SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अच्छी-निलाड-संधिसु हियए चिय सिरिपयाइए वन्ने । रययस्स वट्टियाए गहियमहू थिरमणो सूरी ॥३॥" "अहिवासणवेलाए जं ढुक्कइ किंचि वेहिमज्झम्मि । भक्खं तं गुरुसक्खं सेसं देवस्स बितेगे ॥४॥ अह कहवि बिंबसिप्पी हविज्ज पासम्मि तत्थ ठवणाए । ता रित्थाइ वि मुत्तुं सेसद्धं दिज्ज तस्सावि ॥५॥ रित्थं वत्थं कंसाइयं च तइया जिणेण जं लद्धं । तं तस्स होइ सक्खं तेण गुरू तं न गिण्हिज्जा ॥६॥" "न्हाओ विलित्तओ चंदणिण गंधसुगंधिय देहु । परिहाविओ सिवदसज्जणु बहुगुणरयणह गेहु ॥७॥" आ गाथाओ जोतां (१ थी ६ प्राकृतमां, ७मी अपभ्रंशमां) आ बधा प्रतिष्ठकल्पो (आर्य समुद्राचार्यनो पण) प्राकृतमा होवानी अटकळ करी शकाय. - मुनि महाबोधिविजय वाचक उमास्वातिजी- एक वधु पद्य उत्तराध्ययनसूत्रना १०मा “द्रुमपत्रक" अध्ययननी गाथा १नी वृत्तिओमां एक पद्य उद्धृत थयेलुं जोवा मळे छे. पाइय टीका (शान्त्याचार्य-कृत)मां तेनुं अवतरण आ रीते थयुं छे : "तथा चैतदनुवादिना वाचकेनावाचिपरिभवसि किमिति लोकं जरसा परिजर्जरीकृतशरीरम् । अचिरात् त्वमपि भविष्यसि, यौवनगर्वं किमुद्वहसि ?॥" श्री भावविजयकृत वृत्तिमां "तथा चोक्तं वाचकमुख्यैः" आम कहीने उपरनुं पद्य अवतायुं छे. “वाचक' के “वाचकमुख्य" शब्द उमास्वातिजी सिवाय क्यांय कोईने माटे प्रयोजायो नथी, एटले अहीं अवतरणकारोना मनमा “उमास्वाति" ज अभिप्रेत ठे तेम निःशंक मानी शकाय. हवे, उमास्वातिवाचकनी प्राप्त रचनाओमां आ पद्य जोवा मळ्तुं नथी. तेथी एम जपाय छे के एमना अप्राप्त कोई प्रकरणनुं आ पद्य हशे. आ प्रकरण "शान्त्याचार्य"ना समयमा विद्यमान उपलब्ध होवू जोईए एम पण अनुमान क उचित लागे छे. भावविजयजीए तो मात्र पूर्वजोनुं अनुसरण ज कयुं जपाय छे. [17] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520504
Book TitleAnusandhan 1995 00 SrNo 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages96
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy