Book Title: Anusandhan 1995 00 SrNo 04
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44020203MAHOKHAK मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ('ठाणंग'सूत्र, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृत भाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संकलनकार : मुनि शीलचन्द्रविजय हरिवल्लभ भायाणी શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद १९९५ THORAKHARKARSHANKSeeeeh. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंग-सुत्त, ४२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृत भाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका संपादक : मुनि शीलचंद्रविजयजी हरिवल्लभ भायाणी HDHDHIRE Moooooo 6000000 -0766 શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अमदावाद Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान : ४ संपर्क : हरिवल्लभ भायाणी २४/२, विमानगर सेटेलाईट रोड, अमदावाद-३८० ०१५ प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अमदावाद, १९९५ किंमत : रू.२५-०० प्राप्तिस्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोळ, अमदावाद-३८० ००१. मुद्रक : कंचनबेन ह. पटेल तेजस प्रिन्टर्स ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-१३ फोन : ४८४३९३ : आर्थिक सौजन्य स्वीकार : साध्वी श्री पुष्पाश्रीजीना शिष्या साध्वी श्री देवेन्द्र श्रीजीना शिष्या साध्वी श्री हर्षप्रभाश्रीजीना शिष्या साध्वी श्री विश्वप्रज्ञाश्रीजीनी प्रेरणाथी कोल्हापूर शाहूपुरी जैन संघ तरफथी, आ प्रकाशनमा आर्थिक सहाय प्राप्त थयेल छे. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन 'अनुसन्धान'नो आ चोथो अंक थाय छे. विद्वद्वर्गमां तथा विचारक अने विद्वान् साधुगणमां आनो शक्य वधु फेलावो तथा उपयोग थाय ते इच्छनीय छे. आथी ज आ अंकमां गत अंको करतां वधु सामग्री आपवामां आवी छे. ___ ऊहापोह ए शोध/अनुसन्धान, चालक बळ छे. कोई पण मुद्दा परत्वे 'आ आम ज छे' एवो एकान्त न सेवतां ते मुद्दा परत्वे मध्यस्थ, समतोल तथा साधार शोध/विमर्श चलाववो तेनुं नाम छे अनुसन्धान. "अनुसन्धान" आ दृष्टिथी प्रगट थती पत्रिका छे. विद्वद्वर्ग तथा विद्वन्मुनिगण आ पत्रिकामां जेटलो रस वधारशे तेटलुं आमां ऊंडाण तथा व्याप वधशे. आ बधुं लक्ष्यमां लईने आ पत्रिका माटे शोध-सामग्री मोकलतां रहेवा शोधकोने नम्र प्रार्थना. -संपादको Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ० 'हीरसौभाग्य'नी स्वोपज्ञवृत्तिमां प्रयुक्त ___तत्कालीन गुजराती-देश्य शब्दो : डॉ. प्रहलाद ग. पटेल 5 ० 'सालिभद्र-धन्ना-चरित्र'ना कर्ता तथा एने. अनुषंगे केटलुंक : जयंत कोठारी ० ट्रॅक नोंध : (१) वाचक उमास्वातिजीना पद्य विशे : मुनि महाबोधिविजय (२) वाचक उमास्वातिजीनुं एक वधु पद्य, (३) धर्मसार, (४) केटलांक प्रसिद्ध पद्योनां समान्तर जूनां स्वरूप, (५) एक गाथाना पाठ विशे, (६) 'तूतीनामा'नां बे जैन चित्रो : पं. शीलचन्द्रविजय गणि 16-23 (७) अपभ्रंश छंद भ्रूवक्रणक, (८) झंबडक-गीत, (९) उद्दाम दंडक छंदनु एक प्राकृत उदाहरण, (१०) बे प्राचीन सुभाषितो उत्तरकालीन साहित्यमां, (११) 'मूलशुद्धिवृत्ति'मानुं एक सुभाषित, (१२) एक कहेवत उक्तिनुं पगेरुं, (१३) 'नीलीराग जैन', (१४) 'सातवाहनक-शास्त्र', (१५) 'पुष्पदूषितक', 'नंदयंती,, 'भद्राभामिनी', : हरिवल्लभ भायाणी 23-33 ० उपधान-प्रतिष्ठा-पञ्चाशक-प्रकरणमः । संपा. पं. पद्युम्नविजयजी गणी 34-38 ० शब्दप्रयोगोनी पगदंडी 39-47 (१) चाउरि, गब्दिका, गर्त : हरिवल्लभ भायाणी (२) प्रा. छेअ- 'अंत, हानि', बगेर ० 'श्री हीरविजयसूरिना चार प्राकृत स्वाध्याय' सं. पं. शीलचन्द्रविजय 48 ० घवळी विशे : खोडीदास परमार ० पूरक नोंध : ह. भायाणी ० प्रकाशन माहिती 86 86 86 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हीरसौभाग्यम्'नी स्वोपज्ञवृत्तिमां प्रयुक्त तत्कालीन गुजराती-देश्य शब्दो डो. प्रह्लाद. ग. पटेल वडनगर 'हीरसौभाग्यम्' संस्कृत महाकाव्यना कर्ता देवविमल गणीजीए तेना पर 'सुखावबोधा' (वि.सं. १६७१) नामे स्वोपज्ञवृत्ति रची छे. ९७४५ श्लोकसंख्याकलेवर धरावती प्रस्तुत वृत्ति-टीका अनेकधा विशिष्ट छे. तेमां बे बाबतो नोंधपात्र छे. एक, टीकाकारे अनेक शास्त्रोमां अवगाहन करी विशाळ संदर्भ सागरमांथी संस्कृत, प्राकृत गुजराती देश्य भाषानां सूक्तिमौक्तिकोनुं चयन कर्यु छे; बीजूं, पोताना समयना केटलाक गुजराती - देश्य भाषाना शब्दोने टीकामां प्रयोज्या छे. सामाजिकता तथा भाषाशास्त्रनी दृष्टिए प्रस्तुत टीका निःशंक रीते अभ्यसनीय कांठा पेडू १.५३ २.४६ ३.४ ३.४ उपकंठे - तटपार्श्वे स्त्रीकटया अग्रेतनप्रदेशः शमी कृष्णलता बन्धूकानि सर्वोत्तममणिः कुटजा गिरिमल्लिकाः छाया शिरसा तृणानामुन्मूलनम् चतुराशी चर्मदण्डः गर्भगेहा अपवरकाः खेजडी कालीवेलि वि(ब)पोरियां नगीनो कुडउ छांहडी माथासिरऊ नींदण चहुटा चाबखो उरडा [5] ३.१७ ३.५५ ४.२६ ४.३२ ४.४९ ४.१४५ ५.१६ ५.४० ५.६१ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाराङ्गना पर्णस्य पुटको भाजनविशेषः तित्तिरः खरकोणः गुलिकाक्षेपणोपकरणम् गुलिका नीडम् चित्रिता उरग - विशेषा खञ्जरीट: वज्रमणि यवन मुण्डली (कपालमाला) गलेहस्तम् चूडामणिः पार्यः कोटराः निष्कुहाः मुकुरिका आदर्शिका कदली रम्भागृहम् दवरिका नीलवर्णसूत्रम् मकर: फलकम् सीमन्तः प्रौढीभूतो वत्सः बूबूदाः लुम्पकाः समीरणः वेत्रिणः शीघ्रम् घटोत्कचः सहेलिका दुंदडो गणेश बन्दूक-हाथनाली सीसागोली मालो चित्रडि गंगेटिउं हीरो पठान तुम्बिली गलोथो चाकः फडसि पोलाडि आरसी केलिहरु दोरी मगरः पाटिउ सईंथो गोधो जलपंपोटा लउका: सुखाय छडीदार उतावलू घटूको [6] ५.६२ ५.८६ ५.८६, ११.१०१ ५.१११ ५.१११ ५.१४० ५.१९६ ६.६५ ६.११० ६.११७ ७.६० ७.६१ ७.६९ ७.८९ ८.३६ ८.३८ ८.३९ ८.६४ ८.१३० ८.१५२ ८.१६ ९. १३ ९.४४ ९.१०५ ९.९२ १०.११ १०.३७ १०.४४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फते विजयः वेणुवंशः ढौकनकानि इक्षु नीलपक्षी चाषः भेरबी भइरव तांव्यू निम्नप्रदेशाः सर्पजातिविशेषाः शिबिका तनूकृतम् पयोभ्रमाः ललाटतिलकम् ऋक्षाः भल्लुकाः कर्णाः शक्तिः आयुधविशेषः खनित्राः चासचूर्णम् अभ्राणि वार्दलानि अभ्रम् अर्क मदनद्रुमः प्रक्षरः माणिक्यपरीक्षकः आदानायितम् प्रतिनादा-शब्दाः अशनशाखिनः पीतसाला खगिणः १०.६४ बासली १०.८३ भिटणा १०.९० सेलडी-गूदगरी १०.१०० नीलवास ११.१०० ११.१०२ कोतरा ११.१०१ चित्रडी ११.११३ पालखी ११.१३६ १२.१८ गवर १२.३७ चांदलो १२.३९ रीछ १२.३१ काना १३.२० सांगि १२.१२२ कुदाला (कोदाला १४-२३८) १३.१७६ अबीर, १३.७८ आभलां १३.७९ वादलु १३.१२३ आकडो १३.११३ १४.५१ पाखर १४.६२ जवहरी १४.६४ अणाव्यु १४.८४ पडच्छन्दा १४.१४० वीउ १४.२२० गांडो सावज १४.२४३ दीपडा १४.२४३ मीढलु द्वीपिनः [7] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेस वेढवीटी कोठारी सोनइयाइ वागिड उवरो रूपया दाण जकाति सोणइयो - दीनार पणि पुंठि शेषा प्रसादम् साक्षरांगुली मुद्रा धान्यकोष्ठाध्यक्षः सौवर्णटंकाः सामान्यनृपः सामान्यनृपः यवनानाम् रूप्यटका शुल्कम् सुवर्णटंकाः न्यासः निक्षेपः पृष्ठे बलाकाः खद्योतः तलहट्टिका परिसस्भूमिः शिबिका आहूतः अश्वतराः जलकेलि(जलमध्ये प्रवेशः) अधिरोहणिका प्रकरः छायिका चतुरिका चतुष्कम् प्रासादाग्रेतनभूमिका क्षिरिका लघुदेवगृहम् अचलाः (पर्वतशिखराणि) निम्ब पिचुमन्दः बगला खज्जऊ तलहटी पालखी निहोत्रो खचरः डबकि नीसरणी पगर छाहडा चउरी चौक चउक रायणि १४.२४५ १४.२५४ १४.२५७ १४.२५७ १४.२६९ १४.२६१ १४.२६३ १४.२८ १४.२८ १४.२८१ १५.२४ १५.६१ १५.६८ १६.२ १६.९ १६.११ १६.१८ १६.२१ १६.२९ १६.३४ १६.३४ १६.४८ १६.५५ १६.९६ १६.९५ देहरी १६.९५ टुंक १६.१३६ १७.२४ नींबडा [8] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुं म उघाडीश १७.४३ त्वं मोद्घाटयेः त्वं मा विकाशीकुर्याः चक्रम् पूगानि पइडु सोपारी देहरासर खंभाति टील कालिया वडा कथीपो गृहचैत्यानि स्तंभतीर्थम् शलभा ऊर्णनाभाः जालकारकाः कथीपका मण्डपिका देवगृहे वाद्यविशेष घण्टिका । अगरुद्रवः आम्रमञ्जरी प्राभृतम् उपदा बकुलाः केसराः १७.७२ १७.८० १७.११ १७.११० १७.१३४ १७.१३ १७.१७१ १७.१७१ १७.१७ १७.१८ १७.१८ १७.१९ १७.१९ मांडवो घांट चूओ मउर बउलसिरी [9] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सालिभद्र-धन्ना-चरित'ना कर्ता तथा एने अनुषंगे केटलुक जयंत कोठारी 'सालिभद्र-धन्ना-चरित'ना कर्ता। अर्नेस्ट बेन्डरे 'सालिभद्र-धन्ना-चरित' संपादित करी प्रगट करेल छे (अमेरिकन ओरिएन्टल सोसायटी, न्यू हेवन, कनेक्टिकट, १९९२) अने एना कर्ता मतिसार होवा- एमणे जणाव्युं छे. आ हकीकत यथार्थ जणाती नथी. . कृतिमां कर्तृत्वनिर्देशक पंक्तिओ आ प्रमाणे छ : श्री जिनसिंहसूरि-सीस मतिसारइ, भवियणनइ उपगारइ जी, श्री जिनराजवचन अनुसारइ, चरित काउ सुविचारइ जी. (२९.९) अहीं 'मतिसार'ने कर्तानाम लेखवानुं अने 'जिनराज'ने 'जिनदेव'ना अर्थमां लेवानुं सहज छे. पण 'जैन गूर्जर कविओ'मां आ कृति प्रथम मतिसारने नामे मूकी, पछीथी जिनराजसूरिनी गणी छे (जुओ बीजी आवृत्ति, भा.३, पृ.१००-१४) अने अगरचंद नाहटाए एने 'जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि' (प्रका. सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टिट्यूट, बीकानेर, वि.सं.२०१०)मां प्रगट करी छे. आ हकीकतो लक्षमां लई बेन्डरे, ओछामां ओछु, कर्तृत्वना प्रश्ननी चर्चा करवी जोईती हती, जे थई नथी ए जरा आश्चर्यजनक लागे छे. एमने 'जैन गूर्जर कविओ'नी बन्ने आवृत्तिओनी खबर छे पण एमणे संदर्भ आप्यो छे पहेली आवृत्तिना पहेला भागनो ज, ज्यां कृति मतिसारने नामे मुकायेली छे. पाछळथी थयेली सुधारणा एमणे ध्यानमां नथी लीधी अने बीजी आवृत्तिनो तो लाभ ज लीधो नथी. एमणे कर्ता- नाम केटलीक हस्तप्रतोमां मतिसागर मळे छे एनी नोंध लीधी छे, पण कर्तृत्वना प्रश्नने छेड्यो नथी. ___ 'जैन गूर्जर कविओ'मां पहेलां मतिसारने मूकवामां आवेली कृति पाछळथी जिनसिंहसूरिशिष्य जिनराजसूरिने नामे फेरववामां आवी तेमां बे हस्तप्रतोनी पुष्पिकाओ कारणभूत छे. ए बे पुष्पिकाओ आ प्रमाणे छ : ___ (७२) बोहित्थ वंशीयावतंसीयमान... जंगम युगप्रधान श्री जिनराजसूरिभिर्विरचयांचक्रे साह धर्मसी धारलदेवी पुत्र रत्न साह गेहाख्या भ्रातुरभ्यर्थनया... सं.१६८८ वर्षे पंडित ज्ञानमूर्ति लिखित फागण सुदि १४ [10] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिने शुभं भवतु श्री जालोर मध्ये. डाह्याभाई वकील, सुरतनी प्रत. (बी. आ., भा.२, पृ.१०६) (८५) बोहित्थवंसीयावतंसीयमान ... युगप्रधान श्री जिनगजसूरिभिः रचयांचके साहाणहाख्य स्वभ्रातुरभ्यर्थनया... वि. सं. १८१८ वर्षे शाके प्रवर्तमाने ज्येष्ट सुदि ६ शनौ वासरे वणोदनगर मध्ये... सकलप्रवरपंडित श्री पुन्यविजय शि. रत्नविजयगणि शि. लालविजयेन. गारियाधार भंडारनी प्रत. (बी. आ., भा.२, पृ.१०७) - आ पुष्पिकाओमां कृति जिनराजसूरिए रची होवानुं स्पष्ट रीते कहेवामां आव्युं छे. तेमांये पहेली क्रमांक ७२नी पुष्पिकावाळी प्रत तो सं. १६८८मां एटले कृतिरचना पछी दश वर्षे ज अने जिनराजसूरिना जीवनकाळमां (एमनो जन्म सं.१६४७, दीक्षा सं. १६५६, आचार्यपद सं. १६७४, स्व. सं. १६९९) लखायेली छे. एणे आपेली माहितीने आधारभूत न मानवा माटे कशुं कारण नथी. बीजी क्रमांक ८५नी प्रत, अलबत्त, आ प्रत परथी ज तैयार थई लागे छे. कृति जिनराजसूरिनी रचना होवानुं कृतिमांना केटलाक उल्लेखो पण बतावे छे. कृतिमां आ नोंधना आरंभे उद्धृत करेली कर्ताना नामवाळी पंक्तिओ सिवाय दश स्थाने 'जिनराज' शब्द आवेलो छे. बेन्डरे तो बधां स्थान परत्वे जिन भगवान महावीरनो अर्थ ज शब्दकोशमां नोंध्यो छे. पण खरेखर एम नथी. थोडेक स्थाने 'जिनराज ' शब्द जरूर भगवान महावीरने निर्देशे छे (केमके आ कथामां से एक पात्र तरीके आवे छे), परंतु थोडेक स्थाने मात्र जिनेश्वरदेव एवो अर्थ छे ने बेएक स्थाने तो ए कर्तानामनो निर्देशक शब्द होय एवं मानवुं पडे तेवुं छे. जुओ: हिव जिण परि धन्नउ आवइ, ते पिण जिनराज सुणावइ. (१७.२४) शालिभद्रवृत्तांतमांथी धन्नाना वृत्तांत तरफ वळतां आ पंक्ति आवे छे. देखीती रीते ज एनो अर्थ छे : हवे जे रीते धन्नो (कथामां) दाखल थाय छे ते पण जिनराज ( एटले कवि) संभळावे छे. बेन्डरे "Now Dhanna enters (the story ), according to the version of the Jinaraja.” [11] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवो अनुवाद आप्यो छे, पण 'the Jinaraja' द्वारा एमने शुं अभिप्रेत हशे ते कही शकातुं नथी. जो भगवान महावीर अभिप्रेत होय तो ते योग्य नथी केमके अहीं ए कंई कथा कहेनार नथी. सुतविरहइ दुख मातनउ जी, कहि न सकइ कविराज, जाणइ पुत्रवियोगिणी जी, इम जंपइ जिनराज रे. (२३.१५) अहीं पण अर्थ स्पष्ट छे : माताने पुत्रना विरहे जे दुःख थाय छे ते कोई कवि न कही शके, ए तो पुत्रवियोगिनी माता ज जाणे - एम जिनराज (कवि) कहे छे. अहीं पण बेन्डर “so says the Jinaraja' एम अनुवाद करे छे एमां अस्पष्टता रहे छे. भगवान महावीरनो निर्देश तो संभवित नथी ज. ___ केटलेक स्थाने देखीतो 'जिनदेव'नो अर्थ होय तोपण 'जिनराज' शब्दमां कविए श्लेषथी पोतानु नाम गूंथ्युं होय ए संभवित छे. जिनराजसूरिना एक 'शालिभद्र गीत' (जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि, पृ.६८-७०)ना केटलाक उद्गारो 'सालिभद्र-धन्ना-चरित मां ए ज शब्द रूपे मळे छे ए हकीकत पण 'सालिभद्र-धन्ना-चरित' जिनराजसूरिनी रचना होवानी वातने समर्थित करे छे. जुओ : शालिभद्र गीत : जाणइ पुत्रविजोगणी जी, जे दुःख कवि न कहाइ. छाती लागी फाटिवा जी, नयणे नीरप्रवाह. हरख न दीधउ हालरउ जी, वहूअ न पाडी पाइ, ते वांझणि होई छूटिस्यइ जी, हुं किम गान गिणाइ. १३ साल तणी परि सालस्यइ जी, ए मुझ अहीठाण. सालिभद्र-धन्ना-चरित्र : छाती लागी फाटिवा जी, नयणे नीरप्रवाह रे. [12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरखि न दीधउ हालिरउ जी, बहूअ न पाडी पाइ, तो वांझणि हुइ छूटिस्यइ जी, हुँ किणि गानि गिणाइ रे. ३ सुतविरहइ दुःख मातनउ जी, कहि न सकइ कविराज, जाणइ पुत्रवियोगिणी जी... (ढाळ २३मी) तपास करतां जिनराजसूरिनी अन्य कृतिओना उद्गारो पण 'सालिभद्रधन्ना-चरित'मां मळी आववा संभव छे. कोयडो कर्तृत्वनिर्देशक पंक्तिओना अर्थघटननो, छेवटे, रहे छे. जिनराजे चरित कह्यु एम नहीं, पण जिनराजना वचनने अनुसरीने जिनसिंहसूरिशिष्य मतिसारे चरित कयुं छे एवी वाक्यरचना एमां देखाय छे. अहीं ए हकीकत तरफ ध्यान दोरवू जोईए के मध्यकाळमां 'मतिसार' ए शब्द 'मति अनुसार, बुद्धि अनुसार' एवा अर्थमां वारंवार वपरायेलो मळे छे. जिनराजसूरिए ज पोतानी बीजी कृति 'गजसुकुमाल महामुनि चोपई'मां ए शब्द ए अर्थमां वापर्यो ज छे : श्री जिणसिंधसूरि गुणधारा, खरतरगच्छ उदारा बे. श्री जिनराज तासु परभावइ, इणि विधि मुनिगुण गावइ बे. ए संबंध सदा सांभलिस्यइ, तासु मनोरथ फलस्यइ बे. आठमइ अंग तणइ अणुसारइ, जोडि रची मतिसारइ बे. (३०, १३-१६) तो पछी, 'श्री जिनराज-वचन अनुसारइ'- अर्थधटन पण, उपरनां प्रमाणोने लक्षमां लई कृति जिनराजसूरिनी छे एम मानीने करवं जोईए. एमां जिनराज एटले जिनेश्वरदेव एवो अर्थ प्राथमिक रीते लई शकाय - 'जिनेश्वरदेवना [13] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचनने अनुसरीने धर्मबोधनी आ कथा कहेवामां आवी छे' - परंतु एमां श्लेषथी कविए पोतानुं नाम गूंथ्युं छे एम मानवं जोईए. मतिसार 'मतिसार' शब्द 'मति अनुसार, बुद्धि अनुसार'ना अर्थमां वपरातो होवानो एक दाखलो उपर आप्यो छे. 'जैन गूर्जर कविओ'नां पानां फेरवतां बीजा घणा दाखला मळी आवे तेम छे. एक वधु दाखलो नोंधीए : मि माहारी मतिसार कीधो, सेवी पंडितपाइ जी.. (ऋषभदासकृत 'समक्तिसार रास', जै.गू.क., बी.आ., ३,४५, 'मतिसार'ने कर्तानाम मानी लेवानी भूल थई गयाना पण बीजा दाखला जडे छे, जेमके, जिनवर्धमाननी 'धन्नाऋषि चोपाई' नीचेनी पंक्तिने कारणे पहेलां मतिसारने नामे मुकायेली : ए संबंध रच्यो मतिसारै,स नवम अंग अणुंसारै जी. परंतु एमां आगळनी पंक्तिमां कर्तानाम स्पष्ट छे अने उपरनी पंक्ति एना अनुसंधानमां ज वांचवानी छ : तस शिष्य जिनवधमान जगीसै, आसो सुदि छठि दिवसैजी, संवत सत्तर दाहोत्तर वरसै, खंभाइत मन हरसैंजी, ए संबंध रच्यो मतिसा..... पछीथी, आ कारणे, कृतिने जिनवर्धमाननी गणवानी थई. (जुओ जैन गूर्जर कविओ, बी.आ., ४,१६९-७०) ___जैन गूर्जर कविओ'मां मतिसारने नामे बे कृतिओ मूकी ए कर्तानाम खएं होवा विशे संशय दर्शाववामां आव्यो छे. (बी.आ., ३, ३३६,३७) ने एमांनी एक कृति 'चंदराजा चोपाई' करमचंदने नामे मळे छे जेमा 'मतिसारइ मइ कीउ प्रबंध' एवी पंक्ति आवे छे. ('बे कर जोडी कहे करमचंद' एवी पंक्ति पण छे ज.) श्लोकसंख्या ६५६ ने ६९६ पण मळती ज कहेवाय. बीजी कृति 'गुणधर्म रास'नी आवी चावी मळती नथी, पण एमांये भूल थई होवानी शंका निराधार नथी. [14] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिसारने नामे 'कर्पूरमंजरी' एक जाणीती रचना छे. एमां बीजुं कोई नाम मळतुं नथी. परंतु ए अज्ञातनामा कविनी रचना होय अने 'बोलइ कवि पंडित मतिसार मां ‘मतिसार' शब्द 'मति अनुसार ना अर्थमां होय एवो संभव साव नकारी न शकाय. आवो संभव विचारवानुं कारण ए छे के आवां थोडां शंकास्पद स्थानो सिवाय ‘मतिसार' एवं नाम ज क्याय मळ्तुं नथी. सार वस्तुतः मध्यकाळमां 'सार' शब्द 'अनुसार'ना अर्थमां व्यापक रीते प्रयोजायेलो जोवा मळे छे. जेमके, श्री गुरुवयण सुणी बुद्धिसार, सीमंधर जिन गायो. (जै.गू.क., बी. आ., ४, ६६) 'बुद्धिसार' एटले बुद्धि अनुसार. सत्तरि कम्मविचारं कहियं रिषि कुंभ सुयसारं. (जै.गू.क., बी.आ., १, ३०५) 'सुयसारं' एटले सूत्र अनुसार, शास्त्रानुसार. सारइः अनुसार 'मनसा-सारइ' (गुजराती भाषानुं ऐतिहासिक व्याकरण, हरिवल्लभ भायाणी, पृ.२००) 'मनसा-सारई' एटले मनीषा अनुसार, इच्छा मुजब. पाप कीयां तइं तिहां घणां, जनकभवनि दिनराति रे, पहिलं दुःख पाम्युं तिणइ, बीबा-सार भाति रे. २६.३ (राजसिंहकृत 'आरामशोभाचरित्र', आरामशोभा रासमाळा, संपा. जयंत कोठारी, पृ.२२३) 'बीबा-सारु भाति' एटले बीबा अनुसार, बीबा प्रमाणे भात पडे छे. घर-सार आपई दाति ए. ९६ (विनयसमुद्रकृत 'आरामशोभाचोपाई', एजन, पृ.१२२) अर्थ छे : घर अनुसार, घर प्रमाणे, घरने शोभतो ए करियावर आपे छे. ___ निज घर-सारं मोकलउ. ५.दू.२ (जिनहर्षकृत 'आरामशोभारास', एजन, पृ.२३५) अर्थ छे : पोताना घर अनुसार, घरने शोभतुं (भातुं) मोकलो. । [15] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढूंकनोंध वाचक उमास्वातिजीना पद्य विशे अनुसन्धान-३मां "त्रण मूल्यवान पद्यो"-नोंध वांची. तेना संदर्भमां - अमारा द्वारा वर्तमानमां संपादनाधीन 'मोहोन्मूलनवादस्थल' ग्रन्थ (र. सं. १३मा शतकनो उत्तरार्ध, कर्ता आ. अजितदेवसूरिजी)मां पण वा. श्रीउमास्वातिजीचं ते पद्य आ प्रमाणे प्राप्त छ : "रूप्यकञ्चोलकस्थेन शुचिना मधुसर्पिषा ।। नेत्रोन्मीलनं(नकं) कुर्यात् सूरिः स्वर्णशलाकया ॥" वळी, आ पद्य, थोडाक परिवर्तन साथे, 'कल्याणकलिका-भाग २' (कर्ता : पं. कल्याणविजयजी)नी प्रस्तावनामां पण मुद्रित छे. त्यां "शुद्धेन" तथा 'नयनोन्मीलनं' एम पाठ छे. वधुमां, 'मोहोन्मूलनवादस्थल'मां श्री उमास्वातिजी तथा श्री हरिभद्रसूरिजी - ए बन्ने पूज्योए 'प्रतिष्ठाकल्प' रच्या होवानो स्पष्ट उल्लेख मळे छे. उपरांत, ___ "स्थविरावलिकापठितार्यसमुद्राचार्य-निशीथादिच्छेदग्रन्थ-स्थानस्थानसूचितपादलिप्ताचार्यादिकृतप्रतिष्ठाकल्पाः" एवो पाठ पण छे, जेथी आर्य समुद्राचार्ये प्रतिष्ठाकल्प रच्यो होवानी कल्पना पण यथार्थ ठरे छे. प्रतिष्ठाकल्पगत बीजी पण केटलीक गाथाओ 'मोहोन्मूलन' मां मळी आवे छे, ते अत्रे रजू करवानी लालच रोकी शकतो नथी. कुल सात गाथाओ प्राप्त छे. तेमां पहेली गाथा श्री हरिभद्रसूरिरचित प्रतिष्ठाकल्पगत होवानो उल्लेख छे. बाकीनी तमाम - ६ गाथाओ तथा अज्ञातकर्तृक छे. छतां ते पैकी २-३ पद्यो एक कर्तानां छे, अने ४-५-६ पद्यो पण एककर्तृक छे. गाथाओ आ प्रमाणे छे :विहिवयणं च पमाणं सुट्टत्तं जेण ठावणा गुरुणा । . कज्जा जिणबिंबाणं तं च सविसयं हवइ करणे ॥१॥ तो इटुंसे पत्ते हेमसलागाए मंतविहिपुव्वं । जिणनेत्तुम्मीलणयं करेज्ज वनेनिसं (वन्नन्नसं?) तत्थ ॥२॥ [16] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छी-निलाड-संधिसु हियए चिय सिरिपयाइए वन्ने । रययस्स वट्टियाए गहियमहू थिरमणो सूरी ॥३॥" "अहिवासणवेलाए जं ढुक्कइ किंचि वेहिमज्झम्मि । भक्खं तं गुरुसक्खं सेसं देवस्स बितेगे ॥४॥ अह कहवि बिंबसिप्पी हविज्ज पासम्मि तत्थ ठवणाए । ता रित्थाइ वि मुत्तुं सेसद्धं दिज्ज तस्सावि ॥५॥ रित्थं वत्थं कंसाइयं च तइया जिणेण जं लद्धं । तं तस्स होइ सक्खं तेण गुरू तं न गिण्हिज्जा ॥६॥" "न्हाओ विलित्तओ चंदणिण गंधसुगंधिय देहु । परिहाविओ सिवदसज्जणु बहुगुणरयणह गेहु ॥७॥" आ गाथाओ जोतां (१ थी ६ प्राकृतमां, ७मी अपभ्रंशमां) आ बधा प्रतिष्ठकल्पो (आर्य समुद्राचार्यनो पण) प्राकृतमा होवानी अटकळ करी शकाय. - मुनि महाबोधिविजय वाचक उमास्वातिजी- एक वधु पद्य उत्तराध्ययनसूत्रना १०मा “द्रुमपत्रक" अध्ययननी गाथा १नी वृत्तिओमां एक पद्य उद्धृत थयेलुं जोवा मळे छे. पाइय टीका (शान्त्याचार्य-कृत)मां तेनुं अवतरण आ रीते थयुं छे : "तथा चैतदनुवादिना वाचकेनावाचिपरिभवसि किमिति लोकं जरसा परिजर्जरीकृतशरीरम् । अचिरात् त्वमपि भविष्यसि, यौवनगर्वं किमुद्वहसि ?॥" श्री भावविजयकृत वृत्तिमां "तथा चोक्तं वाचकमुख्यैः" आम कहीने उपरनुं पद्य अवतायुं छे. “वाचक' के “वाचकमुख्य" शब्द उमास्वातिजी सिवाय क्यांय कोईने माटे प्रयोजायो नथी, एटले अहीं अवतरणकारोना मनमा “उमास्वाति" ज अभिप्रेत ठे तेम निःशंक मानी शकाय. हवे, उमास्वातिवाचकनी प्राप्त रचनाओमां आ पद्य जोवा मळ्तुं नथी. तेथी एम जपाय छे के एमना अप्राप्त कोई प्रकरणनुं आ पद्य हशे. आ प्रकरण "शान्त्याचार्य"ना समयमा विद्यमान उपलब्ध होवू जोईए एम पण अनुमान क उचित लागे छे. भावविजयजीए तो मात्र पूर्वजोनुं अनुसरण ज कयुं जपाय छे. [17] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) 'धर्मसार श्री हरिभद्रसूरि महाराजे १४४४ प्रकरणो रच्यां होवार्नु परंपरामां विश्रुत छे. तेओना जे ग्रंथो प्राप्त छे तेनी सूचि विविध ग्रंथकारोए आपेली छे. दा.त. 'गणधरसार्धशतक', 'प्रबन्धकोश' इत्यादि. आ सूचिओमां पण नहि नोंधायेली तेमनी एक कृतिनो नामोल्लेख तथा तेमांना एक वाक्य- अवतरण श्रीदेवेन्द्रसूरि (१३-१४मो शतक) रचित 'स्वोपज्ञ षडशीतिकर्मग्रन्थ-टीका मां प्राप्त थाय छे, जेना प्रत्ये अभ्यासीओ, ध्यान गयुं जणातुं नथी. मुनिश्री चतुरविजयजी द्वारा संपादित ते ग्रंथ (मु. ई. १९३४)ना पृ. १६१ पर (गा.२९नी टीका) आ प्रमाणे अवतरण छे : "यदाह धर्मसारमूलटीकायां भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिः मनोवचसी तदा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात् ॥" मूलटीकानो अर्थ सामान्यतः स्वोपज्ञ टीका करवो उचित जणाय छे. तेथी हरिभद्रसूरिजीए 'धर्मसार' नामे प्रकरण अने ते पर मूलटीकानी रचना करी होवानुं मानीए तो असंगत नथी. ___ 'योगशतक' (हरिभद्रसूरिकृत)मां पण 'धर्मसार'नो उल्लेख प्राप्त छे. परंतु, छेक १४मा शतकमां पण तेनुं अस्तित्व होय,-केम के तो ज देवेन्द्रसूरि महाराज तेनो संदर्भ उद्धृत करी शक्या होय - अने छतां ते पूर्वना के पछीना सूचिकारोए के कोईए तेनी नोंध न लीधी, ते जरा विचित्र तो लागे ज. केटलांक प्रसिद्ध पद्योनां समान्तर जूनां स्वरूप १. धर्मलाभ इति प्रोक्ते, दूरादुद्धृतपाणये । सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटि नराधिपः ॥ (नवू) 'प्रभावकचरित', सिंघी ग्रंथमाला, पृ. ५६) धम्मलाभो ति वुत्तम्मि दूरादुस्सियपाणिणो । साहुणो सिद्धसेणस्स देइ कोडि निवाहिवो ॥ (जुनू) ('प्रबन्धचतुष्टय', हेमचन्द्राचार्य निधि, पृ. ८१) [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. स्फुरन्ति वादिखद्योताः साम्प्रतं दक्षिणापथे । नूनमस्तंगतो वादी सिद्धसेनो दिवाकरः ॥ (नवू) (प्रभा. च. पृ. ६१) गजंति वाइखज्जोआ संपयं दक्खिणावहे । नूणमत्थंगओ वाई सिद्धसेणदिवायरो ॥ (जूनूं) (पब्र. च. पृ. ८२) ३. जे चारित्रे निरमला, जे पंचानन सिंह । विषयकषाय न गंजिया, ते प्रणमुं निशदीह ॥ (नवू) (प्रातः प्रतिक्रमणवेळा बोलातो दूहो) (कुंडलिया) जे चारित्तिहिं निम्मला, ते पंचायण सीह । विसय-कसाइंहिं गंजिया, ताहं फुसिज्जइ लीह || ताहं फसिज्जइ लीह इत्थ ते तुल्ल सीआलह ते पुण विसयपिसायछलिय गय करणिहिं बालह ॥ ते पंचायण सीह सत्ति उज्जल नियकित्तिहिं ते नियकुलनहयलमयंक निम्मल चारित्तिहिं ॥ (जून) (प्रभा. च., पृ. १००) नोंध : क्र. १ अने २मां नोंघेल जूनां पद्यो प्रब.च.नी प्रकाशित आवृत्तिमा परिशिष्टमां मूकेल "कहावलि (भद्रेश्वरसूरिकृत)"मांथी लीधेल छे. वधुमां, "जीर्णे भोजनमात्रेयः" ए प्रसिद्ध पद्य 'आवश्यक-चूर्णि'गत प्राकृत मूल स्वरूप (जुओ अनुसन्धान-१, पृ.७; १९९३) त्रुटित रूपे 'प्रबन्धचतुष्टय'ना परिशिष्टरूपे मुद्रित 'कहावलिना अंश'मां पण - 'पंचालो थीसु मद्दवं' (पृ. ९७) मळे छे. तेम ज पद्य क्र. २ (नवू)नो त्रुटित भाग “गतो वादी, सिद्धसेनदिवाकरः"-ए 'प्रबन्ध-चतुष्टय'मां प्राप्त थाय छे. एक गाथाना पाठ विशे जैन श्रमणसंघमां पर्युषणना दिवसोमां 'पज्जोसवणाकप्पो' रूप कल्पसूत्रनुं वाचन-श्रवण करवामां आवे छे. ते सूत्र उपरनी अनेक वृत्तिओमां [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सुबोधिका' वृत्ति (कर्ता : उपाध्याय विनयविजय गणि) विशेष मान्य छे. आ वृत्तिमां, 'स्थविरावली'नी वाचनामां आवता स्थूलभद्रचरित्रमां एक गाथा आ प्रमाणे मुद्रित जोवा मळे छे न दुक्करं अंबयलुंबितोडणं : न दुक्करं सरिसवनच्चियाए । तं दुक्करं तं च महाणुभावं जं सो मुणी पमयवणम्मि वुच्छो (? त्थो) | आ गाथा 'आवश्यकसूत्र' गा. ९४५नी हारिभद्रीय वृत्तिमां, पण वैनयिकी बुद्धिना दृष्यन्त सन्दर्भमां प्राप्त थाय छे. परंतु तेमां पूर्वार्ध आ प्रमाणे छे "न दुक्करं छोडिय अंबपिंडी : ण दुक्करं सिक्खिउ नच्चियाए । " आ पाठ छंदनी तथा सन्दर्भनी दृष्टिए वधु सुसंगत जणाय छे. (६) 'तूतीनामा'नां बे जैन चित्रो 'ध क्लीवलेन्ड म्युझियम ऑफ आर्ट्स, क्लीवलेन्ड, ओहियो' तरफथी 'तूतीनामा' (Tutinama, Tales of a Parrot) नामे ग्रन्थ ई. १९७८मां प्रकाशित थयो छे. आ कृतिमां ५२ कथाओ छे. ई. १३मा शतकना पश्चार्धमा थयेला, दिल्ली नजीक बदायुंमां वसेला, सूफीमतना उपासक "झियाउद्दीन नक्षाबी" नामे लेखके, भारतीय मूळ धरावती अने 'शुकसप्तति', 'पंचतंत्र' वगेरे तेम ज तेनां परभाषी रूपांतरनी कृतिओ उपर आधारित आ 'तूतीनामा'ने सरल स्वरूपमां ढाळी आपेल छे. आधी तूतीनामाने 'Nights by nakhshabi' तरीके पण ओळखावाय छे. आ ग्रंथनो अंग्रेजी अनुवाद तथा तेनुं संपादन मुहम्मद ए. सिमसर नामना विद्वाने कर्तुं छे. मूळे आ ग्रन्थ सचित्र छे. तेनां केटलांक चित्रो प्रस्तुत प्रकाशनमां छापेल छे. परशियन स्टाइलनां आ चित्रो स्वभावतः मधुर अने मनोहर लागे तेवां छे. अहीं तेमांनां बे चित्रो विशे चर्चा करवी छे. आ बन्ने चित्रोमां भगवान तीर्थंकरनी प्रतिमाओ चित्रित थई छे. एक मुस्लिम [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथमां जैन मूर्तिचित्रो - ए जराक अचंबो पमाडे तेवी वात जणाय. परंतु अन्य कोई हिंदु के बौद्ध देवमूर्तिने बदले जैन प्रतिमानी पसंदगी थई छे, ते नि:संदेह स्पष्ट छे. तूतीनामानी ५२ पैकी त्रीजी तथा ३५मी कथाओ साथे आ चित्रो जोडाएला छे. आ कथाओनो सार क्रमशः आवो छ : (१) कथा त्रीजी : नायिका खोजस्ताने तूती(पोपट) कथा कहे छे : एक सोनी अने एक सुथार - बन्ने मित्रो, धन कमावाने परदेश गया. त्यां एक नगरमां जई वस्या, पण कोई मेळ न पडतां मंदिरे जतां थई ढोंगी-परम भक्त बनी रह्या. सौने तेमनी भक्ति पसंद आवतां मंदिर ते बेने सोंपी दईने लोको बेपरवा बन्या. मंदिरमा प्रतिमा सोनानी हती. दागीना तो होय ज. प्रजानो पूर्ण विश्वास जाम्या पछी बन्ने एक दहाडो राजपुरुषो पासे - कचेरीमां गया, अने कह्यु के 'रात्रे भगवाने स्वप्नमां कडं छे के अहींना लोकोए अमारी भक्ति छोडी होवाथी अमे हवे बीजे जतां रहीशुं.' राजपुरुषोए भगवानने मनाववा कडं अने ढंढेरो पीयव्यो. बधुं व्यर्थ ! लाग जोईने पेला बेए एक रात्रे सोनानी मूर्तिओ तथा घरेणां उपाड्यां, अने जंगलमां दाटी आव्या. पछी दरबारमा दयामणा चहेरे रजूआत करी के 'भगवान विना अमे तरफडीए छीए. अमाराथी हवे अहीं नहि रहेवाय. ज्यां भगवान मळशे त्यां जई रहीशुं.' अने ते बे बधुं लई घेर जतां रह्या. ___वार्ता तो हजी घणी लांबी छे, अने कुरानने टांकीने मूर्तिपूजानो निषेध/ विरोध पण दर्शाव्यो छे. परंतु चित्रनो संबंध आ प्रसंग पूरतो ज छे, तेथी चित्र- वर्णन कर प्रासंगिक गणाशे. ___ ग्रंथना पृ. २८ पछी Plate No. 3 चित्रमा उपरना भागे पर्शियन अने मुघल चित्रशैलीमां होय छे तेवू मंदिरनुं दृश्य छे, तेमां मुगटबद्ध बे जिनप्रतिमा समांतरे, पद्मासने, सोनानी शाहीथी आलेखेली छे. चित्रना नीचेना भागमां सिंहासन पर राजपुरुष बेठेलो छे. छत्र-चामर धराई रह्यां छे; सामे सोनी तथा सुथार ऊभा छे, बन्ने पूजानां कपडांमां छे; एकना हाथमां बटवो अने बीजाना हाथमां माळा छे. (नोंध : वर्षों पूर्वे प्रायः सस्ता साहित्यमां 'कौतुकमाला' नामे पुस्तक [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशित थयुं छे, तेमां आवी ज एक कथामां, श्रावकोनी बेपरवाहीथी फावी गएला पूजारीए ‘भगवाने स्वप्नामां नाराजी दर्शावी अहींथी चाल्या जवानो निश्चय कर्या'नी वात उपजावी, श्रावकोना अज्ञाननो लाभ उठावी किंमती बधी सामग्रीओ चोरी वेची खाधा पछी, श्रावकोनी आजीजीथी आर्द्र बनवानो तथा पोतानी भक्तिथी भगवान रीझ्यानो डोळ सर्जीने पाषाण तथा काष्ठनी बे-चार आकृतिओ पडी रहेवा दीधी, अने 'धीरे धीरे जायगो, सब देवनको साथ; रहेगी काष्ठकी पूतली, और पत्थरको पारसनाथ' एम कहेती प्रवर्तावी; ते उपरोक्त कथाना संदर्भमां सांभरे छे.) (२) कथा ३५मी : 'एक प्रवासी राजकुमार, क्यांक, मंदिरमा प्रभुपूजा करती एक राजकुमारीने जोई मोहित थयो, अने ते कन्या पोताने वरे तो मंदिरमां स्थित भगवानने पोतानुं मस्तक चडाववा'नी प्रतिज्ञा लई बेठो. . कालांतरे तेना लग्न ते कन्या साथे थयां. ते पछी तेना ससराए दीकरीजमाईने घेर तेड्या; वाटमां पेलुं मंदिर आवतां प्रतिज्ञा सांभरी, अने अंदर जईने तेणे माथु कापी मूर्ति सामे धरी दीp. तेनी पाछळ तेनो मित्र पण मर्यो, अने पछी नववधू आत्महत्या करवा जाय छे त्यां दिव्य वाणी तेने अटकावे छे, अने बे मृत पुरुषोनां मस्तक तेमना धड पर गोठववा सूचवे छे. नववधू उतावळमां बेय माथां खोटां धडो उपर गोठवे छे, ने तरत बन्ने जीवंत बने छे' इत्यादि. कथा लांबी छे. हवे अहीं जोडाएला चित्रनुं वर्णन तपासीए : . ग्रंथना पृ. २२० पछी Plate 34 चित्रना उपरना भागमां मंदिर, तेमां पद्मासने मुगटयुक्त एक जिनप्रतिमा-सुवर्णचित्र सामे स्त्री बेठी छे. पूजापो ओटला पर पड्यो छे. नीचेना भागमां बहारथी एक पुरुष स्तुति करतो ऊभो छे. बीजो एक संन्यासी जेवो, जनोईधारी, हाथमां कलशझारी लईने ऊभो छे. बन्ने चित्रोनी नीचे छापेल लखाण आम छे : (1) 3. The goldsmith and the ca. venter inform the officials that the idols have decided to abandon the sanctuary. [22] : Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Third night (Ms. 20r.) (2) 35. The Son of a raja meets the daughter of a raja in the temple and falls in love with her. The Thirty Fourth night. (Ms. 227r.) विचार करतां लागे छे के जे रीते मध्यकालीन-प्रेमनिरूपण करती जैन कृतिओमां जेम कामदेव- (के अन्य कोई देवतुं) मंदिर तथा प्रतिमा आलेखवामां आवतां होय छे, लगभग ते ज आशयथी आ कथाप्रसंगोमां पशियन लेखके तथा चित्रकारोए तीर्थंकर- आलेखन कर्यु होय तो ते अशक्य नथी. गमे तेम, पण मूर्तिनां त्रणे अंकनो खूब नजाकतभर्यां अने मनमोहक बन्यां छे, ते निश्चित छे. पं. शीलचन्द्रविजय गणि (७) अपप्रंश छंद भ्रूवक्रणक 'स्वयंभूछंद'मां १०+११ ए मापनी आंतरसमा चतुष्पदीना नाम माटे मूळ हस्तप्रतमा भमरावंगण एवो जे पाठ छे ते सुधारीने संपादक वेलणकरे भमुआचंगण एवो पाठ राख्यो छे, अने ते अनुसार तेमणे भ्रूचक्रणकम् एवी संस्कृत छाया आपी छे (पृ. ७४, पद्यांक ६१). परंतु हेमचंद्राचार्यना 'छन्दोनुशासन'मां ए ज छंदनुं नाम 5वक्रणकम् एवं वेलणकरे ज स्वीकार्यु छे (पृ. १९४, पद्यांक १९.२८). 'पर्याय-टिप्पणक'मां प्राकृत उदाहरणमां गूंथेला नामनी संस्कृत छाया भ्रूचक्रेण चंगः एम आपेली छे. परंतु भमुहावंगणअं (स्व.छं.) (=5वक्रणकम्) ए ज पाठ बराबर छे. एनुं समर्थन हेमचंद्राचार्ये आपेला उदाहरणथी थाय छे : रेहइ तरुणिअणु, भूवंकणउ । आणावइ नाइ, तिहअण-जइ अंगउ ॥ 'भवांने वक्र करती तरुणीओ; जाणे के त्रिभुवननो विजय करवा अनंग आदेश आपतो होय तेवी शोभे छे'. 'भमरने चक्रनी जेम घुमावती' (=भ्रूचक्रणक) ए अर्थ असंगत छे. 'स्वयंभूछंद'नुं भ्रूवक्रणक, उदाहरण नीचे प्रमाणे छ : [23] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओरेंसरु मणुस, णउ खज्जसि पिज्जसि । पूअ सरिक्खउ उअ, सुणिहालिउ किज्जसि ॥ आ पद्यनो अर्थ समजातो नथी । वेलणकरे आपेली संस्कृत छाया परथी पण कशी सुसंगत अर्थ करी शकातो नथी । वेलणकरे ओरेंसरु ए आद्य अक्षरोनी छाया आपी नथी । आमां शरुमां औरें शब्द संबोधनवाचक होवानुं जणाय छे ते अने ते पछीथी आवता मणुसनुं संबोधन छे. आम्रदेवसूरि कृत 'आख्यानकमणिकोश' वृत्ति (इ. स. ११३३) मां एक अपभ्रंश भाषामां रचेल आख्यानमा आ संबोधन - शब्दना बे प्रयोग मळे छे : (१) ओरिं चलु कायर म करि खेउ । (पृ. ८५, १-१५-२) ('चलु' नहीं पण 'वलु' जोईए) 'रे कायर, तुं पाछो वळ, खेद न कर. (२) उरई वलु रे निष्फल वग्गिय (पृ. ८७, २-६-३) (छंद- दृष्टिए 'ओरई' जोईए) 'रे नकामी बडाश हांकनारा, तुं पाछो वळ'. (८) झंबडक-गीत प्रभाचंद्राचार्यकृत 'प्रभावकचरित' (ई.स. १२७८) ना वृद्धवादिसूरिचरितमां एक एवो प्रसंग छे के वृद्धवादी भृगुपुरनी समीपमां गोवाळोने प्रतिबोध करवा माटे पोते तत्काळ लोकभाषामां रचेलुं एक गीत, रासनृत्यमां घूमतां घूमतां अने ताळीथी ताल आपतां गाय छे : सूरयस्तत्सदभ्यस्त-गीत-बडकैस्तदा । भ्रांत्वा भ्रांत्वा ददानाश्च तालमेलेन तालिकाः ॥ प्राकृतोपनिबंधेन सद्यः संपाद्य रासकम् । ऊचुः ॥ (पद्य १५८ - १५९, पृ. ६०) ए गीत आ प्रमाणे छे : नवि मारियइ नवि चोरिअर, पर-दारह संगु निवारिअ । थोवाह वि थोवउं दाईअइ, तउ सग्गि टुगट्टुगु जाइअ‍ || एटले के 'कोईने मारीए नहीं, चोरी न ए, परस्त्रीनो संग न करीए, थोडामांथी पण थोडानुं दान करीए तो टगमग स्वर्ग पामीए.' [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ सद्य रचेला गीतने 'हुंबडक' कह्युं छे. आ भ्रष्ट रूप छे. हकीकते 'झंबडक' के 'झंबटक' एवं शब्दरूप जोईए. हेमचंद्राचार्यना 'छंदोनुशासन' ना पांचमा अध्यायमा अंते केटलाक अपभ्रंश गीतप्रकारोनी व्याख्या आपी छे. जेम के धवलगीत (कोई उत्तम पुरुषने, धवल वृषभने नामे वर्णवतुं), मंगलगीत (विवाह जेवा मंगळ प्रसंगे गवातुं), फुल्लडगीत ( देवतानी स्तुति तरीके गवातुं ) अने झंबटक (के 'झंबडक' ) - गीत ( राजा वगेरे व्यक्तिने अनुलक्षतुं ) " झंबडकमां चरणदीठ १४ मात्रा होय छे. मतंगकृत 'बृहद्देशी', जगदेकमल्लकृत 'संगीतचूडामणि' वगेरे संगीतशास्त्रना ग्रंथोमां प्रबंधाध्यायमां 'झोंबडक' के 'झोंबड' एवा नामे एक गेय प्रबंध वर्णवेलो छे. (९) उद्दाम दंडक छंदनुं एक प्राकृत उदाहरण 'स्वयंभूछंद' ना दंडक विभागना छंदोमां उद्दाम दंडकनुं जे उदाहरण अंगपति नामना कविनुं आपेलुं छे ('स्वयंभूछंद', १, ७२.७) तेनी संपादक वेलणकरे संस्कृत छाया आपी नथी. टिप्पणमां मात्र तेनो तात्पर्यार्थ बताव्यो छे. आ दंडकमां प्रत्येक चरणमां प्रथम छ लघु अने पछी १३ पंचमात्र आवे छे. आ पंचमात्रिक गणनुं स्वरूप गुरु + लघु + गुरु (--) एवा प्रकारनुं छे. उदाहरणनो पाठ अने गुजराती अनुवाद नीचे प्रमाणे छे (पाठनी कोईक अशुद्धि सुधारी लोधी छे). पह- सम-हिम- डड्डू - देहो दढं को णुमण्णो कुणतो तणेणत्थए सत्थरे थोर-कंतच्छिओ (?) णेइ अज्जाहरे जामिणि पंथिओ | णवरिअ अवरेण थित्ती णिरुद्धावलावे महं दंडअं लंघ मा मा करंकं इमं फोड मा मुट्ठिअं ढोवणि पूर(?) मा भंझ (गञ्ज ? ) रे || १. आ धवलगीत एटले धोळं. मंगळगीत विवाहनां गीत. पंदरमी शताब्दीमां थयेल मतिशेखर कृत 'नेमिनाथ वसंत फुलडां' ('वसंतमास श्रीनेम तणइ फुलडे फागप्रबंध रे')नी अने अढारमी शताब्दीमां थयेला वीरविजयोक्त 'वयरस्वामी फूलडां'नी नोंध 'जैन गूर्जर कविओ' मां लीली छे. नवमी शताब्दीना स्वयंभू कविना छंदोग्रंथ 'स्वयंभूछंद' मां पण धवल, मंगल अने फुल्लडक गीतोनुं लक्षण आप्युं छे. [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असहिअ - वअणेण अण्णेण सो भण्णिओ डड्डू - डड्ढाहि चावो (थावो? ) ण वप्पेण दिण्णो तुहं एअक्कमेक्केकमं पह्नि ढिक्काहिं जा गुंदलं । णिसुणिअ कलहं च तं तत्थ गामिल्लआ मिल्लिउं देति तालोट्टअं केवि वोक्काइआअंति वग्गंति अण्णे अ अप्फोडमाणा तहिं || 'कोई एक प्रवासी, लांबो पंथ कापवाना श्रमथी थाकेलो, ठारथी साव चीमळाई गयेला शरीरे, दुर्गाना देवळमां, घासनो साथरो बनावी, (दांत) कटकटावतो, भारे आंखे तेमां लंबावी, रात गाळवानुं करे छे, त्यां तो बीजा प्रवासीए तेने धमकाव्यो : 'मारी जग्या तें रोकी लीधी ? मारी हद ओळंग मा. मारुं आ भिक्षापात्र फोड मा. मारी सामे मुक्को उगामीने आव मा. बूमबाराडा पाड मा.' आवा वेण सहन न थतां पेलाए एने कह्यं, 'तुं बळी मर बळी मर, आ जग्या कांई तारा बापे तने नथी दीधी.' अने एमणे एकबीजाने ढींकापाटु करतां जे धमाल मची ने झगडो थयो, ते सांभळीने त्यां गामलोकोनुं येळं एकटुं थई गयुं. केटलाक ताबोटा पाडवा लाग्या होकारापडकारा करवा लाग्या, तो केटलाक साथळ पर थापा ठोकता ठेकडा मारवा लाग्या. ' वास्तविक परिस्थितिनो तादृश चितार छे. छंदना विशिष्ट ताललय वडे तेने घाट आपीने चारुता साधी छे. (१०) आ एक स्वभावचित्र छे बे प्राचीन सुभाषितो उत्तरकालीन साहित्यमां (१) सिद्धराज अने जसमा ओडणने लगतां परंपरागत लोकगीतो उपरांत भवाईना वेशोमां 'जसमा ओडण 'नो वेश सुधा देसाईए 'गुजराती लोकसाहित्यमाळा ना पहेला मणकामां (१९५७; पा. ४३६-४६०) प्रकाशित कर्यो छे. लोकसाहित्यनी रचनाओनो पाठ घणो प्रवाही होय छे. समयसमयनां अने प्रदेशप्रदेशनां तेनां रूपांतरोमां रसप्रद लागता लोकभोग्य अंशोनी भेळसेळ थती रहे छे. भवाई भजवातुं स्वरूप होईने तेना वेशोमां अनेक स्त्रोतोमांथी गद्य अने पद्यना उमेरा थता रहे ए स्वाभाविक छे. 'जसमाना वेश' मां शामळ भट्टना छप्पा, लोकगीतो, लोकसाहित्यना दुहा, कोई गद (?) कविना छप्पा, 'राम झरूखे बेठ के सबका मुजरा लेत' जेवो तुलसीदासनो दुहो, वगेरे पद्यो; नायिका पूर्वजन्मनी [26] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शापित अप्सरा होवानो कथाघटक - एम घj जोडी देवामां आव्युं छे. आ नोंध तो तेमां मळतां मात्र बे प्राचीन पद्योनां रूपांतरने लगती ज छे. मुनि जिनविजय संपादित 'प्रबंधचिंतामणि'मां (पृ. ३२, पद्य ५२) तथा 'पुरातन प्रबंध संग्रह'मां (पृ. १८, पद्य ५३) संगृहीत भोजराजाने लगती दंतकथाओमां एक दिगंबर साधु कुलचंद्रने लगता प्रबंधमां कुलचंद्रनी गृहस्थ जीवननी स्पृहा व्यक्त करती प्राकृत भाषामां उक्ति नीचे प्रमाणे छे : (प्रचि.मां अर्ध ऊलयंसूलयं छे, अने माणियाने बदले वाहिया, गलिने बदले कंठि एवां नोंधपात्र पाठांतर छ : तिक्खा तुरिअ न माणिआ, भड-सिरि(१२) खग्ग न भग्ग । एहु जम्मु नग्गहं गयउ, गोरी गलि (?गलइ) न लग्ग ॥ 'न तेजी तोखारनी सवारी माणी, न तो संग्राममां सुभटोनां मस्तक खड्ग वडे भांग्यां : नग्नावस्थामा रही रहीने ज आ जनम एळे गयो -- कोई गोरी पण मारे गळे न वळगी.' (आ दुहामां त-त, भ-भ अने गगनी वयण-सगाई छे ए नोंधपात्र छे.) 'जसमाना वेश'मां सिद्धराज जयसिंहने बारोट कहे छे : तीखा तूरी न पलाणिया, खांडा खडग न लग्गां, तेनो जनमारो एळे गयो, आवी गोरी कंठे न वळगां. मम्मटना 'काव्यप्रकाश'मां (११मी शताब्दी) आपेलुं दीपक अलंकारनुं पहेलुं उदाहरण नीचे प्रमाणे छे : किवणाणं धणं णाआणं फणमणी केसराई सीहाणं । कुलबालिआणं थणआ कुत्तो छिप्पंति अमुआणं ॥ 'कृपणोनुं धन, नागोनो फणामणि, सिंहनी केशवाळी अने कुळवंतीना स्तन - ए जीवतां होय त्यां सुधी क्याथी स्पर्शी शकाय ?' शामळ भट्टनी 'नंदबत्रीशी'मां आनुं ज रूपांतर मळे छे (पद्यक्रमांक २८९): सिंहमूछ, भोरिंगमणि, करपी-धन, सती नार, परहरे प्राण परहथ जशे, पड पासा पोहोबार. 'जसमानो वेश'मां जसमा बारोटने कहे छे : 'केसरी-मूछने भोरंग-मणि, शरणागत ने शूरा, करपी-धन ने सती नार, पर-हाथ पडशे मूआ'. [27] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) 'मूलशुद्धिवृत्ति'मांगें एक सुभाषित एक जाणीतुं कहेवत-पद्य नीचे प्रमाणे छ : एक नूर आदमी, हजार नूर कपडां, लाख नूर टापटीप, करोड नूर नखरां. आनी साथे पद्युम्नसूरिकृत 'मूलशुद्धि-प्रकरण' (स्थानक-प्रकरण) (११मी शताब्दी) उपरनी देवचंद्रसूरिनी वृत्तिमां (इ.स. १२९०) मळती नीचेनी गाथा सरखावी शकाय : वाया सहस्समइया, सिणेह-निज्झाइयं सय-सहस्सं । सब्भावो सज्जण-माणुसस्स कोडिं विसेसेइ ।। (पृ. १५१, पद्यांक २९७) 'सज्जननी वाणीनुं मूल्य एक हजार जेटलं, ते स्नेहपूर्वक दृष्टि के तेनुं मूल्य एक लाखनु, अने तेना सद्भाव, मूल्य एक करोडथी पण वधु'. एक कहेवतरूप उक्तिनं पगेरं कान्तिलाल व्यासे नोंध्युं छे तेम ('वसंतविलास', त्रीजी आवृत्ति, १९५९ पृ. ६५), कालिदासकृत 'रधुवंश'(९,४७)मां वसंतवर्णनमां कोकिलना टहुकानी उत्प्रेक्षा करतां कविए कह्यु छे, 'कोकिल कहे छे, हे मानिनी, तुं मान तजी दे, केम के रमणीय ,यौवन वीत्या पछी पार्दा आवतुं नथी'. आ ज भावनो . राजशेखर कविनी प्राकृत रचना 'कर्पूरमंजरी सट्टक'ना एक पद्यमां (१, १८) पडघो पड्यो छे. तेमां कडं छे : 'कोयले वसंतोत्सवमा पोताना टहुकारथी कामदेवनी आण घोषित करी : हे मानिनी तुं मान तजी दे. तारुण्य तो मात्र पांचदस दिवस ज टके छे (तारुणं दियहाई पंच दह वा)'. प्राचीन गुजराती फागुकाव्यमां आना ज अनुवादरूपे कवि कहे छे : 'मान रचउ किस्या कारण, तारुणु दीह बि-च्यारि'(२४). एटले के 'तुं मान शुं काम ग्रहण करे छे ? तारुण्य मात्र बेचार दिवस ज टकतुं होय छे.' आ उक्ति 'जुवानी तो मात्र पांचदस दिवसनी' कहेवतरूप बनी गई जणाय छे, 'चार दिवसनी चांदनी' नी जेम. 'आख्यानकमणिकोश-वृत्ति'मां (इ.स. ११३३) एक प्रसंगे कहेवायुं छे (पृ. २७४, गाथा ५१): [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दियहाइं पंच दह वा जोव्वणमिणमो बुहा बिंति । 'डाह्या लोको कहे छे के जोबन मात्र पांचदस दिवसनु ज होय छे'. अहीं एक जाणीतो दोहरो याद आवे छे : सूकां तरुवर पल्लवे, निर्धनिया धन होय, गयुं जोबन आवे नहीं, मूआ न जीवे कोय. 'नीलीराग जैन' 'प्रबंधकोश' गत वृद्धवादि-सिद्धसेन-प्रबंधमां सिद्धसेनना चरित्रवर्णनमां एक स्थळे का छे के सिद्धसेने पूर्वदेशमां कूर्मारपुर जईने त्यांना राजा देवपालने प्रतिबोधीने तेने 'नीलीराग-जैन' बनाव्यो. ___ 'नीलीराग' शब्द मूळे तो वैशिक शास्त्र-एटले के वेश्याशास्त्रनी परिभाषानो शब्द छे. परमार राजा भोजदेवकृत 'शृंगारमंजरी-कथा' 'मां वेश्या प्रत्येना पुरुषना अनुरागना जे मुख्यत्वे चार प्रकार वर्णवाया छे ते छ : नीलीराग, मंजिष्ठाराग, कुसुंभराग अने हरिद्राराग (पृ. १९). गळी, मजीठ, कसुबो अने हळदरथी रंगेलां कपडांनो रंग केटलो टकाउ होय छे तेना उपमान अनुसार आ प्रकार पाड्या छे. नीलीराग वाळा पुरुषनो अनुराग केवो होय छे ते समजावतां वेश्यामाता पोतानी पुत्रीने कहे छे : 'जेम गळीथी रंगेलुं कपडुं अनेक रीते क्षार वगेरे वापरीने धोवा छतां पोतानो रंग तजतुं नथी, ते ज प्रमाणे नीलीराग पुरुष तेना सेंकडो टुकडा करी नखाय तो पण पोतानो गाढ अनुराग तजतो नथी.' (पृ.२६). ___आ अनुसार नीलीराग जैन एटले जेणे एक वार जैन धर्म अंगीकार कर्यो ते पछीथी कदी पण एनो त्याग न करे तेवो जैन. अनुरागना वर्गीकरणनी समग्र परंपराना विवेचन माटे जुओ कल्पना मुनशीनी 'शृंगारमंजरी-कथा'नी भूमिका, प्रकरण पांचमु (अने विशेष पृ. ६५-६७ उपर आपेलो कोठो.) . १. शृंगारमंजरी कथा. संपा. कल्पलता मुनशी. सिंघी जैन ग्रंथमाळा, ग्रंथांक ३०, १९५९. [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) 'सातवाहनक-शास्त्र' 'प्रबंधकोश'ना सातवाहनप्रबंधमां आपेला अनेक टुचकाओमां एक टुचको आ प्रमाणे छ (पृ. ७२, परिच्छेद क्रमांक ७९): सातवाहन राजानी चंद्रलेखा वगेरे पांच सो राणीओ हती. बधी छये भाषाना कवित्वमा प्रवीण, ज्यारे राजा व्याकरण पण भण्यो न हतो. उनाळो आव्यो. राजाराणीए जळक्रीडा आरंभी. चंद्रलेखानी शीत प्रकृति होवाथी ते ठंडी सही शकती न हती. पण राजा प्रेमपूर्वक तेने पीचकारी मार्ये राखतो हतो. एटले राणी संस्कृतमां बोली : मां मोदकैः पूरय (एटले के 'मने पाणीथी मा आखी भीजवी नाख') पण हालराजा संस्कृत भाषामां कहेलानुं तात्पर्य समजतो न हतो ('मा+उदकैः' एम संधी छूटी पाडीने समजवाने बदले ते 'मोदकैः' एम समज्यो.). तेथी तेणे दासी पासे मोदकनो डाबडो मगाव्यो. पतिनी आवी गेरसमज जोईने चंद्रलेखाए उपहास कर्यो. 'अहो ! महाराजनी तीक्ष्ण शास्त्रबुद्धि केटली बधी विशाळ छे !' राजा समजी गयो के राणी उपहास करे छे. तेणे राणीने पूछ्युं, 'तुं शा कारणे अमारो उपहास करे छे ?' राणीए कह्यु, 'प्रिय, तें अर्थनो अनर्थ कर्यो तेथी में हांसी उडावी.' राजा लज्जित थयो. तरत ज तेणे त्रण रात उपवास कर्यो. सरस्वतीए तेने प्रत्यक्ष दर्शन दीधां. तेनी पासेथी वरदान प्राप्त करीने ते महाकवि थयो. 'सारस्वत व्याकरण' वगेरे सो शास्त्रोनी तेणे रचना करी. तेना गुणथी प्रभावित भारती देवी तेनी देवपूजामा प्रत्यक्ष अवतरती हती. एक वार राजाए देवी पासे अभ्यर्थना करी, 'मारी नगरीना समस्त लोकने अर्धा प्रहरमां कवि बनावी दो'. देवीए तेनी इच्छा प्रमाणे कर्यु. एक ज झटके दिवसमां दस करोड गाथानी रचना थई. एम राजाए 'सातवाहनकशास्त्रतुं' निर्माण कर्यु. आ 'सातवाहनक-शास्त्र' एटले सातवाहन-हालनो सुप्रसिद्ध 'गाहाकोस' (गाथाकोश) के 'गाहासत्तसई' (गाथासप्तशती). तेनी त्रीजी गाथामां क्युं छे के कविवत्सल हाले एक करोड गाथामांथी अलंकारयुक्त सात सो गाथाओ चूंटीने गाथाकोशनी रचना करी. आ ज वात उपर्युक्त टुचकानो आधार छे. [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न ए थाय छे के 'गाथाकोश' मुक्तककाव्योनो संग्रह होवा छतां प्रबंधमां तेने 'शास्त्र' केम कह्यो ? लागे छे के आवा संदर्भोमां 'शास्त्र' शब्द 'प्रबंध'नो वाचक हतो. कवि नयनंदीए रचेला अपभ्रंश काव्य 'सुंदसणचरिउ' (इ.स. १०४४) मां एक स्थळे, अन्य कथाग्रंथो, जेवां के भारत, रामायण अने 'सुद्दअ'ना करतां सुदर्शननुं चरित्र चडियातुं होवानुं कह्युं छे (बीजी संधिना आरंभे मूकेलुं बीजं पद्य). आमां 'सुद्दअ' शब्दनी उपरना टिप्पणमां खुलासो कर्यो छे के 'सुद्दअ' एटले 'वच्छसुद्दये शास्त्रे'. आमां 'सुद्दवच्छए'ने बदले 'वच्छसुद्दये' लखायुं छे. शुद्रवत्स विशे आ निर्देश छे. अहीं पण हकीकते जे कथा छे तेने शास्त्र कही छे. एटले आ बने स्थळे 'शास्त्र' शब्द 'प्रबंध' (काव्यप्रबंध) एवा अर्थमां समजवानो रहे छे. 'प्रबंधचिंतामणि'मां आपेल कुमारपालचरित्रमां पण राजाए 'ऊपम्या' एवा पोते करेला अशुद्ध शब्दप्रयोगथी टीकापात्र बनतां, ते पछी एक ज वरसमां ते संस्कृतमां पारंगत बनी गयो एवो प्रसंग छे, (पृ. ८८-८९) संदर्भ : प्रबंधकोश, संपा. जिनविजय मुनि. १९३५. Indological Studies, ह. भायाणी. १९९३. पृ. २३७. (१५) 'पुष्पदूषितक', 'नंदयंती', 'भद्राभामिनी' ब्रह्मयशस् के यश: स्वामीनी प्रकरण प्रकारनी संस्कृत नाट्यकृति 'पुष्पदूषितक' (जे लुप्त थई छे, पण जेनो धनिक, कुन्तक, अभिनवगुप्त, रामचंद्र - गुणचंद्र वगेरे नाट्यशास्त्रीओए निर्देश करेल छे के तेमांथी अवतरणो आपेल छे) - तेनुं कथावस्तु जैन परंपरामांनी, प्रचलित नंदयंतीनी कथा १. : आ प्रसंगनो मूळ आधार 'कथासरित्सागर' (१, ६, ११३-११८) छे : अथैकदा तस्य महिषी, राज्ञः स्तनभरालसा । शिरीषसुकुमारांगी क्रीडंती कूलममभ्यगात् ॥ सा जलैरभिषिचंतं, राजानमसहा . सती । अब्रवीन् मोदकैर्देव परिताडय मामिति ॥ तत्च्छ्रुत्वा मोदकान् राजा, द्रुतमानाययद् बहून् । ततो विहस्य सा राज्ञी पुनरेवमभाषत ॥ राजन्नवसरः कोऽत्र, मोदकानां जलांतरे । उदकैः सिंच मा त्वं मामित्युक्तं हि मया तव ॥ संधिमात्रं न जानासि, मा-शब्दोदक- शब्दयोः । न च प्रकरणं वेत्सि, मूर्खस्त्वं कथमीदृशः । इत्युक्तः स तया राज्ञ्या, शब्दशास्त्रविदा नृपः । परिवारे हसत्यंतर्लज्जाक्रांतो झगित्यभूत् ॥ [31] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ('शीलोपदेशमाला'नी सोमतिलकसूरिकृत टीका 'शीलतरंगिणी'मां अने तेने आधारे 'भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति'मां शुभशीले करेल रूपांतरमां ए मळे छे)ना कथावस्तु साथे अभिन्न होवानुं में The Lost Sanskrit Drama Puspadūsitaka and the Story of Nandayanti in the Jain Tradition ए पुस्तिकामां (१९९४) दर्शाव्युं छे: तेमां में पण ए नोंध्युं छे के सगर्भा थयेली कुलीन नायिका पर कुलयपणानो मिथ्या आरोप, तेनो निर्जन वनमां परित्याग अने अंते तेना चारित्र्यनी शुद्धिनी प्रतीति–एवा प्रकारकथाघटक सीता, शकुंतला, अंजनासुंदरी, कलावती वगैरेनी कथामां पण मळे छे. १८मी शताब्दी जाणीता कवि शामळ भट्टे रचेल 'सिंहासनबत्रीसी'नी २३मी वार्ता 'भद्राभामिनी'नो एक भाग आ ज कथाघटक उपर आधारित छे, अने अमुक अंशे 'नंदयंती'थी ते प्रभावित होवानुं कही शकाय. 'शरदपूर्णिमाए स्वातिनक्षत्रनो योग होय त्यारे गर्भाधान थाय तो, छींक खातां जेने रतन झरे एवो लक्षणवंतो पुत्र जन्मे.' हंसदंपतीनां एवां वचन सांभळी परदेशे वहाणमां रहेलो शेठपुत्र कस्तूरचंद हंस पर सवार थई एक रात माटे पोताने घरे पाछो आवी पत्नी भद्रा साथे संगम करी पाछो फरे छे. सगर्भा बनेली भद्राने सासरिया काढी मूके छे. माबाप तेने वनमां मूकी आवे छे. लाखा वणझारानी सहायथी ते बची जाय छे. पछी एक गणिका तेने फसावे छे अने परदुःखभंजन विक्रमराजानी सहाय मेळवी ते छूटे छे. पतिपुत्र साथे तेनं मिलन थाय छे. आमां एक खास नोंधपात्र विगत ए छे के कस्तूरचंद वेपार अर्थे त्रंबावतीथी जावा जवा नीकळे छे, त्यारे पुष्य नक्षत्र, मुहूर्त जोईने वहाण हंकारे छे. 'पुष्पदूषितक मां पण वहाण जे दिवसे छूटवानां छे तेनी आगली राते चंद्रनो पुष्ययोग होय छे, अने आ विगत 'पुष्पदूषितक मां पायानो भाग भजवे छे. में करेलुं सूचन के नाटकनुं खरं नाम 'पुष्पदूषितक' नहीं पण 'पुष्यभूषितक' होय तेने आ विगतथी आडकतरं समर्थन मळे छे. ___भद्राभामिनी'मा आगळनो अने पाछळनो भाग बीजा जाणीता कथाघटको उपर आधारित छे.पहेला भागनां (पत्नीनी शीलपरीक्षा माटे गुप्तवेशे सासराने घेर रहेतो शेठपुत्र) मूळ तो ठेठ 'वसुदेवहिंडी'ना धम्मिलचरितमां आपेली [32] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील-विषयक धनश्रीनी दृष्टांतकथा सुधी लंबाय छे. चतुराईथी परपुरुषोना पंजामांथी नायिकानुं छूटवुं अने तेथी निराश थई जोगी बनेला / काशीए करवत मुकाववा गयेला पुरुषोनुं परस्पर मिलन - ए घटक पण 'कामावतीनी कथा मां (शिवदासकृत, वीरजीकृत) मळे छे. गणिका द्वारा फसामणीनो घटक पण कथासाहित्यमां घणो प्रचलित छे. अशोके पोताना राज्याभिषेकना २६मा वरसे कोतरावेला स्तंभलेखोमां (रामपूर्वा, राधिआ, माथिआ ) आपेला पांचमा धर्मशासनमां अमुक अमुक दिवसोमां प्राणीवधन करवानो जे आदेश आप्यो छे तेमां कहां छे के तिष्य अने पुनर्वसुनो योग होय त्यारे बळद, बकरां, घेटां वगेरेने खसी न करवां के घोडा, बळद वगेरेने डाम दईने अंकित न करवा. आम ईसु पूर्वे त्रीजी शताब्दीमां पण पुष्य- पुनर्वसुनो योग मंगळ गणातो होवानो चोक्कस पुरावो छे. हरिवल्लभ भायाणी [33] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य-श्रीहरिभद्रसूरि-विरचितम् ॥ उपधान-प्रतिष्ठा-पञ्चाशक-प्रकरणम् ॥ - संपा. पं. प्रद्युम्नविजयजी गणी याकिनी-महत्तरा-सूनु आचार्य श्री हरिभद्रसूरिश्वरजी विरचित 'पंचाशक' ग्रंथ, स्थान जैन परंपराना प्रकरणग्रंथोमा आगली हरोळमां छे. आ 'पंचाशक' ग्रंथना ओगणीस प्रकरणो ज मळ्या हता. अने एटलां प्रकरणो उपर नवांगी टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसूरिनुं विवरण पण मळे छे. बन्ने प्रसिद्ध थयेलां छे. आजे पण ओगणीस प्रकरण वाळी 'पंचाशक-प्रकरण'नी ताडपत्रनी तथा कागळनी पोथीओ मळे छे. आम पाटणना भंडारमा एक अने खंभातना भंडारमा एक एम बे ज ताडपत्रनी पोथीमां आ वीसमा प्रकरण सहितनी 'पंचाशक-प्रकरण'नी पोथी मळे छे. ए बने पोथीना आधारे यथामति संपादित-संशोधित करीने आ वीसमुं 'उपधान-प्रतिष्ठा' पंचाशक प्रकरण अहीं आप्युं छे. आ प्रकरण पहेली ज वार प्रकाशित थाय छे.आमां नवानवा विचारणीय मुद्दा समाया छे. मोक्षदंड तप आजे जे प्रचलित छे ते निजमति-कल्पित छे ते वात अहीं ज मळे छे. ___नवकार अंगे जे ज्ञानाचाररूप उपधान-तप छे तेनो 'आवश्यकसूत्र'नी अन्तर्गत समावेश थतो नथी एवं कथन आमां मळे छे.. __तो साधु-साध्वीने पण आ उपधान करवा जरुरी गणाय एवं आनाथी फलित थाय छे. जो के ए अंगे विचारणा करवी जुरुरी छे. अत्यारे तो आ प्रकरण मूळमांथी आप्युं छे. पछी तेनी छाया, संदर्भग्रन्थनी साक्षी, अनुवाद साथे प्रकाशित करवानी भावना छे. __ आ प्रकरणना पाठशुद्धि अने पाठनिर्णयमा विद्यापुरुष मुनिराजश्री जंबूविजयजी महाराजनो आत्मीयताभर्यो सहयोग सांपड्यो छे. तेनुं अहीं सानंद स्मरण थाय छे. (पाठनो आधार खंभात ताडपत्र नं. १२९/पाटण ताडपत्र नं. १५३/२) [34] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ नमिउण महावीरं वोच्छं नवकारमाइ उवहाणे । किंपि पइट्ठाणमहं विमूढ संमोह महणत्थं जं सुत्ते निद्दिटुं पमाणमिह तं सुओवयाराइ । आयाराइणं जह जहुत्तमुवहाण निम्महणं वुत्तं च सुए नवकार-इरिय पडिकमण सक्कत्थयविसयं । चेइय चउवासत्थय सुयत्थएवं च उवहाणं किं पुण सुत्तं तं इह जत्थ नमोक्कारमाइ उवहाणं । उवइ8 आह गुरु महानिसीहक्ख सुयरवंधे एसो वि कह पमाणं नंदीए हंदि कित्तणाउ त्ति । जं तत्थेव निसीहं महानिसीहं च संलत्तं अह तं न होइ एयं एवं आयारमाइ वि तयन्नं । तुल्ले वि नंदिपाढे को हेऊ विसरिसत्तम्मि अह दुब्बलिसूरीणं पराभवत्थं कयं सबुद्धीए । गोटेणं ति मयं नो इमं पि वयणं अविन्नूणं पुट्ठमबद्धं कम्मं अप्परिमाणे च संवरणमुत्तं । जं तेण दुगं एयं तं चिय अपमाणमक्खायं सेसं तु पमाणत्तेण कित्तियं गोट्ठमाहि सुत्तं पि । इग दुग मयभेयच्चिय जं सुत्ते निण्हवा वुत्ता अह भूरिमयविरोहा पमाणया नो महानिसीहस्स । लोइय सत्थाणंपि व तहाहि तंमी अणुचियाई सत्तमनरयगमाईणि इत्थियाणं पि वन्नियाई ति । तं न लिहणाइ दोसा संति विरोहा सुए वि जओ आभिणिबोहिनाणे अट्ठावीसं हवंति पयडीओ । आवस्सयम्मि वुत्तं इममन्नह कप्पभासम्मि नाणमवाय धीईओ दंसण सिटुं च उग्गहेहाओ । एवं कह न विरोहो विवरीयत्तेण भणणाओ किं च गइ इंदियाइसु दारेसु न सम्म-सासणं इटुं । इगिंदीणं विगलाण मइसुए तं चणुनायं HILLLLHERE TEEEEEEEEETTET FEREHE ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ [35] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०. ॥२१॥ सयगे पुण विगलाणं एगिंदीणं च सासणं इटुं । न पुणो मइसुयनाणे तहेवमावस्सए वुत्तं सीहो तिविठ्ठजीवो जाओ सत्तम महीउ उव्वट्टो । जीवाभिगममएणं मीणत्तं चेव तो लहइ नायासुं पुव्वण्हे दिक्खा नाणं च भणियमवरण्हे । आवस्सयंमि नाणं बीयम्मि मल्लिस्स छउमत्थे परिआओ सद्धछम्मासबारससमाओ । मग्गसिरकिण्हदसमी दिक्खाए वीरनाहस्स वइसाहसुद्धदसमी केवललामम्मि संभविज्ज कहं । इय सत्थेसुं बहवो दीसंति परोप्परविरोहा तस्संभवे वि आवस्सायाइ सत्थाई जह पमाणं । तह किं महानिसीहं धिप्पइ न पमाणबुद्धीए अहो पंचनमोक्काराइयाणमुवहाणमुणुचियं भिन्नं । आवस्सयस्स अंतो पाढाहि तहाहि सामइयं नवकारपुव्वयं चिय कीरइ जं ता तयंगमेसो त्ति । अन्नं च इत्थ अत्थे पयडं चिय कित्तियं एयं नंदिमणुओगदारं विहिवदुवग्धाइयं च नाउण । काऊण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स। इय सामाइअनिजुत्तिमज्झमज्झासिओ इमो ताव । पडिकमणे य पविट्ठो इरियावहियाए पाढो वि अरहंतचेइयाण य वंदणदंडो सुयत्थओ य तहा । काउस्सग्गज्झयणे पंचमए अणुपविट्ठो त्ति बीयज्झयणसरू वे चउवीसत्थओ वि जं विणिहिट्ठो । आवस्सयाउ न पिहो जुज्जइ ता तेसिमुवहाणं आवस्सयउवहाणे ताण उवहाणं कयं समवसेयं । कयउवहाणे य पिहो तक्करणे होइ अणवत्था भन्नइ उत्तरमिहई नवकारो आइमंगलत्तेण । वुच्चइ जया तयच्चिय सामाईए अणुप्पवेसो से ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२८॥ [36] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ।.३५॥ जइया य समण-भोयण निज्जरहेउं पढिज्जए एसो । तइया सतत एव हि गिज्झइ अन्नो सुयक्खंधो इह-परलोयत्थीणं सामाइयविरहिओ अ वावारो ।। दीसइ नवकारगओ तदत्थसत्थाणि य बहूणि नवकारपडल नवपंजिया सिद्धचक्कमाइणि । सामाइयंगभावो इमस्स णेगंतिओ तम्हा पढमुच्चारणमेत्ते वि णुप्पवेसो हवेज्ज सामइए । एयस्स सव्वहा जइ ता नंदीणुयोगदाराणं तयणुप्पवेसओ च्चिय तवचरणं नेय जुज्जइ विभिन्नं । दीसइ य कीरमाणे जोगविहीए य भिन्नत्तं किंचाभिन्नत्ते सव्वहा वि सामाइयाउ एयस्स । काउण पंचमंगलमिच्चाइ अणुचियं वयणं इय भेयपक्खमणुसरिय जइ तवो कीरइ नमोक्कारे । तो को दोसो नंदणुओगद्दारेसु वि हविज्जा इरियावहियाईयं सुयं पि आवस्सयस्स करणंमि । अणुपविसइ तंमि तयन्नापाय भिन्नंहि तेणेव भत्ते पाणे सयणासणाइ सुत्तं पि जायइ कयत्थं । तिन्नि वि कड्डइ ति सिलीइय थुइ त्ति इच्चाइ सुत्तंपि आवस्सए पवेसो जइ एसो सव्वहा वि य हवेज्जा । तो पि हु पढणं एसिं सव्वेसि कह घडिज्ज त्ति जं च इयरेयरासयदूसणमेवं च वुच्चइ इमाण । पाढेण विणा न तवो तवं विणा नेव पाढो त्ति तं पि हु अदूसणं जह पव्वइउमुवट्ठियस्स णुनायं । सामाइयाइयाणं आलावगदाणमतवे वि एवं जइ पढिएसु वि नवकाराईसुताणमुवहाणं । सविसेस गुणनिमित्तं कारिज्जइ को णु ता दोसो नियगमइविगप्पियं पि हु कारिज्जइ मोक्खदंड्याइ तवं । सत्थुत्तं पि निसिज्झइ उवहाणं ही महामोहो ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ [37] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ मंतंमि पुव्वसेवा जइ तुच्छफले वि वुच्चइ इहं ता । मोक्खफले वि उवहाणलक्खणा किं न कीरई सा एइए परमसिद्धी जायइ जं ता ददं तओ अहिगा । जत्तम्मि वि अहिगत्तं मव्वस्सेयाणुसारेण अह सक्कविरयणाओ सक्कत्थय नोवहाणमुववन्नं । ' एयं पि केण सिटुं जमेस सक्केण रइउ त्ति सक्कस्स अविरइत्ता जिणथुई जइ अणेण णुन्नाया । ता तक्कओ त्ति सो वुत्तुमेवमुचियं कहं तम्हा केवलिणा दट्टणं उवइट्ठाणं च विरइयाणं च । नवकारमाइयाणं महप्पभावुत्तियाणं तिक्कालियमहवा सत्तकालियसमरणे निउत्ताणं । जुत्तं चिय उवहाणं महानिसीहे निबद्धाणं उवहाणविहीणाण वि मरुदेवाईण सिवगमो दिट्ठो । एवं च वुच्चमाणे तवदिक्खाईण वि निसेहो इय भूरिहेउजुत्तीजुयंमि बहुकुसलसलहिए मग्गे । कुग्गहविरहेणुज्जमह महह जइ मुक्खसुहमणहं ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥ उवहाण-पंचासयं सम्मत्तं ॥ ॥ इति विंशतितमं प्रकरणं सम्मत्तं ॥ [38] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दप्रयोगोनी पगदंडी (१) चाउरि, गब्दिका, गर्त हरिवल्लभ भायाणी मोनिअर-विलिअम्झना संस्कृत- अंग्रेजी कोशमां 'चतुर', 'चातुर' अने 'चातुरक' शब्दो प्राचीन संस्कृत कोशोमां 'नानुं गोळ ओशीकुं' एवा अर्थमां अने 'गल्ल-चातुरी' शब्द 'गालमसूरियुं' एवा अर्थमां आप्या छे. हकीकते आ शब्दरूपो देश्य शब्द 'चाउरि' एटले 'गादी' उपरथी बनावी काढेला संस्कृत शब्दरूपो छे. 'चाउरि' शब्द पुष्पदंतना अपभ्रंश महाकाव्य 'महापुराण'मां वपरायो छे अने त्यां प्राचीन टिप्पणमां 'गादीति देशी' ए रीते ते देश्य शब्द होवानुं अने तेनो अर्थ 'गादी' थतो होवानुं जणाव्युं छे. जुओ रत्ना श्रीयान् कृत 'ए क्रिटिकल स्टडी ओव महापुराण ओव पुष्पदंत' (१९६२, पृ. २३१, क्रमांक ९४३; पृ. ३२०, क्रमांक १३९४). जूनी गुजराती कृतिओमां 'चाउरि' शब्द 'गादी' ना अर्थमां वारंवार वपरायो छे. जेम 'चाउरि' उपरथी 'चातुर', 'चातुरी' एवो संस्कृत शब्द घडी कढायो, तेम 'गादी' उपरथी कृत्रिम रीते घडी काढेलो 'गब्दिका' जैन प्रबंधादिना संस्कृतमां मळे छे. 'गादी' के 'गद्दी' घणी अर्वाचीन भारतीय आर्य भाषाओमां मळे छे. तेना मूळ तरीके 'गर्द' एवं रूप अटकळी शकाय. वैदिक शब्द 'गर्त' ' = रथनी बेठक' नुं ए रूपांतर होवानुं समजी शकाय (जुओ, टर्नरनो भारतीयआर्यनो तुलनात्मक कोश, क्रमांक ४०५३). 'गाडी' शब्दनुं मूळ ए 'गर्त/गर्द' मां ज छे. (२) प्रा. छेअ- 'अंत, हानि' संस्कृत 'छेद - ' उपरथी प्राकृतमां 'छेअ - ' नियम प्रमाणे थाय छे. पण प्राकृतमां तेनो अर्थविस्तार थयो छे. 'छेद, कापो' उपरांत 'छेडो, न्यूनता' एवा अर्थमां पण ते वपरायो छे ('पाइअसद्दमहण्णवो'). प्रभाचंद्राचार्यकृत 'प्रभावकचरित' (इ.स. १२७८) मां आपेल बप्पभट्टिसूरिचरितमां छोडी गयेला बप्पभट्टिसूरिने राजा आम नागावलोक [39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यारे संदेशो मोकले छे, त्यारे बप्पभट्टिसूरि तेना प्रत्युत्तर रूपे जे गाथाओ मोकले छे, तेमां एक अपभ्रंश दोहा नीचे प्रमाणे छे : हंसा जहिं गय तहिं जि गय, महि-मंडणा हवंति । छेहउ ताहं महासरहं, जे हंसेहिं मुच्चंति ॥ अर्थ : 'हंसो ज्या पण जाय छे त्यां तेओ धरतीने शोभावे छे. हानि . तो ते महान सरोवरने थाय छे जेने हंसो छोडी जाय छे.' (आ एक अन्योक्ति छे.) आ ज दोहा गणपति कृत 'माधवानल-कामकंदला-प्रबंध मां (ई.स. १५२८) नजीवा पाठांतरे उद्धृत थयो छे (३, ९१). त्यां 'छेहउ'ने बदले पाछळनुं रूपांतर 'छेहू' मळे छे. हेमचंद्राचार्यना 'सिद्धहेम'मां उदाहरण तरीके आपेल एक दोहामां (८४-३९०) 'तं छेअउ नहु लाहु' (=ए तो हानि छे. लाभ नथी') ए प्रमाणे 'छेअ-' शब्द 'न्यूनता, हानि'ना अर्थमां मळे छे. 'तूटवू' अने 'तोटो' साथे 'छिंदइ' अने 'छेअउ' सरखावतां 'हानि, न्यूनता' एवं अर्थपरिवर्तन समजी शकाशे. 'छेअ-'मां हकारनो आगम थतां 'छेह' एवं रूप थयुं छे. 'छेअ-' शब्द 'छेडो' एवा अर्थमां देश्य शब्द तरीके हेमचंद्राचार्ये 'देशीनाममाला'मां (३, ३८) आप्यो छे. आ अर्थ 'छेक', 'छेडो', 'छेल्लु', 'छेवाडो' अने 'छेवट' ए गुजराती शब्दोमां जळवायो छे. .. ___ सं. 'छेद'- प्रा. छेअक्क, गुज. छेक (सरखावो सं. स्थित-, प्रा. ठिअ+क, गुज. ठीक). सं. छेद-, प्रा. छेअ-, अप. छेह+डउ, गुज. छेडो... सं. छेद- प्रा. छेअ-, गुज. छेअ-, छेह-+इल्लङ–छेहिल्लडं, छेल्लु. छेदपाटक-, छेअवाडअ-, छेवाडु ('अगवाईं', 'पछवाडु', 'मुवाडं', अने 'छेवाडु'मां मूळ 'पाटक' पुंल्लिंगने । बदले नपुंसकलिंग छे. 'पाडो', 'वाडो'मां मूळ प्रमाणे पुंल्लिंग छे.) सं. छेदपृष्ठ-, प्रा. छेअउ?, गुज. छेउठ, छवट. ए रीते उक्त शब्दोनुं रूपपरिवर्तन समजावी शकाय. [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजरातीमां 'छेह देवो'='विश्वासघात करवो' एमां जे 'छेह' छे तेमां 'छेह'नो 'हानि' अर्थ बदलाईने 'विश्वासघात' एवो अर्थ थयो हशे के केम ते विचारणीय छे. छो, अछो, भले 'छो' एटले 'भले' ('छो जतो', 'जाय', 'छो करे'). बृगुको.मां तेनुं मूळ आप्युं नथी. प्रा. 'अच्छ'-('होवू') धातुनुं आज्ञार्थ त्री. पु. एक व. 'अच्छउ' =('एम) हो', '(एम ज) भले रहेतुं', 'रहेवा देवा दो' एवी अर्थछायाओमां जाणीतुं छे. पछी 'छउ' अने 'छो'. ___'अछो अछो वानां करवां' एटले 'कोईकने माटे आदर सत्कार रूपे घj घणुं कर'. तेमां पण कां तो 'अच्छउ अच्छउ' 'एम हो', 'एम हो' अथवा 'रहेवा दो, रहे दो, बेसो बेसो' (बीजो पु. ब.व.) एवा मूळ अर्थ उपरथी अतिथिनी साथेना व्यवहारमा वारंवार ए प्रमाणे आदरथी कह्या कवू ते परथी थयेलो रूढिप्रयोग छे. __'छे जतो', छो जाय', 'छो करे' वगैरे अने 'भले जतो', 'भले जाय', 'भले करे' एकार्थक छे. बुगुको.मां आ 'भले'ना मूळ तरीके सं. 'भद्र-' उपरथी थयेल प्रा. 'भल्ल' अने पछी गुज. 'भलुं'नुं करण-विभक्त एक व.y रूप आप्युं छे.पण बीजो एक विकल्प पण विचारी शकाय. 'भले भले' ए प्रशंसासूचक उद्गारना मूळमां रहेलो 'भद्र' मंगळवाची छे. आपणी मध्यकालीन वर्णमाळा-मातृका-नो आरंभ 'भले'थी थतो तेनी ६ एवी आकृति जैन हस्तप्रतोमा जाणीती छे. भले, पछी शून्य (मींडु) अने पछी बे ऊभी रेखाए वर्णमाळाने आरंभे मंगळसूचक चिह्नो तरीके मुकातां. हीराणंदसूरिरचित 'स्थूलिभद्रकाक' मां 'भले'नुं बावन अक्षरोने आरंभे मंगळ स्थान होवानुं का छे : भले भलेरी अक्खरहं बावनहं धुरि एह । जाखल-सेखल ('यक्षप्रतिमा, नागप्रतिमा)' नेमिचन्द्र भंडारी कृत 'षष्टिशतक प्रकरण' (१२मी सदीनो अंत-१३मीनो [41] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरंभ) उपरना सोमसुंदर-सूरिना बालावबोधमां (इ.स. १४४०) मूळ गाथाना जक्ख-सिक्ख शब्दनो अर्थ जूनी गुजरातीमां 'जाखल'-सेखल एवो कर्यो छे (पृ. ८३, पं. २, १६). आमां जाख एटले 'यक्ष' अने सेख एटले 'शेषनाग', 'नाग'. आना विवरण रूपे 'गोत्रज पितर प्रमुख' एम कर्तुं छे. संदर्भ एवो छे के लेखक कहे छे : वेश्या, भाट, पुरोहित, डोम (लोकगायक), यक्ष, नाग वगेरमां जे आसक्त होय, तेमना भक्त होय तेओने ते फोली खाय छे. एटले तेमनी पूजाथी दूर रहेQ. जिनधर्ममां स्थिर रहे. सं. यक्ष, प्रा. जक्ख, जू. गुज. जाख, सं शेष, अर्धतत्सम सेख. तेमनी प्रतिमा, मूर्तिनो अर्थ दर्शाववा तेमने ल प्रत्यय लाग्यो छे. जाखल = 'यक्षप्रतिमा'. सेखल = 'नाग प्रतिमा'. यक्ष परथी अर्वाचीन भारतीय-आर्य भाषाओमां ऊतरी आवेला शब्दो माटे जुओ टर्नरनो भारतीयआर्य भाषाओनो तुलनात्मक कोश. मूळ वस्तुनी मूर्त अनुकृति सूचवतो ल के ल्ल प्रत्यय पूतळ (सं. पुत्र, प्रा. पुत्त, जू. गुज. पूत+ल), नागला (नाग+ल) 'नागनी आकृति' भैसलो (भेंसो+ल) 'पाडानी आकृतिनो खडक' अने कदाच ढींगली जेवामां मळे छे. (संदर्भ : 'षष्टिशतक प्रकरण'. संपा. भो. ज. सांडेसरा. १९५३. प्राचीन 'गूर्जर काव्य संचय' (संपा. ह. भायाणी, अ. नाहट. १९७५)).. ___ जूनी गुज.मां 'जाखु' (="यक्ष') पाल्हणकृत 'आबूरास'मां मळतो होवानुं सांडेसराए नोंध्युं छे. ते उपरांत देपालकृत 'कयवन्ना-विवाहलु' (१५मी शताब्दी)मां पण ते वपरायो छे. कडी ६. ('प्राचीन गूर्जर काव्य संचय', शब्दकोशमां). कच्छना गाम-नाम 'जखौ' (=सं. 'यक्षकूप')मां पण ते शब्द सचवायो छे. आवा हेतु माटे बीजा प्रत्ययो पण वपराता. जेम के गुज. दांत-दांतो, पाय-पायो, हाथ-हाथो, कान-कानो, नाक-नाकुं, जीभजीभी, माथु-मथाळु, मोढुं-मोढियुं, घर-घरं, वगेरे वगेरे. आमां ककार वगेरे प्रतिकृति-वाचक छे. 'सिद्धहेम' (७-१-११०) उपरनी मध्यम वृत्ति-अवचूरिमां कहेल छे के 'हस्तिनः प्रतिकृतयो हस्तिकाः-रामेकडा [42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति लोकरूढिः ।' एटले के 'हाथीनुं रमकडुं' लोकोमां 'हस्तिक' (= 'हाथियो') कहेवाय. (५) तणी 'दोरडी' इ. स. १३५५मां रचेल तुरुणप्रभाचार्यना 'षडावश्यक - बालावबोध-वृत्ति'मां सम्यक्त्वना अतिचारथी निवृत्त थवानो उपदेश आपतां जे अतिचारो कह्या छे, तेमांनो एक अतिचार ते धर्माचरणना फळ विशे संदेह आने माटेनो खास शब्द छे 'विचिकित्सा' एना उदाहरण तरीके वृत्तिमां वाणिया अने चोरनी कथा आपेली छे. मित्रे आपेलो आकाशगामिनी विद्यानो मंत्र साधवा महेश्वरदत्त काळी चौदशनी राते श्मशानमां गयो, अने जेनी नीचे अग्निकुंड छे तेवी वृक्षनी डाळीए लटकता बांधेला शीकामां बेसी ते मंत्रनो जाप करवा लाग्यो. जाप पूरो करीने ते एक एक 'तणी' खड्गनो प्रहार करी तोडतो हतो. चोथी 'तणी' छेदवानो ज्यारे वारो आव्यो त्यारे तेना मनमां संदेह प्रगट्यो, 'विद्या सिद्ध थाय के न थाय, पण मारुं मृत्यु तो चोक्कस थाय'. एटले ते फरी फरी शीकुं बांधीने फरी फरी छेल्ली घडीए संदेह करतो. एटलामां पाछळ पकडवा आवती वारथी नासतो एक चोर श्मशानमा पेठो, अने झाड पर वारंवार चडताऊतरता महेश्वरदत्तने जोई तेणे कह्युं के 'तुं मने मंत्र आप अने तेना बदलमां आ धन तुं ले.' महेश्वरदत्ते साटुं कबूल कर्तुं अने चोरने मंत्र शीखव्यो. चोरे शीका पर चडी एक ज घाए चारेय 'तणी' छेदी आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करी. अहीं 'तणी' एटले जेना वडे शीकुं झाडनी डाळीए बांध्युं छे ते चार दोरडी. 'षडावश्यक - बालावबोधवृत्ति'ना संपादक सद्गत डो. प्रबोध पंडिते भूलथी 'तणी' नो अर्थ 'घासनुं तणखलुं' कर्यो छे. गुजराती कोशोमां 'तणी'नो 'बळदनी नाथे बांधेली दोरी' अने 'तंबनी दोरी' एवा अर्थ आपेला छे. मोनिअर - विलिअम्झना संस्कृत- अंग्रेजी कोशमां संस्कृत 'तनिका' ('दोरडी') नो प्रयोग माघना 'शिशुपालवध' (५, ६१) मांथी नोंध्यो छे. 'तनिका' शब्द 'तन्'='ताणवुं' धातु परथी सधायो छे. सं. 'तन्तु', 'तन्ति', गुज. 'तंति', 'तांतो', 'तांतणो 'ना मूळमां पण ए ज धातु छे. अहीं ए पण नोंधवुं [43] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसप्रद छे के, 'दोरडी' शब्द परथी बनावी काढेलो संस्कृत 'द्विरटिका' (=दोरडी) जंभलदत्तनी 'वेतालपंचविंशतिका'मां वपरायो छे. वृक्ष उपर लटकता शबनी 'द्विरटिका' कापीने विक्रमराजा तेने नीचे धरती पर नाखे छे. ए कृतिना संपादक डो. एमेनोने आ गुजराती 'दोरडी' ए शब्दना मूळमां छे तेनी गंध पण क्यांथी होय ? दो नुं संस्कृत रूपं द्वि अने बाकी रहेल रडीनुं कर्यु संस्कृत रटिका ! प्रा. तोडहिआ 'एक प्रकारनो ढोल' १. उद्योतनसूरीए 'कुवलयमाला' (इ.स. ७७९)मां आपेल अनेक रमणीय, वास्तविक, तादृश्य शब्दचित्रोमां एक स्थळे जे सुंदर संध्यासमयना व्यवहारनुं वर्णन करेलुं छे (पृ. ८२-८३) तेमां विविध देवस्थानोमां थई रहेली प्रवृत्तिनी विगतो आपेली छे. तेना समयना भिन्नमाल जेवा नगरोना जीवननो आमां वास्तविक आधार होय एम मानी शकीए. ___ यज्ञमंडपोमां मंत्रोच्चार साथे तल, घी, अने समिध होमवानो ततडाट, ब्राह्मणशाळामां वेदपाठनो गंभीर घोष, शिवालयोमां मनहर आक्षिप्तिकानुं गान, धार्मिको (व्रती संन्यासीओ)ना मठोमां डमरुनाद, कापालिकोना धर्मस्थानमा घंय अने डमरुनुं वादन, शेरीओना चोकना शिवमंदिरोमां 'तोडहिआ' वाद्योनो घोंघाट, अग्रहारोमां 'भगवद्गीता'नुं पठन, जिनालयोमा गुणमहिमाना स्तोत्रोच्चार, बुद्धविहारोमां करुणापूर्ण वचनोना उद्गार, चंडीमंदिरोमा प्रचंड घंटानाद, कार्तिकेयना देवळोमां मोर, कूकडा, चकलांनो कलबलाट, उन्नत मृदंगवादन साथे सुंदरीओथी गवाता मधुर गीत-आवा प्रकारना ध्वनिओ संभळाता हता. ___ (आक्षिप्तिका विशेनी नोंधमां में 'कुवलयमाला'ना आ संदर्भनो उपयोग कर्यो छे. जुओ Indological Studies, पृ. ८२). २. उपर्युक्त वर्णनमां 'तोडहियां-पुक्करियई' (अथवा पाठांतरे 'चुक्करियई') एवो ज़े प्रयोग छे, तेमां तोडहियानो एक वाद्य तरीके निर्देश छे. 'आचाराङ्गसूत्र' परनी शीलांकाचार्यनी वृत्तिमां 'आचाराङ्ग मां एक स्थाने प्रयुक्त (सागरानन्दसूरिसंपादन, पृ. २७५, सू. १६८; जैन आगम ग्रन्थमाला वाळा संपादनमां पृ. २४१, सू. ६७२) भिक्षुकने जे शब्दध्वनिओथी दूर रहेवा कां छे, तेमां ते [44] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भमां निर्दिष्ट विविध वाद्यध्वनिओमां खरमुहि-वाद्यनो पण निर्देश छे, खरमुहि शब्दनो तोहाडिका (सागरा०) के तोडहिका, तोट्टहिका (जैन आ.) एवो अर्थ आप्यो छे. 'कुवलयमाला' वाळो प्रयोग जोतां तोहाडिका अने तोहिका ए भ्रष्ट पाठो छे. तोडहिका (=तोडहिआ) ए साचं स्वरूप छे. 'पाइअसद्दमहण्णवो'मां तोडहिआ शब्द 'आचाराङ्ग' २, १२ एवा निर्देश साथे आपेलो छे ते आ शीलांकाचार्ये कहेलो खरमहि नो अर्थ ज होय. 'देशी शब्दकोश'मां (पृ. २३७)मात्र 'कुवलयमाला'नो संदर्भ ज आप्यो छे. 'निशीथचूर्णि' अनुसार खरमुखी एटले एवं काहला-वाद्य, जेना मुखस्थाने गधेडाना मों जेवू लाकडानुं मुख बनावेलुं होय छे ('आचाराङ्ग', जैन आ., पृ. २४१). 'देशीनाममाला' (२, ८२)मां गद्दब्भ शब्द 'कर्णकटु ध्वनि' एवा अर्थमां आपेलो छे. पासम.मां तेनो प्रयोग ‘समराइच्चकहा' मां होवानो निर्देश छे. 'कुवलयमाला मां एक स्थाने (पृ. ६७, पं. ७) मांगलिक स्तुति अने 'जय जय'ना घोषना घोंघाटना अर्थमां, तो बीजा एक स्थाने (पृ. ६८, पं. ३०) प्रचंड राक्षसना अट्टहास्यना घोर शब्द माटे गद्दब्भ वपरायो छे. एक अटकळ एवी करी शकाय के खरमुखी-वाद्यनो घोंघाट ('पुकार' के 'चुंकार') अने गधेडाना भूकवाना शब्द परथी आ गद्दब्भ (=गार्दभ्य) शब्द प्रचारमां आव्यो होय. (संदर्भ : आचाराङ्गसूत्र. संपा. सागरानन्दसूरि. पुनर्मुद्रण १९७८). .. जैन आगम ग्रन्थमाला, २ (१), १९७७. कुवलयमाला. उद्योननसूरिकृत. संपा. आ. ने. उपाध्ये. १. १९५९. भाग २. १९७०. देशीनाममाला. हेमचंद्राचार्यकृत. देशी शब्दकोश. संपा. मुनि. दुलहराज. १९८८. पाइअसद्दमहण्णवो. संपा. ह. शेठ. १९६३. Indological Studies. H. C. Bhayani, १९९३ दुली 'काचबो' हेमचंद्राचार्ये दुली शब्द 'काचबो' एवा अर्थमां देश्य शब्द तरीके 'देशीनाममाला' (पृ. ४२)मां नोंध्यो छे. तेमना 'अभिधान-चिन्तामणि'(१३५३)मां [45] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दौलेय ‘काचबो' अने दुली 'काचबी' ए संस्कृत शब्दो तरीके आप्या छे. प्राकृतकोशमा डुली एवं शब्दरूप पण मळे छे. दुली अने डुली शब्दनो प्रयोग 'उपदेशपद'मां थयो होवार्नु नोंध्युं छे. आ शब्दनो प्रयोग इसवीसन पूर्वे त्रीजी शताब्दी जेटलो तो जूनो छे ज. अशोकना तेना राज्याभिषेकना २६मा वरसे कोतरावेला स्तंभलेखोमां (रामपूर्वा, राधिआ, माथिआ) आपेल पांचमा धर्मशासनमा जे प्राणीओने अवध्य गणवानो आदेश आप्यो छे तेमनी सूचिमां दुडि (के दुळि)नो पण निर्देश मळे छे. अने अशोकलेखोना निष्णातोए तेनो 'मीठा जळनो नानो काचबो' एवो अर्थ को छे. (८) __ गुज. शेळो हेमचंद्राचार्यकृत 'अभिधान-चिन्तामणि'मां शल्य, शलल, शल्यक अने श्वाविध् ए शब्दो 'साहुडी' के 'शेढी, शेढाळी'ना अर्थमां आपेला छे. साहुडी अने शेळो बंने कांटवाळा प्राणी होईने तेमना वाचक शब्दोना अर्थ वच्चे गोटाळो थवो स्वाभाविक छे. सं. जाहक, प्रा. जाहग शेळानो वाचक छ, पण प्राकृत कोशमां तेनो 'साहुडी' एवो अर्थ अपायो छे. शललः के तेनुं स्वार्थिक क वाळु रूप शललकः. तेमांथी लगोलग रहेला बे लकारमाथी पहेलानो लोप थतां प्राकृत भूमिकाए सयलओ एवं रूप सिद्ध थाय. लगोलग रहेला बे र के ण् मांथी पहेलानो लोप करवानुं वलण नीचेनां दृष्टांतोमा प्रतीत थाय छे : । सं. करीर, प्रा, कईर, गुज. केरडो. सं. शरीर, प्रा. सईर, गुज. सयर. सं. पंचानन, प्रा. पंचायण, जू. गुज. पंचायण. आ वलण अनुसार थयेल सयलओ उपरथी पछी सयलउ अने शेळो बन्या. एकारने प्रभावे स् तालव्य बन्यो. सिऊरा मोहनलाल दलीचंद देशाईना 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'मां (पृ. ५५६, कंडिका ११) नोंध्युं छे के बादशाह अकबरना जीवन अने कार्यने [46] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगता अबुलफझलना ग्रंथ 'आयने अकबरी'मां (बीवरेजनो अंग्रेजी अनुवाद, पृ. ३, प्रकरण ४५, पृ. ३६५) अकबरे फतेहपुर सिक्रीमा इ.