________________
July-2004
के साथ) सिर्फ प्रवचनसार में ही मिलते है ये ७२% मिलते है जो दूसरे ग्रंथो में नहीं मिलते है । जैसेकि - पडुच्च (प्रतीत्य ) ५०, १३६, उवलब्भ (उपलभ्य ) ८८, पप्पा ( प्राप्य ) ६५, ८३, १६९, १७०, १७५, अभिभूय ( अभिभूय ) ३०, ११७, आसेज्ज (आसाद्य ) ५, १८३, २४३, आसिज्ज (आसाद्य) २०२, आदाय (आदाय) २०७, दिट्ठा (दृष्ट्वा) २५२, २६१
इससे स्पष्ट होता है कि प्रवचनसार की भाषा पूर्वकाल की है । प्रवचनसार में ऊण, -ऊणं प्रत्यय मिलता ही नहीं है जो महाराष्ट्री प्राकृत के प्रत्यय है । इससे स्पष्ट है कि प्रवचनसार प्राचीन कृति है ।
41
शीलप्राभृत में सप्तमी ए. व. के लिए 'आदेहि' (आत्मनि) २७, रूप मिलता है, जो अपभ्रंश का प्रयोग है । प्रवचनसार में अपभ्रंश के ऐसे कोई प्रयोग मिलते नहीं है । इसके सिवाय अपभ्रंश के और भी प्रयोग मिलते हैं । लिंगप्राभृत में प्रथमा विभक्ति एकवचन के यः के लिए 'जो' के बदले में 'जसु' २१' ऐसा प्रयोग मिलता है ।
1
लिंगप्राभृत में विभक्तिरहित प्रयोग भी मिलते है। इर्यावह (इर्यापथम् ) १५, तरुगण (तरुगणम्) १६ जो द्वितीया ए.व.का प्रयोग है । शीलप्राभृत में भी ऐसा प्रयोग प्रथमा ए.व.का मिलता है दम (दम:) १९ जो विभक्ति रहित है ।
-
इसलिए लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणु नामकी ये कृतियाँ न तो कुंदकुंदाचार्य की रचनाएँ है, न पहले थी और न तो उन्होंने उनका संकलन किया है ।
Jain Education International
इस अध्ययन से स्पष्ट है कि इन सब ग्रंथो की रचना कुंदकुंदाचार्य के बाद में की गई है। इन तीनों ग्रंथों और प्रवचनसार की भाषा में बहुत फर्क है और प्रवचनसार की भाषा पुरानी है जबकि अन्य तीनों ग्रंथों में परवर्ती काल के भाषिक रूपों के प्रयोग है जो प्रवचनसार में मिलते ही नहीं है ।
For Private & Personal Use Only
अन्तरराष्ट्रीय जैनविद्या अध्ययन केन्द्र,
गूजरात विद्यापीठ,
अहमदाबाद- ३८००१४
www.jainelibrary.org