद्धि नइ रमणी रंग, निश्चल जाणे नीर तरंग ॥३३३।। दुलह माणसनुं भव लही, जिणवाणी आराधउ सही दुक्ख तणउ जिम आणी अंत, प्राणी पामउ सुक्ख अनंत ॥३३४॥ इसिउ सुणी जिण वयण रसाल, मनि संवेगी गयसुकुमाल यौवनवय परहरीय बि नारी, कीधउ चारित्र अंगीकार ॥३३५॥ जइ मसाणि ऋषि कासग करइ, ससरु तिहां रीसइ वरइ मस्तकि बाधि माटी पालि, अति अंगारे भरी विचालि ॥३३६।। क्षमावंत मुनिवर चउसाल, धन धन गिरुउ गयसुकुमाल देह दाझतई सघला कर्म, परजाली पामिउ शिवशर्म ॥३३७।। हिव हरि पूछई जिन कहइ वात, द्वारिका नगरीनुं अवदात कोपि कुमर तुझ अवराह, द्वीपायन रिषि करसइ दाह ॥३३८|| Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 हिव हरि मदवंता माधवना पूत, नगरी बाहरि गया बहूत द्विपायन रिषि आकुल कीउ, करीय नीयाणउं व्यंतर हूउ ||३३९।। नगर माहि तपतणउ विभाग, बार वरस नवि लाधउ लाग पुण्य जव समतां होइ, द्वारिकादाह करइ तव सोइ ॥ ३४० ॥ बहु यादव व्रत अंगीकरइ, सयल उपद्रव ते ऊतरइ केता सुर रमणी वर थया, के आराधी शिवपुरी गया ॥ ३४९ ॥ शुभ ध्यानइ वसुदेव कुमार, अणसण लीइ नारी परिवार पुण्य प्रभावइ सुरलोक पहूत, लीला सुख भोगवइ बहूत || ३४२ || अनुसंधान-२८ केसव राम गया वन माहि, तृषा लागीनइ करइ आणाही वनि बलदेव गयउ जल काजि, तव तिहां सूतु केशव राजि || ३४३|| हरि बंधव तिहां जराकुमार, हरिनइ लागु बाण प्रहार जिनभाषित गति पहुतु खेव, देखी शोक धरइ बलदेव ||३४४ || कंधि वहिउं छ मास शरीर, सुर प्रतिबोधि जागीउ वीर नेमि पासि चारित्र आदरइ, निय काया तपि निरमल करइ || ३४५॥ मोह धरइ स्त्री देखी रूप, नगरमाहि नावइं रिखिभूप वनि निवसई मनि नही विकार, सपरिवार आविउं रथकार || ३४६ || मुनिवर तिहां विहरणि आवीउ, भाव धरी तिणि विहराविउ रिषिभ तिहां करतुं सेवना, देखी हरिण धरई भावना ||३४७|| दूहा भावण भावइ हरिणलु, नयणे नीर भरंति मुनि विहरावत करि करी, जउ हुं माणस हुंत ॥ ३४८ ॥ ततखिणि वडतरु अरणी, अधछेदी छइ डाल पवनवेगि उपरि पडी, त्रिहूं पहूतुं काल ॥३४९॥ सूत्रहारनइ हरिणलउं, बलदेव हरिखी राय देवलोकि पंचमि गया, त्रिणिइ पुण्य पसाय || ३५०|| Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 89 मणुअ जनम पामी हुसिइ, सुख अनंत निवास नेमि सीस बलभद्र रिषि, पूरु मनची आस ॥३५१।। ढाल जयमालानी हिव सामी नेमि जिणंद, पय सेवई चउसठि इंद पडिबोही बहु परिवार, हूउं सिद्धि रमणि उरि हार ॥३५२।। धन एह चरीअ विशाल, धन धन जिन धर्म रसाल एह चरीय सुणउं अति चंग, जिम पामु अविहड रंग ॥३५३॥ आंचली श्रीनेमि जिणेसर नामि, नविनधि हुई घरि ठामि श्रीनेमि जिणंद अराहई, तस अलीय विघन सवि जाइ ॥३५४॥ जस नामइ वंछित सिद्धि, जस नामइ, अविहड रिद्धि तस नाम जपु निसदीस, जिम पूजइ मनह जगीस ॥३५५।। तपगछ केरु सिणगार, श्रीलखिमीसागर गणधार श्रीसुमतिसाधूसूरीसीस, श्रीहेमविमलसूरीस ॥३५६।। वर लास नयरि धरि हरिस, सय पन्नर सत्तावन वरिस कुलचरण सुपंडित सीस, कहइ हरखकुल निसिदीस ॥३५७|| धन धन एह चरिय विशाल, धन धन जिन धरम रसाल एह चरीय सुणउ अतिचंग, जिम पामु अविहड रंग ॥३५८॥ इतिश्रीवसुदेवचुपइ राग गुडी सीरोही नगरे भ० श्री श्री श्री श्रीविद्यासागरसूरि आ० श्री श्री श्रीलिखिमीतिलकसूरि शिष्य मुनि कर्मसुंदरेण लिखतं स्वगछ निमत्तं ॥छ।। टी.वी.टावर सामे ड्राइव इन रोड, थलतेज अमदावाद-१५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 कडी. १७ कडी १८ कडी. २० कडी २६ कडी २८ कडी ३० कडी ३१ कड़ी ३१ कडी ३७ कडी ४६ कडी ४६ कडी ४६ कडी ४७ कडी ४७ कडी ५२ कडी ५५ कडी ५६ कडी ५९ कडी ५९ कडी ६२ कडी ७० कडी ७४ कडी ७६ छइ आहि खोह डुंब डीलि विकुवी = खीण == असूजतुं नीआणुं उअरि = मईलउ अघरां शब्दोनी यादी हिमत छे / शक्ति छे. खया = क्षय / नाश वरांसिउ = भ्रांतिमां पडवुं / वहोरावीश. खपे नहि तेवुं तपनुं फळ इच्छवुं उदर / पेटे झूझ गूझ 1= चांडाल / अत्यंज जात वडे दिव्य सामर्थ्यथी उत्पन्न करवुं. थउ छई वि = = डोह उ = पेई सोवन्न सुवर्ण कीसा = शा माटे तणी = ते / तेणे अठमि ससीहर वउलिया = पसार थया भिलई = लडे / कूड = कपट / अंचई कडी ५७ कडी ५८ ऊलंभा = कडी ५८ कूटिउ = मार्यो ठपको = = = - = पेटी मेलुं / दुष्ट गर्भवतीनी ईच्छा / दोहद सांसहिस्यु = सांखीश, सहन करीश थयुं = हवे सीमाहेड = सीमाडो आठमनो चंद्र युद्ध गुह्य - अशोभनीय वचनो कहेवा अनुसंधान - २८ - भांडण लीला Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 91 कडी ७७ ताकीनई = ताकीने कडी ७९ एकंत = एकांत । खानगीमां कडी ८४ करमोचनि = पाणिग्रहण कडी ८४ वसि = वश कडी ८९ दोगंडुक = च्यवे त्यारथी नित्य आनंदमां रहेता देव कडी ९० बिन्ह = बन्नेने कडी ९२ अप्रीसिउं = पीरस्याविना कडी ९३ जिमति = जमती - खातांखातां कडी ९४ ठाय = स्थान कडी ९५ विणसइ = बगडशे कडी ९७ उन्हालउ = उनाळो कडी ९८ तावड तडको/ताप परहीउ= छोड्युं. कडी ९९ विलगीनई लेवी - वळगीने लीधुं कडी १०० शंखाणलई = शंका लावे छे कडी १०७ पोलि = दरवाजो कडी १०९ आपणपुं = पोतानी जात छइ दहुं = बाळे छे कडी ११४ नीठर = नठोर / निष्ठुर नीटोल = साव । नक्की । नका, कडी ११८ प्रेतकाज = मरणोत्तर क्रिया कडी ११९ सखाइ = साथे पालउ = पगे चालतो पुंलई = गयो कडी १२० जीपई = जीते कडी १२१ छबी = अकडीने / स्पर्श करीने कडी १२१ आमला = अभिमान कडी १२४ पेढाल = नगरनुं नाम Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 कडी १२८ कडी १३७ कडी ४० कडी १४३ कडी १४५ कडी १५३ कडी १५८ कडी १६० कडी १६१ कडी १६२ कडी १६२ कडी १६४ कडी १६५ छेह उ = ओ तांह = त्यां वहीलउ भावठि हत्थिणाउरी = हस्तिनापुरी अनीठ = अनंत सादरुं = श्रद्धाथी / ईच्छाथी कडी १७५ कडी १८५ कडी १८५ कडी १८७ कडी १८९ = धूळ = = जासक = घणा ऊगटि = स्नान द्रव्य कणयर = करेण फूल / कांबडी = सोटी सीहलंकी = पातळी कमर इसीए एवी तिलउ = तिलक चउरीसहि सूहवी मदभिभल देउर - दियर विगोइ = कडी १६७ कडी १६८ कडी १६८ वगोवी कडी १६९ उपघात = वध कडी १७० मयगल = हाथी वाई टलइ उल्हाइ = ओलवाय मिल्हइ = मूके खेव = दूर करे / विलंब / तरत पाहरी = पहेरावाळा सिउं मिसिई आउ = वहेलो जंजाळ / मानसिक उपाधि / मुसीबत / दुःख = चोटीमा सौभाग्यवती == www शुं ? मदमस्त / मदिराने वश थयेली वायुथी खराय निमित्ते आयुष्य / भेउं भेद अनुसंधान - २८ = Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 93 कडी १९५ सहिनाणी = ओळखाण कडी २०१ एतां = एटला कडी २०२ शस = शस्त्र कडी २०५ द्रह = धरो । सरोवर कडी २०९ बिह्नई = बन्ने । सई = साथे कडी २१० पहरा = परा / आघा कडी २११ सिउं = साथे, आंकतूल आकडा, रू/शेमर, जेहसिउ = जेथी कडी २१४ पाखलि = पाछळ कडी २१५ वीटु = वीट-हलका / लंपटता भर्या कडी २१५ चिहुं पखे = चारे बाजु कडी २३२ सही = निश्चित कडी २३५ माउ = मात्र कडी २४१ परतक्ष = प्रत्यक्ष कडी २४३ झाप = कूदको । झंपा कडी २४४ तिहांथा = त्यांथी कडी २४८ चउपट = चौटो कडी २४९ पोलि = दरवाजो पगार = प्राकार / किल्लो धनदई = कुबेरे कडी २५५ पाखर = बख्तर कडी २५६ थाहर = स्थान कडी २६० गयमर = गजवर । हाथी कडी २६२ झूझार = भयंकर कडी २६५ आहि = शक्ति । हिंमत कडी २६६ पायालि = पाताळमां कडी २७२ लहई = समज / ओळख कडी २७६ जरह = एक प्रकारनुं बख्तर कडी २७६ जरह जीणनई = बखतरना प्रकारो कडी २८२ जगीस = होंश / अभिलाषा 191911991 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 कडी २८४ कडी २९९ कडी ३०१ कडी ३०७ कड़ी ३१३ कडी ३१४ कडी ३३२ कडी ३७ कडी ३३८ उलग = मुरीयडा खडोखली = क्रीडा माटेनी नानी वाव टोळे मळ्युं / उभरायुं सेवक/विनंति, परदेशमां राजसेवा होर्या तरवयु मार = अडचण सार = सहाय / साचुं / परिणाम ऊरण = ऋणमुक्त जामण = जन्म 113 कासग = काउसग्ग चउसाल = विशाळ सुधारो अनुसन्धान-२७मां पृ. १५ पर एक विधान आ प्रमाणे थयुं छे : "आ पछी पालित्ताचार्य तथा बप्पभट्टसूरिनां नामो आवे छे. अहीं पण एक ऐतिहासिक विसंगति जोवा मळे छे, ते ए के मुरंड राजानो सम्बन्ध बप्पभट्टिसूरि जोडे होवानुं प्रसिद्ध छे, छतां तेनो सम्बन्ध पादलिप्ताचार्य साथै जोडी देवायो छे." अनुसंधान- २८ आ विधान बराबर नथी. मुरंडनो सम्बन्ध खरेखर पादलिप्ताचार्य जोडे ज हतो, ते प्रबन्ध-ग्रन्थो थकी सिद्ध ज छे. सुज्ञ वाचकोने आ सम्पादकीय भूल सुधारी लेवा विज्ञप्ति. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहंगावलोकन मुनि भुवनचन्द्र 'अनुसन्धान' - २६मां एक विशिष्ट कृति प्रकाशित थई छे. ए छे 'रघुवंश' महाकाव्यनी विजयनेमिसूरि रचित संस्कृत टीका. कालिदासनी कृति पर जैनाचार्य टीका रचे ए घटना ज घणाने विलक्षण लागशे, किंतु आवी घटनाओ जैन साहित्यना इतिहासमां अनेक छे. एनी मुख्य विशेषता एनी शैली छे. व्याकरण, अलंकार, छंद जेवा विषयोनो संदर्भ आवी टीकामां होवो स्वाभाविक गणाय, किंतु आ टीकामां धर्मशास्त्रनो संदर्भ मुख्य छे. टीका व्याकरण अने धर्मशास्त्र पर केन्द्रित छे. जैनमार्गसंमत धार्मिक तत्त्वो साथे कालिदासनी कृतिनी तुलना करवानो साभिप्राय प्रयास आमां छे अने ते अर्धदग्ध रीतिए नहीं परंतु तुलनात्मक - समन्वयात्मक गंभीर रीतिए थयो छे. 'भक्ति' नुं स्पष्टीकरण - विवरण ९ पृष्ठोमां पथरायुं छे. हिंसा - अहिंसानो विषय तो मात्र जैन अने वैदिक मतना ज नहीं, मुस्लिम - ख्रिस्ती - पारसी वगेरे धर्मोना धर्मग्रन्थोना संदर्भ टांकीने चर्थ्यो छे. आचार्य श्रीना प्रखर वैदुष्यनी प्रतीति पगले पगले थाय छे. पाणिनीय अने सिद्धहेम- बने व्याकरणो पर टीकाकारनुं प्रभुत्व छे. शब्दकोशोनो उपयोग तो छूटे हाथे कर्यो छे. मात्र शब्दोना अर्थ एकत्र नथी कर्या, उद्धरणो द्वारा तेना अर्थ स्पष्ट कर्या छे. सामान्यतया अपरिचित एवी व्युत्पत्तिओ आमां जोवा मळे छे. 'समुद्र' (पृ. १३), 'प्रसभम्' (पृ. ९१) एवा शब्दो छे. 'आसन' शब्दनी चर्चा (पृ. १६), 'पीतप्रतिबद्ध' जेवा शब्दोनी व्याकरणीय चर्चा (पृ. ९), 'गुरु' शब्दनी व्याख्या (पृ. ५५), 'धातु' शब्दनी समजूतीआ बधुं वांचतां संस्कृतभाषानो प्रेमी 'राजीनो रेड' थई जाय एवं छे. उद्धृत श्लोको, सुभाषितो, शास्त्रपंक्तिओ पाठकनी ज्ञानवृद्धि, रसवृद्धि, संस्कारवृद्धि करे छे. आ बधुं टीकाकारना विपुल शास्त्रावगाहनने इंगित करे छे, साथे साथे विद्यार्थी माटेनी अनुग्रहबुद्धिने पण व्यंजित करे छे. मात्र व्याकरण काव्य कोशादिनुं दृढीकरण ज नहीं विद्यार्थीना अंतरमां शील-संस्कारधर्मना बीज पुष्ट करवानो हेतु पण टीकाकारना मनमां छे ते स्पष्ट जणाई आवे छे. - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 अनुसंधान-२८ सम्पादक नोंधे छे : 'टीकाकारनो मुख्य आशय काव्यविवरणनो न होतां काव्यना आलम्बन द्वारा अहिंसाना परम तत्त्वने निरूपवानो होय एम लागे छे." मारी दृष्टिए टीकारचनानी पाछळ एकथी वधु आशय छे. पंचकाव्यना अभ्यासनी आधुनिक नूतन परिपाटी स्थापित करवी ए कदाच मुख्य हेतु छे. बीजो सुसंभवित हेतु-मारी दृष्टिए - होइ शके ते आ : ब्राह्मण पंडितो द्वारा श्रमण-श्रमणीओ, पठन-पाठन (त्यारे अने आजे पण) चालतुं होय त्यारे तेमना द्वारा जाण्ये-अजाण्ये वैदिक विचारधारा-परंपरानो महिमा थाय - थई जाय - ते बिलकुल स्वाभाविक वात छे. नवासवा जैन श्रमण-श्रमणी तेनाथी प्रभावित थई जाय एवी शक्यता रहे छे. आथी, वैदिक परंपरानी जोडाजोड जैनमार्गसंमत आचार-विचारनी पण जाणकारी तेमनी सामे मूकाती रहे ते रीते पंचकाव्यनी प्रस्तुति करवानो आशय टीकाकारना मनमा रह्यो होय एवी पूरी संभावना छे. ए जे होय ते, आ विशिष्ट टीका छे ते स्वयंस्पष्ट