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(३)
'धर्मसार श्री हरिभद्रसूरि महाराजे १४४४ प्रकरणो रच्यां होवार्नु परंपरामां विश्रुत छे. तेओना जे ग्रंथो प्राप्त छे तेनी सूचि विविध ग्रंथकारोए आपेली छे. दा.त. 'गणधरसार्धशतक', 'प्रबन्धकोश' इत्यादि. आ सूचिओमां पण नहि नोंधायेली तेमनी एक कृतिनो नामोल्लेख तथा तेमांना एक वाक्य- अवतरण श्रीदेवेन्द्रसूरि (१३-१४मो शतक) रचित 'स्वोपज्ञ षडशीतिकर्मग्रन्थ-टीका मां प्राप्त थाय छे, जेना प्रत्ये अभ्यासीओ, ध्यान गयुं जणातुं नथी. मुनिश्री चतुरविजयजी द्वारा संपादित ते ग्रंथ (मु. ई. १९३४)ना पृ. १६१ पर (गा.२९नी टीका) आ प्रमाणे अवतरण छे :
"यदाह धर्मसारमूलटीकायां भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिः मनोवचसी तदा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात् ॥"
मूलटीकानो अर्थ सामान्यतः स्वोपज्ञ टीका करवो उचित जणाय छे. तेथी हरिभद्रसूरिजीए 'धर्मसार' नामे प्रकरण अने ते पर मूलटीकानी रचना करी होवानुं मानीए तो असंगत नथी. ___ 'योगशतक' (हरिभद्रसूरिकृत)मां पण 'धर्मसार'नो उल्लेख प्राप्त छे. परंतु, छेक १४मा शतकमां पण तेनुं अस्तित्व होय,-केम के तो ज देवेन्द्रसूरि महाराज तेनो संदर्भ उद्धृत करी शक्या होय - अने छतां ते पूर्वना के पछीना सूचिकारोए के कोईए तेनी नोंध न लीधी, ते जरा विचित्र तो लागे ज.
केटलांक प्रसिद्ध पद्योनां समान्तर जूनां स्वरूप १. धर्मलाभ इति प्रोक्ते, दूरादुद्धृतपाणये । सूरये सिद्धसेनाय, ददौ कोटि नराधिपः ॥ (नवू)
'प्रभावकचरित', सिंघी ग्रंथमाला, पृ. ५६) धम्मलाभो ति वुत्तम्मि दूरादुस्सियपाणिणो । साहुणो सिद्धसेणस्स देइ कोडि निवाहिवो ॥ (जुनू)
('प्रबन्धचतुष्टय', हेमचन्द्राचार्य निधि, पृ. ८१)
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