________________
30
अनुसंधान-२८
डाबडा २४८ क्र० नं० १२३५७ पत्र १, साईज २५.५ x १२ सी.एम., पंक्ति १६, अक्षर ४६, लेखन अनुमानतः १७वीं शताब्दी, रचना के तत्कालीन समय की लिखित यह शुद्ध प्रति है । १. पार्श्वजिनस्तोत्र - यमकालङ्कार गर्भित है । इसके पद्य १४ हैं। १ से
१३ तक पद्य सुन्दरीछन्द में है और अन्तिम १४वां पद्य इन्द्रवज्रा छन्द में है । कवि ने प्रत्येक श्लोक के प्रत्येक चरण में मध्ययमक का सफलतापूर्वक प्रयोग किया है । उदाहरण के लिए प्रथम पद्य देखिए
जिनवरेन्द्रवरेन्द्रकृतस्तुते, कुरु सुखानि सुखानिरनेनसः ॥ भविजनस्य जनस्यदशर्मदः,
प्रणतलोकतलोकभयापहः ॥१॥ इसमें प्रथम चरण में 'वरेन्द्र-वरेन्द्र' द्वितीय चरण में 'सुखानि सुखानि', तीसरे चरण में 'जनस्य जनस्य' और चौथे चरण में 'तलोक तलोक'
की छटा दर्शनीय है । यही क्रम १३ श्लोकों में प्राप्त है । २. तिमिरीपुरीश्वरश्रीपार्श्वनाथस्तोत्र - यह समस्या-गर्भित स्तोत्र है । कवि ने
तिमिरीपुर स्थान का उल्लेख किया है । यह तिमिरीपुर आज तिंवरी के नाम के प्रसिद्ध है जो जोधपुर से लगभग २५ किलोमीटर दूर है । यह समस्या प्रधान होते हुए भी महाकवि गोस्वामी तुलसीदास के "जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे" के अनुकरण पर कवि की भावाभिव्यक्ति है । प्रभु के प्रातःकाल दर्शन करने पर निर्धन भी धनवान हो जाता है, मूक भी वाचाल हो जाता है, बधिर भी सुनने लगता है, पंगु भी नृत्य करने लगता है और कुरूप भी सौन्दर्यवान हो जाता है । १२ श्लोक है । इसमें कवि ने वसन्ततिलका आदि ७ छन्दों का प्रयोग किया है।
अब दोनों स्तोत्रों का मूल पाठ प्रस्तुत है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org