छे, प्राचीन-अर्वाचीन पद्धतिना समन्वयनो आ प्रयास छे अने विजयनेमिसूरिजीना समये पूर जोशथी चालेली विद्याउपासनानी, तेमनी विद्याप्रीति तथा अध्यापनरीतिनी छबी आमां सुरक्षित छे एटलुं चोक्कस. ३० श्लोक सुधी ज टीका रचाई छे. आचार्यश्रीना अति व्यस्त जीवनने कारणे ए अपूर्ण रही होय ए शक्य छे. पृ. १२ पर 'कौमरे' छपायु छे, त्यां 'कौमारे' जोईए. पृ. ६१ ऊपर 'उदारावयव' छे त्यां 'उदरावयवे' जोईए. पृ. ८८ पर 'धातु' शब्दना विविध अर्थो सोदाहरण आप्या छे. त्यां लोह (स्वर्णादि) साथे अने 'ग्रावविकार' साथे अंग्रेजीमां नोंध छे ते आधुनिक रसायणशास्त्र (केमिस्ट्री)नी संज्ञाओ होय एवं लागे छे, छतां आ अंगे कोई तज्ज्ञ चोकसाईथी कही शके. आ संज्ञाओ भूस्तरशास्त्रनी पण होई शके. म. विनयसागर द्वारा मातृका विषयक वधु एक रचना सम्पादित थईने आवी छे. आमां पण 'ज्ञ' वर्णमालामां लीधो नथी, ळ लीधो छे. कवि विद्वत्समाजमां सुप्रसिद्ध छे. प्रथमपरिच्छेदमां चोवीस तीर्थंकरोनी स्तुतिओ छे, द्वितीय परिच्छेदमां ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अग्नि जेवा देवोनी स्तुतिओ छे. जैनमुनि होवा छतां ब्रह्मादिनी स्तुतिना श्लोको रचवामां कविने मुश्केली जणाई नथी. जैनोनी वैचारिक उदारतानुं आ परिणाम छे. श्रीवल्लभोपाध्यायनी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 97 उदार, गुणग्राहक दृष्टि तो उच्च कोटिनी हती ए तथ्य तेमणे रचेला 'विजयदेवमाहात्म्य' ग्रन्थथी सिद्ध थाय छे. पोते खरतरगच्छना होवा छतां तपागच्छाधिपति विजयदेवसूरिना गुणवर्णननो आ ग्रन्थ तेमणे रच्यो हतो. प्रथम परिच्छेदना बीजा श्लोकना बीजा चरणमां एक अक्षर वधु छे, ते कई रीते प्रवेश्यो हशे ए विषय विचारणीय छे, कारण के कवि द्वारा आवी भूल थवी शक्य नथी अने लिपिकार (लहियो) संधि करीने एक वधु शब्द उमेरे ते पण संभवित नथी.श्लो. १४ : ०द्धतां हा' एम छूटुं छपायु छे त्यां 'द्वत्ताहा' एवो समास समजवो जोइए. परिच्छेद २, श्लो. २ : 'ऽऽह तदानव' छे त्यां '०ऽऽहतदानव' एवो समास छे. 'शत्रुजय चैत्य परिपाटिका स्तोत्र' शुद्ध रूपे सम्पादित थयुं छे. रचना सुन्दर, भक्तिरसपूर्ण, गानयोग्य छे. जुदा जुदा समये रचायेली आवी परिपाटीओ गिरिराज पर मन्दिरोनी स्थिति जाणवानुं पण प्रमाणभूत साधन बने. आ कृतिनी हस्तप्रत विशे लेखमां माहिती अपाई नथी. 'नेमराजुललेख' राजीमतीनी विरहव्यथाने नारीसहज तथा लोकभोग्य शैलीमां व्यक्त करे छे. आवां गीत गवाय त्यारे जे असर ऊभी करे ते मात्र वांचवाथी ऊभी न थाय. कडी १७मां 'साधो ते मित्र कहाय' छे. अहीं 'साचो' शब्द स्थानप्राप्त कहेवाय, 'साधो' शब्द अहीं बेसतो नथी. आ लहियानी भूल छे, सम्पादिकाना वाचननी भूल छे के कंप्यूटर ओपरेटर द्वारा थयेली भूल छे तेनो निर्णय सम्बन्धित व्यक्ति करी शके. अघरां शब्दोमां 'रीठ' (कडी १०) पण