SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 38 अनुसंधान-२८ लिंगप्राभृत, शीलप्राभृत, बारसअणुपेक्खा और प्रवचनसार में भृ धातु के लिए प्राकृत रूप ‘भव', 'भो', 'हव', 'हो', का प्रयोग किया गया है । इनमें 'भो' का प्रयोग एक भी ग्रंथ में नहीं मिलता है और भव का प्रयोग सिर्फ प्रवचनसार में किया गया है । 'हव' लिंगप्राभृत में एक भी बार प्रयुक्त नहीं हुआ है, शीलप्राभृत में २ बार, बारसअणु. में २१ बार और प्रवचनसार में ४१ बार इसका प्रयोग मिलता है । 'हो' का लिंगप्राभृत में ४ बार, शीलप्राभृत में ६ बार, बारसअणु में १३ बार और प्रवनचसार में १३ बार किया गया है । 'भो', 'भव', रूप पूर्वकाल का है. इसमें 'भव' का प्रयोग सिर्फ प्रवचनसार में ही मिलता है इसलिए प्रवचनसार की भाषा तुलनात्मक दृष्टि से पूर्वकाल की है ऐसा प्रतीत होता है । यय (iii) नपुं. प्र.द्वि.ब.व. के प्रत्यय लिंगप्रा. शीलप्रा. बारसअणु. ० प्रवचनसार -णि و اللہ اس ० ३ ३ कारक प्रत्ययों का विश्लेषण देखे तो लिंगप्राभृत और शीलप्राभृत में - "णि' प्रत्यय मिलता ही नहीं है, जबकि शीलप्राभृत में '-ई' प्रत्यय १००% मिलता है । बारसअणु. में – “णि' प्रत्यय ६६% और '-इं' प्रत्यय ३४% मिलता है, और प्रवचनसार में '-णि' प्रत्यय १००% मिलता है और '-इं' प्रत्यय मिलता ही नहीं है ।। इससे स्पष्ट होता है कि प्रवचनसार में '-इं' प्रत्यय मिलता ही नहीं है जबकि शीलप्राभृत और बारसअणु. में मिलता है, इसलिए ये दो कृतियाँ परवर्ती काल की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520528
Book TitleAnusandhan 2004 07 SrNo 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy