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________________ ३५ पणि जे को वर परणिसिइ तो हुं जांणुं धन्य ॥ इणि संसारि न एह समी कंन्या इसी सुचंग । गुण करणी निम्मल सुमइ गरूउं नाम सुगंग ॥ बीजा त्रीजा टी(दी?)हडा ईहां पधारई राउ । बोलावइं एह कुमरि-नई संभालइ वण-ठाउ ॥ ईहां राजन आविउ हतु साथिइ इक नेमित्त । तिणि कंन्या देखी करी संभाली इक वत्त ॥ मणिहिं खेउ राजन म धरि म करिसि कय संताप । पुण्य-उदय इह आवीआं गलीअ गयां सवि पाप ॥ इम कहतां तिणि महावणि मलपंता मातंग । आविया घण घंट-रवि बहु पाखरिया पवंग ॥ रहवर हथीआरहं भरिया निर पायल असवार । जांणे किरि चक्कवइ-दल कोई न लाभई पार ।। इम करतां वेअड्ड-गिरि पहुतु राजा जंन्ह । हरखिउ देखीय सेण बहु कुरुवइ रा-स्यां तंन्न ॥ राजा-स्यांतन भणइ हरिषिई करु विवाह ।* जे तम्ह मनि छइ ते वचन तिणि मझ दक्षिणा बाह ॥ जइ लोपुं वाचा किमइ तु मझ एह ज डंड । अवगिणि जिउ(?)उ गंगा सुमइ बुल्लइ इम बलवंड | मंडलीअ मंडलीअ मिलि वेअड्ड-गिरि-सनाह । वडइ महोत्सवि तिहा कीउ गंगा-तणउ विवाह ॥ रा पुहुत्तु पुरि आपणइ सरिसी राणी गंग । हथणाउरि पुरि पाटणि उत्सव हुआ अति चंग ॥ जं गंगा-रांणी कहइ तं तं राउ करंति । . वाच न चूकई गंग-वर कहिउं स ते पालंति ॥ गंगा गंगावर-सरिस सुह भोगवइ समान । पुण्य-पसाइहिं केतले दिणि उपनुं ओधांन । ४० *आ पंक्ति अने पछीनी पंक्ति हांसियामां उमेरेली छे. __ [73] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520504
Book TitleAnusandhan 1995 00 SrNo 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages96
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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