स. १५७८मां स्थापेल एबादतखानामां घणा धर्मोना जे प्रतिनिधिओ धर्म संबंधी चर्चा चलवता हता, तेमां सुफी, दार्शनिको, सुन्नी, शीआ, ब्राह्मण, जती, सिऊरा, चार्वाक, नाझरेत वगेरेनो समावेश थतो हतो. विन्सेन्ट स्मिथे आ यादीमां जे 'सिऊरा' शब्द छे तेनी उपर नोंध आपतां 'सिऊरा' (= श्रमणो') एनो बीजाए करेलो 'बौद्धो' एवो अर्थ साचो नथी, पण ते श्वेतांबर जैनो हता एम का होवा, पण देशाईए नोंध्युं छे. आ सिऊरा एटले तत्कालीन ऊर्दु के गुजराती भाषानो कयो मूळ शब्द ? तेनुं मूळ शुं ? सं. श्वेतपटः, प्रा. सेअवडो, तेना परथी जूनी गुजराती सेवडु विस्तारित सेवडउ, बहुवचन सेवडा. 'प्रबंधचिंतामणि मां शैव वामराशिए कहेलुं हेमचंद्राचार्यनी निंदारूप जे संस्कृत पद्य आप्युं छे (पृ. ९२, पद्यक्रमांक २००) तेमां हेमडसेवड एवो प्रयोग करेल छे जेना मूळमां तत्कालीन बोलचालनो श्वेतांबरोने लगतो शब्दप्रयोग छे. आ सेवडा- अबुलफझले फारसी उच्चारण सिऊरा एवं करेल छे. [47] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्रीहीरविजयसूरि 'ना चार प्राकृत स्वाध्याय' भूमिका १६मा शतकना महान जैनाचार्य अकबरप्रतिबोधक जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरिना गुणकीर्तनरूप, प्राकृतगाथानिबद्ध चार स्वाध्याय अत्रे प्रस्तुत छे. चारे अप्रसिद्ध छे, अने प्रायः दरेकनी एकेक प्रति ज प्राप्त थाय छे- थई छे. प्रथम स्वाध्याय, तेनी अन्तिम - पंदरमी गाथा उपरथी, प्रसिद्ध उपाध्याय " श्री धर्मसागरजी " नी रचना होवानुं मानी शकाय आमां द्रव्यपूजा करतां भावपूजानुं मूल्य - महत्त्व अधिक होवा अंगे सैद्धांतिक- तार्किक संक्षिप्त चर्चा करवा द्वारा आचार्यनी स्तुति थई छे. - सं. पं. शीलचन्द्रविजय द्वितीय अने तृतीय स्वाध्याय जाणीता कवि मुनि गणि पद्मसागरजीए रच्या छे. आ कर्ता पण आचार्यश्रीना शिष्यवृन्दमां ज अने समकालीन हता. प्रथम रचनामां पोताने वाचक धर्मसागर - शिष्य (गा. १०) तरीके नोंधे छे, छतां पुष्पिकामां तेमनो स्पष्ट नाम-निर्देश छे ज. ज्यारे बीजी रचनामां प्रथम गाथामां 'धर्मसागरजी'ने शब्दगुंफनमां संभारीने अंतिम गाथामां 'मुणि पउम' तरीके पोताने उल्लेखे छे. पुष्पिकामां तो नाम स्पष्ट छे ज. बन्नेमां आलंकारिक गुणगान छे. चोथो स्वाध्याय हीरविजयसूरि - शिष्य विजयचन्द्रविबुधे रच्यो होवानुं (गा. ४०) जणाय छे. चारेमां आ सौथी मोये - ४१ गाथाओ प्रमाण, तथा ऐतिहासिक हकीकतोनो समावेश धरावतो स्वाध्याय छे. १ थी ७ गाथामां जन्मादिनी तथा सूरिपदप्राप्तिनी विगतोनुं स्थूल वर्णन छे. ८मां गुणकीर्तन छे. ९मां गंधारबंदरे चातुर्मासनो उल्लेख, १० मां गुणगान, ११मां अकबरना निमंत्रणनो निर्देश, १२ थी २२मां विहारक्रम अने फतेपुरे पदार्पण सुधीनी विगतोनो निर्देश; एमां 'सरोतरा'ने 'सुरतरुनगर' अने 'सीरोही' ने 'शिवपुरी' तरीके उल्लेखेल छे, ते ध्यानार्ह छे. गा. २३ मां अकबर - मिलन, तथा २४ थी ३२मां शाहने प्रतिबोधनी हकीकतो दर्शावी छे, जेमां क्रमशः सरोवर ( डामर) मां मच्छीमारीनिषेध ( २५-२६), गोवधप्रतिबंध (२६), पर्युषणामां अमारिघोषणा (२७), जगद्गुरु बिरुदार्पण, बंदिमोक्ष तथा पक्षीगणने अभयदान (२८), [48] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणाने अनुलक्षीने १२ दिनहुँ कायमी फरमान (३०), पोते प्रतिमास ७ दिवस मांसाहारनो त्याग (३२) इत्यादि प्रतिपादन छे. गा. ३१मां शाहे प्रतिमास्थापना कर्यानी वात छे, तेनो अर्थ श्रावको द्वारा (गा. ३४) थती प्रतिष्ठामां शाहनी संमति होय, एटलो ज थई शके. गा. ३२मां दर्शावेली ७ दिन-प्रतिमास-मांसाहार-त्यागनी वात प्रतीतिकर एटला माटे जणाय छे के अल-बदायुनी तथा विन्सेन्ट स्मिथ जेवा इतिहासकारोए नोंध्युं छे के शाहे वर्षमां ६ मास माटे मांसाहार वर्जेलो. (जुओ 'सूरीश्वर अने सम्राट' प्रका. जैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, खंभात, ई. १९९४ पुनर्मुद्रण, पृ. १३८ थी); आनी भूमिका हीरविजयसूरिनी प्रारंभिक मुलाकातोमां सर्जाई होय ते बनवाजोग छे. ७ दिन मांसत्यागनी आ वात, आ रीते, मात्र आ स्वाध्यायकारे ज निर्देशी छे; अन्यत्र नथी. शेष गाथाओमां केटलांक धर्माकार्योनी अछडती नोंध तथा गुणवर्णन छे. आमां प्रथमनी बे रचनाओनी प्रतिओ वडोदराना श्री आत्मारामजी जैन ज्ञानमंदिरना श्री प्रवर्तक कान्तिविजयजी शास्त्रसंग्रह (क्र. २७९१ तथा क्र. २८५८)नी छे, अने पाछली बे कृतिओनी प्रतिओ अमदावादना श्री ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिरनी छे. उपयोगार्थे झेरोक्ष नकल आपवा बदल ते संस्थाओना कार्यवाहकोनो ऋणस्वीकार करें छु. श्री हीरविजयसूरि स्वाध्यायः ॥ (१) श्रीगुरुभ्यो नमः । पणमिअ वीरजिणं(णिं)दं थुणामि सिरिहीरविजयसूरिंदं । कुमयतमोहदिणंदं (णिदं) वयणामयपुण्णिमाचंदं पंचायारविआरं पवयणसिरिसुंदरीइ उरहारं । नाणद्धिलद्धपारं मुत्तिपुरिपवेसवरदारं पंचमहव्वयसुरगिरि - भारुव्वहणम्मि अहिणवो वसहो । निस्सेससूरिचूडामणी जिणपणीअजलमीणो ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ [49] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४॥ ॥७॥ ॥९॥ णणु दव्वथया अहिओ भावथओ संथुओ अ समयम्मि । ता होउ असामइअं अलं खु पासायपमुहेहिं सच्चं पुण सामइअं अहिअं अंसेण सव्वहा नेव । रययापव्वयपुंजा गुंजा-कणयं जहा अहिअं ॥५॥ अहवा देवभवाओ मणुअभवो उत्तमो . उ अंसेणं । तेणेव य देवभवो मणुअभवे उत्तमो भणिओ ॥६॥ जो पुण जइ(ई)ण भावत्थओ अ सो सव्वविरइसब्भावो । सव्वप्पयारपउरो असेसवव्वत्थयापउरो जह कणगकूडलंकिअ- वेअड्ढो सव्वओ स रययमओ । कंचणगिरितुल्लत्तं नो पावइ कहवि तुंगो वि ॥८॥ सावयभावथओ पुण मुणिदव्वथउव्व होइ अप्पयरो । अविवक्खाए दुन्नवि कमेण दुण्हं पहापहिआ दीवो दिणयरअणुओ ससिणेहो गुत्तठाणि गेहमणि(णी) । जगचक्खू पुण सूरो णेहंजणवज्जिओ वि भवे एवं जो उवएसं सपुव्वपक्खाइपेरणापुव्वं । दाउण य समणधम्मे उज्जुत्तं (ते) कुणइ धम्मिजि(ज)णे ॥११॥ दुब्बलया मुणिधम्मे जइ तेसिं सावयाण धम्मेवि । जं जं जस्स य जुग्गं आगमरीईइ उवदिसइ ॥१२॥ कप्पटु(दु)म-कामकुंभ-प्पमुहा पहुपायसेवणं पत्ता । लंछ (?)णमिसेण छलणा महिमोवाओवलंभट्ठा ॥१३॥ विणयाभावा अज्ज वि अपूरिअमणोरहा य पयमूले । चिटुंति जस्स तस्स य पयसेवा होउ मह सहला एवं सिरिहीरविजय-गुरुमुहदहजम्मभारई गंगा । पावहर-धम्मसायर-संगइआ जयउ जणपुज्जा ॥१५॥ इति समग्रमुद्गलाधिपतिनिजभुजयुगलबलविदलितवैरिराजराजितति पातसाह श्रीअकब्बर-प्रदत्त-प्रसिद्ध त्रिजगत् (द)गुरुबिरुद सकलसूरिराजराजि राजिचूडामणीयमान श्री श्री श्री हीरविजयसूरीश्वरस्वाध्यायः ॥ ॥१०॥ ॥१४॥ [50] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ मुनिपद्मसागर कृतः श्री हीरविजयसूरिस्वाध्यायः ॥ (२) नमिउं सिरिसिरिभवणं सिरिवीरं वीरनाहनयंपायं । थोसामि जुत्तिजुत्तं सूरिवरं हीरविजयगुरुं जयप-हि असत्तो गुणगणवित्थारकित्तिसंवुत्तो । जं दटुं भवखुत्तो जणो वि मुक्खं सुहं पत्तो जह नियबाहुजुएणं तरेइ नो को वि सागरं इत्थ । तह य तुह दक्खसंघो गुणचक्कं भासिउं न पहू उष्टुं गच्छइ विहु ते कित्तिभरो देवदेववयणेणं । किं अत्थि अत्थ चित्तं अत्थि पुणो ते जणसमत्ते असमत्थो किर सहिउं गओ मिगाणं वि हूग्गसुपयावं । अडवीए घोराए ण दीसए ओ थु (धु?) वं इत्थ गयमाणो वि समाणो अक्खरकामो वि देव ! जिअकामो । अवि पुण ससुओ विसुओ विचित्त चित्तंधरो सि तं सत्तक्खरनाममंतं गुणेइ जो भत्तिनिब्भरमणो अ । सत्त भया पुण विलयं जंति तस्सेव य खणेणं जह सद्दाओ विहुणो मिगाण दीवा विमुत्तवरपाणा । जह गहनक्खत्ताणं तेयाइं सूररच्छीइ तुह हीरविजयनाम-मंतेणं वयणसिद्धि वयणेसु । गुणणाओ साहूणं दिनाओ उत्तिभवणत्तं वायग-सुधम्मसायर-गुरुस्स सीसेण संथुओ सूरी । दितु किर सिद्धिसिद्धं सुक्खं सिरिहीरविजयगुरू ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ इतिश्री हीरविजयसूरि स्वाध्यायः पूर्ण ॥मु० पद्मसागर कृतिः ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ||३|| ॥४॥ श्री हीरविजयसूरि स्वाध्यायः ॥ (३) इह विमल धम्मसायर-हिमकरकिरणोवमं महावीरं । नमिऊण हीरविजयं विणये विणयेण थुत्तपहं तुह हीरविजय ! सुर-सुकित्तिकमला जणद्दणं मिलिउं । जाणे मायरमझं पत्ता कविपोअमारू ढा तुह कित्तिदिव्वकमला जई वि नुमा...थलोअसेणीहिं । रमइ तहावि बुहेहिं प्पसस्सचरिआ समक्खाया तुह कित्ति दिव्वगंगा-तरंगसंबिंदुआ समुच्छलिआ । जाणे गगणे ते खलु तार-कलावा इमे संति मुणिव ! तुह कित्तिगंगा विणिम्मिआ वेहसा जणालीणं । जाणे पुव्वसमज्जिअ-पावपणासाय लोयतिए देव ! तुह कित्तिगंगा-सलिलं सवणेण पीअमित्तं पि । सयलिदिआण तित्ति जणइ छुहाणासणं भदं सूरिवरकित्तिगंगा-मज्झं जे किड्डयंति सप्पुरिसा । तज्जलउज्जलदेहा हवंति ते नो पुणो समला सयलसुहकित्तिगंगा साहव (?) तुह मेरुउव्व भूमिअले । विट्ठउ सुरवरलब्दे-प्पकाम कीला सुहा सुभगा मुणिपउमबोहदिणयर-सरिससरूवस्स हीरविजयम्स । थुत्तपहपडियलोओ गच्छइ तुरिअं हि मुक्खपुरं ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ इति श्रीहीरविजयसूरि स्वाध्यायः पद्मसागरगणिकृतः ॥ . [52] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥४॥ ॥६॥ श्री हीरविजयसूरि स्वाध्यायः ॥ (४) पणमिअ जिणवरवसहं सयलगुणालंकिअं विगयमोहं । सिरिहीरजयसूरि थोसामि विसिट्ठभत्तीए पल्हायणम्मि नयरे कूरो नामेण वसइ सिट्ठिपहू । तस्स सुघरणी नाथी तीए जायं तणयरयणं ॥२॥ चिंतामणिरयणनिहं सेवापरसयलमणुअदुक्खहरं । नीसेसलोअपुज्जं निद्दोसं परमसुहहेउं ॥३॥ सिरिविजयदानसूरी-सरवरहत्थम्मि जेण चारित्तं । गहिअं पट्टणनयरे विवेगजुत्तम्मि सुहदिवसे नीसेससत्थणिगण-सुअभूसणभूसिओ विउलबुद्धी । गणिविबुहवायणाणं पयाण जुग्गो विगयतिन्हो ॥५॥ सूरीससुपयजुग्गो जाओ विनाणसीलसंपन्नो । तह नारय-सीरोही-नयरे वायग-मुणीसपयं संठविअं सुहदिवसे सउत्सवपुव्वयं(सउत्सवं ?) जस्स विक्खायं । . बांलिंदू वड्डमाणो सव्वकलाहिं जयउ सो जे (जो ?). ॥७॥ जिणसासणगयणतलं पयासयंतो अ धरणिविहरंतो । पच्चक्खसूरसरिसो अन्नाणतमीतमोहरणो गंधारबंदिरम्मि संपत्तो सुहदिणे जगपईवो । ऊसवपुव्वमणिसं संघेण समं सपरिवारो उज्जलचित्तो अवितहवयणो आरुग्मकायसंपन्नो । जणवरवयणं सच्चं उप्पालइ तित्थनाहव्व चउमासाअणु (साओ)पच्छा अकब्बरेणावि भूमिनाहेणं । आकारिओ मुर्णिदो बहुमाणेणं परमतोसा सुहदिवसे सुहसउणो उग्गविहारो कओ अ जेणावि ।। विहरंतो कणिआपुर-वडलापुर(रि) आगओ हरिसा तत्थ य सुहवजुवइहि मुत्ताहलमंडलेहिं सारेहिं । वद्धाविओ अ पढमं तहेव सामंतजुवईहिं ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ [53] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ तत्तो अकमिपुरम्मि साहिबखानेन पूइओ सम्म । चउरंगिणिसेणाहिं विभूसिएणं सुहे दिवसे तत्तो विस्सलनगरे वरमहिसाणे अ दिव्वपासाये । तत्तो पट्टणनयरे विमाणतुल्ले समोसरणे सिरिविजयसेनसूरि-प्पमुहो संघो पि नमइ बहुभावा । तत्तो सिद्धपुरम्मि संपत्तो सुहसुहं परमो तत्तो सुरतस्लयरे जिणिंदपासायसोहणे सवयं । तत्थ य पल्लीवइणा अज्जुणसहसाभिहाणेणं भत्तिबहुमाणपुव्वं संघविओ पूइओ मुणिगइंदो । सुरताणभूमिनाहो अभिवंदइ सिवपुरीनयरे तत्तो सादडिनयरे वायगसिरिसेहरो ससिरविव्व । कल्लाणविजयनामा सो मिलिओ बहुदिणेणा वि तत्तो अ मेडतक्खे सांगानेरम्मि पवरनयरम्मि । विहरंतो संपत्तो सुरिंदतुल्लो समिड्डीहिं एवं अणुक्कमेणं भूवइसामंतमंतिसिट्ठीहि । मिगयामिसाइभक्खण-वज्जणपुव्वं च संघविओ तत्तो फत्तेपुरम्मि जिणिंदपासायपवरहत्थिम्मि । सुरवइभवणसरिच्छे सुहदिवसे तत्थ संपत्तो तत्थ य इंदसरिच्छो अकबरो भूवई विगयसत्तू । भत्तिबहुमाणपुव्वं अभिवंदइ सुद्धसड्डव्व नियविमलदेसणाए भूमिपालो वि रंजिओ जेणं । साहिअकब्बरनामा पररायगइंद-गयसत्तू तत्तो तेणं पढमं रंजियहियएण सायरसमाणं । पउमायरं झसाई-जीवेहिं समाउलं निच्चं धीवरगणापवेसो तेसिं जीवाणमभयदाणं च । गोरासिअभयदाणं दिन्नं पुव्वं समागमणा तेणं अमारिपडहो सययं निग्घोसिओ अ नि देसे । सव्वसुपव्वसिरम्मि मउडे पज्जूसणापव्वे ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ [54] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगबिरुदं दिनं बंदिअमोक्खो कओ अ तेणावि । सारसजीवसमूहे विसेसओ अभयदाणं च गुज्जरदेसो तत्थ य पल्हायणनाम पुरवरं अस्थि । (?) मालव- लाहूरमरुत्थली विमले गोड सुलताणे । ढिल्लीमंडल मुहे देसे निग्घोसिओ पहो आसुरं पु (फु)रमाणं दिनं जीवस्स रक्खणं परमं । बारसदिणाण निययं विमले पज्जूसणापव्वे झल्लरि-भेरि-नफेरी - दुंदुहिनिग्घोसपुव्वयं तेणं । जिणमंदरिम्मि पडिमा - संठवणं तेण कारविअं आमिसभक्खणचाओ सत्त दिणाणीह मासमज्झम्मि जस्स पभावेण कओ खेमकरो सो गुरू जयउ उच्छवपुव्वं जेणं कया पट्ठा जिणस्स पडिमाणं । भूवइसक्खं दिक्खा दिन्ना संविग्गसङ्घस्स अह थानसिंहमंती कारेइ जिणस्स सुंदरपइटुं । हयरासि - मुद्दिआई - दाणं दिन्नं पमोएणं मग्गणजणस्स दिन्नं गयदाणं जस्स सावएणावि । पुणरवि लक्खपसाओ कओ अ एगस्स गीअस्स वायगपयं च दिनं सेवापरसंतिचंदविबुहस्स । स्नो अकब्बरस य समत्थआउज्जनिग्घोसे तह मेडताभिहाणे नागपुरे तह य सूरतिप्पमुहे । नयरे धनविजयेणं जिणगेहे ठाविआ पडिमा सयलभयाणं च हरो कंचणवन्नो विसुद्धविन्नाणो । सद्दंसणेण कलिओ सोभागी कन्हजणउव्व पज्जुन्नरूवकंतो खंतो दंतो पसस्सगुणनिलओ । रावणगइकंतो सुधम्मझाणट्ठिओ भयवं सिरिहीरविजयसूरि-सीसवरो विजयचंदविबुहेसो । सिद्धबलसोमकित्ती जिअविज्जासुरगुरू ( ? ) तस्स एवं भत्तिभरणं सीसेणं संथ्यो गयकलंको । सिरिहीरविजयसूरी जुगपवरो परमसुहहेऊ टि. १. पंक्तिरियमप्रस्तुताऽपि प्रतौ यथा तथाऽत्रापि लिखितास्ति ॥ [55] ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४१॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति स्वाध्यायः ॥ श्री रयणसेहरसूरि कृत - श्री गौतमस्वामी रास : परिचयात्मक भूमिका -सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणि मध्यकालीन राससाहित्यमां तेमज सांप्रत जैन जगत्मां उपाध्याय श्री विनयप्रभ-रचित "गौतमरास" (र. स. १४१२) अतिविख्यात छे. आम तो, गुरु गौतम स्वामीना गुणकीर्तननी नानी-मोटी असंख्य रचनाओ (मध्यकालीन) प्राप्त छे. परंतु ते सर्वमां प्रमुख स्थाने तो आ रास ज बिराजे छे. आ प्रकारना बीजा रास अद्यावधि जाणमां के प्रकाशमां नथी आव्या. थोडा वखत अगाउ प्रस्तुत "श्रीरत्रशेखरसूरि-रचित गौतम रास"नी एक हस्तप्रतिनी झेरोक्ष नकल मारा हाथमां आवी. ए जोतां एक विशिष्ट वस्तुनी प्राप्तिनो आनन्द तथा अचंबो अनुभव्या. श्री विनयप्रभवाचक-कृत गौतम रास करतां फक्त सात ज वर्ष पूर्वे, वि. सं. १४०५मां, रचायेलो आ रास आजपर्यंत अज्ञात ज रह्यो छे. केम के आ रासन चलण जैन संघमां परंपराथी जळवायुं नथी. जो आq चलण होत तो, विनयप्रभ-कृत रासनी, विविध भंडारोमांथी, विभिन्न समये लखाएली अनेक प्रतिओ मळी आवे छे, तेम आ रासनी प्रतिओ पण मळती ज होत. ज्यारे अत्यारे तो आनी मात्र एक ज प्रति प्राप्त थाय छे, थई छे. जेनी नकल मारा सामे पडी छे. अन्यान्य भंडारोनां सूचिपत्रो जोयां, परंतु क्यांय आनी प्रति होय तेवू ध्यानमां नथी आव्यु. कोई अभ्यासीना ध्यानमां होय/आवे, तो तेनी विगत जणाववा कष्ट उठावे. ___मने मळेली नकल-मारा मित्र कविवर्य मुनिराज श्री धुरंधरविजयजी द्वारा मळी छे. तेमणे पोताना परिभ्रमण दरमियान, वल्लभीपुरना संग्रहमां आ प्रति जोवा मळतां तुरत तेनी झेरोक्स नकल करावी लीधेली , ते तेमणे मने आपी छे. तेमनो ऋणस्वीकार करवो ज जोईए के आवी उत्तम कृतिनी एमणे आपणने भाळ मेळवी आपी. प्रति बे पानांनी छे. बन्ने पानांनो एक हिस्सो दरादि कारणे कपाई गयेलो छे, तेथी थोडोक अंश त्रूटे छे. प्रतिनी लखावट शुद्ध प्राय छे. पुष्पिका आदि [56] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांई छे नहि. अनुमानतः १५मा शतकनी होवा कल्पी शकाय. ७५मी अंतिम गाथामां निर्देश छे ते प्रमाणे, रासना कर्ता रत्नशेखरसूरि छे, अने थिरपुर-थरादमां, सं. १४०५मां तेमणे रास रच्यो छे. पोताना गच्छ के गुरुनो नामोल्लेख कर्ताए नथी कर्यो. अनुमानतः "सिरिसिरिवालकहा"ना प्रणेता रत्नशेखरसूरि ते ज आ रासना पण कर्ता होय, तो शक्य छे. ___ आ रचनाने विनयप्रभवाचकना गौतमरास साथे सरखावी जोतां आ रचनानी छाया ए रचना पर केटलेक अंशे पडी होवानुं अनायास जणाई आवे छे. बन्नेनी विगतवार तुलना करवी रसप्रद बनी रहे. भाषा, ढाल वगेरे विशे तो डॉ. भायाणी जेवा तज्ज्ञ ज प्रकाश पाडी शके. अत्यारे तो आ कृति, अने तेमांना केटलांक कठिन तथा पारिभाषिक जणाता शब्दोनी एक नानी सूचि- आटलुं ज अहीं प्रस्तुत थाय छे. ॥१॥ श्री रत्नशेखरसूरिविरचित श्री गौतमस्वामिरासः ॥ ...तुम माइबीउ सिरिवन म(स?)हुत्त । . हिययकमलि झाएवि वीरु जिणवर अरिहंत ॥ पभणिसु गोयमसामितणुउ गुणसंथव-रासो । जि... इ होइ भवियलोय मणि धरि उल्लासो प(पु)हवि-पसिद्धइ मगहदेसि वर गुब्बर नामु । सार सरोवर कूव वावि धणि कणि अभि [रामु] । [इ] ह निवसइ वसुभूइनामि दियराउ पसिद्धउ ... ... ... ... ... ... ...वंसु बहुरिद्धि समिद्धउ तेह तणइ घर घरणि पुहविनामिइ सुपहाणी निम्मलसील पवित्त गुत्त... ...सीताराणी । तासु कुच्छि सिरिरायहंसु पहिलउ इंद्रभूइ नंदण बीजउ अगनिभूइ तीजउ वाउभूइ तेजि सहोयर कण[यवन्न पडिवन्न सरीरा ॥२॥ ॥२॥ ॥३॥ [57] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४॥ ॥६॥ विणय विवेक विचार सार गुणवंत गंभीरा । चउदह विद्या निपुण भणी गुणगउरव पावहिं वेय वरवा[ण]हिं पांच पांच सय छात्र पढावहिं ते तिन्नइ उवज्झाय राय-राणिहिं संमाणिय भगति करी विप्र सोमल वधि पावापुरि आणिय । जन्न करावण रिसि देसि देसंतर केरा तेडिय आवहिं तित्थ साढ(आठ) उवज्झाय अनेरा ते स (तेम)वियत्तु सुहंमु बेवि पण पण सयजुत्ता मंडिय मोरियपुत्त सड्ढ ति ति सयसंजुत्ता । तह य अकंपिय अचलभाय मेयज्ज पभासू तिहुं तिहुं सयसउं आवि करहि नियविज्जविकासू इम मिलिया विप्र सहससंख तिहं वेद वखाणहिं मंडहिं जन्न करंति होमु परमत्थ न जाणहिं । इणि अवसरि जिण वद्धमाण केवल पावेई लाभ जाणि जगनाह तिहां तक्खणि आवेई वस्तुः गाम गुब्बरि गाम गुब्बरि विप्र वसुभूइ तासु पुत्त पुहविं गरुया इंद्र-अगनि-वायभूइ भणियइ । वर वेयविद्यागुणहं जन्नकाजि धरि ते जि गणियइ ॥ पावापुरि सोमलतणइ मिलिया बंभण लोय ।। वीरजिणेसरु आवियउ आणंदिउ सहु कोय प्रथम भाषा ॥ वीरजिणेसर आगम जाणी तक्खणि आवहिं देव विमाणी । पुर पर सिरि जोयण विसथारो समवसरण मंडहिं जगि सारो ॥९॥ रुप्प-कणय-रयणुत्तम सालो कणय-रयण-मणिसिहर विसालो । छत्त चमर किंकिल्लि पहाणू जाणीजइ किरि अमरविमाणू ॥१०॥ तहिं रू णझुण किं महाधज लहकइ धूपघटी घण गंध महक्कइ । देवकुसुम-परिमल महमहए सुरदुंदुहिं सुणि जणु गहगहए ॥११॥ तहिं बइसी जिणवर वधमाणू करइ अमियमइ वाणि वषाणू । ॥७॥ ॥७॥ ॥८॥ [58] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवहिं देवी देव तुरंता दीसहिं गयणि विमाण फुरंता ॥१२॥ एकि भणहिं विप्र-आहुति लेवा अरिरै ! पेखहु आवहि देवा । जाव सु सुरगणु जिणदिसि जाए, तउ सर्वज्ञ भणी जणु धाए ॥१३।। तउ इंद्रभूति भणइ मुझ टाले सर्वज्ञ कोई नहीं इणि काले । मूरष लोक भणी जणु धाए, अहवा करिसु निरंतर(निरुत्तर)जाए ॥१४॥ एम भणी आविउ इंद्रभूइ, चित्ति चमक्किउ देषि विभूइ । किं इहु साचउ सर्वज्ञ होइ, किं वा इंद्रजाल इहु कोइ ॥१५॥ तउ जिणवरि आवतउ बुलायउ, हो इंद्रभूति ! भलइ तुं आयउ । सो चिंतइ किमु नामु वियाणइ, अहवा कवणु जु मुझु न जाणइ ॥१६॥ पुण जइ चित्ततणउ संदेहो, कहइ तु मानउ सर्वज्ञ एहो । तउ जिणि तसु मनि संसउ जाणी, तक्खणि भंजइ वेद वखाणी ॥१७॥ तं सुणि गोयम छ(छा)त्रसहित्तो, वरिसि पंचासा लेइ चरित्तो । सेस उवज्झाय इणई क्रमि आवइ, (१/२)गयसंसय सवि संजमु पावइ ॥१८॥ वस्तु : वीर जिणवर वीर जिणवर करइ वक्खाणु देवासुर मिलिय सवे मणुयसंख नवि कोइ पामइ ॥ इंद्रभूति अभिमानि चडी वादकरण जिणपासि आवइ ॥ वीरवयण सुणि लेइ व्रतो, आराहइ जिणपाय । इणि परि बीजा ही लियइ, संजम सवि उवज्झाय ॥१९॥ द्वितीय भाषा ॥ ते गोयम-पामुक्खो, मुणिवर जिण-पासइ । पूछइ कर जोडेवी, प्रभु तत्तु पयासइ तउ जिणु त्रिहुं पय तत्तु कहेवी, गणहर-बुद्धि विकासु लहेवी । एग महूरति रचइ दिठिवाउ, चउविह संघ रचइ जिणराउ ॥२१॥ वासवि आणीय वास, लेईय जगनाह । गणहर ठविय इग्यार, सुर करइ उच्छाह ॥२२॥ जिम गहगण-तारा धुरि चंदो, जिम गिरिवरि धुरि मेरुगिरिंदो । ॥२०॥ [59] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२८॥ जिम दीवहं धुरि जंबूनामि, तिम गणहर-धुरि गोयम सामि ॥२३॥ बीजी पोरिसि बइसी, जिणवर-पयठाणी । गोयम करइ वखाणू, अमृतोपम वाणी ॥२४॥ जिम जिम मुणिवर तत्तु पयासइ, संखातीत भवंतर भासइ । तिम तिम लोयहं मनु इम डोलइ, इहु छदमत्थु कि केवलि बोलइ ॥२५॥ सुयकेवलि भगवंतो, सो साहु मुणेई । तहवि जिणेसर वयणू, आदरि निसुणेई जाणंतेवि ण गणहरराय, वीर जिणेसर आगलि थाय । परहित-हेतु जि पृच्छा कीधी, गोतमपृच्छा ते सि(सु)प्रसिद्धी ॥२७॥ मुनिपति अति-अप्रमत्तो, छट्ठि तपु पारइ । बहुविह लबधिसमिद्धो, जगि जसु विसथारइ गुणिहिं न गोयम को तुडि पावइ, पुण मुझ मनि एहु कउतिगु भावइ । इसी भगति जिणवर जु वहेइ, सो जि किम केवल न लहेई ॥२९॥ सालपमुह जे सीस, देषी सुणी राए । ते सवि केवल(लि) हूवा, गोयम सुपसाए चंपापुरि जिणवर पणमेवी, सीसहं केवलनाणि मुणेवी ।। गोयमु चिंतइ किसउ विनाणू, एकु जि हडं न लहडं वरनाणू ॥३१॥ वस्तुः चरमजिणवर चरमजिणवर पढमवरसीसु । निसिदीस जिणपयकमला-रायहंससम सरिसु सोहइ । सुहज्झाण-सुयनाण-गुणि अमियवाणि जणचित्त मोहइ ॥ जे जे दिखइ सीस तहिं, पावइ केवलनाणु । [ब]पुरे ! गोयमगुरु सकति, अणहूंतउ दे दाणु ॥३२॥ त्रितीय भाषा ॥ जो नियसकति प्रमाणू ए अष्टापद तीरथ नामू ए । सो नस... [के]वलनाणू ए, निच्छइ होस्यइ एणि भवे ॥३३॥ इसउ अरथु वखाणी ए, देसण करि जं रहिय जिणु । सुरहं वयण तं जाणी ए, गोय[म]...त कंठि...ए ॥३४॥ अष्टापदि तिणि ताली ए, क्रमि क्रमि त्रिहुं पावडिय लगे । ॥३०॥ [60] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४१॥ कोडिन्न-दिन्न-सेवाली ए, पण पण सय तावस चडि[ए] [गो]यम जिण आएसी ए, चडतां तावस देषि करे । चिंतहि किम चडेसी ए, एहु ज दीसइ थूलतणु चारण लवधि प्रमाणू ए, मुणि(वर चडि)उ गिरिसिहरे । तावस तिणिही ठाणू ए, टगमग जोवंता रहिय दाहिण दिसि पयसेवी ए, भरहेसर कारणि भवणि ।। जिण च[वीस] [ठठेवी ए?]...चारि अट्ठ दस दुन्नि क्रमि तहिं वेसमणु करेवी ए, गोयम पुंडरियज्झयणु । तं पुण चित्त धरेवी ए, जंभग सुर वयरसामि-जिउ (२/१)वलि वलतउ गणहारू ए, तावस देषी इम भणए । मनवंछि आहारू ए, कहउ किसउ तुम्ह दीजिसिए ति मुणि भणइ अम्ह सामी ए, निगुरउ आगलि तप कियउ हिव पुणि तुम्हि गुरू पामी ए, षीर पांडु घृत परि गमए इकु पडिघउ गणधारी ए, षीर आणि आषीणि किय । मुनिमंडलि बइसारी ए, पूरी पात्रा पनर सय पंच सयह सुहज्झाणू ए, जिमतह जिमतह अम्रितरसो । साचउ सुगुरू प्रमाणू ए, कवल काटि (?) केवलि हूवए पंचसयहं पुण नाणू ए, समवसरण पेषतयहं । सेस सुणंत वषाणू ए, केवलसिरि सयंवर किय अधृति धरंतु मुणिंदू ए, केवलकारणि अतिघणउ । देइ उलंभउ जिणंदू ए, कणयदिटुंतु परीच्छवइ गोयम ! म करि प्रमादू ए, सुणि दुमपत्तय अज्झयणु । चित्ति म धरिसि विषादू ए, अंते तुल्ला होइसहं वस्तुः नायनंदण नायनंदण पढम गणधार अष्टापदिहिं जिण नमवि दिक्ख देवि तापस जिमाडिय । सुहज्झाण उवएस करे खवगसेणि केवल पमाडिय ॥ अप्पण केवलकारणिहिं चित्ति धरंतउ खेउ । वीरि भणिउ म म अधृति धरि, होस्यइ तुल्ला बेउ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ ॥४६॥ ॥४७॥ [61] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ भाषा ॥ 114011 ॥५१॥ मगहेसर सेणियपमुह सयल नरेसर बंदि पाउ । भवियलोय - आणंद करो, महिमंडलि विहरइ मुणिराउ नाणगुणिहिं केवल तुलए, सरलपणइ पुण बाल विसेषई । गोयमगुरु गुरुसमरसभरिउ, राय रंक समद्रेठिं पेखइ बालक छह वरिसहंतणउ अइमुत्तउ गुरु गोयम रासे । देषी प्रतिबोधिउ लियए, संजम वीर जिणेसर पासे त्रिविट्ठि वियारिय सीहजिउ, विप्र जुउ जिणवर दीठइ नासइ । गोयमगुरु करुणानिलउ, तेहइ मनि आणंद उल्लसइ वीरवयणि नियदोसलवो जाणि जि आणंदु जाइ खमावइ । तिहं मुणि अज्जवगुणतणउ, केवल विणु कोई पार न पावइ ॥५२॥ सावत्थिय पुरवर मिलिय बिहु परियरिय गुरुगोयम - केसी । धरम विचारु करंति तहिं सीसहं संसय-भंजण - रेसी केसी जि जि पृच्छ करइ गोयमु तिहं तिहं अ[ थु] कहेइ । तउ केसी सीसिहिं सहिउ वीरि कहिउ व्रत - वेस गामागरपुरपट्टणिहिं खेडमडंबहिं करइ विहारू । पावापुरि पावस रहिउ वीर जिणेसरसिउं गणधारू वस्तु: गुणिहिं गरुवउ गुणिहिं गरुवउ प्रथम गणधारू सुविचार घणसार सम विमल चित्त चारित्तसुंदरु । बहुलोय - संसय- तिमरु पूरु-सुरु पणमियपुरंदरु ॥ गामागरपुरपट्टणिहिं विहरंतर गुणरासि । वीरजिणेसरसउं रहिय पावापुरि चउमासि ॥५३॥ वहेइ ॥५४॥ पंचमी भाषा ॥ कत्तिय अमावस वीरू जिणु, पुर परिसरट्ठिय गामि ते । बोहेवा दिवसरम दिउ, पेसिउ गोयमसामि ते तं प्रतिबोधि करेवि तर्हि निसि रहियउ गणधारु ते । जां जोवइ तां गयणियले, सुरगण मिलिय अपारु ते [62] ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तउ जा...ण [जाणे जिण ?]खिव समउ चिंतउ गोयमसामि ते । जिणवरि किणि अवसरि अहह ! हउ पेसिउ इणि गामि ते ॥१९॥ तीस वरिस मइ सेवियउ के [वलना]णि ईम ते । जोवह मुझ टउलावि हिव आपण चालिउ कीम ते ॥६ ॥ सामिय ! अम्ह बंभण भणिय मागेवा हेवाउ ते । ऽऽऽपु... लसिरि सई धणिय, तुम्ह नासिवा न ठाउ ते ॥६१॥ जो इणिही परि सेवियए, देई न कांई लागु ते । तसु ऊपरि इमहीं घणउ, हिय[डइ कां]ई रागु ते . ॥६२॥ अरे मन ! कांइ तूं टलवलहि, नेहिं न लीजइ एह ते । इम चिंतितहं गणहरहं तुटउ ज्झबकि सनेह ते . ॥६३।। रा(२/२)...[राति विहाती] वीरजिणु, जं पाविउ निरवाणु ते ।। तक्खणि ज्झाणंतरि हूवउ, गोयम केवलनाणु ते ॥६४॥ वस्तुः वीर आइसि वीर आइसि गामि वर विप्पु . ... ... ... ... ...जिणसमए जाव जंतु सुरगण निहालिउ । तं गोयमु मनि चिंतवइ, अहह नाह ! हउं केम यलिउ ।. राति विहाती जिण समए वीर हू [उ नि)]व्वाणु । उप्पन्नउ तिणिहीं समइ, गोयम केवलनाणु ॥६५॥ षष्टा( ठी) भाषां ॥ गोयम-केवलमहिम करेवा, मिलिय सुरासुर खेयर [देवा] । रचइ अट्ठोत्तरसहसदलो । कणयकमल जणमण-उल्हासणु रयणरचिय कनिय उवरे । जगमगंतु मणिमय सिंघासणु ॥६६॥ । जिम महिमंडलि मेरु सुसंठिउ, जिम कप्पतरु पीढि बइठिउ । तिम तिण कंचणकमल पहो !! करि पउमासणि बं[वंदि?] बईठउ, देसण करतउ गुहिर सरे । धन्न ति नरवर जिहिं नयणिं दीठउ ॥६७॥ एकि सुरासुर खेयरराया, क्ल वलि वंदहिं गोयमपाया । इकि मनि ऊलटि गुण थुणहिं । एकि सुताल सुसरि सरि गायहि, एकि नाचहि तं रंग करे । इकि वादित्र सुछंदिहिं वायहिं . _ [63] ॥६८॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७९॥ देखि अचंभ मु मनि आणंदिय, सिरि धुणंत भणहिं सुर वंदिय वपु रि ! निरूपम रू पि पहो ! । कटर ! कियउ आसणु किणि वणि, किसउ समुज्जल रूपममा(ममाणी?) । अरिरि ! किसीअ अमृतोपम वाणी ! इम केवलसिरि सयंवर वरियउ, सहस पचासा मुणि परिवरियउ । तिहुयणभवण उज्जोयकरो । मंगलदीवउ भणि मुणिराओ आराहीजइ भविय जणि । सहस पंचासा तव विक्खाउ सुर-तरु-धेणु भणी जगि सारो, जणमणवंछिय सुहदातारो । तेय जि जिनिउ अवयरिय (?) । जसु मुणितणइ तियक्खर नामी, न्योयि (?पावि?)सु मणवंछिय दियए । गुणि गरुवउ गुरुगोयमु सामी जाणे पंचपरमिट्ठी तूठा, जाणे सात अमिय-घण वूठा । जाणे नवनिधि करि चडिय । जाणे कोडिमहारस सीधउ, जइ उठतहं प्रहसमए । गोयम नामु गहण छुड कीधउ ॥७२॥ गोयम केवलि महि विहरंतउ, जणमणसंसयतिम(मि)रं हरंतो (तउ) । तेयवंतु दिणि दिणि उदवं(यं)तउ ।। कुग्रह कुमय विहंडणउ, भविय लोयपडिबोहकरो । सहसकिरण जिम जगि जयवंतउ जयवंतउ जिणसासणराजो, परम महोच्छव मंगलकाजो । पहिलउ वृद्धि वधावणउ ए । पढहिं गुणहिं जे गोयमरासो, अष्ट महासिद्धि नवह निधि । तहिं घरि निश्चल करहिं निवासो चउदह सय पंचोत्तर वरिसे, थिरउरपुरि गरुवइ मण हरसे । रासु एहु गोयमतणउ । रयणसिहरसूरिदिहिं कीयउ, पढत गुणंतहं भवियणहं । रिद्धि वृद्धि मंगल सुह दियउ इति श्रीगौतमस्वामिरास समाप्तः ॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ [64] Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रण-त्रण 'गौतमरास' गत -कठिन-शब्दकोश गाथा शब्द अर्थ १. माइबीउ मातृका-बीज-हींकार सिरिवन 'श्री' वर्ण सहुत्त सहित-सहउक्त ५. जन्न यज्ञ ६. पण पण पांच पांच सड्डतितिसय० साडा त्रण-त्रण सो० तिहुं तिहुं नियविज्जविकासू निज-विद्या-विकास ७. केवल केवलज्ञान ८. पुढवि गरुया पृथ्वीमां वडा, गौरववाळा, आगम आगमन देव विमाणी वैमानिक देव विसथारो विस्तार समवसरण तीर्थंकरनी धर्मसभा सालो शाल-कोट किकिल्लि अशोक वृक्ष किरि किल-खरे (अव्यय) २०. पामुक्खो प्रमुख-वगैरे १०. तत्तु तत्त्व दिठिवाउ वास २४. पोरिसि २२. दृष्टिवाद-द्वादशांगीरू प जैन आगम चंदनादि द्रव्योनुं चूर्ण पौरुषी-जैनप्रसिद्ध पुरषप्रमाण छाया प्राप्त कालविशेष पादपीठ पर संख्यातीत-असंख्य भवांतरो - पूर्वभवो पयठाणी २५. संखातीत भवंतर [65] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. छदमत्थु केवलि सुयकेवलि छट्ठि तपु पारइ लबधिसमिद्धो सुमन २८. छद्मस्थ-केवलज्ञान पूर्वेनी अवस्था केवलज्ञानी श्रुतकेवली-दृष्टिवादना ज्ञाता बे उपवासना पारणे बे उपवास करे. विशिष्ट सिद्धिओथी समृद्ध यश होड, स्पर्धा जसु कौतुक २९. तुडि कउतिगु सुहज्झाण तिणि ताली पावडिय ३५. शुभ ध्यान त्रण पंक्ति पावडीए - पगथिये तावस तापस वेसमणु थूलतणु स्थूलकाय चारणलबधि विद्याचारण-जंघाचारणनामे लब्धि ४, ८, १०, २,ए क्रमे २४ तिर्थंकरनी प्रतिमाओ ते मंदिरमा स्थापित छे. वैश्रमण-कुबेर पुंडरियज्झयणु 'पुंडरीक' नामे अध्ययन जंभग सुर 'तिर्यग् जुंभक' नामनी देवजाति जिउ जीव निगुरउ नगुरं-गुरु वगरनुं ४२. पडिघउ पडघो-गोचरीनुं पात्र, प्रतिग्रह आषीणी अक्षीण -अक्षय उलंभउ ओलंभो - उपालंभ - ठपको परीच्छवइ प्रीछवे - परख करावे ४६. दुमपत्तय 'द्रुमपत्रक', उत्तराध्ययनसूचना १० मा अध्ययन- नाम खवगसेणि क्षपकश्रेणि, आत्माना ऊर्ध्वगमननी जैन संमत विशिष्ट प्रक्रिया ४७. [66] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३. सात ४८. सेणियपमुह ४९. समद्रेठिं अइमुत्तउ त्रिविट्ठि वियारिय सीहजिउ ५२. आणंदु अज्जव० सावत्थिय केसी रेसी ५५. खेड,-मडंब पावस ५६. तिमरू पूरु सूरु बोहेवा दिवसरम दिउ खिवसमउ ६१. हेवाउ ६२. लागु ६६. कन्निय ७१. सुरुतरु-धेणु ७२. सात अमियघण प्रहसमए 'श्रेणिक' (राजा) प्रमुख समदृष्टिथी अतिमुक्तक (कुमार) त्रिपृष्ठ (महावीर स्वामीनो १८ मो पूर्वभव) विदारित - फाडेलो सिंहनो जीव आणंद श्रावकने आर्जव० श्रावस्ती (नगरी) केशीगणधर (पार्श्वनाथ-शिष्य) माटे बन्ने विशिष्ट ग्राम-प्रकार वर्षावास - चोमासुं तिमिरने पूरा करनार सूर्य बोध आपवा देवशर्मा द्विज अन्तिम समय (?) हेवाक - टेव लागो-वळतर कर्णिका कल्पवृक्ष - कामधेनु सुख अमृतनो मेघ प्रभात-समये फुड-स्फुट - प्रगट (?) ५७. [67] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -कृत मेरुरत्न - उपाध्याय-शिष्य-व पांडवचरित्र - बालावबोध जैन परंपरा प्रमाणेनी महाभारतकथा के पांडवचरित्र विषयक आ जूनी गुजराती भाषामां रचेल बालावबोधनी, सद्गत मुनि जिनविजयजीनी पासेथी मळेली एक मात्र हस्तप्रतने आधारे अहीं आपेलो पाठ तैयार कर्यो छे. हस्तप्रतमां कुल ९० पत्र छे. पाठ अधूरो छे. जरासंधवध अने पछीना नेमिचरित्रना, नेमिनाथे कृष्णनुं मन राखवा अनिच्छाए विवाह करवानुं स्वीकार्य छे एवी आकाशवाणी एटला अंश पछी प्रतनुं लखाण अटक्युं छे. पुष्पिका पण नथी. एटले कर्ता, लेखन-संवत, लेखनस्थान वगेरेनो निर्देश पण नथी. प्रतनी प्रतिलिपि अधूरी ज छोडी देवाई छे. प्रत झीणा अक्षरे स्पष्टपणे लखाई छे. अशुद्धिओ ओछी छे. कोईक शब्द चूकी जवायो छे. कोईक कोईक पंक्ति पण. अनुनासिक, ह्रस्वदीर्घ, सकारशकार वगेरेना लेखन बाबत केटलीक असंगति छे, जे बीजी जूनी गुजराती हस्तप्रतोमां जेटली मळे छे तेना प्रमाणमां ठीकठीक ओछी छे. केटलीक देखीती भूलो सुधारी लीधी छे. अर्थ के पाठ अस्पष्ट के शंकास्पद लाग्यो छे त्यां ए शब्द के पंक्तिनी पासे प्रश्नार्थ मूक्यो छे. पत्रदीठ २३थी २५ पंक्ति अने पंक्तिदीठ ६६ थी ७५ अक्षरो छे. लखाणनुं कुल माप केटलुं छे तेनो अंदाज सहजपणे आपी शकाय तेम नथी, केम के कृतिनो अमुक अंश गद्यमां ('बोली'मां), अने अमुक अंश पद्यमां (मुख्यत्वे दुहा, चोपाई) एम उत्तरोत्तर चाले छे, अने लहियाए आपेल क्रमांक माटे गद्यांशना एकमनो शो आधार छे ते सहेजे नक्की थई शके तेम नथी. परंतु प्रतनुं लखाण ज्यां अटक्युं छे, त्यां सुधी (आगळ आवी गयेला ५६००ना आंकडा पछी १थी शरू करीने १६ सुधीना क्रमांक मळे छे तेथी) ५६१६नी संख्या थाय छे. पांडवकौरव -सेना युद्ध माटे सज्ज थई सामसामे आवी रही अने रणवाद्योनो कोलाहल थयो त्यां सुधीनी कथा पछी ७१मा पत्रना पहेला पृष्ठ पर, चालु वर्णन वच्चे नोंध मूकेली छे. लहियाए आपेला क्रमांक ४७८१ पछीनी पहेली बे पंक्ति पछी नीचे प्रमाणे छे : जर किमइ वाग् वाणी सरस्वती तूसइ, वली विदुर- शिरोमणि पंडित [68] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरुरत्न तणां पद-कमल तूसई तु कुरव-पांडव-तणा युद्ध-तणी लव-लेशमात्र संखेपि वर्णना कीजइ । (४७) (३) वागुवांणि पय लागी वीन, जोडि बेउ नांमी सिरु नमुं । देहि माइ मझ वांणी निरमली, कवित एह करिवा मझ मनि रुली ॥ (४७) (४) मेरुरत्न-गुरु-ने पगि लागुं, कवित एह करिवा मति मागुं । झूझ-नी परि जिसी हुं जांणुं, माहरी गति-लगइ सु वखांणुं ॥ (४७) (५) उत्तरकुमार विजय करीने विराटनगरमां पाछो आवे छे त्यारे तेना पिता तेना शौर्यनी प्रशंसा करे छे. तेना प्रत्युत्तरमा; उत्तर जणावे छे के ए पराक्रम बृहन्नलानु छे. ते पछी पत्र ७०ना पाछळना पृष्ठ उपर लहियाए आपेला क्रमांक ४१ पछी नीचे प्रमाणे कर्ताविषयक नोंध छ : छंद घटा सरसति-सामिणि माइ पाय-पणांम भाविहि किज्जइए । मागेसु निरमल वांणि अविरल तीह लाहू लिज्जइए । जइ किमइ तूसइ माइ सरसइ ऊपजइ तिसु मइ घणी नरवर-सु-पांडु-नरिंद-नंदण-गुण-सुवन्नण रढ घणी ॥ चंद्रगछ-राउ स तवह पक्खह नामि कुमइ पणासइए । सांमली सरसइ विरुदु वहइ वांणि सुमइ उल्हासइए। पउम जिम वयण-विकास अणुदिणु अहिणवा गुरु गोअमं गुण भूरि सिरि जयचंद-सूरि गुरु जोडि कर नितु पय नमुं तस सीस मांमट-साह-नंदण कवण जगि तस उप्पमं । सीलवइ-नींनादेवि-उरि सरि रायहंस अणोवमं । सोभाग-सुंदर जगह मणहर वाणि-अमीअ सु जलहरं गुणि सीलि निम्मल कंति-जलहर मेररयण-मुणीसरं (पाठां० मुणिवरं) वर विणय लावण कला बुहुतरि सयल सुय परमाणयं । एगार अंग सु चऊद पूरव तत्त नवह वखाणयं वादीअ-विहंडण-मांण विज्जा-सयल-परम-निहांणयं [69] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरण-लक्खण-छंद-गुण अहिंनाण-केवल नांणयं ॥ रोहिणीअ-वर आसोअ-पुण्णिम-मयंक जिम मुह सोहइए वक्खांणि वांणि सुदेसणा-रसि सविअ-जण-मण मोहइए । निग्गोअ-नरय-विआर चउविहि धंम्म-भेय सवि जांणइए ॥ मय-गव्व-कोहकसाय-लोह रिआसना नविं आणइए जय मुहि हुई लख जीह जीह जीह लख वागेसरि वागेसरि सवि मणह भावि जस, दिइं तूसी वर । सागर कोडाकोडि जगिहि जगि जे नर जीवइ नवि आहार निहार जास नर नींद्र न आवइ । सिद्ध जिम पउम-आसणि रहइ केवलि लबधि स ऊजमिहि । इम भणइ वनु सवि मेररयण-गुण सोई नर वंण्णवि नवि सकहि जय मुणिवर मेररयण तूसई तु सवि कला लहुं लीला सहि . भाषा, शैली वगेरेनुं स्वरुप जोतां १५मी सदीनो अंतभाग रचनासमय तरीके लई शकाय. आ बालावबोधनो कृष्णजन्मथी कंसवध सुधीनो खंड (पत्र १०ख थी १५ख) में संपादित करेल कीकु वसहीकृत 'कृष्णबालचरित्र' (१९९२)मां परिशिष्ट रूपे (पृ. ६२) प्रकाशित कर्यो छे. ओं नमः श्री नेमिनाथाय । गिरनार-गिरिशृंगे नमः(?नत्वा) श्रीनेमिनं जिनम् । स्नानं गजपतेः कुंडे कृत्वा पापः प्रमुच्यते ॥ (कुरुवंश) कासमीर-पुर-मंडणी पणमीअ सरसइ-पाउ । गुण गाएवा पांडु-सुअ मझ मनि लागु ढाउ । पहिलुं अवझाउर-नयर आदिनाह तिह राउ । मुरदेवि-नंदण नाभि-सुअ पणमइं सुर नर पाउ ॥ [70] Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमेसरिम-सुह मेल्हि करि अंगीकरिउं चारित्र । राजि ठवीॐ धरहेस भड अनु अनुक्रमि सु पुत्र ॥ विहिचीअ दिन्हा देस सु जेह जिसा पोसाइ । भरह-खंड नामिइं भरह तिहुयणि इम पभणाइ ॥ कुरुराजा कुरुखित्ति हूअ मोटउ मही-नरिंदु । सर्गि मृत्यि पायालि पुरि जाणइं इंद-फुणिंद ॥ तिणि संतांनि अनेक निव अवतरीआ कुरु-देसि । हत्थि-नामि हथिणाउरह सुरवर-तणइ निवेसि ॥ संति कुंथु अरनाथ जिण हथिणाउरि अवतार । धम्म-चक्कवय चक्कवइ जिण-पय नितु जोहार ॥ (शांतनु-वृत्तांत) वलि तिहां राजा सोम हूअ सोम-वंस सुपमाण । अतिबल पूठिइं अवतरिउ स्यांतन-राउ सुजाण ॥ हथिनाउरि वलि अवतरित सबल स्यांतन-राउ । सोम-वंश-कुल-मंडणु अरि-सिरि रोपइ पाउ ॥ धम्मवंत धुरि तेह तु निम्मल-कुलि निकलंक । पूअ-भव-पसाउलइ थिउ पय पय सकलंक ॥ वद्यण विलागुं पापमइ नितु आहेडइ जाइ । निरपराध मृग मारतु कांणि किसी न कराइ । धम्मि धांमइ धूसट पडइ । विरलु जाइ कि वार । -ण दोइ लिग्नि लगाडतु पणि किवार दस-बार ॥ एक दिवस उत्तावतुं पल्लांणीउ पवंग । गयु महावनि इक्कलु. पिक्खवि जूथ कुरंग ॥ भुइं छांडी मृगली मृगिई बलवइ चूकु बांण ॥ वल्लीअ-वणि मृगलां गयां . विहि-वस-तणइ विनाणि । विलख-वयण राजा हूउ गयु आगेरइ ठाणि ॥ पिक्खवि वण रुलीआमणुं नंदण-वण-समतुल्ल । विलसई फलि फलिआ तरु महमहंति अइ-फुल्ल ॥ [71] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोइलि करइं टहूकडा भमर करई झणकार । जांणे वसंत अवतरिउ कि मलय-गिरि अवतार ॥. तिहां रिसहेसर-जिण-भूअण अइ मणहर उत्तंग । डंड-कलस सोवंण्णमइ बिंव रयणमइ जंग ।। आदेसर जोहारि करि सुंदर सइतु थाइ । दीठु एक अवास वलि तिणि राजेसर जाइ । घोडउ बंधिउ बारणइ नरवइ माहि पयट्ठ । भुई छट्ठी गिउ सातमी कुमरी-विंद ति दिट्ठ ॥ (गंगा-वृत्तांत) भमर-पलंगह ऊतरी कुमरि एक कर जोडि । जांणे किरि जगि त्रीय-रयण नयणि न दिसई जोडि ॥ विनु विवेकिहि साचवइ रा रुलीयाइति थाइ । ओलखांण-विणु तस चरिय वात हिअइ न समाइ ॥ पूछीअ कहि सुंदरि किसिउं एवड विणउ करंति । ओलखांण नवि आज धु(?) हुं परि न परीछंति ॥ ऊठी एक सखी कहइ सांमी सांभलि वात । वेयड्ड-गिरि सुरयण-पुरि जंण्ह-राउ इह-तात ॥ जोवण-भरि पुहुती जिमइ बइठी पीअ-उच्छंगि । बुल्लावी बहु-नेह भरि राइहिं मन-नइ रंगि ॥ कहि-न वत्सि तू कुण गमइ मण-वंछिअ भरतार । परणावीअ बहु रिद्धि दिउं हय गय घण परिवार ॥ कर जोडी कंन्या कहइ वर नत्थी अम(?म्ह)ह रेसि । कहिउं करइ न जि माहीं ते वर मई मन देसि ॥ पूछिया राइहिं राय-सुअ कही कुमारि-नी वत्त । कोइ न परणइ ए कुमरि रा रांणु राउत्त ॥ निवरं जांणी एह वण ईहां रचिया आवास । कारीअ आदेसर-भूअण आदेसरह · पास ॥ हव ए कुमरि ईहां रहइ करइ निरंतर पुण्य । . २५ ३० [72] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ पणि जे को वर परणिसिइ तो हुं जांणुं धन्य ॥ इणि संसारि न एह समी कंन्या इसी सुचंग । गुण करणी निम्मल सुमइ गरूउं नाम सुगंग ॥ बीजा त्रीजा टी(दी?)हडा ईहां पधारई राउ । बोलावइं एह कुमरि-नई संभालइ वण-ठाउ ॥ ईहां राजन आविउ हतु साथिइ इक नेमित्त । तिणि कंन्या देखी करी संभाली इक वत्त ॥ मणिहिं खेउ राजन म धरि म करिसि कय संताप । पुण्य-उदय इह आवीआं गलीअ गयां सवि पाप ॥ इम कहतां तिणि महावणि मलपंता मातंग । आविया घण घंट-रवि बहु पाखरिया पवंग ॥ रहवर हथीआरहं भरिया निर पायल असवार । जांणे किरि चक्कवइ-दल कोई न लाभई पार ।। इम करतां वेअड्ड-गिरि पहुतु राजा जंन्ह । हरखिउ देखीय सेण बहु कुरुवइ रा-स्यां तंन्न ॥ राजा-स्यांतन भणइ हरिषिई करु विवाह ।* जे तम्ह मनि छइ ते वचन तिणि मझ दक्षिणा बाह ॥ जइ लोपुं वाचा किमइ तु मझ एह ज डंड । अवगिणि जिउ(?)उ गंगा सुमइ बुल्लइ इम बलवंड | मंडलीअ मंडलीअ मिलि वेअड्ड-गिरि-सनाह । वडइ महोत्सवि तिहा कीउ गंगा-तणउ विवाह ॥ रा पुहुत्तु पुरि आपणइ सरिसी राणी गंग । हथणाउरि पुरि पाटणि उत्सव हुआ अति चंग ॥ जं गंगा-रांणी कहइ तं तं राउ करंति । . वाच न चूकई गंग-वर कहिउं स ते पालंति ॥ गंगा गंगावर-सरिस सुह भोगवइ समान । पुण्य-पसाइहिं केतले दिणि उपनुं ओधांन । ४० *आ पंक्ति अने पछीनी पंक्ति हांसियामां उमेरेली छे. __ [73] Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० मोटा मणि मं(?) डोहला करइ स गंगादेवि । जांणइ गंगा-तडि जई मुणिवर-पय पणमेवि ॥ गयवरि चडि रायह सरिस गयपुरि-चेत्रप्रवाडि । जिणहरि जिण-पूजा करें पूरं मणह रहाडि ॥ संति-कुंथु-अर-भूअणि जई रमु ति रास-विलास । अभय-दांण दीजइ जगिहि तु पूरई सवि आस ॥ सुहिणंतर साचा लहइ जाणइ मण-नइ रंगि । सीह-तणुं बाचईं सीह देखइ नीअ उच्छंगि ॥ मेरह ऊपरि महि कुएं छत्र-तणइ आकारि । जई (१क)राजेसर वीनविउ प्रीअ वीनती अवधारि ॥ मणह रंगि राजा भणइ संभलि देवि सुवत्त । कु संति-कुंथु-कुल-मंडणु तउं जनमेसि सुपुत्त ॥ धम्मवंत गुणवंत अति रूपवंत सुविशाल । बलवत्तर सूरु सधर चउपट मल चउसाल ॥ (गांगेय - वृत्तांत) नवइ मास अपरांति नव दिण रयणी अद्धेउ । सहसकिरण जिम उदय-गिरि तिम जनमिउ गांगेउ । दीवा सवि नित्तेज गिया बालक-के तेउ । सोल-कलाधर भालीयलि सोहइ सिरि गांगेउ ॥ घरि घरि गूडीअ ऊछलीअ तोरण वंदरवालि । घिई ऊंबर घण सीचीअइं माणिणि-तणइ झमालि ॥ दीजइं दांण अणेग परि कणय रयण मणि अण्ण । जे उत्सव गांगेय-जनमि कहि ते जांणइ कुंण ॥ चउपइ हथणाउरि जनमिउ गांगेउ उत्सव कही न जाणुं तेउ । केंद्रीउ-वृहस्पति थाइ ग्रह पंच भला ऊंचइ ठाइ ॥ जिणि थानकि गुरु तीणइं राहु राजा भणइ करउ उत्साहु । जे जोसी जांणइं सुअ-भेउ नाम परठिउं तेहें गांगेउ ॥ ५४ - [74] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलपतरु जिम वाधइ कुमर कय जिम बीज-चंद कय अमर । गांगेय-तणा गुण निम्मला दिणि दिणि जास चडंती कला ॥ वलि कित्तावा(१)सुरपुरि गया राइ अहेडी बोलाविया । ते आविया किहि ले कूतिरा रिमिझिमंति पाए धूवरा ॥ ५८ हवं बोली स्यांतन-राजा-तणइ राजि राजा-तणइ आदेसि गजेंद्र गुडीअई छई ।। एक मयगला मद्यपान करावी करावी मदोन्मत्त कीजई छई ॥ तुरंगम पाखरीअइ छंडा एकि तुखार-तणी खुरी लोह-पात्रि जडावीअई छई । अनेक महारथ सज कीजइं छइं । ते(हिं) भिंडमाल-प्रमुख आउध भरावीअई छई। कुंण कुंण आउध ? भला भिंडमाल, एकाधीआ करवाल । जम-तणी जिह्वा-तणी जिसी कटारी, काला कंकलोह-नी छुरी ॥ जिसिउ वीज-तणु झात्कार, तिसी तरूआरि । एक मुहर, जे थड(घड?) नीपजइ लोह-तणे भारि ॥ एकि बोलीअई पट, जिसी केसर-स्यंघनी हुई चपेय । कोदंड धनुष, तीर, तर्कस, तोपीर, भाथा । षखंड पृथ्वी-तणा साधक खा ॥ पाशु, परशु, फुरी, गोफण, जोड, कमांण, सब्बल, सांगि, सेल । कुंत, लकुट प्रमुख इसां छत्रीस डंडाउध ।. तेहे रथ भरावीअई छई । इसी सजाई देखी देवी गंगा ससंभ्रांत हुई अछइ । ए एवडु आरंभ-संरंभ सिउ नीपजइ बरी(?) ॥ वइरी केऊ मलिया जांणीअइं नही । परच क्रागम-तणी वार्ता कह नही । अकस्मात ए गय-नइ किहां ऊपरि सजाई ? इसिइ प्रस्तावि केइ एक प्रधान पुरुष राणी पूछवा लागी छइ । ते कहई छई, मात, सांभलुं वात । ए राजाधिराज महामंडलेश्वर ।। एह-नई बालापण पापरिद्धि-कर्म आखेटक-नउं व्यसन छइ । तम्ह परणियां पूठिइं एतला दिन वीसरी गिउं हतुं । कुणहिई एकं व्याधि मृग-तणुं आमिष्य आंणी भेट कीधी हती । [75] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते देखी करी वली आखेटक-नुं व्यसन सांभरिउं । ते एते आखेटक-नी सजाई हुइ छइ । चउपई तं सांभलि गंगा-मनि दाहि ए तो मोटी मझ असमाहि । जं ए राउ आहेडु करइ दीधी वाच न ते मनि धरइ ॥ कर जोडी गंगा वींनवइ सांमी तुं मोटु महियवइ । आखेटक-नउ सिउ संताप जीव-तणु वध पहिलं पाप ॥ ६० जीवि वधारिइं जईअइ सम्गि जीव वधिइं जाईअइ नरिंग । जइ किरि माहरुं कहिउं करेसि तु आहेडइ मन जाएसि ॥ अपमांनी रांणी तिणि राइ ऊमरडी आहेडइ जाइ । गंगा-देवि विमासइ वात कीधी राइ वचन मझ चात्र ॥ प्रकटिउं एह राय-नउं अभाग एव मझ रहिवा ईह न लाग । पुत्र लेई पीहरि जाएसु दांण शील तव पुण्य करेसु ॥ गंगा चाली ले गांगेउ गईअ वेगि वेअड्ड-गिरे उ । जुहारिउ जई आपणु बाप भागु मनह तणु संताप ॥ गंगा दान पुण्य अति करइ विषय-सुख-वात न मनि धरइ । वाधइ कुमर तिहां गांगेउ मातुलि कन्हइ भणइ सवि भेउ ।। ६५ पढइ गुणइ सवि ग्रंथ अपार जाण्या नव तत्त-ना विचार । स्मृति वेअ आगम सवि पुराण छंद तर्क लक्खण सुप्रमाण ।. लखित पठित लग बहुतरि कला सीखी वलि करिवी करि तुला । खचर-कला विद्या-नी जगीस सरमइ दंडाउध छत्रीस ॥ जांणी विद्या बहुरूपिणी नाग-पास सीखी थंभणी । मंत्र अघोर नही जगि तेउ जे नवि लहइ कुमर गांगेउ ॥ स्वरिंग मृत्यि वरतई जि पयालि ते जांणी विद्या तिणि कालि । देवि न दांणवि रांणे राइ गांगेउ किणि नवि छेतराइ ॥ ६९ वली बोली गांगेउ कुमर अनेक विद्याधर-सिउ वाद-विवाद मांडइ । त्रिगि चाचरि चुवाटा हीडइ । अनेकि राज-कुमर-तणां मन रंजवइ । पणि धर्म-नुं आगर । [76] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - विश्वोपकार-करुण-दयामय - सागर ॥ जैन-धर्म्म - रक्त । एक मिथ्यात्व - ऊपरि विरक्त । सत्य वार्ता भाखर । असत्य बोली न दाखइ || धुरलगइ (१ख ) स्यंघ - नां परि(?) क्रम । विद्या- कला - ऊपर उपक्रम | जांण- वेता भरह - वेता सोभाग-सुंदर । जांणे किरि को एक देव-नु कुमर || देव भगत, गुरु- भगत, संघ-भगत, माता-भगत, पिता- भगत ॥ पात्र कपटंतर जांणइ । धर्म्मवंत वखांणइ || साधु प्रसंसइ । दुष्ट रहई सिख्या दिइ । छल-छदम न गमई । जूइन रमई | अखाद्य न खाई। अपेउ न पीअई | स्त्री - संग न करइ । अहंकार न करई ॥ पणि जेतलु केतलु अजुगति-नुं करणहार, कूड - कपट-नु धणी चोर-चरड, खूंट- खरड, सात व्यसन-नु सेवणहार, तेह - नई सिख्या - दान दिइ ॥ तिणि करी अनेक विद्याधरनां कुमर - नई अणगमतु थिउ । महा-दुर्दात किर विद्याधर-ना कुमर वैभाष्य बोलई, गालि दिई, अकुलीन कहई । ए भूमि - गोचरु बोलीअहं जे (? जइ) सकुलीन हुई ते मुंहसालि कांई रहिसिई ॥ इसी वार्त्ता सांभली सांसहइ नही । मुहकम मारइ । सव - कहि रहइं दुर्जेअ । तिणि करी गांगेउ - कुमर - ना ओलंभा आवई । पुत्र - तणा उपालंभ गंगा सही न सकई । ते उपालंभ बीहती पुत्र लेई करी पर्वत - थिकी ऊतरी तिणिई जि वन-खंडि आवी वास कीधु । गंगा - नइ गांगेउ-तणे गुणे करी संत साधु श्रावक लोक घणा वसिया । तिहां सदा चारण श्रमण - महात्मा आवई । गरूई नगरी मंडांणी, चतुर्दस - योजन - भूमिका - प्रमांण । ते नगर - पाखलीआ गरूउं वन-खंड बोलीअइ । सदापल वृक्ष । कुर्बक तिलिक अशोक चंपक प्रियाल साल रसाल तमाल किरमाल । प्रियंग पतंग नाग पुन्नाग । नालीअरि केलि फोफलिणि खारिकी खजूरी करणी जंबीरी नारिंगी बीजुरी राजादन अखोड बादांम ताल अंब जंबु प्रमुख अनेक शाड्वल वृक्ष पुष्पित मुकुलित । सदा फल - फुल्लि करी ते वन- खंड विराजमान, महा संशोभायमांन । पुष्पजाति वली राय-चंपक कणय - केतकी सुवर्ण मालती सेत्र जाइ ढूंढणीआ वेअल कुंद मुकुरंद मुचकंद माकुंद तेहने परिमलि करी मघमघायमांन । वली सांमली सेलडी गूंडगिरी - तणा वाडा तेहे अक्ष- रस शर्करा - रस नीपजई । किसिमि द्राक्षा- वल्ली नागवल्ली - तणा मंडप तेह - नी शोभा ॥ ते वन- खंड -माहि नदी - ना प्रवाह । चतुर्मुख महा मनोहर कुंड वापी [77] Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कूप तडागि करी विराजमान । ते नगरी पाखलीआ चउ-फेर चतुर्दशयोजन-प्रमाण महा-वन बोलीअइ । स्वापद जीव भयंकर नही । हिरण रोझ सूअर झंकार ससा सीआल सूकां त्रिणां-नी चारि-ना चरणहार ते जीव-नां यूथ बोलीअइं । तिहां गांगेउ-नइ भइ करी व्याध वागरी भील पुलिंद दुर्बली को पइसइ नही । तिणि करी ते अभयपुरी नगरी कहीअइ । वली चउपई आखेटक-नु करि उत्साह पाटणि पुहतु स्यांतन-राउ । गियां रांणी गंगा गांगेउ विखवादिउ मनि राउ असेउ ॥ ७० जे राजनुं सार सा गंग ते पीहरि गइ ले सुअ चंग ।। तिणि संतापि राउ नवि जिमइ अवर विलास सुख नवि गमइ ॥ वात न गोठि करइ संलाप राति दिवस तेह जि संताप । इक वाचा चूक हुं आज तीणि विणासिउं सघलुं काज ॥ इम नींगमियां वरस चउवीस हूउ वली राजा स-जगीस । आहेडा-नुं वसण न जाइ गयवर वली गुडाविया राइ ॥ गयवर गुडिया तुरी पाखरिया सवि राउत संनाहिई वरिया । कूड-पास सवि ले समदाउ वली आहेडइ चालिउ राउ ॥ मारइ मृग्घ अहेडु करइ पाप-वसण क्षणु नवि वीसरइ । जे हूंतां वन-खंड अरांम हिरण-तणां नीठाडियां नाम ॥ एक दिवस नवि पांमइ मृग्घ तीणि करी अति हूउ विरग्ग । चिहु दिसि चर पाठवीआ राइ जई जोउ मृग छइ किणि ठाइ ॥ इकि आवी राजा वींनवइं संचलि राउ बहू मृग अछइं । इक वन-खंड न लाभइ पार हिरण जीव तिणि अछई अपार ॥ ७७ वली बोली इसी वार्ता सांभली राजा स्यांतन सहर्षित हूउ छइ । ते वन-खंड-भणी पवरसि(?) पूरी चतुरंगी सेना, लेई चालिउ छइ । जेहई गांगेउ-ना वन-खंडमाहिला गमा संप्राप्त हूउ, मुहर-थिका व्याध वागरी हणि हणि मारि मारि करिवा लागा छइं । जे घोघर चूंनिरा कूतिरा ते मेल्हीअई छई । तेह-ने पडसद्दे बापडा मृगला मृगली भयभीत थिका तरल-लोचन पुलायन करिवा [78] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागा छई । केहे-ई एके कर्म्मकरि मजूर आवी गांगेउ वीनविउ । अहो कुमर, एतला दिवस ए वन खंड - माहिला गमा व्याध लब्धक वागरी अहेडी कूति न दीसता, आज तेहे करी वन- खंड सघलुंअ -इ दक्षिण दिसिइ भरिउं पूरिउं दीसइ छइ, अनइ वली गज रथ तुरंगम पायक तेह-नुं पार नथी लाभतु । इसी वार्त्ता सांभली गांगेउ-कुमर भृकटी - भीषण हूउ छइ । दिव्यमइ रथ एक सज करी छत्री डंडाउध भरी पूरी एकांग वर वीर चालिउ छइ । स्यांतन राजा - नी सेना माहि आविउ छइ । गांगेउ आवतु देखी जे राय-ना महा सुभट हूता ते सवे धसमसी पाछा आव्या । राइ स्यांतान बोलाव्या । ते कहिवा लागा छ । महाराज, महारथी एक आवइ छइ रथारूढ थिकु । पणि महा-शूर वीर पराक्रमी जिसिउ काल-कितांत हुइ । हिवडां (२क) नइ समइ तिसिउ दिसिवा लागु छइ, जिसिउ हेला मात्र माहि कटक सघलाइनु कल्पांत करइ | वली आज्ञा देतु ज आवइ छइ । जि को माहरइ इणि वन-खंडि माहरां पालियां -पोसियां मृगलां प्रतिई घाउ घालइ, तेह- नई तम्हारा राय-नी आज्ञा छइ । कहतां वडी वार लागइ । गांगेउ आविउ - ई- जि। सेना सघलीअ -इ राय - परइ जइ पइठी । राजा मुहवडि हूउ छइ । वली गांगेउ कुमर कहइ छइ । अहो राजन, माहरां मृग - प्रति घातु मा घालिसि । माहरु वन-खंड-माहि म पइसिसि । भइ, सांभलि जइ कहिउं नहीं करइ, तु हेलां - मात्र माहि पांणी - ऊतार करिसु । राजा स्यांतन कहइ छइ । रे पतंग किटकमात्र, हुं स्यांतन- राजा जइ दीठु न हतु तु बाते - इ नहतु सांभलिउ ? मई संग्रामांगणि अनेक राइ-राणां - तणा घर ऊंधां घालियां छई । इसी वार्त्ता बोली राजा स्यांतान कूंचि हाथ धालिउ छइ । मूंछ वल भरिवा लागु छइ । हाथि कोडंड लेई करी बांण परिठिउ । आणके ( ? ) पूरित । गांगेउ - बांण मूंकिउं । गांगेउ - नइ प्रतापि करी बांण डावउं जिमणुं गांगेउ कहइ छइ । हास्य- वार्त्ता टाली माणस थई रहे । मेघाडंबर - छत्र - तणी अनइ छत्रधर - तणी रक्षा करे ॥ - कुमर-भणी वही गिउं । वली वली चउपई गांगेउ बोलइ बलवंड गुण-नीं मज्झि परिठिउं बांण करीयलि धरी धणह - कोडंड । ऊभा रहिआ जोअइ रा रांण ॥ [79] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवइ बांण अपर कुण मात्र खडहडि पडिउ छत्रधर छात्र । बीजइ बांणि विद्या थंभणी मेल्हिडं सक्ल्ह-सेन-भड-भणी ॥ नवि लागइ नवि को मारंति भड थंभ्या टगमग जोअंति । क्षिप्र बांण मेल्हिउं वलि कुँअरि गई वीणि सब-कहि हुई कुपरि ८० रिणि रोसग्गल थिउ गांगेउ ते जांणिउ गंगा सहु भेउ । वेगि वेगि पुहुती तिणि ठाइ आवंती दीठी कुरि राइ ॥ तिणि आवती जुहारिउ राउ सांमी तम्ह हम नवि जसवाउ । ए तम्ह पुत्र कुमर गांगेउ गंगादेविहि भागु भेउ ॥ वली कुमर-तडि गंगा गई ए ताहरु पिता सुणि भई । इम संभलि आणंदिहि चडिउ लोटींगणे ताउ पय पडिउ ॥ आणंदिउ राजा स्यांतन्न दिट्ठ गंग गंगा-नुं वचंन्न । गांगेउ आघु लहीअइ सिघ्र बलिइ सुअ साइं दीअइ ॥ आपणपुं धन वन मंनिइ माहरइ सुकुमर गांगेउ । गांगेवि दिठइ सवि ........................॥ ८५ आम तात तु मोटु राउ ताहरु त्रिहु भूअणे भडिवाउ । आज पछु ए परि मन करेसि खड खाता मृगला मन हणेसि ॥ सेन-सहित सह गयउं अवासि भोजन-भगति हुई तस-पासि । गंगा-नइ कुमरि गांगेइ अमीय-वयणि रा पडिबोहिइ ॥ बार-वरस-नी एतइ सीम आखेटक लिवराविउ नीम । राइ उत्संगिहि ले गांगेउ मंन्नाविउ अति परिई करेउ ॥ मांनइ नहीं स गंगा-देवि पुत्त मोकलिउ माइहि खेवि । हथणाउरि स पुहुतु राउ गांगेउ-नु जगि जसवाउ । वली बोली . राइ स्यांतनि गांगेउ-नां गरूआं चरित्र जांणी करी गांगेउ-प्रतिइं युवराजपदवी दीधी । गांगेउ-कुमर राज-नी च्यंता सघलीअ-इ करइ । साधु पालइ, दुष्ट निग्रहइ । पणि रात्रि-दिवस बाप-नी भगति करइ । आगे-ई जिम श्री रामचंदि नइ लक्ष्मणि कीधी । [80] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वली चउपई (सत्यवती - प्रसंग) एक दिवस वलि स्यांतन-राउ तिहां गयु जिहां जमणा-ठाउ । जमणा-तडि दिठी इक डुअरि रूपवंति बोलती चतुरि ॥ ९० राइ कुंअरि बोलावी वली कवण-तणी धीअ कां एकली ।। कुमरि भणइ सांभलि मझ वात अछइ नावडु माहरु तात ॥ तीह-रई धरम-तणु मनि भाव तस आदेसि वहादुं नाव । विसु पायकु लीजइ नहीं सत्यवती हुं नामिइं सही ॥ ९२ वली बोली ईसी वार्ता सांभली सत्यवती-नुं रूप देखी करी राजा अनुराग-चित्त हूउ छड् । जइ पोतइ भाग्य हुइ तु ए कंन्या-नुं पाणि-ग्रहण करुं । ते नावडा बेडी-वाहा-नुं घर-मंदिर पूछी बेडी-वाडा-नइ घरि गिउ छइ । बेडी-वाहु सांम्ह ऊठिउ । प्रणांम नींपजाविउ । आसण-बइसण मांडियां । राजा बइठु । नावडु-नावडी हाथ जोडी ऊभा रहियां कहई छई। स्वामिन, ए कुण वार्ता ? करीर-नइ गृहांगणि कल्प-वृक्ष आविउ ? वली चउपई राजा भणइ सुणु तम्हि वात माहरां वचन म करिसिउ चात्र । धीअ तम्हारी दीठी अम्हे ते मझ घरि परणावु तम्हे ॥ राय-पाइ बेई जण पडी भणइ नावडु नइ नावडी । सालि दालि घी जे आहरई खल-नी साद्र कांइ ने करई ?॥ जे वइसई पूठि-नी पवंग तीह नर रासिभ-सिउं कुण रंग ? । जीह-नइ घरि गंग गोरडी ते नर नवि परणइं नावडी ॥ ९५ जइ अति आदर करिसिउ. तम्हे तम्ह दीकरी न देसिउं अम्हे । जइ कि-वार ए तम्ह घर वासि विषइ-सुख भोगवइ विलासि ॥ जे एह-नइ पुत्र जनमीअई. तम्ह पूठिई ते राजि न थीअइं । गांगेउ राज-तणउ धणी ते बापडा रुलई रेवणी ॥ [81] Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वली बोली तेना वडां-तणी वार्त्ता सांभली राजा स्यांतन विच्छाय हूउ छइ । मनइमाहि विमासिवा लागु छन् । ए बापडां साचीअ - इ जि वात कहई छ । (२ख) जींह- नइ गांगेउ सरीखु बेटु हुइ, तां बेडी-वाहा - नी बेटीनां बेटां- नई राज न हुई । मोटा राय - ना बेटा नीच कर्म्म करता लाजई । एक माहूरुं मुहत जाइ । बीजुं तीह - नुं इ मुहत जाइ । एह कारण इह - नई लाभ कांई न हुइ । राजा कालुं मुह करी पाछु वलिउ । श्लोक कूपच्छाया सरंग धूली च ( ? ) । भाग्यहीन - मनोरथाः || वन- कुसुमं कृपण- श्रीं एतानि विलयं यान्ति स्याम - वणि मुहि राजा बीजइ दिवसि सभां बइसेइ कय पर - चक्रागम थिउ अगालि लोपी आंण किणिहि सीमालि । वलिउ जांणे किरि सीकोतरि - छलिउ । मषी - वर्ण दीठु गांगे ॥ १०० अ- भगति कइ हूई माहरी जां राय- नुं न लाभई मंत्र मंति अमायत पूछिया कुमरि गयु नावडां-तणइ अवासि भणइ नावडु नइ नावडी आगे अम्हि अणमांनिउ राउ मन-नी वात सवे वलि कही रा दीकिरी देसिउं सही ॥ वली वात सांभलि गांगेउ जर किवार राजसन पडइ समरी - गलइ छाजइ नवि हार सावधान सांभलि एतलं इक अकुलीणां अधुं अम्हे उ । किम कारेली सुर-तरी चडइ ॥ किम नावडी राउ भरतार | झूझिया - पांहइ लूविउ भलुं ॥ वली बोली कइ रांणी गंगा सांभरी ॥ तां मई नवि करिवुं भोजन । जांणि वात सवे तिणि स-धरि ॥ करइ वींनती तीह बिहु - पासि । धीअम मागिसि भइ अम्ह - तणि ॥ हव तम्ह मागेवा नवि ठाउ । ९८ नावडां-तणां क्वन सांभली जां कांई हुं माहरा बाप - नु करिवा नीम । वली जे तम्हे वार्ता कहु छु, ते वात सघलीअ - इ साची । [82] १०५ गांगेउ - कुमर कहइ छ । भई सांभाळ वात । मनोर्थ पूरी न सकुं, तां कांई मझ भोजन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणि एक वात माहरी साचीअ-इ जि सांभलु । जइ कि-वारं सत्यवती-नुं पाणि-ग्रहण राजा करइ, तु सत्यवती माहरइ साचीअ-इ जि माता । गंगापांहइं अधिक रात्रि-दिवस सेवा करिसु । वली सांभलु । जे सत्यवती-ना पुत्र हुसिइं ते माहरइ लुहडा-इ थिका राजा स्यांतन-पांहइं अधिक न गिगुं,तु मझ-रहइँ तात-हत्या । वली सांभलु । राजा स्यांतन-पूठिई मझ-रई राज्य-- भार अंगीकरिवा नीम । सत्यवती-ना पुत्र रहइं मई माहरइं हाथि-सिउं नीमि सहि राज देवू । वली रात्रि-दिवस जिम राय-नी सेवा करुं छु तिम सत्यवती-ना पुत्र-नी सेवा करिसु । ___वली सांभलु । जां कांई हुं जीविसु, तां मझ जीवता सत्यवती-ना पुत्र-- रहइं को पराभवी नही सकइ, जइ बार चक्रवर्ति-नां दल आवई तुह-इ । तम्हे सत्यवती माहरा बाप-नई दिउ । एतली मझ-रहई समाधि करु । जि-वारं इसी प्रतिज्ञा गांगेउ करइ छइ, ति-वारं गिगनांगणि वैमानिक देवता रहिया जोअइं छइं । वली नावडु कहइ छइ । अहो गांगेउ-कुमर, सांभलि । जे वात तई कीधी, ते सघलीअ-इ साची । कि-वार अजी द्र चलइ, पणि ताहरी वाचा न चलइ । पणि एक अजी अम्हारा मनि वात छइ । ति-वारं गांगेउ कहइ छइ । जि-कांई मनि हुइ ते हिवडां कहे । नावडु कहइ, सांभलि । चउपई एक वात सांभलि सतवंत जे कि-वि हुसिइं तम्हरा पुत्त । तम्ह जीवतां म्रिज्यादं रहइं तम्ह पूठिई ते किम सांसहई ? ॥ वलि गांगेउ कहइ सणि वचन आज-आघी माहरइ स्त्री बहिन । वली कहुं सुणि बीजी वात आज-पछी स्त्री सवि मझ मात ॥ धन गांगेउ-कुमर संसारि इसिउ न बीजु को ब्रह्मचारि । चउथु व्रत कुमरि आदरी रत्न-वृष्टि इंद्रिहिं सिरि करी ॥ कनक-वृष्टि सुर करई ति खेवि कुसम-वृष्टि एकि करई देव । रंभा पउमा गवरि विसाल सई हथि कंठि ठवइ जइ-माल । सावित्री सोवनमइ थाल भरि मोती माणिक सुविसाल । रोहिणि शुची जि सुर-मानिनी वृद्धापनी करई कामिनी ॥ १०५ [83] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वली नावडु इणि परि भणइ ए मइं धीअ दीधी तम्ह तणइ । एह-नु सांभलि मूल-समंध सत्यवती-ना गुण छइ अनुंध ॥ भणइ नावडु अनइ. नावडी सत्यवती अम्हि लाधी पडी । एह अम्हारी नवि दीकिरि एह समी नवि सुर-सुंदरी ॥ अम्ह लिइ तां वांणी हुई अगासि वागु-वाणि-नुं वचन विमासि । नयर रतनपुर रा रतनसेन जयवंतु सहस-कि(?क)र जेम ।। रतनावली रांणी तेह-नइ सोल कला ससि-मुहि जेह-नइ । सत्यवती सुणि तीह-नी कुमरि वयर-भावि लांखी किणि अमरि ॥ इणि वातं हरखिउ गांगेउ भलु कीउं भागु तम्हि भेउ । साची एह वात सवि खरी सीप अनइ गंगोदक-भरी ॥ ११० सत्यवती तु रथि बइसारि गांगेउ आविउ पुर-मझारि । वडइ महोत्सवि कीउ विवाह परणिउ गयपुर-पाटण-नाह | राजा स्यांतन चीतवइ ईणि मनोरथ पूरिया सव-इ । माहरइं काजि ब्रह्म-व्रत लीउं लोकोत्तरह काज इणि कीउं ॥ इणि मझ मन-नी भागी आधि इणि दीठई माहरइ मनि समाधि । हुँ एह-ना गुण किम छूटेउ जग-वंदनीक ए गांगेउ ॥ राजा सुख (३क) भोगवइ समाधि अपर किसी नवि छइ असमाधि । सत्यवतीं जनमि सत(?) पुत्त चित्रांगद तस नांम निरुत्त ॥ बीजु कुमर वली जनमीउ नामिहि विचित्रवीर्य ते हूउ । सुख भोगवीअ अतिहि इह-लोकि स्यांतन-रा पुहुतु पर-लोकि ॥११५ चित्रांगद बइसारिउ पाटि गांगेइ तिलिक कीउं निलाटि । तात-तणि परि सेवा करइ काज-काम सघलां आदरड् ॥ गांगेउ बिहु-नु उवझाय कला सीखविया ते जग-माहि । जिम जिम तनि पोढेरु भयु चित्रांगद जयवंतु हूउ ॥ कटकी-उपरि करइ अभ्यास लिइ लूसइ मारइ मइवास । चुपट दलि पर-भोमहि भमइ तिम तिम मनि गांगेउ गमइ ॥ इणि परि सयल लीयां पर-खंड अपर बीहता दिइं घण डंड । इक सीमाल न मांनइं आंण तस ऊपरि मांडिउं मंडाण ॥ [84] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणि गांगेउ न जाणइ इसिउं चित्रांगद-मनि छइ जं जिसिउं । विणु पूछिया बांधव गांगेउ सकल सेन चालिउ तेउ ॥ १२० रोवांचिइ(?) जई वींटिउ नगर तिहां नीलांगद राजा सधर । अंगोअंगि हुआ बिहु घाउ रिणिहि रहिउ चित्रांगद-राउ ॥ बांधव-तणइ वयरि गांगेउ चालिउ चउपट रथि बइसेउ । बोलाविउ नीलांगद-राउ झूझ-तणु रे करि समदाउ ॥ बेउ महा-भड रिणही चडिया रावण-राम तणी परि भिडिया । गांगेउ-सिउं लीधा घाउ रिणि रहिउ नीलांगद राउ ॥ लीधा मयगल सयल तुरंग लीधीअ लूसी आथि सपतंग । लोकां सविहुं दीधी धीर लेई देस. वलीउ वर वीर ॥ आविउ गयपुर-नयर-मझारि बांधव-तणुं दुक्ख अपारि । मृत्य-काज कीधां नवि घाटि विचित्रवीर्य बइसारिउ पाटि ॥ १२५ राति-दिवस सेवा नितु करइ सत्यवती नितु पय अणुसरइ । विचित्रवीर्य विवाहह रेसि चर मोकलिया चिहु दिसि देसि ॥ जे देखु कंन्या गुणवंति विनयवंति जे वलि रू पवंति । बलि छलि ते कंन्या आणेसु विचित्रवीर्य हुं परणावेसु ॥ १२७ (चालु) [85] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घवळी विशे खोडीदास परमार ('अनुसंधान'-३, पृ. २८-२९ उपर घउंली पूरवानी प्रथा, अने शब्दना प्राकृत-संस्कृत कृतिओमाथी ध्यानमां आवेला प्रयोगो, तथा तेनी व्युत्पत्ति विशे में नोंध आपी छे. आपणा लोकसाहित्यना आजीवन उपासक अने चित्रकलाना उपासक प्रा. खोडीदास परमारने में आ बाबत पूछपरछ करतो पत्र लखेलो, तेना उत्तररू पे मळेलो तेमनो पत्र अहीं नीचे आप्यो छे. ___ 'घउंली' शब्दनुं मूळ, तेमने विविध प्राचीन परंपरा साथे जोडती तेमनी अटकळो टकी शके तेवी नथी. परंतु आकृतिओ अने अन्य माहितीनी दृष्टिए ठीकठीक रसप्रद जणाशे. -ह. भायाणी घवळी अथवा घडेली गढ साथे [86] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदरणीय श्री भायाणी साहेब, सादर वंदन. भावनगर, ता. २९-१०-७४ आपना पत्रमा घवळी विषे हतुं. तेना माटे में थोडीक माहिती भेगी करी छे. तेम ज में कंईक कल्पना करी छे. ते नीचे प्रमाणे छे. तेमां केटलुं तथ्य छे ते तो आप करी शको. (१) हुं मार्नु के घवळी शब्द गौवल्ली परथी आव्यो हशे. दा. त. कवितामां जेम चार चरण ते गायना चार पग परथी विचाराया छे, तेम घवळीमां' मुख्य चार पाद छे. तेथी हुं कल्पना करुं छु के गौ-गायना चार पाद अने तेनी आसपास वल्ली के वल्लरी. ते बंने मळीने गौ+वली गउली के घउंली थयुं हशे. [घउंली शब्द माटे जुओ बोळचोथनी वार्ता. गायनो वाछडो घउंलो तेने रांधे छे. घउंलो एटले 'खीचडो' पण थाय छे.] गउनो घउं शब्द देश्यवानीमां बोलाय छे. तेनो दाखलो उपर छे. (२) बीजुं गौर वल्ली 'सफेद रंगनी वल्लरी' ते परथी पण आ शब्द आव्यो होय. कारण के घउंलीनो मांडणी चोखाथी ज थाय छे. अने आजे पण बंगाळ-ओरिस्सामा चोखाना लोटथी वेल-भात चीतराय छे. वेदकाळे गायो, खूब ज महत्त्व छे. गौ परथी अनेक शब्दो आव्या छे. नृत्यना एक प्रकारने पण गौमूत्रिक कहे छे. (जुओ दंडीना 'दशकुमारचरित मां राजकुमारीनी कंदुकक्रीडा अने नृत्य). आजे पण बळद चालतो मूतरे तेने बळदमूतरणा जेवू कहे छे. वेदकाळे वेदिकानी आसपास चोखाना लोटनी वल्लरीओ चीतरवामां आवती आजे आवा शोभन मंडळोने 'मंडळ पूर' कहे छे. ते अनाज अने लोटथी पुराय छे. ___घवळी हिंदुओमां पुराती नथी. हिंदुओ स्वस्तिक ने कल्याणार्थी माने छे. तो खास करीने जैनोमां घवळीनुं महत्त्व छे. सूरिजी पधारे त्यारे घेर घवळी चीतराय छे. देवदर्शन करवा जाय त्यारे श्राविकाओ देवनी सामे चोखानी घवळी करी ते पर बदाम के फळ देवने समर्पे छे. मोतीपरोणामां तेम ज भरतमां घवळी भरीने पढावी घेर टांगे छे. [87] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनोमां गवातां देश्यगीतोमां पण घवळीनो उल्लेख मळे छे. (१) 'आणीश माटी अने घालीश घवळी, तेना सिंधासण नीपजे,' । (२) 'लाछ भणे रे लखमी किया भाई घेर जाशो रे, जेने घेर आदतीवारे घउली रे.' ('ललिता-गीत-संग्रह', भुवनेश्वरी पीठ गोंडल, पार्नु ९०) लोथलना उत्खननमांथी पण बे साथियाना प्रकारे मळ्या छे. 'मुंए जो डेरो'मांथी पण मळ्या छे. लोथलना बंनेना ड्रोईंग मळे छे. SUT टेरा कोट सीलींग लोथल आकृति ६० ('ललितकळा' नं. ११ एप्रिल, १९६२) उपरांत पेटनी रेखाओने 'त्रिवल्ली' कहीए छीए, तेम आ चार रेखाओने चतुर्वल्ली न कहेता गायना चार पगने अनुसरी गौवल्ली, घडेली, घवळी थयुकहेवायुं हशे. मुनिओ जे खोराक वहोरे छे तेने पण 'गोचरी' कहे छे तो आ रीते आ शोभन स्वस्तिक, नाम गाय परथी 'घवळी' मळ्यु ते बरोबर हशे. आपनी कुशळता चाहुं छु. अहींना संमेलनमां आपने मळीने आनंद थशे. खोडीदास परमारना वंदन. [88] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरक नोंध पृ. ३१. हेमचन्द्राचार्य शिष्य देवचंद्रसूरिकृत 'चंद्रलेखा-विजय-प्रकरण' ( मुनिश्री पद्युम्नविजयजी द्वारा संपादित ए कृति ट्रंक समयमा प्रकाशित थ) ना बीजा अंकमां नायक विजय वैताढ्यपर्वत परथी पोताना आवासे मधारते गुप्त रीते आवी पोतानी पूर्वपरिणीत पत्नी देविप्रभा साथै संग करी पाछो फरे छे, अने साची हकीकतथी अज्ञात सासु-ससरा सगर्भा बनेली देविप्रभाने कलंकिनी मानी वनमां एकली त्यजी दे छे-एवी घटनानुं निरूपण करे छे. आम 'पुष्पदूषितक' अने 'नंदयंती' मां जेनो उपयोग थयो छे ते कथाघटकनो देवचंद्रसूरिए पण उपयोग कर्यो छे. प्रकाशनमाहिती १. वोर्डर कृत 'इंडिअन काव्य लिटरेचर', छठ्ठो ग्रंथ केनेडाना प्रोफेसर ए. के. वॉर्डर जीवन-भर करेला संस्कृतादि भारतीय प्रशिष्ट भाषाओना साहित्यना अध्ययनना निचोड रूपे, १९७२थी प्रकाशित थई रहेला तेमना ग्रंथरत्न 'इंडिअन काव्य लिटरेचर' नी, तेनी आगळना कीथ, विटर्निट्झ, दासगुप्ता अने सुशीलकुमार दें वगेरेना साहित्य - इतिहासोथी जुदी • पडती बे-त्रण अनन्य लाक्षणिकताओ छे. वोर्डर पोताना विषयभूत काव्यसाहित्य माटे एक तो संस्कृत उपरांत पालि, प्राकृत, अपभ्रंश अने दक्षिण भारतीय द्राविडी भाषाओनी काव्यकृतिओनो पण वृत्तांत आप्यो छे. (अहीं 'काव्य' एटले जेने संस्कृत काव्यशास्त्रमां काव्य कह्युं छे ते एटले के ललित साहित्य). बीजुं, तेमणे प्रकाशित कृतिओ उपरांत जे केटलीक हजी मात्र हस्तप्रतोमां ज छे तेमनो पण समावेश कर्यो छे. त्रीजुं, आ काव्योना रसास्वाद अने मूल्यांकन माटे तेमणे अर्वाचीन पाश्चात्य विवेचननी दृष्टि नहीं, पण भारतीय साहित्यशास्त्रनी दृष्टि अपनावी छे, अने सर्वत्र काव्योना टीकाकारोए अने काव्यशास्त्रीओए कृतिओनां जे जे स्थानोनी समालोचना करी छे तेनो हवालो आपवा साथे घटतो लाभ उठाव्यो छे. १९९२मां प्रकाशित थयेल 'इंडिअन काव्य लिटरेचर'ना छठ्ठा ग्रंथमां जैन साहित्यनी जे बावीश कृतिओनो वृत्तांत आप्यो छे तेनी विगत नीचे प्रमाणे छे : [89] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) मालवदेशनी धारानगरीमां ईसवी ११मी शताब्दीना पूर्वार्धमां राज्य करता परमार राजा सिंधुराज अपर-नाम नवसाहसांकना अमात्य पर्पटना गुरु महासेन-रचित बार सर्गनो विस्तार धरावतुं महाकाव्य प्रद्युम्नचरित (पृ. २१ थी २६ पर ) (२) हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश (पृ. २३५-२४८) ___ (३) मणिपतिचरित (पृ. २४८-२५३) (४) हरिषेणकृत अने अमितगतिकृत धम्मपरिक्खा (५) जिनेश्वरकृत निर्वाण-लीलावती अने जिनरत्नकृत निर्वाणलीलावती महाकथोद्धार (पृ. २६१-२८०); जिनेश्वरकृत कथाकोश (पृ. २८०) (६) धनेश्वरकृत सुरसुंदरीचरिय (पृ. २८०-३१०) (७) नयनंदीकृत सुदंसणचरिउ (पृ. ३१०-३१५) (८) वादिराजवृत यशोधरचरित (पृ. ३१५-३१७) तथा पार्श्वनाथचरित (पृ. ३१७-३२०) (९) वादीभसिंहकृत क्षत्रचूडामणि तथा गद्य-चिन्तामणि (पृ. ३२०) (१०) साधारणकृत विलासवइकहा (पृ. ५५१-५६०) (११) श्रीचंद्रकृत कहकोसु (पृ. ५६०-५६१) तथा दंसणकहरयणकंरडउ (पृ. ५६१-५६२) (१२) प्रभाचन्द्रकृत आराधनाकथा-प्रबंध (पृ. ५६२) (१३) भावचन्द्रकृत शान्तिनाथचरित (पृ. ५६२-५७३) (१४) पद्मकीर्तिकृत पासनाहचरिउ (पृ. ५६५) (१५) वसुदेवहिंडीगत जंबूजरिय (पृ. ६६१-६६४) (१६) गुणपालकृत जंबूचरिय पृ. ६६४-६७०) (१७) वीरकृत जंबूसामिचरिय (पृ. ६७०) (१८) प्रत्येकबुद्धचरित-परंपरा (पृ. ६७०-६७२) (१९) कनकामरकृत करकंडचरिउ (पृ. ६७२-६८१) (२०) देवेन्द्रकृत आख्यानक-मणिकोश (पृ. ६८१-६८२) (२१) वर्धमानकृत जुगाइजिणिंदचरिय (पृ. ६८३-७२२) (२२) प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धि-प्रकरण (पृ.७२२-७२६) [90] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. एरिख क्राउवाल्नझं पोस्थ्युमस एसेझ मूळ जर्मनमांथी अंग्रेजी अनुवाद : अनुवादक जयन्द्र सोनी (१९९४) भारतीय दर्शनोना अध्ययन माटे जेओ आंतरराष्ट्रीय ख्याति धरावता हता ते ओस्ट्रियाना प्रोफेसर फाउवाल्लरना भारतीय दर्शनोना इतिहासने लगता 'हिस्टरी ओव इन्डियन फिलोसोफी'ना बे ग्रंथो (अंग्रेजी अनुवाद : वि. एम. बेडेकर कृत, १९७३) दासगुप्ता वगेरेना ए दिशाना प्रयासो पछीनो एक महत्त्वनो प्रमाणभूत संदर्भग्रंथ होवानुं जाणीतुं छे. तेमना १९७४मां थयेला अवसान पछी, तेमना अप्रकाशित रहेला लेखोमांथी पसंदगी करीने ते जे बे ग्रंथो रूपे जर्मन भाषामा प्रकाशित थया छे, तेमांथी पहेला ग्रंथनो (प्रकाशित १९९४) आ अंग्रेजी अनुवाद छे. आमां वैशेषिक-सूत्रोनो मूळ आरंभ, नव्यन्याय, तंत्रयुक्तिओ, भाषानो सिद्धांत, मीमांसा,कुमारिल, धर्मकीर्ति वगेरे विशे लेखो के संक्षिप्त नोंधो छे. फाउवाल्नरे भारतीय दर्शनोना इतिहासना चोथा ग्रंथ माटे तैयार करी राखेली सामग्रीनी रूपरेखा लेखेनी आ नों धो छे. ३. आयारङ्ग : पाद इन्डेक्स एन्ड रिवर्स पाद इन्डेक्स (१९९४) यामाझाकी अने औसाकाए जैन आगमिक अंगोनी पादसूचि अने ऊलटपादसूचि तैयार करी प्रकाशित करवानी योजना नीचे, जापाननी चुओ एकेडेमिक रिसर्च इन्स्टिट्युट तरफथी, आचारांग-सूत्रनी बंने प्रकारनी सूचिओ प्रकाशित करी छे. आ पहेलां तेमणे प्रकाशित करेल 'इसिभासियाई' अने 'दसवेयालिय'नी सूचिओ विषे अमे 'अनुसंधान-३', पृ. ४७ उपर माहिती आपी छे. ४. जैनदर्शन अने सांख्य-योगमां ज्ञान-दर्शन विचारणा जागृति दीलीप शेठ (१९९४) 'भारतीय दर्शनोमां विशेषतः जैनदर्शन, बौद्धदर्शन अने सांख्य-योगदर्शनमां ज्ञान अने दर्शननी विभावनानी ऊंडी अने सूक्ष्म विचारणा करवामां आवी छे. ज्ञानदर्शन परत्वे आ दर्शनोए घडेली विभावनानो तुलनात्मक अभ्यास करवानो प्रशंसनीय प्रयत्न प्रस्तुत ग्रंथमां सौप्रथम वार करवामां आव्यो छे. शीर्षकमां सूचव्या प्रमाणे मुख्यत्वे जैनदर्शन अने सांख्य-योगमां जे विचारणा थई छे, (ते उपरांत) बौद्धदर्शन, उपनिषदो, गीता अने न्याय [91] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिक दर्शनमां जे कहेवायुं छे तेनी रजूआत... मूळ संस्कृत, प्राकृत, पालि ग्रंथोने आधारे करवामां आवी छे.' (नगीन जी. शाहना प्रास्ताविकमांथी) ५. धेट विच इझ : तत्त्वार्थसूत्र उमास्वाति/उमास्वामी, पूज्यपाद अने सिद्धसेनगणिनी वृत्तिओ साथे अंग्रेजी अनुवाद. अनुवादक नथमल टटिया (१९९४) इन्टर्नेशन सेक्रेड लिटररी ट्रस्टना स्थापक आश्रयदाताओमां एडिम्बरोना ड्युक प्रिन्स फिलिप्स छे, अने आश्रयदाताओमां नवीन चंदरिया वगेरे छे. तेनी जगतना मुख्य धर्मोना मूळभूत धार्मिक-दार्शनिक ग्रंथोना प्रमाणभूत अंग्रेजी अनुवाद तैयार करावी प्रकाशित करवा माटे स्थापित 'सेक्रेड लिटरेचर सिरीझ'मां जैन ग्रंथोनी श्रेणीमा पहेला ग्रंथ करीके आ पुस्तक प्रकाशित थयुं छे. डॉ. टटिया जेवा जैन दर्शनना प्रकाण्ड विद्वाने आ अनुवाद तैयार कर्यो छे, अने तेमां प्रारंभे बर्कलीनी केलिफोर्निया युनिवर्सिटीना प्रोफेसर पद्मनाभ जैनीनो जैन धर्म अने तेना इतिहास पर परिचयलेख आपेलो छे. ६. बर्लिन युनिवर्सिटी तरफथी प्रकाशित थता भारतीय विद्याने लगता संशोधन-सामयिक Berliner Indologische Studienनो ७मा ग्रंथ (१९८३)मां जैन साहित्य अने प्राकृत भाषाना अध्ययननी दृष्टिए नीचेना लेखो उपयोगी छ : On Early Apabhramsa : हरिवल्लभ भायाणी Sectional Studies in Jainology क्लाउस ब्रून The Art of Writing at the Time of the Pilar Edicts of Asoka. हेरी फाल्क ___७. केनेडाथी प्रकाशित जैन साहित्य तथा धर्म विषयक संशोधनात्मक .. अर्धवार्षिक 'जैनमंजरी'ना दसमा ग्रंथना बीजा अंकमां (ओक्टोबर १९९४) (An Exploration of the History of Jaina India in the South.) दक्षिण भारतमां जैन धर्मना इतिहास विषयक घणा उपोयगी लेखो छे. ८. अरविन्द शर्मा संपादित Religion and women ए पुस्तकमां (१९९३) पेरिस युनिवर्सिटीना प्रोफेसर डॉ. नलिनी बलबीरनो Women in Jainism (जैन धर्ममां स्त्रीओ)ए लेखमां जैन परंपरामां साध्वी, श्राविका [92] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वगेरे कक्षाए स्त्रीओनुं सामाजिक तथा कौटुंबिक दृष्टिए स्थान, साध्वीपरंपरा, वगेरे विषे विविध दृष्टिए माहिती आपी छे. ९. ए ज विदुषीना Genres Literaires en Inde (भारतीय साहित्यिक प्रकारो) ए पुस्तकमां समाविष्ट Formes et Terminologie du Narratif Jaina Anscien (पृ. २२९-२६१) (प्राचीन जैन कथा साहित्यना प्रकारो अने तेमनी संज्ञाओ) ए लेखमां चरिता, कल्पिता, धर्मकथा, कामकथा, संकीर्णकथा, दृष्टान्त, ज्ञात, उदाहरण, उपमा वगेरेनी साहित्यिक संदर्भोने आधारे सोदाहरण, सविस्तर चर्चा करेली छे. हरिवल्लभ भायाणी [93] Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण-संस्कार निधिनां प्रकाशनो त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहा काव्य-ग्रंथ 1 , संपा. मुनि चरणविज पजी 1987 (पुनर्मुद्रण) ग्रंथ 2 संपा. मुनि पुण्यविजयजी Studies in Desya Prakrit H. C. Bhayani 1988 हेमसमीक्षा (पुनर्मुद्रण) मधुसूदन मोदी 1989 हेम स्वाध्यायपोथी (डायरी) सं. मुनि शीलचन्द्रविजय 1989 हेमचन्द्राचार्यदत अपभ्रंश व्याकरण (सिद्धहेमगत) (द्वितीय संस्करण) संपा. हरिवल्लभ भायाणी 1993 विजयपालदत द्रौपदीस्वयंवर आद्य संपा. जिनविजयजी मुनि 1993 (पुनमुद्रण) संपा. शान्तिप्रसाद पंडया कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य स्मरणिका 1993 अनुसंधान-१ (अनियतकालिक) " 2-3 1994 अपभ्रंश व्याकरण (हिन्दी अनुवाद) प्रा. बिन्दु भट्ट 1994 आवश्यक-चूर्णि संपा. मुनि पुण्यविजयजी मुद्रणाधीन सहायक रूपेन्द्रकुमार पगारिया प्रबंधचतुष्टय संपा. रमणीक शाह 1994 नेमिनंदन ग्रंथमालानां हमणांनां प्रकाशन अलंकारनेमि मुनि शीलचन्द्रविजय हेमचन्द्राचार्यदत महादेवबत्रीशी--स्तोत्र संपा. मुनि शीलचन्द्र विजय 1989 श्रीजीवसमास-प्रकरण टीकाकार मलधारी हेमचन्द्रसूरि संपा. मुनि शीलचन्द्रविजय 1994 " (गुजराती अनुवाद) चं. ना. शिनोरवाला 1994 सूरीश्वर अने सम्राट मुनि विद्याविजयजी 1994 प्राप्तिस्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८०००१