नोंधवा जेवो हतो. कवि ऋषभदासनी एक अप्रगट रचना आ अंकमां प्रकाश पामे छे. खंभात विस्तारनी तत्कालीन बोली (कविनी अन्य रचनाओमां छे तेवी) आमां पण छे. कविए स्वहस्ते लखेल प्रत परथी सम्पादन थयुं छे, एटले भाषाशास्त्रीओ माटे आ प्रमाणभूत सामग्री गणाय. जैन देरासर नानी खाखर - ३७०४३५ कच्छ, गुजरात Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 अनुसंधान-२८ पत्रचर्चा अनुसन्धान-२७मां छपायेल विहंगावलोकनमां विद्वान् मुनि श्रीभुवनचन्द्रजीए 'सिद्धमातृकास्तव'ना कर्ता श्रीसिद्धसेनसूरिने १५-१६मी सदीना समर्थ यति होवानी सम्भावना 'मरुदेवा' एवा शब्दप्रयोगना आधारे दर्शावी छे. (पृ. ८५) तेमने आ प्रयोगमां 'मारुगूर्जर' प्रभाव जणायो छे. __आ अंगे तपास करतां जाणवा मळे छे के श्रीहेमचन्द्राचार्ये खुदे पण 'त्रिषष्टिशलाकाचरित' मां 'मरुदेवा' शब्दनो प्रयोग कर्यो छे-अनेकवार. दा.त. श्रीकान्तायाः प्रान्तकालेऽजायेतां युग्मधर्मिणौ । नाभिश्च मरुदेवा च, स्त्रीपुंसावभिधानतः ॥२०१॥ (पर्व १, सर्ग २) आथी सिद्धसेनसूरिने १३मा शतकना गणवामां आ प्रयोग बाधारूप बनी न शके. आवो प्रयोग जो 'मारुगूर्जर' प्रभाव बतावतो होय, तो ते प्रभाव हेमचन्द्राचार्य पर पण हशे एम मानवू पडे. वळी, १३मा शतकनी मनाती रचना 'शत्रुञ्जयमाहात्म्य'मां पण 'मरुदेवा' प्रयोग जेवा मळे ज छे. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहिती भाण्डारकरशोधसंस्थान विषे अनुसन्धान-२७मां उपरोक्त शोधसंस्थानमा बनेली दुर्घटना विषे विस्तृत जाणकारी आपवामां आवेली. गत मार्च मासमां अमे पूना हता त्यारे भाण्डारकर संस्थानी मुलाकाते जवानुं बनेलं. त्यांना विद्वानो तथा संचालकोने मळवानुं तेमज तोफानीओ द्वारा थयेला नुकसानने जोवानुं पण बन्यु. नुकसान खासुं हतुं, तो तेनी सामे संस्था प्रत्ये सहानुभूति धरावनार व्यापक वर्ग तरफथी मळेली, दरेक स्वरूपनीसहाय पण अद्भुत अने प्रेरणादायक हती. हस्तप्रतिओने मोटी हानि नहोती थई ते वात खूब शातादायक हती, तो मुद्रित ग्रन्थालयने थयेलुं नुकसान असाधारण गणाय तेवू हतुं. लाखो कार्ड्स ५० वर्षांनी महेनते विद्वानो द्वारा तैयार थयेला, तेनो लगभग सर्वनाश थयो होवा जाणवा मळ्यु, जे दुःखद छे. तमाम तैलचित्रो, कबाटो तथा फर्निचर, कम्प्यूटर इत्यादिनो विनाश थयो. अलबत्त, आ बधुं नुकसान भरपाई थई ज जशे; केमके ते माटे बहारथी पुष्कळ सहाय तेमज सहानुभूति संस्थाने सांपड्यां छे. परन्तु आ बनावनी आडअसररूपे केटलांक विद्याकार्योने कायम माटे रोक लागी गयो छे, जे अत्यन्त दुःखद बाबत छे. १८ वर्ष पूर्वे कोई विद्वान, फक्त संस्कृत शीखवा माटे आ संस्थामां आवे, अने १८ वर्ष बाद ते पोतानु पुस्तक पोताना देशमां छापे, तेमां आ संस्थानो ऋणस्वीकार मात्र करे, अने तेटलामात्रथी ते संस्थाने साम्प्रदायिक जनूनना भोग बनवू पडे, तेना वयोवृद्ध विद्वान, मों मेशथी रंगी नाखवामां आवे, अने ते बधांना परिणामे अनेक विद्याकार्यो उपर असर पडे, आ बधुं सुज्ञ अने सभ्य समाज माटे खरेखर अकल्प्य ज गणाय. आ संस्थानमां चाली रहेखें एक महत्त्वपूर्ण कार्य ते प्राकृत डिक्शनरीनो प्रकल्प छे. सद्गत डॉ. घाटगेना नेतृत्व हेठळ चालु थयेला आ विशाल प्रकल्प, संचालन डॉ. पोद्दार, डॉ. नलिनी जोशी, तथा अन्य विद्वानो द्वारा थई रह्यं छे. आ कार्यने वेग आपे तेवी आर्थिक सहायनी ताती जरूरत हती. तेथी तत्काल ते प्रकल्प माटे पूनाना श्रीसंघे एक लाखनी सहाय आपी, जेनो Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 अनुसंधान-२८ पत्र अत्रे प्रगट करवामां आवे छे. उपरांत, आ रकमनो चेक अर्पण करवानो समारोह, श्रीसंघमन्दिरना उपाश्रयमां, पूज्य आचार्यश्रीविजयसूर्योदयसूरिजीनी निश्रामां, चैत्र शुदि १४ ता. ४-४-२००४ना दिने योजायो, ते समये उपस्थित विशाल श्रावकवृन्दने प्रेरणा करवामां आवतां, आवतां पांच वर्षपर्यन्त दर वर्षे, श्रीसंघ तेमज विविध ज्ञानपिपासु श्रावक गृहस्थो तरफथी कुल एक लाख रुपियानी रकम आ कोश-प्रकल्प माटे, भाण्डारकर-प्रतिष्ठानने भेट आपवानो निर्णय करवामां आव्यो हतो. श्रीसंघे संस्थाने लखेल पत्र आ प्रमाणे छे : श्री गोडी पार्श्वनाथजी टेम्पल ट्रस्ट, पूना ११०ब । १११ गुरुवार पेठ, पूना ४११०४२ फोन : (९१०२०) ४४७४७६७ ता. ३१/३/०४ प्रति, भांडारकर इन्स्टिट्यूट, पूना. मान्यवर, हमारे श्री गोडी पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मन्दिर ट्रस्ट के द्वारा, हमारा श्री जैन संघ, आपके प्रतिष्ठान को रू. १,००,०००/- (एक लाख रुपये) का दान दे रहा है । (चेक नं. ६७७७०६, ता. ३१-३-२००४, बैंक ऑफ इंडिया.) इस रकम का उपयोग आपके प्रतिष्ठान में चल रहे प्राकृत शब्दकोश - कार्य के लिए किया जाय, ऐसी अपेक्षा के साथ यह दान हम दे रहे हैं। हमने सुना है कि इस कोश-कार्य में आर्थिक सहायता की आवश्यकता है, अतः इस रकम का उसी कार्य में उपयोग किया जाय ऐसा हमारा अनुरोध है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 यह रकमका दान हमारे उपकारी जैनाचार्य श्रीविजयसूर्योदयसूरीश्वरजी महाराज व उनके शिष्य जैनाचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरि महाराज की खास प्रेरणा से किया गया है । 101 हमारे जैन मन्दिर - संकुल के अंतर्गत श्री आदिनाथ जैन मन्दिर को इस वर्ष ५० साल पूर्ण होने जा रहे हैं । इस मन्दिरकी स्वर्ण जयन्ती भी हम मना रहे हैं । और इसी उत्सव वर्ष के उपलक्ष्य में यह विद्या कार्य के लिए हम यह रकम भेज रहे हैं। आशा हैं कि आपके कोश- प्रकल्प में इसका समुचित उल्लेख किया जाएगा । श्री गोडी पार्श्वनाथ टेम्पल ट्रस्ट चेअरमन चंदूलाल स्वरूपचंद शाह Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 नवां