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________________ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७९॥ देखि अचंभ मु मनि आणंदिय, सिरि धुणंत भणहिं सुर वंदिय वपु रि ! निरूपम रू पि पहो ! । कटर ! कियउ आसणु किणि वणि, किसउ समुज्जल रूपममा(ममाणी?) । अरिरि ! किसीअ अमृतोपम वाणी ! इम केवलसिरि सयंवर वरियउ, सहस पचासा मुणि परिवरियउ । तिहुयणभवण उज्जोयकरो । मंगलदीवउ भणि मुणिराओ आराहीजइ भविय जणि । सहस पंचासा तव विक्खाउ सुर-तरु-धेणु भणी जगि सारो, जणमणवंछिय सुहदातारो । तेय जि जिनिउ अवयरिय (?) । जसु मुणितणइ तियक्खर नामी, न्योयि (?पावि?)सु मणवंछिय दियए । गुणि गरुवउ गुरुगोयमु सामी जाणे पंचपरमिट्ठी तूठा, जाणे सात अमिय-घण वूठा । जाणे नवनिधि करि चडिय । जाणे कोडिमहारस सीधउ, जइ उठतहं प्रहसमए । गोयम नामु गहण छुड कीधउ ॥७२॥ गोयम केवलि महि विहरंतउ, जणमणसंसयतिम(मि)रं हरंतो (तउ) । तेयवंतु दिणि दिणि उदवं(यं)तउ ।। कुग्रह कुमय विहंडणउ, भविय लोयपडिबोहकरो । सहसकिरण जिम जगि जयवंतउ जयवंतउ जिणसासणराजो, परम महोच्छव मंगलकाजो । पहिलउ वृद्धि वधावणउ ए । पढहिं गुणहिं जे गोयमरासो, अष्ट महासिद्धि नवह निधि । तहिं घरि निश्चल करहिं निवासो चउदह सय पंचोत्तर वरिसे, थिरउरपुरि गरुवइ मण हरसे । रासु एहु गोयमतणउ । रयणसिहरसूरिदिहिं कीयउ, पढत गुणंतहं भवियणहं । रिद्धि वृद्धि मंगल सुह दियउ इति श्रीगौतमस्वामिरास समाप्तः ॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ [64] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520504
Book TitleAnusandhan 1995 00 SrNo 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1995
Total Pages96
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size5 MB
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