प्रकाशनो १. प्रतिष्ठा लेख संग्रह (द्वितीय भाग ) सं. म. विनयसागर, प्र. प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर. ई. २००३ (प्रथम संस्करण) ई. १९५३ मां प्रथम भाग प्रकाशित थयेलो, तेनो बीजो भाग ई. २००३मां प्रकाशित थई रह्यो छे, ते आनन्ददायक घटना छे. आ भागमां ७५७ प्रतिमालेखोनो मातबर संग्रह थयो छे. उपरांत अलग अलग सन्दर्भात्मक माहिती धरावतां ७ परिशिष्टो आ ग्रन्थना छेडे आपीने सम्पादके आनी उपादेयतामां खूब वधारो करी आप्यो छे. इतिहास अने संशोधनमां रस धरावनार माटे अमूल्य खजाना जेवो ग्रन्थ. अनुसंधान- २८ २. नलचम्पू और टीकाकार महो. गुणविनय : एक अध्ययन ले. म. विनयसागर, प्र. प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर. (प्रथम संस्करण, ई. २००३) त्रिविक्रम भट्ट कृत नलचम्पूकाव्य तथा गुणविनयकृत तेनी टीका ए बेने प्रधान विषय बनावीने आलेखायेल अध्ययन ग्रन्थ. अभ्यासीओ माटे उपयोगी हिन्दी ग्रन्थ. ३. Hemacandra's PRAMANAMIMAMSA Organ of Knowledge-A Work on JAINA LOGIC [Sanskrit Text in Roman Script with English Translation, Pt. Sukhlalji's Extensive Introduction and Philosophical Notes ] Edited by Nagin J. Shah Published by Gujarat Vidyapith, Ahmedabad 380014 PP. 40 + 456 496 Price. Rs. 450/ 4. साधुमर्यादापट्टकसंग्रह, सं. गणि महाबोधिवि. = A Critique of प्रका. जिनशासन आराधना ट्रस्ट, पाटण (गुजरात) ई. २००४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ July-2004 103 आ पुस्तकमां विविध गच्छनायक आचार्यो द्वारा प्रदत्त मर्यादापट्टकोनो संग्रह छे. बे रचनाओ अत्यन्त अर्वाचीन तेमज सीमित समुदायोने स्पर्शती छे, तेनो समावेश आवा ऐतिहासिक संग्रहमां विचित्र तथा कृतक भासे छे. प्रारम्भे श्रीजगच्चन्द्रसूरिनो लिखित संघादेश पट्टक आपेल छे. संकलनकारना अभिप्राय प्रमाणे आ पट्टक श्रीजगच्चन्द्रसूरिए प्रवर्ताव्यो छे. परन्तु पट्टकनी वाक्यरचना वांचतां एम समजाय छे के अणहिलपाटकमां प्रतिष्ठित श्रीश्रमणसंघे श्रीजगच्चन्द्रसूरि आदिने करेला आदेशरूप आ पट्टक छे. आ पट्टक ऐतिहासिक तो निःशङ्क छे. ५. दिव्य गहन जैन यंत्र मंत्र स्तोत्र (सचित्र-यन्त्र) सं. प्रा. हितेश पण्ड्या प्रका. हर्षदराय हेरिटेज, मुंबई, ई. २००४ भक्तामर, कल्याणमन्दिर, सकलार्हत् - आ त्रण जैन स्तोत्रोनां मन्त्रमय यन्त्रो परम्परामां प्रसिद्ध छे. ते यन्त्रोने साधक शिवानन्द सरस्वतीए नवेसरथी केन्वास पर चित्रांकित कर्यां छे. ते तमाम यन्त्रो आ ग्रन्थमा प्रगट करवामां आव्यां छे. साथे ते ते स्तोत्रोने मूळ पाठ, तेना ऋद्धि-मन्त्रो, गुजराती तथा अंग्रेजी अनुवादो पण प्रकाशित छे. मन्त्र-यन्त्र प्रेमीओ माटे उपयुक्त ग्रन्थ. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________