Book Title: Aagam 33 MARAN SAMAADHI Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३३] श्री मरणसमाधि (प्रकीर्णक) सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “मरणसमाधि” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आद्य संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com, M.Ed., Ph.D.) 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [३३], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि' - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [-]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया 'मरणसमाधि' प्रकीर्णक(१०) प्रत * श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अर्थ-ग्रन्थाङ्कः-४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं। चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम्)। दीप अनुक्रम प्रकाशक:-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहकः सवेरी-वेणीचंद सरचंद । शदं पुस्तकं मोहमयां निर्णयसागरमुद्रणालये कोळभाटवीथ्या-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । - वीर सं० २४५३. विक्रम सं० १९८३. सन १९२७. [वेतन रू.२-०-०. मरणसमाधि-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका : ६६३+प्र०१ 'मरणसमाधि' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ६६४ पृष्ठांक पृष्ठांक ००६ QOX । पृष्ठांक: | ०१७ ०२५ ०२१ मूलांक: गाथा: ___मरणविधि: आरम्भः ०९३ । आलोचना-वर्णनं १५८ । ___ आत्मन: शुद्धि: २५८ । पञ्चमहाव्रतस्यरक्षा मरणभेदानि-निरूपणं ६४० । पण्डितमरणं, उपसंहारः ०२२ मूलांक: गाथा: ०११ ____आराधना, मरणस्वरुपम् १२७ तपस: भेदाः १७५ | | संलेखना २६७ आराधना, उपदेश-आदिः ५५१ । आराधना-अनुचिन्तन | मुलाक: | ०८४ | १२९ । २०८ । ४१३ । १७० | गाथा: आचार्यस्य गणा: ज्ञानादि गुण-वर्णनं आतुरप्रत्याख्यान-आदिः विविध-उदाहरणादिः दवादश-भावना ०३९ __०७४ | ०९३ मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [33], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['मरणसमाधि' - मूलं एवं संस्कृतछाया इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतु:शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं” नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ----................-- मूल [१]-.. ..---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सुत्रांक ॥९॥ SAGAR अथ मरणसमाधिः ॥१०॥ तिहुयणसरीरिवंदं सप्प (संघ) वयणरयणमंगलं नमिउं । समणस्स उत्तमढे मरणविहीसंगहं बुच्छ॥१॥ है॥१२३६ ।। सुणह सुयसारनिहसं ससमयपरसमयवायनिम्मायं । सीसो समणगुणहूं परिपुच्छइ वायगं कंचि ॥२॥१२३७ ॥ अभिजाइसत्तविकमसुयसीलविमुत्तिखंतिगुणकलियं । आयारविणयमवविजाचरणागर दीप अनुक्रम अथ मरणसमाधिः ॥ त्रिभुवनशरीरिवन्धं सत्प्रवचनरचनामंगलं नत्वा । श्रमणस्योत्तमार्थाय मरणविधिसंमहं वक्ष्ये ॥ १ ॥ शृणुत।। Rधुतसारनिकर्ष खसमयपरसमयवादनिष्णातं । श्रमणगुणाढ्य कंचित् वाचकं शिष्यः परिपृच्छति ॥२॥ ममिजातिसरवविक्रमातशीलविमु-पद अथ मरणविधिः आरभ्यते ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [3]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक पइण्णय- मुदारं ॥ ३ ॥ १२३८ ॥ कित्तीगुणगम्भहरं जसखाणिं तबनिहिं सुयसमिद्धं । सीलणनाणदसणचरित्सरय-शिष्यप्रश्नः दसए १०णागरं धीरं ॥४॥ १२३९ ॥ तिविहं तिकरणसुद्धं मपरहियं दुषिहठाण पुणरसं (बई)। विणएण कमविमरणस- सुद्धं चउरिसरं वारसावसं ॥५॥ १२४० ॥ दुओणयं अहाजायं एवं काऊण तस्स किकम्मं । भत्तीह भरिमाही यहियओ हरिसवसुभितरोमंचो ॥ ६॥ १२४१॥ उपएसहेउकुसलं तं पषयणरयणसिरिघरं भणही इच्छामि जाणिजे मरणसमाहि समासेपं ॥७॥१२४२ ।। अन्भुजुयं विहारं इथं जिणदेसियं विउपसत्य। ना महापुरिसदेसियं तु अन्भुजुयं मरणं ।। ८॥१२४३ ।। तुम्भिस्थ सामि! सुअजलहिपारगा समणसं-| घनिजवया । तुझं खु पायमूले सामन्नं उज्जमिस्सामि ॥९॥१२४४ ॥ सो भरियमहरजलहरगंभीरसरो ||३|| दीप CCXC4NCR अनुक्रम (३) तिक्षान्तिगुणकलितं । आचारविनयमार्दवविद्याचरणाकरमुदारं ॥ ३ ॥ कीर्तिगुणगर्भधरं यशःखानि तपोनिधि श्रुतसमिदं । शीलगुणज्ञा-1 नदर्शनचारित्ररत्नाकर धीरं ॥ ४॥ त्रिविधत्रिकरणशुद्धं मदरहितं द्विविघे स्थाने पुना रक्तं (रुष्टं)। विनयेन क्रमविशुद्ध चतुश्शिरो| द्वादशावतं ॥ ५ ॥ व्यवनतं यथाजातं एतादृशं कृतिकर्म तस्य कृत्वा । भक्त्या भृतहृदयो हर्षवशोशिमरोमात्रः॥ ६॥ उपदेशहेतु कुशलं । प्रवचनरजश्रीगृहिकं भणति । इच्छामि ज्ञातुं समासेन मरणसमाधि ॥ ७ ॥ अभ्युद्यतं विहारमिच्छामि जिनदेशितं विद्वत्प्रशस्त । ज्ञातुं महापुरुषदेशित अभ्युद्यतं मरणं (इच्छामि ) ॥८॥ यूयमत्र स्वामिनः श्रुतजलधिपारगाः श्रमणसंघनिर्यामकाः । युष्माकमेव | पादमूले श्रामण्यमुद्यापयिष्यामि ( ० मुद्यस्यामि ) ॥ ९॥ स भृतजलधरमधुरगंभीरखरो निषण्णो भणति । शृणु इदानीं धर्मवत्सला | ॥९६ JAMEtandininindian wjateithet. ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) --- ------- मूलं [१०]----------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया -% 0 -50 प्रत सूत्रांक -0-50- 4 निसन्नओ भणइ । सुण दाणि धम्मवच्छल ! मरणसमाहि समासेणं ॥ १०॥ १२४५ ॥ सुण जह पच्छिमकाले | पच्छिमतित्थयरदेसियमुपारं । पच्छा निच्छियपत्थं उविति अम्भुन्नुयं मरणं ॥ ११ ॥१२४६ ॥ पवनाई सर्व काऊणालोयणं च सुविसुद्धं । दसणनाणचरित्ते निस्सल्लो विहर चिरकालं ॥ १२ ॥ १२४७ ॥ आउधेयसम सी तिगिच्छिा जह विसारओ विजो । रोआर्यकागहिओ सो निरुयं आउरं कुणइ ॥ १३ ॥ १२४८ ॥ एवं | पयपणसुपसारपारगो सो चरित्तसुद्धीए । पापच्छित्तविहिन् तं अणगारं विसोहे। ॥ १४ ॥ १२४० ।। भणइ |प तिविहा भणिया सुविहिप! आराहणा जिर्णिदेहिं । सम्मत्तम्मि य पढमा नाणचरित्तेहिं दो अण्णा ॥१५॥ १२५० ॥ सहहगा पसिषगा रोयगा जे य वीरवयणस्स । सम्मत्तमणुसरंता सणाराहगा हुंति 3 ॥१६॥ १२५१ ॥ संसारसमावणे य छविहे मुक्खमस्सिए चेव । गा दुविहे जीवे आणाए सरहे निचं ||१०|| % दीप अनुक्रम 455-50-550-55 *50 मरणसमाधि समासेन ।। १० ।। शृणु यथा पश्चिमकाले पश्चिमतीर्थकरदेशितमुदारम् । पश्चात् निश्चयपथ्यं उपयान्यभ्युद्यतं मरण (तथा| वक्ष्ये) ॥ ११ ॥ पत्रज्यादि सर्व कृत्वाऽऽलोचनां च सुविशुद्धां । दर्शनज्ञानधारित्रेषु निश्शल्यो विहर चिरकालम् ।। १२ । समाषायुर्वेदचिकित्सायां विशारदश्च यथा वैद्यः । रोगातकागृहीतः स नीरुजमातुरं करोति ॥१३॥ एवं प्रवचनभुतसारपारगः स चारित्रशुद्धया । प्रायवित्तविधिहस्तमनगार विशोधयति ॥१४॥ भणति च त्रिविधा भणिता सुविहित ! आराधना जिनेन्द्रः । सम्यक् च प्रथमा जान चारिवयोर्दै अन्ये ॥१५।। प्रधानाः प्रत्यायका रोचका ये च बीरवचनस्य । सम्यक्त्वमनुसरन्तो दर्शने आराधका भवन्ति ॥१६|| संसारस-16 प.स.१७ Janludminimtin repareitrory.in अथ आराधना एवं मरणस्य स्वरुपम् कथयते ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१८]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया - प्रत सूत्रांक पइण्णय H॥१७॥ १२५२॥ धम्माधम्मागासं च पुग्गले जीयमत्यिकायं च । आणाइ सद्दहंता सम्मत्ताराहगा भणिया आराधनाः दसए १० ॥१८॥१२५३ ।। अरहंतसिदचेइयगुरूसु सुयधम्मसाहुबग्गे य । आयरियउवज्झाए पचयणे सवसंधे यह मरणस- 1॥१९॥१२५४ ॥ एएसु भत्तिजुत्ता पूर्यता अहरहं अणपणमणा । सम्मत्तमणुसरिन्ता परित्तसंसारिया हुँति 01 MI॥२०॥ १२५५ ॥ सुविहिय! इमं पइपणं असदहतेहिं गजीवहिं । पालमरणाणि तीए मयाई काले अणं-18 ताई ॥ २१ ॥ १२५६ ।। एगं पंडियमरणं मरिऊण पुणो यहणि मरणाणि । न मरंति अप्पमत्ता चरित्तमारा हियं जेहिं ॥ २२ ॥ १२५७ ।। दुविहम्मि अहक्खाए सुसंवुडा पुवसंगओमुका । जे उ चयंति सरीरं पंडियहमरणं मयं तेहिं ॥ २३ ॥१२१८॥ एवं पंडियमरणं जे धीरा उबगया उवाएणं । तस्स उवाए उ इमा परिक-18 माही ||१८|| - दीप अनुक्रम [१८] | मापनांश्च पडिधान मोक्षमाश्रितांश्चैव । एतान् द्विविधान जीवान आज्ञया श्रद्दधाति नित्यम् ।। १७ ॥ धर्माधर्माकाशान् च पुलान् जीवास्तिकायं च । आज्ञया श्रद्दधानाः सम्यक्त्वाराधका भगिताः ॥ १८ ॥ अहं सिद्धयेलगुरुपु श्रुतधर्मे साधुवर्गे च । आच ये उपाध्याये है। प्रवचने सर्वसंधे च ॥ १९ ॥ एतेषु भक्तियुक्ताः(तान पूजयन्तः अहरहः अनन्यमनसः । सम्यक्रवमनुसरन्तः परित्तसंसारिका भवन्ति ॥ २० ॥ सुविहित ! इमां प्रतिज्ञा (इदं प्रकीर्णक) अश्रद्दधानैरनेकजीवेः । बालमरणानि अतीते मृतानि कालेऽनन्तानि ॥ २१ ॥ एक पंडिनमरणं मृत्वा पुनर्वहूनि मरणानि । न म्रियते अप्रमत्ताः चारित्रमाराद्धं यैः ॥ २२ ॥ द्विविधे यथाख्यासे सुसंवृताः पूर्वसंगोन्मुक्ताः। ये तु त्यजन्ति शरीरं पंडितमरणं मृतं तैः ॥२३॥ एतत् पंडितमरण ये धीरा' उपगता उपायेन । तस्योपाये इमं तु परिकर्मबिधिं तु योज ॥९७ ॥ Santhustimanmanand awaneiamam Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२४]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप [म्मविही उ जुजीया ॥ २४ ॥ १२५९ ॥ जे कुम्म (केस) संखताडणमारुअजिअगगणपंकयतरूण । सरि-1 कप्पा सुयकप्पियाहारविहारचिट्ठागा ॥ २५ ॥ १२६० ॥ निचं तिदंडविरया तिगुत्तिगुत्ता तिसल्लनिसला। तिविहेण अप्पमत्ता जगजीवदयावरा समणा ॥ २६ ॥ १२६१ ॥ पंचमहबयसुत्थिय संपुष्णचरित्त सीलसंजुत्ता। तह तह मया महेसी हवंति आराहगा संमणा ॥ २७॥१२२२॥ इफ अप्पाणं जाणिऊण काऊण अत्तहिययं च । तो नाणदंसणचरित्ततवसुटिया मुणी हुंति ॥ २८ ॥ १२६३ ॥ परिणामजोगसुद्धा दोसुगु दो दो निरासयं पत्ता । इहलोए परलोए जीवियमरणासए चेव ॥ २९॥ १२३४ ॥ संसारबंधणाणि य राग-16 दोसनियलाणि छित्तूणं । सम्मईसणमुनिसियसुतिक्वधिइमंडलग्गेणं ॥ ३० ॥ १२३५ ॥ दुप्पणिहिए य पियेत् ॥ २४ ॥ ये कूर्म (वेशमुक्ताः) शंख (वन्निरुपलेपाः) ताडन (सहाः) मारतं (वप्रतिबद्धाः) जीव (पदप्रतिहतातयः ) गगन( वन्निरालम्याः) पंकज( वस्यक्तकामभोगाः) तरु( पदारणीयाः) एभिः । सहगाचाराः श्रुतकल्पिताहारविहारचेष्टाकाः ॥२५।। नित्यं निदण्डविरताः विगुपिगुमानिशल्यनिश्शल्याः । त्रिविधेनाप्रमत्ता जगजीवदयापराः श्रमणाः ।।२६।। पंचमहानतमुस्थिताः संपूर्णचारिया:शीलसंयुक्ताः । तथा तथा मृता महर्षयो भवन्त्याराधकाः श्रमणाः ॥ २७ ॥ एकमात्मानं ज्ञात्वा कृत्वा चात्महितदं च । ततो ज्ञानदर्शनचारित्रतपःसुस्थिता मुनयो भवन्ति ।। २८॥ शुद्धपरिणामयोगाः द्वयोश्च (कामभोगयोः) द्वे स्पर्शनरसने द्वे चक्षुःोत्रे दान्ते निरामयं च प्राणं कृतं । इहलोके च परलोके च जीविते मरणे च (याः) आशंसाः (भीर्तयध ताः त्यक्ताः) ॥२९॥ संसारबन्धनानि च रागद्वेषनिगडान ठित्वा सम्यग्दर्शनमुनिशितमुतीक्ष्णधृतिमंडलामेण ॥३०॥ दुप्पणिधीच पिधाय त्रीन त्रिभ्य एव गौरयेभ्यो विमाः । कार मनो । अनुक्रम [२४] ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [३१]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सुत्रांक ||३१|| पडण्णय-पहिऊण तिन्नि तिहिं चेव परवविमुता। कार्य मणं च वायं मणवयसा कायसा चेव ॥ ३१ ॥ १२६६ ॥ तब-18 दसए १० परसुणा य छिचूण तिपिण उजुखंतिविहियनिसिएणं । दुग्गइमग्गा नरिएण मणवयसाकायए दंडे ॥ ३२॥ स्वरूपम् मरणस-11 १२६७ ॥ तं नाऊण कसाए चउरो पंचहि य पंच हन्तूणं । पंचासचे उदिपणे पंचहि य महषयगुणेहिं ॥३॥ माही ॥ १२६८ ॥ छजीवनिकाए रविखऊण छलदोसवजिया जइणो। तिगले सापरिहीणा पच्छिमलेसातिगजुआ4 IN ॥ ३४ ॥१२६९ ॥ एकगदुगतिगचउपणसत्तट्ठगनवदसगठाणेसुं। असुहेसु विप्पहीणा सुभेसु सय संठिया। जे उ ॥ ३५ ॥ १२७० ॥ वेयणवेपावचे इरियट्टाए य संजमट्टाए । तह पाणवत्तियाए छटुं पुण धम्मचिंताए। C॥३६॥ १२७२ ।। छसु ठाणेसु इमेसु य अण्णयरे कारणे समुप्पण्णे | कडजोगी आहारं करंति जयणानि-IG मिस तु ॥ ३७॥१२७२ ।। जोएम किलायंती सरीरसंकप्पचेट्टमचयंता । अविकप्पऽवज भीरू उर्विति अन्भु-IN वार्च च मनोवचनकायगुप्तिभिरेव निरन्ध्यात् ।। ३१ ।। तपःपरशुना च छिच्या त्रीन् दुर्गतिमार्गान मजुझान्तिविहिततक्ष्ण्येन । पौरुपेण मनोवचःकायान दण्डान् ॥ ३२ ॥ तत् ज्ञात्वा कपायांचतुरः पंचमिश्च पंच हत्या । पंचाभवानुदीर्णान् पंचभिश्च महावतगुणैः ॥ ३३ ॥ पड्जीवनिकायान रक्षयित्वा दोपपटवर्जिता यतयः । विकलेश्यापरिहीणाः पश्चिमलेश्यात्रिकचुताश्च ।। ३४ । एकद्विविचतुःपंचसप्ताट नवदशस्थानेभ्यः अशुभेभ्यो विप्रहीणाः शुभेपु च सदा संस्थिता वे तु ॥ ३५ ॥ वेदनोपशमाय चैयावृत्याय ईयार्थाय च संयमार्थाय । हतधा प्राणप्रत्ययाय पात्रं पुनधर्मचिन्ताय ।। ३६ ॥ पदसु कारणेप्वेषु चान्यतरस्मिन् कारणे समुत्पन्ने । कृतयोगिन आहार कुर्वन्ति यतनानिमित्तं तु ॥३७॥ योगेषु काम्यत्मु शरीरसंकल्पचेष्टामशक्नुवन्तः । अविकल्पा अवद्यमीख उपयान्त्यभ्युद्यतं मरणं ॥ ३८॥ दीप अनुक्रम [३१] मिEिRIEmatathetry ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [३८]----------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक जयं मरणं ॥ ३८ ॥ १२७३ ।। आपके उवसग्गे तितिक्खयावंभचेरगुत्तीसु । पाणिदयातवहे सरीरपरिहार[81 बुच्छेओ ॥ ३९ ॥ १२७४ । पडिमासु सीहनिक्कीलियासु घोरे अभिग्गहाईसु । छच्चिय अम्भितरए बज्झे य तवे समणुरता ॥ ४०॥ १२७५ ।। अविकलसीलायारा पडिवना जे उ उत्तम अहूँ । पुचिल्लाण इमाण या भणिया आराहणा चेव ।। ४१ ॥ १२७६ ।। जह पुवडुअगमणो करणविहीणोऽवि सागरे पोओ। तीरासन्नं|8| पावह रहिओऽपि अवल्लगाईहिं ॥ ४२ ॥ १२७७ ।। तह सुकरणो महेसी तिकरण आराहओ धुवं होइ । अल लहद उत्समट्टतं अइलाभत्तणं जाण ॥ ४३ ॥ १२७८ ॥ एस समासो भणिओ परिणामवसेण सुविहियज-12 राणस्स । इत्तो जह करणिज पंडियमरणं तहा सुणह ॥ ४४ ॥१२७९ ॥ फासेहिति चरितं सर्व सुहसीलयं पजहिऊणं । घोरं परीसहच{ अहियासितो धिइबलेणं ॥४५॥ १२८० ।। सद्दे स्वे गंधे रसे य फासे प निग्घि-16 आतंक उपसर्गः तितिक्षाब्रह्मचर्यगुनिषु। प्राणिदयाहेतोः तपोहेतोः शरीरपरिहाराय व्युच्छेदः ॥३९॥ प्रतिमासु च सिंहतिःक्रीडितादिपु घोरा-12 ४ मिमहादिषु । पदमु चैवाभ्यन्तरेषु बाझोपु च (द्वादशधा) तपसि समनुरक्ताः ॥४०॥ अविकलशीलाचाराः प्रतिपन्ना ये तूत्तममर्थम् । पूर्व-13 दिपामेषां च भणिता आराधनैव ।। ४१ ॥ यथा पूर्वमुद्भूतगमनः करणविहीनोऽपि सागरे पोतः । तीरासन्नं प्राप्नोति रहितोऽप्यपहकादिभिः ४२|| तथा सुकरणो महर्षिः त्रिकरण आराधको ध्रुवं भवति । असौ लभते उत्तममर्थ सद् अति लाभवत्त्वं जानीहि ॥ ४३ ।। एष समासो ४ भणितः परिणामवशेन सुविहितजनस्य । इतो यथा करणीयं पंडितमरणं तथा शृगुत ॥४४॥ प्रक्ष्यति चारित्रं सर्व सुखशीलतं प्रहाय । पोरां परिषहचमूमध्यासीनो धृतिबलेन ॥४५॥ शब्द रूपे गन्धे रसे च स्पर्शे च निघृणवया धृत्या । सर्वान कपायान निहन्तुं सदा परमो ACCOCOCCRICKS ||३८|| दीप अनुक्रम [३८] ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [४६]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया पइण्णय- दसए १० मरणसमाही प्रत सूत्रांक ||४६|| ॥९९॥ धिईए । सवेसु कसाएसु य निहंतु परमो सया होहि ॥ ४६ ॥ १२८१ ॥ चइऊण कसाए इंदिए य सचे य आराधकागारवे हंतुं । तो मलियरागदोसो करेह आराहणासुद्धिं ॥४७॥१२८२॥ दंसणनाणचरित्ते पञ्चज्जाईसुनाराधक जो य अइयारो। तं सर्व आलोपहि निरवसेसं पणिहियप्पा ॥४८॥ १२८३ ॥ जह कंटएण विद्धो सवंग वेय- स्वरूपम् दिओ होइ । तह चेव उद्वियंमि उ निसल्लो निवओ होइ ॥ ४२ ॥ १२८४ ॥ एवमणुद्धिपदोसो माइलो तेण दुक्तिओ होइ । सो चेव चसदोसो सुविसुद्धो निधओ होइ ॥ ५० ॥ १२८५ ।। रागहोसाभिहया सस-8 हमरणं मरंति जे मूढा। ते दुक्खसल्लयहुला भमंति संसारकतारे ॥५१॥ १२८६ ॥ जे पुण तिगारवजदा ४|निस्सला सणे परित्ते य । विहरंति मुक्कसंगा खवंति ते सबदक्खाई॥५२॥१२८७ ।। सुचिरमधि संकि-18 सालिटुं विहरितं झाणसंवरविहीणं । नाणी संवरजुत्तो जिणइ अहोरसमित्तेणं ॥५३ ॥ १२८८ ॥ जं निजरेइ साभव ॥ १६ ॥ त्यक्त्वा कषायान इन्द्रियाणि च सर्वाणि च गौरवामि हत्या । ततो मर्दितरागद्वेपः कुरुध्वाराधनाशुद्धिं ॥ ४७ ॥ दर्श-16 नज्ञानचारित्रेषु प्रत्रग्यादिषु यथातिचारः । तं सर्व आलोचय निरवशेष प्रणिहितात्मा ॥ ४८ ॥ यथा कण्टकेन विद्धः सर्वेष्वंगेषु थेदनाहार्दितो भवति । नथैव उद्धृते निदशल्यो निर्वृतो (निर्वातः) भवति ॥४९।। एवमनुवृतदोषो मायावी तेन दुःखिनो भवति । स एव त्यक्तदोषः । मुविशुद्धो निर्दृतो (निर्वातः) भवति ॥५०॥ रागद्वेपाभिहताः सशल्यं मरणं म्रियन्ते ये मूढाः । ते दुःखिनो बहुशल्या भ्राम्यन्ति संसारकान्तारे 31॥५१॥ ये पुनखिगौरवरहिता निश्शल्या दर्शने चारित्रे च । विहरन्ति मुक्तसंगाः क्षपयन्ति तानि सर्वदुःखानि ॥ ५२ ॥ सुचिरमपि 3॥ ९९॥ संक्लिष्टं विहनं ध्यानसंवरविहीनं । ज्ञानी संवरयुक्तो जयति अहोरात्रमात्रेण ।। ५३ ॥ यद् निर्जरयति कर्म असंवृतः सुबहुनाऽपि कालेन । दीप अनुक्रम [४६] Jamluridianimamtiaria ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१४]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५४|| कम्मं असंवुडो सुषहणाऽवि कालेणं । तं संवुडो तिगुप्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥५४॥ १२८९ ॥ सुबहुस्सुयापि संता जे मूढा सीलसंजमगुणेहिं । न करंति भावसुद्धिं ते दुक्खनिभेलणा हुंति ॥ १५॥ १२९० ॥ जे | पुण सुपसंपन्ना चरित्तदोसेहिं नोवलिप्पंति । ते सुविसुद्धचरित्ता करंति दुक्खक्खयं साह ॥५६॥ १२११॥15 पचमकारियजोगो समाहिकामोऽवि मरणकालम्मि । न भवइ परीसहसहो विसयसुहपराइओ जीवो॥२७॥ ॥ १२९२ ॥ तं एवं जाणतो महंतरं लाहर्ग सुविहिएसु । दसणचरित्तसुद्धीइ निस्सल्लो विहर तं धीर ! ॥८॥ SU१२९३ ॥ इत्थ पुण भावणाओ पंच इमा हुति संकिलिट्ठाओ । आराहिंत सुविहिया जा निचं वजणि-18 वाओ॥ ५९॥ १२९४ ।। कंदप्पा देवकिविस अभिओगा आसुरी य संमोहा । एयाउ संकिलिट्टा असंकि-1, लालिट्टा हवइ छट्ठा ॥ ६० ॥ १२९५ ॥ कंदप्प कोकुयाइय दवसीलो निश्चहासणकहाओ। विम्हावितो उ परं| हाता संतत्रिगुप्तः रुपयत्युरासमात्रेण ।। ५४ ॥ सुबहुलता अपि सन्तो ये मूढाः शीलसंयमगुणेषु । न कुर्वन्ति भावशुद्धि ते दुःखभा गिनो (गृहाणि) भवन्ति ॥५५॥ ये पुनः श्रुतसंपन्नाश्चारित्रदोनोंपलप्यन्ते । ते सुविशुद्धचारित्राः कुर्वन्ति दुःखभयं साधवः ।।५६ ।। पूर्व|मकृतयोगः समाधानुकामोऽपि मरणकाले । न भवति परीषहसहो विषयसुखपराजितो जीवः ।। ५७॥ तदेवं जानानो महत्तर लाभ सुविहितेषु । दर्शनचारित्रशुझ्या निश्शल्यो विहर वं धीर! ॥ ५८ ॥ अत्र पुनर्भावनाः पञ्चेमा भवन्ति संष्ठिष्टाः । आराधकैः मुविहिताः! या नित्यं वर्जनीयाः ॥ ५९॥ कान्दर्षी देवकिल्पिषी आभियोगी आसुरी च सामोही । एताः संष्टिष्टा असंकिष्टा भवति पष्ठी ॥ ६॥ कन्दर्पचेष्टावान कोकुचिकः द्रवशीलो नित्यहासनकथाकन । विस्मापयन् परं तु कान्दी भावनां करोति ॥ ६१ ॥ दीप अनुक्रम [१४] ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [६१]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६१|| SSCR A परण्याय- कंदप्पं भावणं कुणइ ।। ६१ ॥ १२९६ ॥ नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स संघसाहणं । माई अवपणवार्ड कि टम १०किविसिय भावणं कुणइ ।। ६२॥ १२९७ ॥ मंताभिओगं कोउग भूईकम्मं च जो जणे कुणइ । सायरसइहि- वर्जनम मरणस- हे अभिओगं भावणं कुणइ ॥ ६३ ॥ १२९८ ॥ अणुबद्धरोसबुग्गहसंपत्त तहा निमित्तपडिसेवी । एएहि || माही INकारणेहिं आसुरियं भावणं कुणइ ॥ १४ ॥ १२९९ ।। उम्मग्गदेसणा नाण(मग्ग)दसणा मम्गविपणासो अ। मोहेण मोहयंतसि भावणं जाण सम्मोहं ॥६५॥ १३०० ॥ एयाउ पंच वज्जिय इणमो छट्ठीइ बिहर तं| ॥१०॥ धीरा पंचसमिओ तिगुत्तो निस्संगो सवसंगेहिं ।। ६६ ॥१३०१ ।। एयाए भावणाए विहर विसुद्धाइ दीह कालम्मि । काऊण अंत सुद्धिं दंसणनाणे चरित्ते य ॥ ६७ ॥१३०२ ॥ पंचविहं जे सुद्धिं पंचविहविवेगसंजुयमका । इह उवणमंति मरणं ते उ समाहिं न पाविति ॥ ६८॥ १३०३ ॥ पंचयिह जे सुद्धि पत्ता निखि-1 ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्यस्य संघस्य साधूनां च । मायी अवर्णवादी किस्विषिकी भावनां करोति ॥६२॥ मंत्राभियोगी कौतुकं भूतिकर्म च | यो जनेषु करोति । सातरसदिहतोराभियोगी भावनां करोति ॥६३।। अनुबद्धरोपव्युगृहसंप्राप्तास्तथा निमित्तालिसे विनः । एतैः (एव) कारणेरामरी भावनां करोति ।।६४॥ उन्मार्गदेशना ज्ञान(मार्ग)दूषणं मार्गविप्रणाशन (तान् कुर्वति) 1 मोहेन च मोहयति भावना जानीहि संमोहीम ॥६५।। एताः पंच वर्जयित्वा अनया पष्ठषा विहर त्वं धीर! । पञ्चसमितस्त्रिगुप्तो निस्संगः सर्वसंगैः ॥६६॥ एतया भावनया विशुद्धया | दीर्घकालं विहर । कृत्वा अन्त्ये शुद्धि दर्शनज्ञानचारित्रेषु च ।। ६७ ।। पंचविधां ये शुद्धि पंचविधविवेकसंयुतामकृत्वा । इहोपगच्छन्ति ॥१० ॥ मरण ते समाधि न प्राप्नुवन्ति ॥ ६८ ॥ पंचविधां ये शुद्धि प्राप्ता निखिलेषु निश्चयमतिकाः । पञ्चविधं च विवेक ते एव समाधि परंI दीप अनुक्रम [६१] JITEludinamaineKI FINDORISPoimueOfr ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [६९]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६९|| OCCACROCOCCOS* लेण निच्छियमईया। पंचविहं च विवेगं ते हु समाहिं परं पत्ता ॥ ६॥ १३०४ । लहिणं संसारे सुदुल्लहं! कहवि माणुसं जम्मं । न लहंति मरणदुलहं जीवा धम्मं जिणवार्य ।। ७० ॥ १३०५ ॥ किच्छाहि पाविय|म्मिवि सामपणे कम्मसत्तिओसन्ना । सीयंति सायदुलहा पंकोसन्नो जहा नागो ॥७१ ॥ १३०६ ॥ जह | कागणीइ हे मणिरपणाणं तु हारए कोडिं। तह सिद्धसुहपक्खा अबुहा सर्जति कामेसुं ॥ ७२ ॥ १३०७।। चोरो रक्खसपहओ अस्थत्थी हणइ पंथियं मूढो । इय लिंगी मुहरक्षसपहओ विसयाउरो धर्म ।। ७३ ॥ ॥ १३०८॥ तेसुवि अलद्धपसरा अवियाहा दुक्खिया गयमईया । समुर्विति मरणकाले पगामभयभेरवं नरयं| ॥७४ ॥ १३०९॥ धम्मो न कओ साटून जेमिओ न य नियंसियं सह । इहि परं परासुत्ति य नेव प पत्ताई सुक्खाई ।। ७५ ॥ १३१० ।। सावणं नोवकयं परलोयच्छेय संजमो न कओ। दुहओऽपि तओ विह दीप अनुक्रम प्राप्ताः ॥ ६९ ॥ लब्बा संसारे मुदुर्लभं कथमपि मानुपं जन्म । न लभंते मरणे दुर्लभं जीवा धर्म जिनाख्यातं ।। ७० ।। कटः प्राप| ऽपि श्रामण्ये कर्मशक्लवसन्नाः। सीदन्ति दुर्लभसाताः पंकावसन्नो यथा नागः ।। ७१ ॥ यथा काकिण्या हेनोर्मणिरवानां तु हारयेन | १ कोटी । तथा परोक्षसिद्धसौख्याः सज्यन्तेऽबुधाः कामेषु ॥ ७२ ॥ चौरो राक्षसमहतोऽर्थायी पायं मूढो हन्ति । इति लिंगी गुखराक्षस-18 हतो विषयातुरो धर्म ॥७३॥ तेष्वपि अलब्धप्रसयः अवितृष्णा दुःसिता गतमतिकाः । समुपयान्ति मरणकालाद् (पर) प्रकामभयभैरवं नरकं ॥७४।। धर्मो न कृतः साधुन जिमिनः न च लक्षणं निवसितं । इदानीं परं परामुरिति न नैव च प्रामानि सौगयानि ।।।। माधुभ्यो|3| 62-56+250 ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [७६]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||७६|| द्वाराणि पडण्णय- लो अह जम्मो धम्मरुकखाणं ॥ ७॥ १.१॥ दिक्त्रं मइले. णा मोहमहावत्तसागराभिहया । तस्स परिकर्मणा दसए १०16 अपडिकमंता मरंति ते यालमरणाई ।। ७७॥ १३१२ ॥ इय अघि मोहपउत्ता मोहं मोजूण गुरुसगासम्मि आलोचमरणस- आलोइय निस्सल्ला मरि आगहमा नेऽथि ।। ७८ ॥ १३१३॥ विसेमो भषणइ छलणा अवि नाम हुज नादीनि माही जिणकप्पो। किं पुण इयरमुणीणं तेज विही देसि ओ इणमो ७९॥ १३१४ ।। अप्पविहीणा जाहे धीरा सुपसार झरियपरमत्था । ते आयरिय विद्विग्नं उचिंति अन्भुत मरणं ॥ ८० ॥ १३१५ ॥ आलोयणाइ ॥१०१॥ संलहणाइ २ खमणाइ ३ काल ४ उस्सगे। उग्गासेमंधार निसग्ग ८ वेरग्ग मुक्खाए १० ॥८॥ ॥१३१३॥ झाणविसेसो ११ मा १२ सम्म १३ पायगमण १४ चेव । चउदसओ एस विही पढमो ४मरणमि नायवो ।। ८२॥१७॥ विणोधार माणस भंगा पूयणा गुरुजणस्स । तित्थयराण य हनीपत परलोकमठेकः संयमय न कृतः द्विपन्नोऽपि नतो विफल गिर जन्म धर्मक्षाणां ॥ ४६॥ दशा मलिनयन्तो मोहमहावर्तसागरानिहताः । तस्माइतिकान्लो किन्ने ते दलमरणानि ॥ ४ ॥ एवमपि मोहमायुक्ता मोई मुक्त्वा गुरुसका। आलोच्य निश्शल्या मर्तुं (प्रहालाः ) अराधकान्लेऽपि । ८ अप्र विशेषो मप्यते छलनमपि नाम भवेन जिनकल्पे । किं पुनरितरमुनीनां? तेन विधिदर्शितोऽयम् ॥ ३१ ॥ परीयां) सविडीनानदा श्रीगः स्मृनथुन सागरपरमार्थाः । ते आचार्य विदत्तं मरणम युगतमुपयान्ति ।। ८ ।। आलोचना संले आमा काल सर्गः । भवन याः संसारकः निसगों बैगम्ब मोक्षः ॥ ८१ ॥ ध्यान- ॥११॥ 8 बिशेषो लेइया मन्यनत्वं पाइपोपाननं चव चतुराक एष विधिः प्रथम भरणे ज्ञातव्यः ।। ८२ ।। बिनय उपचारो मानस्य भंगः। दीप अनुक्रम [७६] JINElustimimmin ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [८३]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||८३|| दीप अनुक्रम KACROSAX आणा सुयधम्माऽऽराहणाऽकिरिया ।। ८३॥ १३१८ ॥ छत्तीमाटाणेसु य जे पवयणसारअरियपरमत्था । तेसि टीपासे सोही पन्नत्ता धीरपुरिमहि ॥ ८५ ॥ ११ ॥ वय कापरकं १२ बारसगं नह अकप्प १३ गिहि भाणं १४ । पलियंक १५ गिहिनिमित्राममोन १७ पलिमलण सिणार्ण १८॥८०॥ १.२० । आयारवं च १ उवधारवं च.२ ववहारविहिविहिन् य । उच्चीलगा य धीरा पावणा विहिष्णू या ३॥८६॥ १:२१॥ तह य अवायविहिन ४ निजवगा जिणमपम्मि गहियत्या । अपरिस्साई ७ प नहा विस्मासरहस्म निच्छिड्डा ८॥ ८७ ॥१३२२ ।। पचमं अट्टाग्मगं अट्ट य ठाणाणि एव भणियाणि । इसो दस ठाणाणि य जेमु| |उवट्ठावणा भणिया || ८८ ॥१३२३ ।। अणवट्ठतिगं पारंचिगं च निगमेय छहि गिहीभूषा ६ । जाणंनि जे 'उ | पण सुअरयणकरंडगा सूरी।। ८ ।। १३२४ मम्मटमणच जे पवियानि आगमचिरिन । जाणति चरिपूजना गुरु जनस्य । तीर्थकराणां न आज्ञा धुनधर्म गवनाऽक्रिया ।।८।। पदविंशति मानेषु च ये रमुनपत्र चनसारपरमार्धाः । तेषां | पार्थे शुद्धिः प्रज्ञप्ता धीरपुरुषः ॥ ८४ । वनपटु कापड द्वादानं नया अलवं गृहिभाजनं । पल्यं को गृहिनिषणा राशोमन्वं परिमार्जन सानं ।। ८५ ॥ भाचारयन्त। उपधारणावातच ध्यवराविधिविधिज्ञाच । अपनीडकाा धीराः प्ररूपणापा विधिज्ञाध ॥ ८६ ।। गधा चापायविधिज्ञा निर्यामका जिनमते गृहीतायाः । अपरिभाविना नया निधामरहम्पनिश्छिद्राः ।। ८७ ।। प्रथममतादाक अट च | स्थानानि एवं भणियानि । इतो दश स्थानानि च येपुरधापना भगिता ।। ८८ ॥ अनवस्थाप्यत्रिक पाराचिकनिक चैतानि पद्भिाही-13 भूताः । जानन्ति वे खेतान् श्रुतरत्नकरण्डकाः मूरयः ।। ८९॥ सक्तमम्बग्दा नान याच विजानन्ति आगमविधिज्ञाः । ज्ञानन्ति चारि [८३] :-54------- I अथ आचार्यस्य गुण-आदि वर्णयते ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [९०]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||९०|| ॥१०२॥ पइण्णय- साओ अनिग्गयं अपरिसेसाओ ८॥१०॥१३२५ ॥ जो आरंभे वइ चिअसकिचो अणणुतावी य । सोगो सरिगुणाः दसए १०इप भवे दसमो १० जेसूबट्टावणा भणिया ॥ ११ ॥ १३२६ ।। एएमु विहि विहाणू छत्तीसाठाणएम जे सूरी। ते मरणस- पवयणसुहकेऊ छत्तीसगुणत्ति नायबो ।। ९२ ॥ १३२७ ।। तेर्सि मेरुमहोयहिमेयणिससिसूरसरिसकप्पाणं ।। माही पायमूले प विसोही करणिज्जा सुविहियजणेणं ॥९३ ॥ १३२८॥ काइयवाइयमाणसियसेवर्ण दुप्पओगसंभूयं ।। जो अइयारो कोई तं आलोए अगहितो ॥ ९४ ॥ १३२९ ।। अमुगंमि इउ काले अमुगत्थे अमुगगामभावेणं । जह निसेवियं खलु जेण य सवं तहाऽऽलोए । ९५ ।। १३३०॥ मिच्छादसणसलं माघासलं नियाणसल्लं च । तं संखेवा दुविहं दवे भावे य योदई ।। ९६ ॥ १३३१ ॥ वि(ति)विहं तु भावसल्लं दंसणनाणे चरित्ता जोगे य । सचित्ताचित्तेऽविय मीसए यावि दबंमि ॥ १७ ॥ १३३२॥ सुहुमंपि भावसल्लं अणुद्धरित्ता उ जो मात् निर्गत चापरिशेषात् ।। ९० ॥ य आरंभे वर्तते सक्तकार्योऽननुतापी च । शोक(भोग)च भवेदशमी येषूपस्थापना भणिता ।। ९१ ।। एतेषु विधिविधानज्ञाः पट्विंशति स्थानेषु वे सूरयः । ते प्रवचनशुभकेतवः पत्रिंशगुणा इति ज्ञातव्याः ॥ १२ ॥ तेषां मेरुमहोदधिमेदिनीशशिसूर्यसहकल्पानां । पादमूले च विशोधिः करणीयः सुविहित जनेन ।। ९३ ॥ कायिकवाधिकमानसिकसेवनं दुप्पयोगसंभूतं । (तपो ) योऽतिचारः कश्चित् तमालोचयेद् अगृहयन् ।। ९४ ॥ अतः अमुकरिमन् काले अनुकायें अमुकग्रामभावेन । यद्यथा निपे वितं येन च सर्व तथैवालोचयेत् ॥ ९५ ॥ मिथ्यादर्शनशल्यं मायाशल्यं निदानशल्यं च । सन् (शल्यं ) संक्षेपान् द्विविधं द्रव्ये भावे || पूच योद्धव्यं ।।९६॥ वि(नि)विधं तु भावशल्य दर्शने ज्ञाने चारित्रयोगे च । सचित्ताचिनयोरपि च मित्रे चापि द्रव्ये ॥ ९७ ।। सूक्ष्ममपि CCCCCCC दीप अनुक्रम [१०] Jantuitinominain . ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [९८]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||९८|| दीप कण काल । लजाय गारवेण य नहु सो आराहओ भणिओ ॥ १८ ॥ १३३३ ॥ तिविहंपि भावसलं समु-12 द्वरिता उ जो कुणइ कालं । पञ्चजाई सम्मं स होइ आराहओ मरणे ॥ ९९ ॥ १३३४ ॥ तम्हा सुत्तरमूलं | अविकूलमविदुयं अणुविग्गो । निम्मोहियमणिगृढं सम्मं आलोअए सवं ॥ १०० ॥ १३३५ ॥ जह पालो जंपतो कजमकलं च उजु भणइ । तं तह आलोएजा मायामयविष्पमुको य॥१०१ ॥ १३३६ ॥ कयपावो । वि मणूसो आलोइय निंदिर गुरुसगासे । होइ अइरेगलहुओ ओहरियभरोष भारवहो ॥१०२॥१३३७ ॥ लजाइ गारवेण प जे नालोयंति गुरुसगासम्मि । धंतपि सुयसमिद्धा न हु ते आराहगा हुंति ॥१०३।१३३८ जह सुकुसलोऽवि विज्जो अन्नस्स कहेइ अत्तणो बाहिं । तं तह आलोयचं सुदृषि ववहारकुमलेणं ॥ १०४ ॥ ॥ १३३९ ।। जं पुर्व तं पुर्व जहाणुपुर्वि जह कम सबं । आलोइज्ज सुविहिओ कमकालविहिं अभिदंतो भावशल्यमनुदल तु वः कुर्यात् कालं । लजया गौरवेण प नैव स आराधको भणितः ।। ९८ ॥ त्रिविधमपि भाषशय समुदत्य तु| | यः करोति फालं। प्रवग्यादौ सम्यक् स भवति आराधको मरणे ॥ ९९ ॥ तस्मान् सोत्तरमूलं अपिकूलं अविहुतमनुद्विसः । निमाहिती |अनिगृहितं सम्यक आलोचयेत् सर्व ॥ १०॥ वथा बालो जल्पन् कार्यमकार्य च मजुर्फ भणति । तत् तथा आलोचवेन् मायामरविप्रमुक्तश्च ।। १०१ ॥ कृतपापोऽपि मनुष्य आलोच्य निन्दवित्वा गुरुसकाशे । उत्तारिनभर इव भारवाहो भवत्यतिरेकलघुतरः ॥१२॥ जया गौरवेण च ये नालोचयंति गुरुसकाशे । मद्धमपि श्रुतसमृद्धा नैव ते बाराधका भवन्ति ॥ १०३ ॥ यथा सकालोऽपि वैयः। च. स.१८18 अन्यस्मै कययति आत्मनो व्याधि । तत् तदाऽऽलोचयितव्यं मुठपि व्यवहारकुशलेन ॥१०४।। बन पातन पूर्व यधानुपपि यथाक्रम सर्व । । अनुक्रम [९८] ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||१०६ || दीप अनुक्रम [१०६] “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [१०६]--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. .. आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया पइण्णय दसए १० मरणस माही ॥ १०३ ॥ Ja Education matin ॥१०५॥१३४० ॥ अत्तंपरजोगेहि य एवं समुवट्ठिए पओगेहिं । अमुगेहि य अमुगेहि य अमुपगसंठाणकरणेहिं | ॥ १०६ ॥ १३४९ ॥ वण्णेहि य गंधेहि य सहफरिसरसरूवगंधेहिं । (सदेहि य रसफरिसठाणेहिं पडि सेवणा ४ कया पज्जवेहिं कया जेहि य जहिं च ॥ १०७॥१३४२ ॥ जो जोगओ अपरिणामओ अ दंसणचरित अइयारो । छट्ठाण बाहिरो वा छट्टाणभंतरो वावि ॥ १०८ ॥ १३४३॥ तं उज्जुभावपरिणउ रागं दोसं च पयणु काऊणं । तिविद्देण उद्धरिखा गुरुपामूले अगूहिंतो ॥ १०९ ॥ १३४४ ॥ नवि तं सत्थं च विसं च दुप्पउत्तुव कुण पालो । जंतंव दुष्पउ सप्पुष पमाइणो कुद्धो ॥ ११० ॥ १३४५ ॥ जं कुणइ भावसलं अणुद्धियं उत्तमकालम्मि | दुल्लवोहीयतं अनंतसंसारियतं च ॥ १११ ॥ १३४६ ॥ तो उद्धरंति गारवरहिया मूलं पुणभ वलयाणं । मिच्छादंसणमल्लं मायासलं नियाणं च ॥ ११२ ॥ १३४७ ॥ रागेण व दोसेण व भएण हासेण आलोचयेत् सुविहितः क्रमकालविदीन् अभिन्दानः ॥ १०५ ॥ आत्मपरयोगाभ्यां चैवं प्रयोगैः समुपस्थिते । अभुकैरमुकैश्च अमुकैः संस्थानकरणैः ॥ १०६ ॥ वर्णैश्च गन्धेन शब्दस्पर्शरसरूपगन्धैः शब्दैश्व रसस्पर्शस्थानेः) । प्रतिसेवना कृता या पर्यवैः कृता ययंत्र च | ॥१०७॥ यो योगतोऽपरिणामतश्च दर्शनचारित्रातिचारः । पद्स्यान्या यासो वा पद्स्थान्या अभ्यन्तरो वापि ॥१०८॥ तरजुभावपरिणतो ४ रागं द्वेषं च प्रतनुकौ कृत्वा । त्रिविवेनोद्धरेत् गुरुपादमूले अगूहयन् ॥ १०९ ॥ नैव तत् शस्त्रं च विपं च दुष्प्रयुक्तो वा करोति बैता लः । यत्रं वा दुष्प्रयुक्तं सर्पो वा प्रमादिनः क्रुद्धः ॥ ११०॥ वत् करोति भावशल्यमनुद्धृतमुत्तमार्थकाले । दुर्लभवोधिकत्वं अनन्तसंसारि- ५३ ॥ १०३ ॥ * कत्वं च ॥ १११ ॥ तत उद्धरन्ति गौरवरहिता मूलं पुनर्भवतानां मिथ्यादर्शनशल्यं मायाशस्यं निदानं च ॥ ११२ ॥ रागेण वा द्वेषेण वा For Only शल्यो द्वार: ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [११३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया % -54- प्रत सूत्रांक ||११३|| 2 0-5 तह पमाएणं । रोगेणायकण व वत्तीइ पराभिओगेणं ॥ ११३ ॥ १३४८ ॥ गिहिविजापडिएण व सपक्खपपारधम्मिओवसग्गेणं । तिरियंजोणिगएण व दिवमणूसोयसग्गेणं ॥११४ ॥ १३४९ ॥ उवहीइ व नियडीइ व तह सावयपेल्लिएण व परेणं । अप्पाण भएण कयं परस्स छंदाणुवत्तीए ॥ ११५ ॥ १३५० ॥ सहसकारमणाभोगओ अजं परयणाहिगारेणं । सन्निकरणे विसोही पुण्णागारो य पपणत्ता ।। ११६ ॥ १३५१ ॥ उजु-11 अमालोइत्ता इत्तो अकरणपरिणाम जोगपरिसुद्धो । सो पणुइ पइकम्मं सुग्गइमग्गं अभिमुहेइ ॥ ११७ ॥ ॥ १३५२ ॥ उवहीनियडिपइट्टो सोहिं जो कुणइ सोगईकामो । माई पलिकुंचतो करेइ बुंदुछियं मूढो॥११८॥ 1॥१३५३ ।। आलोयणाइदोसे दस दोग्गइबंधणे परिहरंतो । तम्हा आलोइजा मायं मुत्सूण निस्सेसं ॥ ११९॥ J॥१३५४॥ जे मे जाणंति जिणा अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । ते तह आलोएमी उवडिओ सबभावेणं ।।१२०॥ भयेन हास्येन तथा प्रमादेन । रोगणतंकेन वा वृत्त्या पराभियोगेन ।। ११३ ॥ गृहिविद्यापतितेन वा खपक्षपरधार्मिकोपसर्गेन । तिर्य-18 योनिसंबंधिना वा दिव्यमनुष्योपसर्गेन ।। ११४ ॥ उपधिना वा निकृत्या वा तथा श्वापदप्रेरितेन या परेण । आत्मनो भयेन कृतं परस्य ४ान्दोऽनुवृत्त्या ॥ ११५ ॥ सहसाकारात् अनाभोगता या प्रवचनाधिकारेण । संज्ञीकरणं विशुद्धिः पूर्णाकारश्च प्रज्ञप्ताः (पर्यायाः)| है|॥११६ ।। कवालाच्य इतोऽकरणपरिणामयोगपरिशुद्धः । स प्रतनुकरोति प्रकृतिकर्म सुगतिमार्गमभिमुखयति ।। ११७ ।। उपधिनिक-16 शतिप्रविष्टः शुद्धि यः करोति मुगतिकामः । मायी परिकुंचयन करोति विछितं मूढः ।। ११८ ॥ आलोचनाया दोपान दश दुर्गतिबन्ध-131 18|नान परिहरन् । तस्मादालोचयेत् मायां मुक्त्वा निश्शेषम् ॥ ११९ ।। यान मे जानन्ति जिना अपराधान येषु येषु स्थानेषु । तालधा-|| 28- दीप AAROCESSOCLASAX अनुक्रम [११३] ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||१२१|| दीप अनुक्रम [१२१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... दसए १० इण्णय- ४ ॥ ॥ १३५५ ॥ एवं एवद्विपस्सवि आलोएवं विशुद्धभावस्स । जं किंचिवि विस्सरियं सहसक्कारेण वा चुकं ।। १२१ ।। १३५६ ।। आराहओ तहवि सो गारवपरिकुंचणामयविणो । जिणदेसियस्स धीरो सद्दहगो मुत्ति | मग्गस्स ।। १२२ ।। १३५७ ॥ आपण १ अणुमाणण २ जंदिहं ३ बायरं ४ च सुमं ५ च । छन्नं ६ सद्दालगं ७ बहुजण ८ अवत्त ९ तस्सेची ॥। १२३ ।। १३५८ || आलोषणाई दोसे दस दुग्गड़बडणा पमुत्तूणं । आलोइज सुविहिओ गारवमायामयविणो ॥ १२४ ॥ १३५९ ।। तो परियागं च बलं आगम कालं च कालकरणं च । पुरिसं जीअं च तहा खित्तं पडिसेवणविहिं च ।। १२५ ।। १३६० ॥ जोग्गं पायच्छित्तं तस्स य दाऊण चिंति आपरिया। दंसणनाणचरिते तवे व कुणमध्यमायंति ॥ १२६ ॥ १३६१ || अणसणमृणोयरिया वित्तिच्छेओ रसस्स परिचाओ। कायस्स परिकिलेसो छट्टो संलीणया चेव ।। १२७ ।। १३६२ ॥ विणए बेघावचे पायच्छिते ऽऽलोचयामि उपस्थितः सर्वभावेन ॥ १२० ॥ एवमुपस्थितस्यापि आलोचयितुं विशुद्धभावस्य । यत्किञ्चिदपि विस्मृतं सहसाकारेण वा विमृष्टं ॥ १२१ ॥ आराधकस्तथापि स गौरवपरिकुंचनामदविहीनः जिनदेशितस्य धीरः श्रद्वायको मुक्तिमार्गस्य ।। १२२ ।। आकंपनमनुमाननं यद्दृष्टं बादरं च सूक्ष्मं च छन्नं शब्दाकुलं बहुजनं अव्यक्तं तत्सेवि ॥ १२३ ॥ आलोचनाया दोषान् दश दुर्गतिवर्धनान् प्रमुच्य आटोजयेत् सुविहितो गौरवमायामविहीनः ॥ २२४ ॥ ततः पर्याये च बलं चागमं कालं च कालकरणं च । पुरुपं जीतं च तथा क्षेत्रं प्रतिसेवनाविधिं च (झाला) || १२५ || योग्यं प्रायश्चित्तं तस्मै दत्वा ध्रुवते आचार्याः । दर्शनज्ञानचारित्रेषु तपसि च कुरुष्वाप्रभादमिति ॥ १२६ ॥ अनशनमवमौदर्य वृत्तिच्छेदो रसस्य परित्यागः । कायस्य परिशः पष्टी संलीनता चैव ।। १२७ ।। विनयो वैया मरणस माही ॥ १०४ ॥ Ebeatin “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [१२१]--- अथ तपसः भेदानि वर्णयते ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया For P&P Use Only ~21~ आलोचनादोषादि ज्ञानाद्युद्यमश्व ॥ १०४ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) .-.-.-.... --- मलं [१२८]-.....----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक CARLOCAX ||१२८|| विवेग सज्झाए । अभितरं तवविहिं छटुं प्राणं विषाणाहि ॥ १२८ ॥१३६३॥ धारसविहम्मिवि तचे अभितरयाहिरे कुसलदिहे । नवि अस्थि नवि य होही सज्झायसमं तबोकम्मं ॥ १२९ ॥ १३६४ ॥ जे पयणुभत्तपाणा सुपहेऊ ते तवस्सिणो समए । जो अ तवो सुबहीणो बाहिरयो सो छुहाहारो॥१३० ॥ १३६६ ॥ छहमदसमदुवालसेहिं अबहुसुयस्स जा सोही । तत्तो बहुतरगुणिया हविज जिमियस्स नाणिस्स C॥ १३१ ॥ १३६६ ॥ कल्लं कलंपि वरं आहारो परिमिओ अ पंतो अ।न य खमणो पारणए बहु बहुसरो यहु विहो होइ ।। १३२ ।। १३६७ ॥ एगाहेण तबस्सी हविज्ञ नत्थित्य संसओ कोइ । एगाहेण सुयहरो न होइ ४ाधतंपि तूरमाणो ॥१३३ ॥१३६८ ॥ सो नाम अणसणतबो जेण मणो मंगुलं न चितेइ । जेण न इंदिप-न। हाहाणी जेण य जोगा न हायंति ॥ १३४ ॥ १३३९॥ अन्नाणी कम्मं खचेइ यहुआहिं वासकोडीहिं । तं नाणी वृत्त्यं प्रायश्चित्तं विवेकः स्वाध्यायः । अभ्यन्तरं तपोनिधि पठं ध्यानं विजानीहि ।। १२८ ॥ द्वादशविधेऽपि तपसि साभ्यन्तरवाहो कुश-IM लहटे । नैवासित नापि च भविष्यति स्वाध्यायसमं तपःकर्म ।। १२९ ॥ ये प्रतनुभक्तपानाः धुतहेतोस्ते तपस्विनः समये । अब तपः१४ श्रुतहीनं वाहः स क्षुदाहारः ॥ १३० ।। पठाष्ट्रमदशमद्वादशैरबहुश्रुतस्य या शुद्धिः । ततो बहुतरगुणिता भवेत् जिगितम्य ज्ञानिनः | *॥१३१।। कल्ये कल्येऽपि वर आहारः परिमितश्च प्रान्तश्च । न च क्षपणस्य पारणके बहुः बहुतरो बहुविधो भवति ।।१३२।। एकनाहा तपस्वी भवेत् नास्त्यत्र संशयः कश्चित् । एकनाडा श्रुतधरो न भवति बाढमपि त्वरमाणः ।। १३३ ।। तन्नाम अनशनतपो येन मनोऽम-| गलं न चिन्तयति । येन नेन्द्रियहानियेन च योगा न हीयन्ते ।। १३४ ।। यदज्ञानी कर्म क्षपयति बहुकाभिषेप कोटीनिः । नन ज्ञानी || 17 दीप अनुक्रम [१२८] Janthatmanmanar अथ ज्ञानादि गुणा: वर्णयते ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१३५]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३, प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१३५|| पइण्णय-14तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तणं ॥ १३५ ॥ १३७० ॥ नाणे आउत्ताणं नाणीणं नाणजोगजुत्ताणं । को निजरं ज्ञानमदसए १० लिज्जा चरणे य परकमंताणं? ॥१३६ ॥ १३७१ ॥ नाणेण बजणिनं बजिजा किजई य करणिजं । नाणी मरणस- जाणइ करणं कजमकजं च बजेउं ।। १३७ ॥ १३७२ ॥ नाणसहियं चरितं नाणं संपायर्ग गुणसयाणं । एस माही 15 जिणाणं आणा नत्थि चरित्तं विणा णाणं ।। १३८॥ १३७३ ।। नाणं सुसिक्खियई नरेण लहण दुल्लहं बोहिं । जो इच्छा ना जे जीवस्स विसोहणामग्गं ॥ १३॥ १३७४ । नाणेण सबभावा णज्जती सबजीवलोअंमि ।। ॥१०५॥ तम्हा नाणं कुसलेण सिक्खियवं पयत्तेणं ॥१४० ॥ १३७५ ॥ न ह सका नासे नाणं अरहंतभासियं लोए । ते धन्ना ते पुरिसा नाणी य चरित्तजुत्ता य ॥१४१॥ १३७६ ॥ पंधं मुक्खं गहरागयं च जीवाण जीवलोयम्मि । जाणति सुयसमिद्धा जिणसासणचेइयविहिष्णू ॥ १४२ ॥ १३७७ ॥ भई सुबहसुपाणं सबविभिगुप्तः क्षपयत्युच्छासमात्रेण ।। १३५ ॥ ज्ञाने आयुक्तानां ज्ञानिनां ज्ञानयोगयुक्तानां । को निर्जरां तोलयेत् चरणे च पराक्रममाणानां १३६ ॥ ज्ञानेन वर्जनीयं वय॑ते क्रियते च करणीयं । ज्ञानी जानाति करणं कार्बमकार्य च वर्जयितुम् ॥ १३७ ।। ज्ञानसहितं चारित्रं, ज्ञानं संपादकं गुणशतानां । एषा जिनानामाज्ञा नास्ति चारित्रं विना ज्ञानं ।। १३८ ।। ज्ञानं सुशिक्षयितव्यं नरेण लम्वा सुदुर्लभ बोधि । य इच्छति ज्ञातुं जीवस्य विशोधनामार्गम् ।। १३९ । ज्ञानेन सर्वभावा ज्ञायन्ते सर्वजीवलोके । तस्मात् ज्ञानं कुशलेन शिक्षहा यितव्यं प्रयनेन ॥ १४० ॥ नैव शक्यं नाशयितुं लोकेऽहदापितं ज्ञानं । ते धन्यास्ते पुरुषा ज्ञानिनश्च चारित्रयुक्ताश्च ।। १४१॥7॥१०५॥ बन्ध मोक्षं गतिमागतिं च जीवानां जीवलोके । जानन्ति श्रुतसमृद्धा जिनशासनचैयविधिज्ञाः ।। १४२ ॥ भद्रं बहुश्रुतेभ्यः सर्वपदार्थेषु दीप अनुक्रम [१३५] SAMACHAR Janbundanimamaina ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१४३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया * % प्रत सूत्रांक ||१४३|| % दीप पत्थेसु पुच्छणिजाणं । नाणेण जोऽवयारे सिद्धिपि गएसु सिद्धसु ॥ १४३ ॥ १३७८ ॥ किं इत्तो लट्ठया अच्छेरययं व सुंदरतरं वा? । चंदमिव सबलोगा बहुस्सुयमुहं पलोयंति ॥ १४४ ॥ १३७९ ॥ चंदाउ नीइ जुण्हा बहुस्सुयमुहाओ नीइ जिणवयणं । जं सोऊण सुविहिया तरंति संसारकतारं ।। १४५ ॥ १३८० ॥ चउदसपुबधराणं ओहीनाणीण केवलीणं च । लोगुत्तमपुरिसाणं तेसिं नाणं अभिन्नाणं ॥ १४६ ॥ १३८१ ॥ नाणेण |विणा करणं न होइ नाणंपि करणहीणं तु । नाणेण य करणेण य दोहि वि दुक्वक्वयं होई ॥१४७॥१३८२।। दढमूलमहाणंमिवि वरमेगोवि सुयसीलसंपण्णो । मा हुसुयसीलविगला काहिसि माणं पचयणम्मि ॥१४८ ॥ १३८३ ।। तम्हा सुयम्मि जोगो कायरो होइ अप्पमत्तेणं । जेणऽप्पाण परंपि य दुक्खसमुद्दाओ तारेह ॥ १४९ ।। १३८४ ॥ परमत्थम्मि सुदिढे अविणटेस तवसंजमगुणेसु । लम्भइ गई विसुद्धा सरीरसारे| प्रच्छनीयेभ्यः । ज्ञानेन येऽवतारयति सिद्धिमपि गतान् सिद्धान् ॥ १४३ ॥ किमितो लप्टतरमाश्चर्यकारकं वा सुन्दरतरं वा ? । चन्द्रमिव सर्वलोका बहुश्रुतमुखं प्रलोकन्ते ।। १४४ ॥ चन्द्रात् निर्गच्छति ज्योत्स्ना बहुश्रुतमुखान् निर्गठति जिनवचनं । यत् श्रुत्वा सुविहितास्तरन्ति संसारकान्तारं ॥ १४५ ॥ चतुर्दशपूर्वधराणां अवधिहानिनां केवलिनां च । लोकोत्तमपुरुषाणां तेषां ज्ञानमभिज्ञानम् ।। १४६ ॥ ज्ञानेन विना करणं न भवति ज्ञानमपि करणहीनं तु । शानेन च करणेन च द्वाभ्यामपि दुःखक्षयो भवति ॥ १४७ ।। दृढमूलमहाजने| पि एकोऽपि श्रुतशीलसंपन्नो वरं । श्रुतशीलविकलान मा मानं प्रबचने कार्षीः ॥ १४८ ॥ तस्मान् श्रुते योगः कर्तव्यो भवत्यप्रमत्तेन ।। येनात्मानं परमपि च दुःखसमुद्रात् तारयति ॥ १४९ ॥ परमार्थे सुदृष्टे अविनष्टेषु तपःसंयमगुणेषु । लभ्यते गतिविशुद्धा शरीरसारे || * * अनुक्रम [१४३] JAMERaatitimeiratistic ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक || १५० || दीप अनुक्रम [१५० ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... पइण्णय दसर १: “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [१५०]--- ॥। १०६ ।। विम्मि ।। १५० ।। १३८५ ।। अथिरहिया जस्म मई पंचहि समिति तिहिवि गुत्तीहिं । न प कुणइ राग- * ज्ञानचारिदोसे तस्स चरितं हवइ सुद्धं ।। १५१ ।। १३८६ ।। उक्कोसचरितोऽवि य परिवडई मिच्छभावणं कुणइ । किं २५ त्रयोरुद्यमः मरण-पुण सम्मद्दिट्ठी सरागधम्मंमि वर्द्धतो १ ॥ १६२ ॥ १३८७ ॥ तम्हा घत्तह दोस्रुवि काउं जे उज्जमं पयत्तेणं । माही * सम्मत्तम्मि चरिते करणम्मि अ मा पमागृह ॥ १५३ ।। १३८८ ॥ जाव य सुई न नासह जाव य जोगा न ते पराहीणा । सम्रा व जान हायइ इंद्रियजोगा अपरिहीणा ॥ १५४ ॥ १३८९ ॥ जाव य खेमसुभिक् आयरिया जाव अस्थि निजबगा । इहीगारवरहिया नाणचरणदंसणंमि रया ।। १५५ ।। १३९० ।। ताव खमं कार्ड जे सरीरनिक्वणं विउपसत्थं । समग्रपडागाहरणं सुविहियइहं नियमजुतं । १५६ ।। १३९१ ।। हंदि | अणिचा सद्धा सुई व जोगा य इंदियाई च । तम्हा एवं नाउं विरह तवसंजमुज्जुत्ता ।। १५७ ।। १३९२ ।। ताविनष्टे || १५० || अविरहितं पञ्चमु समितिषु तिसृष्वपि गुप्तिषु यस्य मतिः । न च करोति रागद्वेषौ चारित्रं तस्य भवति शुद्धं ॥ १५२॥ उत्कृष्टचारित्रोऽपि च परिपतति मिध्यात्वभावनां (यदि) करोति । किं पुनः सम्यग्दृष्टिः सरागधर्मे वर्त्तमानः ? ।। १५२ ।। तस्माद् यतस्व द्वयोरपि कर्तुं उद्यमं प्रयत्वेन । सम्यक्त्वे चारित्रे करणे च मा प्रमादिष्ट ।। १५३ ।। यावण श्रुतिर्न नश्यति यावच योगा न तव परा चीनाः । श्रद्धा च यावन्न हीयते इन्द्रिययोगाचापरिहीणाः ॥ १५४ ॥ यावच क्षेमसुभिक्षे यावचाचार्याः सन्ति निर्यामकाः । ऋद्धिगौरवरहिता ज्ञान चरणदर्शनेषु रताः ॥ १५५ ॥ तावन् श्रमं कर्तुं शरीरनिक्षेपणं विद्वत्मशस्तं । समयपताकाहरणं सुविहितेष्टं नियमयुक्तम् ॥ १०६ ॥ ।। १५६ ॥ इन्त अनित्या श्रद्धा श्रुतिश्च योगाचेन्द्रियाणि च । तस्मादेतत् ज्ञात्वा विहरत तपःसंयमोयुक्ताः ॥ १५७ ॥ तद् एतन् Juridion vertical अथ आत्मनः शुद्धिः वर्णयते ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया Fat P&P Use Only ~ 25~ wwwjateenag Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१५८]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१५८|| *-0-4500---141-44-7 % पर्य नाऊणं ओवायं नाणदंसणचरित्ते । धीरपुरिमाणुचिन्नं करिति सोहिं सुयसमिदा ॥ १५८ ॥ १३९३ ॥! अभितरवाहिरियं अह ते काकण अप्पणो सोहिं । निविहण तिविहकरणं निविहे काले बिघडभाया ॥१५॥ ४। १३९४ ॥ परिणामजोगसुद्धा उवहि विधेगं च गणविसांग प। अजाइयउबस्सयवजणं च विगई विवगं च | H॥१६० ॥ १३९५ ॥ उम्गम उपायणएसणाविसुद्धिं च परिहरणसुद्धिं । सन्निहिसंनिचयंमि य तववेयावचक-16 रणे य ॥१६१ ॥ १३१६ ॥ एवं करंतु सोहिं नवसारयमलिलनहयलसभावा । कमकालदवपजवअत्तपरजोन ४ोगकरणे य ॥ १६॥१३९७ ॥ तो ते कयसोहीया पच्छिते फासिए जहाथाम । पुप्फावकिन्नयम्मि य तवम्मि जुत्ता महासत्ता ॥ १६३ ॥ १३९८ ।। तो इंदियपरिकम्मं करिति विसयसुहनिम्गहसमत्था । जयणाइ अप्प-| मत्ता रागहोसे पयणुयंता ॥ १६४ ॥ १३९९ ।। पुधमकारियजोगा समाहिकामावि मरणकालम्मि । न भवति । ज्ञात्वा औषयिक ज्ञानदर्शनचारिपु । धीरपुरुषानुचीणी शुद्धिं कुर्वन्ति भुनसमृद्धाः ।। १५८ ॥ अभ्यन्तरां बाह्यां चाय ते कृत्वाऽऽत्मनः शुद्धिं । त्रिविधेन विविधकरणेन त्रिविधे काले विकटभावात् ॥१५९|| शुद्धपरिणामयोगाः उपधिविवेकं च गणविसर्ग च । आर्याया उपा-16 श्रयवर्जनं च विकृति विवेक च ।। १६० ॥ उद्मोत्पादनपणाविशुद्धिं च परिहरणशुद्धि । सन्निधिसन्निचये च तपोवैयावृत्यकरणे च 81॥ १६१ ।। एवं कुर्धन्तु शुद्धिं नवशारदसलिलनभसलवभावाः । कमकालद्रव्यपर्यायात्मपरयोगकरणेषु च ॥ १६२ ॥ ततस्ते कृतशुपाशिकाः प्रायश्चित्तानि पवा यथास्थाम । पुप्पावकीर्ण के च तपसि युक्ताः महासत्त्वाः ॥ १६३ ॥ तत इन्द्रियपरिकर्म कुर्वन्ति विषयमुखपानिप्रहसमर्थाः । यतनायामप्रमत्ताः रागद्वेषौ प्रतनूकुम्नः ॥ १६४ ॥ पूर्वमकृतपरिकर्मयोगाः समाधिकामा अपि मरणकाले । न भवन्ति। दीप अनुक्रम [१५८] %9564% ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१६५]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१६५|| पइण्क्य- दसए १० मरणस माही ॥१०॥ 452-5 -- परीसहसहा विसयसुहपमोइया अप्पा ॥ १६५ ॥ १४०० ॥ इंदिगमुहसाउलओ घोरपरीसहपराइयपरझो।। परिकर्मण अकपपरिकाम कीवो मुज्झह आराहणाकाले ॥१६६ ॥ १४०१ ।। वाहंति इंदियाई पुषिं दुन्नियमियप्पयाराई आवश्यता अकयपरिकम्मकीवं मरणे सुअसंपउत्तंपि ॥१६७ ॥ १४०२॥ आगममयप्पभाविय इंदियमुहलोलुयाप:हस्स । जइवि मरणे समाही हुजन सा होइ बहुयाणं ॥१६८॥ १४०३ ।। असमत्तसुओऽवि मुणी पुचिं सुकयपरिकम्मपरिहत्यो। संजमनियमपन्नं सुहमत्तहिओ समपणेइ ।। १६९ ॥ १४०४ ॥ न चति किंचि का पुषि सुकयपरिकम्मजोगस्स । खोहं परीसहचमू धिईबलपराइया मरणे ॥ १७० ॥ १४०५ ॥ तो तेऽवि [पुषचरणा जयणाए जोगसंगहविहीहिं । तो ते करिति दसणचरित्तसइ भावणाहेउं ॥ १७१ ॥ १४०६ ॥ जा पुषभाविया किर होइ सुई चरणदसणे यहा । सा होइ बीयभूया कयपरिकम्मस्स मरणम्मि ॥१७२॥१४०७॥ परीपहसहाः विषयसुखप्रमो(नो)दितात्मानः ॥१६५।। इन्द्रियमुन्नसाताकुलो घोरपरीपहपराजितः अपराधः(परायत्तः) । अकृतपरिकर्मा लीवो | | मुह्यति आराधनाकाले ॥१६६।। याधन्ते इन्द्रियाणि पूर्व दुर्नियमितत्रचाराणि । अकृतपरिकर्माणं ठीचं मरणे स्व(थुन)प्रसंयुक्तमपि ॥१६॥ | आगममयाभावितस्य इन्द्रियमुखलोलताप्रतिष्ठस्य । यद्यपि मरणे समाधिर्भवेन न सा भवति बहुकानां ॥ १६८ ॥ असमाप्रभुतोऽपि | मुनिः पूर्व सुकृतपरिकर्मनिपुणः । संयमनियमप्रतिज्ञा सुखमात्महितः समन्वेति ॥ १६९ ॥ न शक्नोति किंचित कर्नु पूर्व सुकृतपरिकर्मयो-12 गस्य । क्षोभं परीपहचमूः धृतिवलपराजिता मरणे ॥ १७० ।। ततस्तेऽपि पूर्वचरणा(भवन्ति)यतनया बोगसंग्रहविधिभिः । ततस्तेऽपि भाव-100७॥ नाहे तोर्दर्शनचारित्रस्मृतिं कुर्वन्ति ॥ १७१ ।। या पूर्व भाविता किल भवति श्रुतिश्वरणे दर्शने च बहुधा । सा भवति बीजभूना कृतपरिक-10 दीप ----- अनुक्रम [१६५] HEA - ROCESS Jantsritimimmine ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१७३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया 60 प्रत सूत्रांक ||१७३|| 0-50- दीप अनुक्रम तं फासेहि चरितं तुमंपि सुहसीलयं पमुत्तूणं । सर्व परीसहच{ अहियासंतो धिइबलेणं ॥ १७३ ॥ १४०८ ॥ दास रूवे गंधे रसे य फासे य सुविहियजणेहिं । सवेसु कसाएमु अ निग्गह परमो सपा होहि ॥ १७४ ॥ ॥ १४०९ ॥ सधे रसे पणीए निज हे ऊण पंत क्खेहिं । अन्नयरेणुवहाणेण संलिहे अप्पगं कमसो ॥ १७५॥18 31॥१४१०॥ संलेहणा य दुविहा अधिभतरिया य बाहिरा चेव । अभितरिय कसाए बाहिरिया होइ य सरीरे| ॥ १७६ ।। १४११ ॥ उग्गमउप्पायणएसणाविसुद्धेण अण्णपाणेणं । मियविरसलुक्खलूहेण दुव्यलं कुणसु | अप्पागं ॥ १७७ ॥ १४१२ ।। उल्लीणोहीणेहि य अहव न एगंतवद्धमाणेहिं । संलिह सरीरमेयं आहारविहिं| पणुयंतो ॥ १७८ ।। १४१३ ॥ तत्तो अणुपयेणाहारं उवहिं सुओवएसेणं । विविहतबोकम्मेहि य इंदिय-16 विकीलियाइहिं ।। १७२ ॥ १४१४ ॥ तिविहाहि एसणाहि य विविहेहि अभिग्गहेहि उग्गेहि । संजममविरा-18 | मणो मरणे ।। १७२ ।। तन पश चारित्र समपि मुखशीलता प्रमुच्य । सर्वा परीपहचभूमध्यासीनो धृतियलेन ।। १७३ ॥ शब्दे रूपे । | गन्धे रसे च पर्श च सुविहितजनेषु (जनैः) । सर्वेषु कषायेषु च निग्रहपरमः सदा भव ॥ १७४ ॥ सर्वान रसान प्रणीतान निध। |प्रान्तः । अन्यतरेणोपधानेन संलिखेदात्मानं क्रमशः ॥ १७५ ॥ संलेखना च द्विविधा अभ्यन्तरा च बाह्या चैव । अभ्यन्तरा कषाये | | बाह्या भवति च शरीरे ॥ १७६ ।। उद्गमोत्पादनैपणाविशुद्धन अन्नपानेन । मितविरसातिरूक्षेण दुर्वलं कुरुष्वात्मानम् ।। १७७ ॥ हीय-| |मानहीयमानैश्वाथवा न एकान्तवर्धमानैः । संलिख शरीरमिदं आहारविधि प्रतनूकुर्वन् ।। १७८ ॥ ततोऽनुपूाऽऽहार उपधि श्रुतोपदे| शेन । विविधतपःकर्मभिश्च इन्द्रियविक्रीडितादिमिः ।। १७९ ॥ त्रिविधामिरेषणाभिश्च विविधैरभिप्रहरुमैः । संयममविराधयन् यथा-17 [१७३] 6-09-2565 Janbundanimatiana अथ संलेखना वर्णयते ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१८०]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया % संलेखना विधिः प्रत सूत्रांक ||१८०|| पइण्णय हितो जहावलं संलिह सरीरं ॥ १८० ॥ १४१५ ॥ विविहाहि व पडिमाहि य बलवीरियजई प संपहोइ दसए १०18सुहंताओवि न पाहिती जहकमं संलिहंतम्मि ॥ १८१ ॥ १४१६ ॥ छम्मासिया जहन्ना उकोसा यारिमेव मरणस- वरिसाई । आयंथिलं महेसी तत्थ य उक्कोसयं विनि ।। १८२॥ १४१७ ॥ छहमदसमदुवालसहिं भत्तेहिं । माही चित्तक?हिं । मियलहुकं आहारं करेहि आयंबिलं विहिणा ॥ १८३ ॥ १४१८ ॥ परिवहिओवहाणो पहारवि-| रावियवियडपासुलिकडीओ । संलिहियतणुसरीरो अजनप्परओ मुणी निचं ॥ १८४ ।। १४१९ ॥ एवं सरीर॥ १०८॥AIN संलेहणाविहिं बहुविहंपि फासितो । अज्झवसाणविमुहिं वर्णपि तो मा पमाइत्था ॥ १८५ ॥ १४२०॥ अज्झवसाणविसुद्धीविवजिया जे तवं विगिट्टमवि । कुवंति बाललेसा न होइ सा केवला सुद्दी॥१८॥ ६॥१४२१ ॥ एवं सरागसंलेहणाविहिं जइ जई समायरइ । अज्झप्पसंजयमई सो पाबइ केवलं सुद्धिं ॥१८॥ बलं संलिख शरीरं ॥ १८० ॥ विविधाभिश्च प्रतिमाभिर्वा बलवीर्य यदि संप्रभवति मुखाय । ता अपि न याधन्ते यथाक्रमं संलिग्यमाने ॥ १८१ ॥ षण्मासाञ्जपन्या उत्कृष्टा द्वादशेय वर्षाणि । आचाम्लं तत्र च महर्षिरुत्कृष्टं धुवते ।। १८२ ।। पटाष्टमदशमद्वादशेभ्यो भक्तभ्यचित्रकष्टेभ्यः । मिर्त लघु आहारं कुरुष्वाचामाम्ल विधिना ।। १८३ ॥ परिवर्धितोपधानः भन्मस्नायुविकट पांचलिकटीकः । संलिखित-" तनुशरीरः अध्यात्मरतो मुनिनित्यं ।। १८४ ॥ एवं शरीरसंलेखनाविधि बहुविधमपि स्पृशन । अध्यवसानविशुद्धि (प्रति) क्षणमपि ननो मा| प्रमादीः ।। १८५ ।। अध्यवसायविशुद्धिविवर्जिता ये तपो विकृष्ट मपि । कुर्वन्ति धाललेश्या न भवति सा संपूर्णा शुद्धिः ।। १८६ ।। एनं सरागसंलेखनाविधि यदि यतिः समाचरति । अध्यात्ममतिसंयुतः स प्रायोति केवलां शुद्धि ॥ १८७ ॥ निखिलः स्पर्शयितव्यः | -------- दीप अनुक्रम [१८०] ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१८८]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१८८|| दीप ३॥ १४२२ ॥ निखिला फासेयवा सरीरसलेहणाविही एसा । इत्तो कसायजोगा अज्झप्पविहिं परम बुक ॥ १८८ ॥ १४२३ ।। कोहं खमाइ माणं मद्दवया अजवेण मायं च । संतोसेण व लोहं निजिण चत्तारिवि कसाए ॥ १८९॥ १४२४ ॥ कोहस्स व माणस्स व मायालोमेसु वा न एएसि। बबई वसं खणपि हदग्गइगइबहूणकराणं ॥ १९० ॥ १४२५ ॥ एवं तु कसापरिंग संतोसेणं तु विझवेयहो । रागद्दोसपबत्ति बजे माणस्स विज्झाइ ॥ १९१ ॥ १४२६ ।। जावंति केइ ठाणा उदीरगा हुंति हु कसायाणं । ते उ सपा वर्जये। विमुत्तसंगो मुणी विहरे ॥ १९२ ॥ १४२७ ।। संतोवसंतधिइमं परीसहविहिं व समहियासंतो । निस्संगपाइ सुविहिय! संलिह मोहे कसाए य ॥ १९३ ॥ १४२८ । इटाणिटेसु सया सद्दफरिसरसरूवगंधेहिं । सुहदुक्क निविसेसो जियसंगपरीसहो विहरे ॥ १९४ ॥ १४२९ ।। समिईसु पंचममिओ.जिणाहि तं पंच इंदिए सुट्ट। शरीरसंलेखनाविधिरेषः । अतः कपाय(जय)योग्यमध्यात्मविधि परमं वक्ष्ये ॥ १८८ ॥ क्रोधं शमया मानं मार्दवेन आर्जवेन मायां च । संतोपेण च लोभं निर्जय चतुरोऽपि कपायान् ॥ १८९१। क्रोधस्य च मानव च मायालोभयोश्च नैतेषां । प्रजति वर्श क्षणमपि दुर्गतिगति(प्राप्ति)वर्धनकराणाम् ॥ १५० ॥ एवं तु कषायानिः संतोषेण तु विध्यापक्निव्यः । रागद्वेषप्रवृत्ति वर्जयतो विध्याति ।। १९१ ॥ यावन्निता कानिचित् स्थानानि उदीरकाणि भवन्ति कषायाणां । तानि सदा वर्जयन् विमुक्तसंगो मुनिर्विहरेत् ।। १९२ ।। शान्त उपशान्त धृतिमान परीपविधि समध्यासयन् । निस्संगतया सुविहित ! संलिख कवायान् मोहं च ॥ १९३॥ इष्टानिष्टेषु सदा शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेपुरा। 18 सुखदास्यनिर्विशेषो जितसंगपरीपहो विहरेः ।। १९४ । समितिषु पंचसु समितो जय त्वं पंचेन्द्रियाणि सुत्र । प्रिभिगार रहिलो भवति । अनुक्रम [१८८] wwjauwithimire ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [१९५]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया % मरणस % प्रत सूत्रांक ||१९५|| पइण्णय- तिहिं गारवेहि रहिओ होह तिगुत्तो य दंडेहि ॥ १९५ ॥ १४३० ॥ सन्नासु आसबेनु अ अ रुद्दे अतं विसु- कषायरागदसए १० द्वप्पा । रागहोसपवंचे निजिणिउं सबणोजुत्तो ॥ १९३ ॥ १४३१ ॥ को दुक्लं पाविजा? कस्स य सुक्खेहि द्वेषनिग्रहः विम्हओ हुजा? । को व न लभिज मुक्खं ? रागहोसा जड़ न हुजा ॥ १९७ ॥ १४३२ ॥ नवि नं कुणइ | माही अमित्तो सुद्द विय विराहिओ समत्थोवि । जं दोवि अनिग्गहिया करंति रागो य दोसो य ॥१९८।।१४३३।। तं मुयह रागदोसे सेयं चिंतेह अप्पणो निच्च । ज तेहि इच्छह गुणं तं बुकह यहुतरं पच्छा ॥११९ ॥ १४३४ ॥18 [४इहलोए आयासं अयसं च करिति गुणविणासं च । पसवंति य परलोए सारीरमणोगए दुक्खे ॥ २००॥ 8॥१४३५ ॥ धिद्धी अहो अकजं जं जाणतोऽवि रागदोसहि । फलमजलं कड्यरसं नं चेय निसेवए जीवो ॥२०१॥१४३६ ॥ तं जइ इच्छसि गंतुं तीरं भवसायरस्स घोरस्स । तो तयसंजमभंडं सुविहिय ! गिण्हाहि त्रिगुप्तश्च दण्डेषु ।। १९५ ।। संज्ञासु आश्रवेषु च आसे रौद्रे च त्वं विशुद्धात्मन्! । रागद्वेषप्रपंचान् निजेतुं सत्रण ! उद्युक्तो (भव) टा। १९६ ॥ को दुःखं प्राप्नुवीत ? कस्य वा सौख्यैर्विस्मयो भवेत् । को वा न लभेत मोक्षं ? रागद्वेषो गदि म स्याताम् ।। १९७१ नैव तत् करोति अनित्रं सुप्पपि विराडः सनथर्थोऽपि । यद् द्वावपि अनिगृहीनौ कुरुतो रागश्च द्वेषश्च ।। १५८ ॥ तन् मुन्नत रागद्वेषौ | माश्रयः चिन्तयत आत्मनो नित्यम् । यं तान्यामिनछत गुणं तस्माद्भातरं पश्चात् लभध्वं ।। १९९ ॥ इह लोके आवासं अयशश्च कुरुतो गुणविनाशं च । प्रमुबाते प परलोके च शारीरमनोगनानि दुःखानि ।। २०७॥ धिग धिग् अहो अकार्य यन् जानानोऽपि रागद्वेषा-ICIT१०९ आवाम् । फलमतु कटुकरसं नावेब निपेव जीयः ॥ २०१॥ तद् यदीच्छसि गन्तुं तीरं भवसागरस्य बोरस्य । यहि सपःसंयमभाण्डं -*-0-950% दीप CALocoom अनुक्रम -* [१९५] -* -* JAMEReatifiliminalittle ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||202|| दीप अनुक्रम [२०२] प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [२०२]--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३३], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया Ja Edustal “मरणसमाधि” - तुरंतो ॥ २०२ ॥ १४३७ ॥ बहुभयकरदोसाणं सम्मत्तचरितगुणविणासाणं । न तु वसमागंत रागद्दोसाण -पाचाणं ॥ २०३ ॥ १४३८ ॥ जं न लहइ सम्मतं लद्भूगवि जं न एह बेरग्गं । विसयसुहेसु य रखड सो दो| सो रागदोसाणं ॥ २०४ ॥ १४३९ ।। भवसयसहस्सदुलहे जाइजरामरणसागरुत्तारे । जिणवग्रणम्मि गुणागर खणमधि मा काहिसि मायं ॥ २०५ || १४४० ॥ दबेहिं पज्जबेहि य ममत्तसंगेहिं सुहृवि जियप्पा । निष्पणयपेमरागो जइ सम्मं नेइ मुक्खत्थं || २०६ || १४४१ ॥ एवं कयसंलेहं अभितरवार संदेहे संसारमुक्खबुद्धी अनियाणो दाणि विहराहि ॥ २०७ ।। १४४२ ।। एवं कहिय समाही तहविह संवेगकरणगंभीरो । आउर चक्खाणं पुणरवि सीहावलोएणं ।। २०८ || १४४३ || न हु सा पुणरुतविही जा संवेगं करेइ भण्णंती उपक्खाणे तेण कहा जोइया भुजो ॥ २०९ ॥। १४४४ ॥ एस करेमि पणामं तित्थपराणं सुविहिन ! गृहाग त्वरमाणः || २०२ || बहुभयङ्करदोषयोः सम्यक्त्वचारित्रगुणविनाशकयोः । न वशमागन्तव्यं रागद्वेषयोः पापयोः ॥ २०३ ॥ यन्न लभते सम्यक्त्वं लब्धाऽपि यत् नैति वैराग्यम् । विषयसुखेषु च रज्यति स दोषो रागद्वेषयोः || २०४ || भवशतसइस्रदुर्लभे जातिजरः मरणसागरोत्तारे जिनवचने गुणाकर! क्षणमपि मा कार्षीः प्रमादम् ।। २०५ ।। द्रव्यैः पर्यायेश्व ममत्वसंगैश्च | सुपि जितात्मा स्थान् । निष्यणयप्रेमरागो यदि सम्यग् प्राप्नोति मोक्षार्थम् ॥ २०६ ॥ एवमभ्यन्तरबाह्यसंलेखनया कृतसंलेखनः । संसारमोक्षबुद्धिरनिदान इदानीं बिहर || २०७|| एवं कथितसमाधिकस्तथाविध संवेगकरणगंसीरः । आतुरप्रत्याख्यानं पुनरपि सिंहावलोकन (करोति ) ||२०८ || नैव स विधिः पुनरुक्तः (स्याद्) यः संवेगं भण्यमानः करोति आतुरप्रत्याख्याने वेन कथा योजिता भूयः ।। २०९ ।। एप करोमि Far P&P Use Only अथ आतुरप्रत्याख्यान आदि वर्णयते ~32~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२१०]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२०८|| X पहाणय-1 अणुत्तरगईणं । सर्वेसि च जिणाणं सिद्धाणं संजयाणं च ॥ २१० ।। १४४५ ॥ ज किंचिवि दुचरियं तमहं। प्रमादत्यादसए १० निंदामि सबभावणं । सामाइयं च तिविहं तिविहेण करेमऽणागारं ।। २११ ॥ १४४६ ॥ अम्भितरं च तह लिगः उपध्यामरणस- बाहिरं च उचहीं सरीर साहारं । मणवयणकायतिकरणसुद्धोऽहं मित्ति पकरेमि ।। २१२ ॥ १४४७ ॥ बंधपओ-11 दित्यागः माही 18सं हरिसं रइमरई दीणयं भयं सोगं । रागद्दोस विसायं उस्सुगभावं च पयहामि ॥ २१३ ॥ १४४८ ॥ रागेण18 आत्माव दोसेण व अहवा अकयन्नुधा पडिनिवेसेणं । जो मे किंचिवि भणिओ तमहं तिविहेण खामेमि ।। २१४ ॥ लंबन ॥११॥ "IO॥१४४९॥ सबेसु य दचेसु य उवडिओ एस निम्ममत्ताए। आलंबणं च आया दंसणनाणे चरित्ते या॥२१॥ ₹१४५० ।। आया पचवाणे आया मे संजमे तवे जोगो। जिणवधणविहिविलग्गो अवसेसविहिं तु दंसेहि। ॥२१६ ॥१४५१ ॥ मूलगुण उत्तरगुणा जे मे नाराहिया पमाएणं । ते सवे निंदामि पडिकमे आगमिस्साणं प्रणाम तीर्थफरेभ्यः अनुत्तरगतिभ्यः । सर्वेभ्यश्च जिनेभ्यः सिद्धेभ्यः संयतेभ्यश्च ॥ २१ ॥ यत्किंचिदपि दुश्चरितं तदहं निन्दामि। सर्वभावेन । सामायिक च त्रिविध निविधेन करोम्यनाकारं ।। २११ ॥ अभ्यन्तरं च तथा यायं च उपधिं शरीरं साहार (व्युत्मज्य) मनोवचनकायैः त्रिकरणशुद्धोऽहं प्रकरोमि (मैत्री ) इति ॥२१२।। बन्धं प्रदेष हर्ष रतिमरति दीनतां भयं शोकं । रागद्वेषौ विपादं उत्सुकभावं च प्रजहामि ॥ २१३ ।। रागेण वा द्वेषेण वा अथवा अकृतज्ञतया प्रति निवेशेन वो मया किञ्चिदपि भणितः तमहं त्रिविवेन श्रमयामि ॥ २१४ ।। सर्वेषु च द्रव्येषु च निर्ममत्वाय एष उपस्थितः (मम)। आलम्बनं चात्मा दर्शनज्ञाने चारित्रं च ।। २१५ ।। आत्मा ॥११० प्रत्याख्यानं आत्मा मे संयमस्तपः योगः । जिनवचनविधिविलनः अवशेषविधि तु दर्शय ।। २१६ ।। मूलगुणा उत्तरगुणा ये मया नारा * दीप अनुक्रम [२०८] JanEluratianimmitiad ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२१८]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२१८|| ॥ २१७ ॥ १४५२ ॥ एगो सयकडाइं आया मे नाणदसणवलक्खो । संजोगलक्खणा खलु सेसा मे बाहिरा तभावा ॥ २१८॥१४५३ ॥ पत्ताणि दुहसयाई संजोगस्सा(वसा)णुएण जीवेणं । तम्हा अंणतदक्खं चयामि। संजोगसंबंध ॥ २१९ ॥ १४२४ ।। अस्संजममण्णाणं मिच्छत्तं सबओ ममत्तं च । जीवेसु अजीवसु प तं निंदे तं च गरिहामि ॥ २२० ।। १४५५ ॥ परिजाणे मिच्छत्तं सर्घ अस्संजमं अकिरियं च । सवं चेव ममत्तं चयामि सवं च खामेमि ॥ २२१ ।। १४५६ ॥ जे मे जाणंति जिणा अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । ते तह आलोएमि उचडिओ सबभावेणं ॥ २२२ ॥ १४५७ ।। उप्पन्ना उप्पन्ना माया अणुमग्गओ निहंतवा। आलोयणनिंदणग-IN दारिहणाहिं न पुणोत्ति या बियं ॥ २२३ ॥ १४५८ ।। जह यालो जपतो कजमकजं च उजु भणइ । तं तहा। दीप अनुक्रम [२१८] द्वाः प्रमादेन । तान् सर्यान् निन्दामि प्रतिक्राम्यामि आगमिष्यद्भवः ।। २१७ ।। एकः स्वयं कृतानि (भुङ्के) आत्मा मे शानदर्शनबलक्षः । संयोगलक्षणाः खलु शेषा बासा भावाः ॥ २१८ ।। प्राप्तानि दुःखदातानि संयोगवशानुगेन जीवेन । तस्मादनन्तदुःखं त्यज्ञामि। संयोगसम्बन्ध ।। २१९ ।। असंयममज्ञानं मिध्यात्वं सर्वेषु जीवेषु अजीवेषु च ममत्वं तन्निन्दामि तच गहें ।। २२० ॥ परिजानामि मिथ्यात्वं सर्वमसंयममक्रियां च । सर्वमेव ममत्वं त्यजामि सर्वच क्षमयामि ।। २२१ ॥ यान् मम जानन्ति जिना अपराधान् येषु २ स्थानेषु ताँस्तथाऽऽलोचयामि उपस्थितः सर्वभावेन ॥ २२२ ॥ उत्पन्ना उत्पन्ना माया अनुमार्गतो निहन्तम्या । आलोचननिन्दना-1 गाभिः न पुनरिति च द्वितीयम् ।। २२३ ॥ यथा बालो जल्पन कार्यमकार्य च अजुकं भणति । तत्तथा आलोचयितव्यं मायां Fot e le w no awareitram ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२२४]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया माही प्रत सूत्रांक ||२२४|| पइण्णय-18आलोयत्वं मायं मुत्तूण निस्सेसं ॥ २२४१४५९॥ सुबहुंपि भावसल्लं आलोएऊण गुरुसगासम्मि । निस्सल्लो दसए १० संथारं उवेइ आराहओ होइ ।। २२५ ॥ १४६० ।। अप्पंपि भावसल्लं जे णालोयंति गुरुसगासम्मि । धंतपि त्यागः मरणस- सुयसमिद्धा न हु ते आराहगा हुंति ॥ २९६॥१४६१।। नवि तं विसंच सत्थं च दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। | भावा Xजतं व दप्पउत्तं सप्पो व पमायओ कुविओ ॥ २२७ ॥ १४६२ ॥ जं कुणइ भावसलं अणुद्धियं उत्तमट्ठका-नाल्यो द्वारः हलम्मि | दुल्लहयोहीयत्तं अगंतसंसारियतं च ॥ २२८ ॥ १४६३ ।। तो उद्धरंति गारवरहिया मूलं पुणन्भव॥११॥ Pालयाणं । मिच्छादसणसल्लं मायासल्लं नियाणं च ॥ २२९॥ १४६४ ॥ कयपावोऽवि मणूसो आलोइय निदिप । |गुरुसगासे । होइ अइरेगलहुओ ओहरियभरुव भारवहो ॥ २३० ॥ १४६५ ।। तस्स य पायच्छितं जं मग्ग-13 है| विऊ गुरू उवासंति । तं तह अणुचरियई अणवत्थपसंगभीएणं ।। २३१॥ १४६६ ॥ दसदोसविप्पमुक्कं तम्हा *मुक्त्वा निःशेषाम् ॥ २२४ ।। सुबदपि भावशल्यमालोच्य गुरुसकाशे । निःशल्यः संस्तारकमुपैति(यः सः) आराधको भवति ।। २२५।। अल्पमपि भावशल्यं ये नालोचयंति गुरुसकाशे । बाढमपि श्रुतसमृद्धा नैव त आराधका भवन्ति ।। २२६ ॥ नैव तत् विषं च शत्रं च दुष्प्रयुक्तो वा करोति वैतालः । यत्रं वा दुष्पयुक्तं सर्पो वा प्रमादतः कुषितः ।। २२७ ।। यत्करोति भावशल्यं अनुदत उत्तमार्थकाले । दुर्लभवोधिकलं अनन्तसंसारिकत्वं च ।। २२८ ॥ तत उद्धरन्ति गौरवरहिता मूलं पुनर्भवलतानां । मिथ्यादर्शनशल्यं मायाशल्यं निदान ४ाच ॥ २२९॥ कृतपापोऽपि मनुष्यः गुरुसकाशे आलोच्य निन्दयित्वा । भवत्यतिरेकलघुः उत्तारितभर इव भारवाट् ॥ २३०॥ ॥१११॥ तस्य च प्रायश्चित्तं यन्मार्गविदो गुरवः उपदिशन्ति । तत्तथा अनुचरितव्यं अनषस्थाप्रसङ्गभीतेन ॥ २३१ ॥ दशदोषविषमुक्तं तस्मात् द्रा दीप अनुक्रम [२२४] NE F he ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||२३२|| दीप अनुक्रम [२३२] JE “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र १० (मूलं + संस्कृतछाया) - मूलं [२३२]--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया सर्व अमग्ग (गृह) माणेणं । जं किंचि कयमकळं आलोए तं जहावतं ॥ २३२ ॥ १४६७ ॥ सर्व पाणारंभ पञ्चक्खामित्ति अलियवयणं च । सर्व अदिन्नदाणं अन्यंभपरिग्गहं चैव ॥ २३३ ॥ १४६८ ॥ सवं च असणपाणं चउविहं जाय बाधिरा उबही । अभितरं च उबहिं जावज्जीवं वोसिरामि ॥ २३४ ॥ १४६९ || कंतारे दुभिक्खे आपके वा महया समुत्पन्ने । जं पालियं न भग्गं तं जाण पालणामुद्धं ॥ २३५ ॥। १४७० ॥ रागेण व दोसेण व परिणामेण व न दूसियं जं तु । तं खलु पञ्चक्खाणं भावविशुद्धं मुणेपवं ॥ २३६ ॥। १४७१।। पीयं थणअच्छीरं सागरसलिलाउ बहुयरं हुजा । संसारे संसरंतो माऊणं अन्नमन्नाणं ॥ २३७ || १४७२ ॥ नत्थ किर सो पएसो लोए बालग्गकोडिमित्तोऽवि । संसारे संसरंतो जत्थ न जाओ मओ वाऽवि || २३८|| १४७३।। चुलसीई किर लोए जोणीणं पमुह सयसहस्साई । इकिकमि य इसो अनंतखुत्तो समुत्पन्नो ॥ २३९ ॥ सर्वमगृहयता यत्किचिदपि अकार्यं कृतं तद्यथावृत्तमालोचयेत् ॥ २३२ ॥ सर्व प्राणारम्भं प्रत्याख्यामीति चालीकवचनं च । सर्वमदत्तादानमब्रह्म परिग्रहं चैव ॥ २३३ ॥ सर्वच अशनपानं चतुर्विधः यच बाह्योपधिः (तं)। अभ्यन्तरं च उपधिं यावज्जीवं व्युत्सृ जामि || २३४ ॥ कान्तारे दुर्भिक्षे आतङ्के वा महति समुत्पन्ने । यत्पालितं न भयं तत् (प्रत्याख्यानं ) जानीहि पालनाशुद्धम् ||२३५|| रागेण वा द्वेषेण वा परिणामेन वा न दूषितं यत्तु । तत्खलु प्रत्याख्यानं भावविशुद्धं ज्ञातव्यम् ॥ २३६ ॥ पीतं स्तनक्षीरं सागरसलिलाद् बहुतरं भवेत् । संसारे संसरता मातृणां अन्यान्यासाम् || २३७ ॥ नास्ति किल स प्रदेशो लोके बालामकोटीमात्रोऽपि । संसारे संसरन यत्र न जातो मृतो वाऽपि ॥ २३८ || चतुरशीतिः किल लोके यो निप्रमुखाणि शतसहस्राणि । एकैकस्मिंश्रेतोऽनन्तकृत्वः समुत्पन्नः ॥२३९॥ Far PP Use Only ~36~ www.by.g Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||२४०|| दीप अनुक्रम [२४०] “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [२४०]--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..... ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया परण्णय दस १० मरणस माही ॥ ११२ ॥ Jan Editionematic ।। १४७४ ।। उडुमहे तिरियम्मि य मयाणि बालमरणाणिऽणताणि । तो ताणि संभरंतो पंडियमरणं | मरीहामि ॥ २४० ॥ १४७५ ॥ माया मिति पिया मे भाया भज्जत्ति पुप्त धूया य एयाणिऽचिंतयंतो पंडि यमरणं मरीहामि ॥ २४१ ।। १४७६ ॥ मायापि संसारत्थेहिं पूरिओ लोगो । बहुजोणिनिवासीहिं न य ते ताणं च सरणं च ॥ २४२ ॥। १४७७ ॥ इको जायइ मरइ इको अणुहवह दुक्कयविवागं । इको अणुसरइ | जीओ जरमरणच उरगईगुलिं ॥ २४३ ॥। १४७८ ॥ उब्बेवणयं जम्मणमरणं नरपसु वेषणाओ य । एयाणि संभरंतो पंडियमरणं मरीहामि ॥ २४४ ॥ १४७९ ॥ इकं पंडियमरणं छिंदर जाईसयाणि बहुपाणि । तं मरणं मरियवं जेण मओ सुम्मओ (मुकओ) होइ ॥ २४५ ॥ १४८० || कइया णु तं सुमरणं पंडियमरणं जिणेहि पण्णत्तं । सुद्धो उद्वियसल्लो पाओवगमं मरीहामि ॥ २४६ ॥ १४८९ || संसारचक्कवाले सवेऽवि य पुग्गला ऊर्द्धमधस्तिरधिय मृतानि बालमरणानि अनन्तानि । ततस्तानि सारन् पण्डितमरणं मरिष्ये ॥ २४० || माता में इति पिता मे भ्राता भार्या इति पुत्रो दुहिता च । एतानि अचिन्तयन् पण्डितमरणं मरिष्ये ॥ २४१ ॥ मातापितृबन्धुभिः संसारस्यैः पूरितो लोकः । बहुयोनि निवासिभिर्न च ते त्राणं च शरणं च ॥ २४२ ॥ एको जायते म्रियते एकोऽनुभवति दुष्कृतविपाकं । एकोऽनुसरति जीवो जरामरणचतुर्गतिगुपिलं (भवम्) | २४२ ॥ उद्वेजकं जन्ममरणं नरकेषु वेदनाञ्च । एताः स्मरन् पण्डितमरणं मरिष्ये || २४४ || एकं पण्डितमरणं छिनत्ति जाविशतानि बहुकानि तेन मरणेन मर्त्तव्यं येन मृतः सुमृतः (मुक्तः ) भवति ॥ २४५ ॥ कदा तत् सुमरणं पण्डितमरणं जिनैः प्रज्ञप्तम् । शुद्ध उद्धृतशल्यः पादयोपगतो मरिष्ये ॥ २४६ ॥ संसारचकवाले सर्वेऽपि च पुद्रला मया बहुशः 1 Far Plate Use Only ~37~ प्रत्या ख्यानं भवभावना पंडितमरणं ॥ ११२ ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२४७]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२४७|| मा बहसो। आहारिया य परिणामिया य न य तेसु नित्तोऽहं ॥ २५७ ॥ १४८२ ॥ आहारनिमित्तेणं मच्छा!! वतिऽणत नरयं । सचित्ताहारविहिं तेण ज मणसाऽवि निच्छामि ॥ २४८ ॥ १४८३ ॥ तणकटेण व अग्गी| ४ालवणसमुद्दो नईसहस्सेहिं । न इमो जीवो सक्को तिप्पे कामभोगेहि ॥ २४९॥१५८४ ॥ लवणयमुहसामाणो दादप्परो धणरओ अपरिमिजो। न हुसको तिप्पेउं जीवो संसारियसुहेहिं ।। २९० ॥ १४८५ ।। कप्पतरूसंभ-18 वसु य देवुत्तरकुरुवंसपमूएसुं। परिभोगेण न तित्तो न प नरविजाहरसुरेसं ॥२५१ ॥ १४८६ ॥ देविंद-13 |चकवहितणाई रवाई उत्तमा भोगा । पत्ता अर्णतखुत्तो न यऽहं तित्तिं गओ तेहिं ।। २५२ ॥ १४८७ ।। पप वीरुकछुरसेसु य सामु महोदहीसु बहुसोवि । उववतो न य ताहा छिन्ना ते सीयलजलेहि ॥ २५ ॥ ॥१४८८ ॥ तिविहेणवि सुहमउलं जम्हा कामरइबिमयसुक्खाणं । यसोऽवि समणुभूयं न य तुह तण्हा आहारिताच परिणामिताश्च न च तैस्तृप्तोऽहं ।। २४७ ।। आहारनिर्मिनन मत्स्या प्रजन्ति अनुत्तरं नरकं । सचित्ताऽऽहारविधि तेन तु | मनसापि नेच्छामि ॥ २४८ ॥ तृणकावैरपिरिव नदीसहः लवणसमुद्र इव । नायं जीवः शक्यः तर्पयितुं कामभोगेः ॥ २४९ ॥ लवVणमुखसमानः दुप्पूरः धनरयोऽपरिमेयः । नैव शक्यः तर्पयितुं जीवः सांसारिकसुम्यः ।। २५० ॥ कल्पतरूसम्भवः देवकुरुत्तरकुरुप४ सूतैः । परिभोगेर्न तृप्तः न च नरविद्याधरमुरभवजैः ।। २५१ ॥ देवेन्द्रचक्रवर्तित्वानि राज्यानि उत्तमा भोगाः । प्राप्ता अनन्तकृत्वः | &ान चाहं तृप्रिगतस्तैः ॥ २५२ ॥ पक्षीरेक्षुरसेषु च स्वादु' 'महोदधिषु बहुशोऽपि । उत्पन्नो न च तृष्णा छिन्ना तब शीतलजलैः | M॥२५३ ॥ त्रिविधेनापि सुखमतुलं यस्मात् कामरतिविषयसौल्यैः । बहुशोऽपि समनुभूनं न च तव तृष्णा परिभिडन्ना ॥ २५५ ।। दीप ACCOCCANC+ अनुक्रम [२४७] JinEntimanmdhana ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||२५४|| दीप अनुक्रम [२५४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... दस १० पाय | परिच्छिणा ॥ २६४ ॥ १४८९ ॥ जा का पत्थणाओं कया मए रागदोसवसरणं । पडिवंघेण बहुविहा तं निंदे तं च गरिहामि ॥ २५५ ॥। १४९० || तूण मोहजालं छित्तूण य अट्टकम्मसंकलियं । जम्मणमरण रह भिन्तृण भवा णु मुद्दिहिसि ॥ २५६ ॥। १४९१ ॥ पंच य महवयाई तिविहं तिविहेण आरुहेऊणं । मणवयकायगुत्तो सज्जो मरणं पडिच्छित्रा (लहिजा ) ॥ २५७ ॥। १४९२ || कोहं माणं मायं लोहं पिज्जं तहेव दोसं च। चऊण अप्पमत्तो रक्खामि महाए पंच ।। २६८ ।। १४९३ ।। कलहं अभक्खाणं पेसुन्नपि य परस्स परिवार्य । परिवर्जितो गुत्तो रक्खामि महङ्घए पंच ।। २५९ ।। १४९४ ॥ किन्हा नीला काऊ लेसं झाणाणि अप्पसस्याणि । परिवर्जितो गुतो रक्खामि महङ्घए पंच ।। २६० ।। १४९५ ।। तेऊ पम्हं सुक्कं लेसा झाणाणि सुप्पसत्थाणि । उवसंपन्नो जुत्तो रक्खामि महदए पंच ।। २३१ ।। १४९६ ॥ पंचिंदियसंवरणं पंचैव निरंभि मरणस माही ॥ ११३ ॥ Esatinin “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [२५४]--- अथ 'पंचमहाव्रतस्य रक्षा' वर्णयते ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया या काचित् प्रार्थना कृता मया रागद्वेपवशगेन प्रतिबन्धेन बहुविधा तां निन्दे तां च गर्हे ॥ २५५ ॥ हत्वा मोहजालं हिरवा चाष्टकर्मशृङ्खयं। जन्ममरणारहट्टं भित्त्वा भवाद् मुच्यसे ॥ २५६ ॥ पञ्च च महात्रतानि त्रिविधं त्रिविधेनारोा । मनोवचनकाय गुप्तः सद्यो मरणं प्रतीप्सेत् ॥ २५७ ॥ क्रोधं मानं मायां लोभं प्रेम तथैव द्वेपं च यत्तवा अप्रमत्तः रक्षानि महात्रतानि पञ्च ॥ २०८ ॥ कलहं अभ्याख्यानं पैशुन्यमपि च परस्य परिवादं । परिवर्जयन गुप्तः रक्षामि महात्रतानि पञ्च ॥ २५९ ॥ कृष्णां नीला कापोती लेइयां ध्याने अप्रशस्ते परि० ।। २६० ।। तैजसीं पद्मां हां लेइयां ध्याने नुमास्ते उपसम्पन्नो युक्तः ० ॥ २६१ ॥ पचेन्द्रियसंवरणं पञ्चैव निरुद्ध्य काम False Cry ~39~ तेरभावः महाव्रतरक्षा ★ ॥ ११३ ॥ www.by. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२६२]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२६२|| ऊण कामगुणे। अचासायणविरओ रक्खामि महबए पंच ॥ २६२ ।। १४९७ ॥ सत्तभयविष्पमुक्को चत्तारि || निमंभिऊण य कसाए । अट्ठमयहाणजहो रक्खामि महबए पंच ।। २६३ ॥ १४९.८ ।। मणसा मणमञ्चविऊट वायासबेण करणसच्चेण । तिविहेण अप्पमत्तो रक्खामि महछा पंच ॥ २४॥ १४०० ।। एवं तिदंडविरओ तिकरणसुद्धो तिल्लनिस्सल्लो । तिविहेण अप्पमत्तो रक्खामि महया पंच ॥ २३५ ।। १५०० ।। सम्पत्तं समि|इओ गुत्तीओ भावणाओ नाणं च । उपसंपन्नो जुत्तो रक्खामि महाप पंच ।। २६६ ॥ १५०१ ॥ संगं परिजाणामि सल्लंपि य उद्धरामि तिविहेणं । गुत्तीओ समिईओ मज्झं ताणं च सरणं च ।। २६७ ॥ १५०२॥12 जह खुहियचकवाले पोपं रयणभरि समुद्दम्मि । निजामया धरिती कवरप(कर)णा बुद्धिसंपणा || २०८: ॥ १३०३ ॥ तवपो गुणभरियं परीसम्मीहि धणियमाइदं । तह आराहिति विऊ उवामऽवलंबगा दीप अनुक्रम [२६२] गुणान् । अन्याशातनाविरतः० ॥ २६२ ।। सप्तभयविप्रमुक्तः चतुरो निरुद्धय च कपायान । त्यक्ताष्टमस्थानः ।। २६३ ॥ मनसा मनःसत्यविन् वाचासत्येन करणसत्येन ( युक्तः ) त्रिविधेनाप्यतमत्तः ।। २६४ ।। एवं त्रिदण्डदिरतः त्रिकरणशुद्धः त्रिशल्य-. निःशल्य । त्रिविधेनाप्रमत्तः ।। २६५ ।। सम्यक्त्वं समितीः गुप्तीः भावना ज्ञानं च । उपसम्पन्नो युक्तः ॥ २६६ ॥ सङ्गं परिजानामि शल्यमपि चोद्धरामि त्रिविधेन । गुपयः समितयः मम त्राणं शरणं च ।। २६७ ।। यथा क्षुभितचकवाले समुद्रे रत्नभृतं पोतं । निर्यामका धारयन्ति कृतरचनाः ( करणाः) बुद्धिंसम्पन्नाः ॥ २६८ ।। तपःपोतं गुणभूतं परीपहोर्मिभिः वाढमाविष्टम ( धारयित्वा )। Jimtharitmanamadian अथ आराधना एवं उपदेश-आदि वर्णयेते ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२६९]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२६९|| दीप पडण्णय- धीरा ॥ २६॥१५०४ ॥ जइ ताव ते सुपुरिसा आयारोवियभरा निरवयक्खा । गिरिकहरकंदरगया साहंति | गया साहात उत्तमार्थ दसए १०पाय अप्पणो अटुं ॥ २७० ॥ १५०५ ॥ जह ताव सावयाकुलगिरिकंदरविसमंदुग्गमग्मेसु । घिदधणिययद्धकच्छादा सिद्धिः मरणस- साहति य उत्तम अदृ ।। २७१ ॥ १५०६॥ किं पुण अणगारसहायगेण वेरग्गसंगहबलेणं । परलोएण ण सका। परिकर्म माही संसारमहोदहि तरिउ ? ।। २७२ ॥ १५०७॥ जिणवयणमप्पमेयं महुरं कन्नामयं सुणताणं । सका हसार मज्झा साहेउं अप्पणो अहूँ ।। २७३ ।। १५०८ ॥ धीरपुरिसपण्णतं सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । धन्ना मिला॥११४॥ तलगया साहिती अपणो अटुं ॥ २७४ ॥ १५०९ ॥ याहेइ इंदियाई पुरमकारियपट्टचारिस्स । अकयपरि कम्म कीवं मरणेसु अ संपउत्तंमि ॥ २७५ ॥ १५१० ॥ पुखमकारियजोगो समाहिकामोऽवि मरणकालम्मि । टून भवह परीसहसहो विसयसुहपराइओ जीवो ॥ २७६ ॥ १५११ ॥ पुर्वि कारिपजोगो समाहिकामो य मर-10 उपदेशावलम्बका धीराः विदः नथाऽऽराधयन्ति ॥ २६९ ॥ यदि तावते सुपुरुषा आत्मारोपितभाराः निरपेक्षा गिरिकुहरकन्दरागताः साधयन्ति चात्मनोऽर्थम् ।। २७० ॥ यदि तावद् श्वापदाकुलगिरिकन्दराविषमदुर्गमार्गेषु । बाढं धृतिवद्धकपडाः उत्तमार्थ साधयन्ति ॥२७१॥ किं पुनरनगारसहायकेन वैराग्यसमाहवलेनापरलोकेन न शक्यः संसारमहोदधिस्तरीतुम् ॥ २७२ ॥ जिनवचनमप्रमेयं मधुरं कर्णामृतं शृण्वता साधुमध्ये आत्मनोऽर्थः साधयितुं', शक्य एच ॥२७३॥ धीरपुरुषप्रजप्तं सत्पुरुषनिसेवितं परमधोरं। आत्मनोऽर्थ धन्याः | शीलातलगताः साधयन्ति ॥ २७५ ।। बाधयन्ति इन्द्रियाणि पूर्व अकारितप्रतिष्ठाचारितस्य अकृतपरिकर्माण वीर्य मरणे सम्प्रयुक्ते ॥११४॥ ॥ २७५ ।। पूर्वमकृतयोगः समाधिकामोऽपि मरणकाले। न भवति परीपहसहः विषयसुखपराजितो जीवः ॥ २७६ ।। पूर्व कृतयोगः । DW INI अनुक्रम [२६९] 9- ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२७७]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२७७|| इणकालम्मि । होइ उ परीसहसहो विसयसुह निवारिओ जीवो ॥ २७७ ॥ १५१२ ॥ पुधि कारियजोगो अनि-RI याणो ईहिऊण सुहभावो । ताहे मलियकसाओ सजो मरणं पडिच्छिन्ना ॥ २७८ ॥ १५१३ ।। पावाणं पावाणं कम्माणं अप्पणो सकम्माणं । सका पलाइ जे तवेण सम्म पउत्तेणं ॥ २७९ ।। १५१४ ॥ इफ पंडियमरणं। |पडिवनइ सुपुरिसो असंभंतो। खिप्पं सो मरणाणं काहिइ अंतं अर्णताणं ॥ २८० ।। १५१५ ॥ किं तं पंडियमरण? काणि व आलंबणाणि भणियाणि? । एयाई नाऊणं किं आयरिया पसंसंति? ॥ २८१ ॥ १५१६ ॥ अणसणपाउबगमणं आलंयण झाण भावणाओ अ । एयाइं नाऊणं पंडियमरणं पसंसंति ॥ २८२ ॥१५१७॥ इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराइयपरझो। अकयपरिकम्म कीवो मुज्झइ आराहणाकाले ॥२८॥१५१८॥ लजाइ गारवेणं बहुसुयमएण वावि दुचरियं । जे न कहिंति गुरूणं न हु ते आराहगा हुंति ॥२८४॥१५१९॥ समाधि कामश्च मरणकाले । भवति तु परीषहसहः निवारितविषयसुखः जीवः ॥ २७७ ।। पूर्व कृतयोगः अनिदानः शुभभावान ईहयित्वा । तदा मस्तिकपायः सबो मरणं प्रतीप्सेत् ।। २७८ ॥ पापानामपि पापेभ्यः कर्मभ्यः आत्मना सकृतेभ्यः । शक्यः पलायितुं तपसा सम्यक् प्रयुक्तेन ॥२८९।। एकं पण्डितमरणं प्रतिपद्यते सुपुरुष: असंभ्रान्तः । क्षिप्रं सः अनन्तानां मरणानामन्तं करोति ॥२८॥ किं तत् पण्डितमरणं कानि वाऽऽलम्बनानि भणितानि । एतानि ज्ञात्वा कि आचार्याः प्रशंसन्ति ।। २८१ ।। अनशनं पादोपगमनं (मरणे)। आलम्बनानि ध्याने भावनाश एतानि ज्ञात्वा पण्डितमरणं प्रशंसन्ति ॥ २८२ ।। इन्द्रियसुखसाताकुलः घोरपरीषहपराजितः परास.स.२० यत्तः । अकृतपरिका लीवः मुद्दति आराधनाकाले ॥ २८३ ॥ लज्जया गौरवेण बहुश्रुतमदेन वा मारितमपि । ये न कथयन्ति दीप अनुक्रम [२७७] 3542 ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२८५]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२८५|| ICI पइण्णय-18 मुझइ दुपरकारी जाणइ मग्गंति पावए किसि। विणिगृहितो निदं तम्हा आलोषणा सेया ॥२८॥१५२०॥ अभ्युपतं दसए १०८ अग्गिम्मि य उदयम्मि य पाणेसु य पाणयीयहरिएसुं । होइ मओ संथारो पडिवजा जो(जई) असंभंतो मरणं मरास- २८६ ॥ १५२१ ॥ नवि कारणं तणमओ संधारो नवि य फासुपा भूमी। अप्पा खलु संथारो होइ विसुद्धो सस्तार माही मरंतस्स ।। २८७ ॥१५२२ ॥ जिणवयणमणुगया मे होउ मई प्राणजोगमल्लीणा । जह तम्मि देसकाले अमृद- जन |सको पए देहं ॥ २८८ ॥ १५२३ ॥ जाहे होइ पमत्तो जिणवयणरहिओ अणापत्तो । ताहे दियचोरा करेंति|| नमहिमा तवसंजमविलोमं ।। २८९ ॥ १५२४ ॥ जिणवयणमणुगयमई जबेलं होइ संवरपविट्ठो। अग्गी व वायसहिओ समूलडालं डहाइ कम्मं ॥ २९० ॥ १५२५ ।। जह डहाइ वायसहिओ अग्गी हरिएवि रुक्खसंघाए। तह पुरि-1 ॥१५॥x दीप अनुक्रम [२८५] 44444 गुरुभ्यः नैव तयाराधका भवन्ति ॥२८४॥ शुद्धयति दुष्करकारी जानाति मार्गमिति प्राप्नोति कीर्तिम् । विनिगूहयन् निन्दा तस्मादालोचना श्रेयसी ।। २८५ ।। अनी च उदके च प्राणेषु च प्राणवी जहरितेषु । भवति मृतस्य संस्तारकः प्रतिपद्यते यदि असंभ्रान्तः ।। २८६ ॥ नैव कारणं तृणमयः संस्तारकः नापि च प्रासुका भूमिः । आत्मा खलु संस्तारको भवति विशुद्धो म्रियमाणस्य ॥ २८७ ॥ जिनवचनानुगता| ध्यानयोगाश्रिता मम मतिर्भवतुं । यथा तस्मिन्नवसरेऽमूढसंझो देहं त्यजेयम् ॥ २८८ ॥ यदा भवति प्रमत्तः जिमवचनरहितः परायत्तः। तदा इन्द्रियचौराः कुर्वन्ति तपःसंयमप्रातिकूल्यम् ॥ २८९ ।। जिनवचनानुगतमतिः यस्यां वेलायां भवति संवरप्रविष्टः । वातसहितः का॥११५॥ अनिरिख समूलडालं कर्म दद्दति ॥ २९ ॥ यया वातस हितोऽग्निः हरितानपि वृक्षसहातान् । दहति तथा पुरुषकारसहितो शानी | Jimthitmanmadhana ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२९१+प्र०१]------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया % % प्रत सूत्रांक ||२९१|| सकारसहिओ नाणी कम्मं खयं नेइ ॥ २९॥१५२६ ॥ जह अग्गिमि व पयले खडपूलिय खिप्पमेव मामेइ । तह नाणीवि सकम्म खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥ २९२ ॥ १५२७ ॥ न हु मरणम्मि उवग्गे सको बारसविहो । सुपबंधो । सबो अणुचिंतेउं धंतपि समयचित्तेणं ॥ २९३ ॥ १५२८ ॥ इकम्मिवि जंमि पए संवेगं कुणा वीयरागमए । वच्चइ नरो अविग्धं तं मरणं तेण मरितम् ॥ २९४ ॥ १५२९ ॥ इकम्मिवि जम्मि पए संवेग कुणइ वीयरागमए । सो तेण मोहजालं दिइ अझप्पओगेणं ॥ २९५ ॥ १५३० ॥ जेण विरामो जापइ तं सतं सदायरेण करणिज्लं । मुबह हु ससंवेगी अणंतओ होइ असंवेगी ॥ २९६ ॥ १५३१ . धम्म जिणपण्णसं सम्मत्तमिणं सद्दहामि तिविहेणं । तसवायरभूयहियं पंथं निवाणमग्गस्स ॥१॥ (प्रत्यंतरेऽधिका) समणोऽहंति ४य पढमं बीयं सबत्य संजओमित्ति। सर्वच वोसिरामी जिणेहिं जं जं पडिकुटुं ॥ २९७ ॥ १५३२ ॥ मणसावि कर्म भयं नैति ।। २९१ ॥ यथा प्रबलोऽग्निः तृणपुलिकान क्षिप्रमेव मायति । तथा ज्ञान्यपि उच्छासमात्रेण स्वकर्मा क्षपयति ॥२९॥ नैव मरणे समीपगे शक्यो द्वादशविधः श्रुतस्कन्धः । सर्वोऽनुचिन्तयितुं बाढमपि समर्थचित्तेन ॥ २९३ ॥ एकस्मिन्नपि यस्मिन् पदे संवेगं 31करोति वीतरागमार्गे। प्रजति च नरोऽवित्रं तन्मरणं तेन मर्त्तव्यम् ।। २९४ । एकस्मिन् । सः तेन मोहजालं छिनत्ति अध्यात्मयोगेन |॥ २९५ ॥ येन विरागो जायते तत् तत् सर्वादरेण कर्त्तव्यम् । मुच्यते एव ससंवेगः असंवेगोऽनन्तको भवति ।। २९६ ॥ धर्म जिनप्रज्ञप्तं इदं सम्यक्त्वं च अधामि त्रिविधेन । प्रसवादरभूतहितं पन्धानं निर्वाणमार्गस्य (१०) श्रमणोमिति च प्रथम द्वितीयं सर्वत्र संयतोऽस्मीति । सर्वच व्युतम्जामि जिनैः यद् यद् प्रतिकृष्टम् ।। २९७ ॥ मनसाप्यचिन्तनीयं सर्व भाषयाऽभाषणीयं च । कायेन दीप अनुक्रम [२९१] 20- 22 awareitram ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२९८]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२९८|| पदण्णय अचिंतणिज्नं सच भासाइ अभासणिज्यं च । कारण य अकरणिलं वोसिरि तिविहेण सावजं ॥ २९८ ॥१५३३॥ संवेगपदं दसए १०1अस्संजमयोसिरणं उबहिविवेगो तहा उवसमा । पडिस्वजोगविरिओ खंतो मुत्तो विवेगो य ॥२९९।।१५३॥ प्रत्याख्यानं मरणस-1एवं पञ्चक्खाणं आउरजणं आवईसु भावेणं । अन्नतरं पडियनो जपतो पायइ समाहिं ॥३०॥ १५३५ ॥ मम माही मंगलमरिहंता सिद्धा साहू सुयं च धम्मो य । तेसिं सरणोवगओ साचलं बोसिरामित्ति ।। ३०१ ॥१५३६॥ (इति सिरिमरणधिभत्तिसुए संलेहणासुयं सम्मत्तं ॥२॥ अध आराहणासुपं लिख्यते इति प्रत्यन्तरेऽधिकं ॥)। ॥११६॥ सिद्धे उयसंपनी अरिहते केवली य भावेण । इत्तो एगतरेणवि पएण आराहओ होइ ।। ३०२ ॥ १३७ ॥ समुइनवेयणो पुण समणो हिययम्मि किं निवेसिज्जा? । आलंबणं च काई काऊण मुणी दुहं सहइ ? ॥३०॥ ॥१५३८ । नरएसु अणुसरेसु अ अणुत्तरा बेयणाओ पसाओ । बट्टनेण पमाए ताआवि अर्णतसा पत्ता दीप अनुक्रम [२९९] चाकरणीय व्युत्सृजामि त्रिविधेन सावधम् ॥ २९८ ॥ असंयमव्युत्सर्जनं उपधिविवेकश्च तथा उपशमश्च । प्रतिरूपयोगवीर्यवान् क्षान्तो | | मुक्को विविधश्च ॥ २५९ ॥ एतन् प्रत्याख्यानं आतुरजनः आपत्सु भावेनान्यतरत्प्रतिपन्नः (इदं) जस्पन प्राप्नोति समाधिम् | 81॥३०० ।। मम मालमईन्नः सिद्धाः साधवः थुनं च धर्मश्च । तेषां शरणोपगतः सावां व्युत्सृजामीति ।। ३०१ ॥ सिद्धानु पसंपन्नः अर्हतः केवलिनश्च भावेन । एपामेकतरेणापि पदेनाराधको भवति ॥३०२ ॥ समुदीर्णवेदनः पुनः श्रमणो हदये कि | निवेशयेत् ? । आलंधनानि च कानि कृत्वा मुनिर्दुःख सहते ? ॥ ३०३ ॥ नरफेषु अनुत्तरेषु च अनुत्तरा बेदनाः प्राप्ताः । प्रमादे | ॥११६॥ ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३०५]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३०५|| ४॥ ३०४ ॥ १५३९ ।। एवं सयं कयं मे रिणं व कम्मं पुरा असायं तु । तमहं एस धुणामी मणम्मि ससं निवे-15 है सिजा ॥ ३०५ ॥ १५४०॥ नाणाविहदुक्खेहि य समुइन्नेहि उ सम्म सहणिजं । न य जीयो उ अजीबो कयपुबो वेयणाईहिं ॥ ३०६ ॥ १५४१ ॥ अन्भुजय विहारं इत्थं जिणदेसियं विउपसत्यं । ना महापुरिससेवियं जं अब्भुजयं मरणं ॥ ३०७ ।। १५४२ ॥ जह पच्छिमम्मि काले पच्छिमतित्थपरदेसियमुपारं । पच्छानिच्छयपत्थं उचेइ अन्भुजयं मरणं ।। ३०८ ।। १५४३ ॥ छत्तीसमवियाहि य कडजोगी (जोग) संगहयलेणं । उजमिळणं वारमविहेण तवनियमठाणेणं ॥३०९॥ १५४४ ॥ संसाररंगमज्झे घिवलसन्नदबद्धकच्छाओ 112 पाहतूण मोहमहं हराहि आराहणपडागं ।। ३१० ॥ १५४५॥ पोराणयं च कम्मं खवेद अन्नन्नबंधणायाई (पं)118 -482 दीप अनुक्रम [३०६] वर्तमानेन पुनला अनंतशः प्राप्तव्याः ॥ ३०४॥ एतत् स्वयंकृतं मया ऋणमिव कर्म पुरा असातं तु । तदहं एष धुनामि (एवं) मसि सत्सं निवेशयेत् ।। ३०५ ॥ नानाविधेषु दुःखेषु समुदीपु सम्यक सहनीयम् । नैव जीवस्त्वजीवः कृतपूर्वो बेदनादिभिः ।। ३०६ ॥ अभ्युवतं विदारं एवं जिनदेशितं विद्वत्प्रशस्तम् । ज्ञात्वा महापुरुषसेवितं यत् (तद् सेय) अभ्युषतं मरणं ॥ ३०७ ॥ यथा पधिमे | काले पश्चिमतीर्थकरदेशितमुपकारं पश्चात् निश्चयपथ्य उपेति अभ्युद्यतं मरणम् (तथा कुरु) ॥ ३०८ ॥ षट्त्रिंशता आर्तजनकैः (उपप-| रोषहोपसर्गः ) कृतयोगी योगसंपदवलेन । उद्यम्य द्वादशविधेन तपोनियमस्थानेन । ३०९ ॥ संसारंगमध्ये धृतिबलसमषिकक्षाः ।। दत्वा मोहमहं हराराधनापताकाम ।। ३१० ॥ पुराणं च कर्म क्षपयति अन्यान्यवन्धनायातम् । कर्मकल्मषवही छिनत्ति संचारक मिEिRIEmatathetry ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३११]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया A पताका प्रत सूत्रांक पइण्णय- कम्मकलंकलवल्लिं सिंदइ संथारमारूदो ॥ ११ ॥ १५४६ ॥ धीरपुरिसेहिं कहियं सप्पुरिसनिसेवियं परमदसए १०४ी घोरं । उत्तिपणोमि हु रंग हरामि आराहणपडागं ॥ ३१२ ॥ १९४७ ॥ धीर ! पडागाहरणं करेहि जह तसि मरणस- देमकालम्मि । सुत्सत्यमणुगुणितो घिइनिचलबदकच्छाओ ॥ ३१३॥१५४८ ॥ चत्तारि कसाए तिमि गारवे | माही पंच इंदियग्गामे । जिणिर्ड परीसहसहे (सहेविय) हराहि आराहणपडागं ॥ ३१४ ॥१५४९॥ न य* मणसा चिंतिज्ञा जीवामि चिरं मरामि व लहुँति । जइ इच्छसि तरि जे संसारमहोअहिमपारं ॥ ३१५ ॥ M॥ १५५० ॥ जई इच्छसि नीसरिउं सोर्सि चेव पाचकम्माणं । जिणवपणनाणदंसणचरित्तभावुजुओ जग्ग ॥ ३१६ ॥ १५५१ ।। दसणनाणचरित्ते तवे य आराहणा चउक्खंधा । सा चेव होइ तिविहा उक्कोसा मज्झिमजहण्णा ।। ३१७ ॥ १५९२ ।। आराहेऊण विऊ उक्कोसाराहणं चउक्खधं । कम्मरयविप्पमको तेणेव भवेण दीप अनुक्रम [३१२] CAAACe मारूदः ।। ३११॥ धीरपुरुषैः कषितं सत्पुरुषनिषेवितं परमघोरम् | उत्तीर्णोऽस्मि रजं हराम्याराधनापताकाम् ॥ ३१२ ।। धीर! पताकाहरणं कुरु (एव) यथा तस्मिन देशकाले । सूत्रार्यमनुगुणयन धृतिनिश्चलबद्धकक्षाकः ।।३१३॥ चतुरः कषायान त्रीणि गौरवाणि पंचेन्द्रियमामान । जित्वा परीषहानपि प हराराधनापताकाम् ॥३१४|| न च मनसा चिन्तयेत् जीवामि चिरं म्रिये वा लघु इति । यदीच्छसि | तरीतुं संसारमहोदधिमपारम् ॥ ३१५ ॥ यदीच्छसि निस्तरीतुं सर्वेभ्यश्चैव पापकर्मभ्यः । जिनवचनज्ञानवर्शनचारित्रभावोधतो जागृहि १॥ ३१६ ।। दर्शने काने पारित्रे तपसि चाराधना चतुःस्कन्धा। सैव भवति त्रिविधा उत्कृष्टा मध्यमा जपन्या ।। ३१७ ॥ भाराव्य ॥११७ ॥ Jantstaniwomasana ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३१८]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३१८|| सिजिमला ॥ ३१८ ॥ १९५३ ॥ आराहेऊण विऊ मजिसमआराहणं चउक्खधं । उक्कोसेण य चपरो भवे उद्र गंतूण सिजिसज्जा ।। ३१९ ॥ १५५४ ॥ आराहेऊण विऊ जहन्नमाराहणं घउक्खधं । सत्स? भवग्गहणे परिजाणामेऊण सिजिसजा ॥ ३२० ॥ १५५५ ॥ धीरेणवि मरियवं काउरिसेणवि अवस्स मरियछ । तम्हा अवस्सट्रिमरणे घरं खुधीरसणे मरि ॥ ३२१ ॥ १५५६॥ एवं पञ्चक्खाणं अणुपालेऊण सुविहिओ सम्म । बेमाणि-18 ओष देवो हविल अहवावि सिज्झिज्जा ॥ ३२२ ।। १५५७ ॥ एसो सपियारकओ उवकमो उत्तमढकालम्मि ।। इत्तो उ पुणो बुच्छं जो उ कमो होइ अविपारे ॥३२३ ॥१५५८ ॥ साहू कयसलेहो विजिपपरीसहकसायसंताणो । निजवए मग्गिजा सुपरपणस(र)हस्सनिम्माए ।। ३२४ ॥ १५५९ ॥ पंचसमिए तिगुसे अणिस्सिए +CA दीप अनुक्रम [३१९] % 4 विद्वान उत्कष्टामाराधनां चतुःस्कन्धाम् । कर्मरजोचिप्रमुक्तस्तेनैव भवेन सिध्येत् ॥ ३१८ ॥ आराध्य विद्वान् मध्यमामाराधनां चतुःस्कन्धाम् । उत्कर्षेण च चतुरो भवांस्तु गत्वा सिध्येत् ॥ ३१९ ॥ आराध्य विद्वान् जघन्यामाराधनां चतुःस्कन्धाम् । सप्ताष्टौ भव-| पाहणानि परिणमप्य सिभ्येत् ॥ ३२० ॥ धीरेणापि मर्त्तव्यं कापुरुषेणाप्यवश्यमत यं । तस्मादवश्यमरणे वरं खलु धीरत्वेन मर्तुम् ॥ ३२१ ।। पतात् प्रत्याख्यानमनुपाल्य सुविहितः सम्यक् । वैमानिको वा देवो भवेत् अथवापि सिध्येत् ।। ३२२ ॥ एष सविचारकृत उपक्रम पत्तमार्थकाले । इतस्तु पुनर्वक्ष्ये यस्तु क्रमो भवत्यविचारः ।। ३२३ ।। साधुः कृतसंलेखनो विजितपरीषहरूपायसंप्तानः । निर्या-15 मकान मायेत् सुतरनरहस्यनिष्णातान् ॥ ३२४ ॥ पश्चसमितानिगुमान् अनिभितान् रागद्वेषमवरहितान् । कृतयोगिनः कालझान शान-4 lantastmaramanana ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३२५]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३२५|| पइण्णय- रागदोसमयरहिए । कडजोगी कालण्णू नाणचरणदंसणसमिद्धे ॥ ३२५ ॥ १५६० ॥ मरणसमाहीकुसले इंगि-1 दसए १०ीयपत्थियसभाववेत्तारे । यवहारविहि विहिण्णू अब्भुज्जयमरणसारहिणो ॥ ३२६ ॥ १५६१ ॥ उवएसहेउ-18निर्यामकाः मरणस- कारणगुणनिसढा णायकारणविहाणू । विष्णाणनाणकरणोबयारसुयधारणसमत्थे ॥ ३२७ ।। १५६२ ॥ एगमाही तगुणे रहिया बुद्धीइ चउबिहाइ उववेया। छंदण्णू पवइया पञ्चक्खाणंमि य विहण्णू ॥ ३२८॥ १५६३ ॥ दुण्हं ॥११८॥ आयरियाणं दो वेयावचकरणनिजुत्ता । पाणगवेयावचे तवस्सिणो वत्ति दो पत्ता ॥ ३२९ ॥ १५६४ ॥ उच-18 सण परिवत्तण उच्चारुस्सास(व)करणजोगेसुं। दो वायगत्ति णज्जा अ(उ प्र.)सुत्तकरणे जहन्नेणं ॥३३०॥१५६५॥ असद्दहवेयणाए पायचित्ते पडिक्कमणए य । जोगायकहाजोगे पञ्चक्खाणे य आयरिओ ॥ ३३१ ॥ १५६६ ॥ कप्पाकप्पविहिन दुवालसंगसुयसारही सर्व । छत्तीसगुणोवेया पच्छित्तवियारया धीरा ॥ ३३२ ॥ १५६७ ॥ दीप *-945 अनुक्रम [३२६] चरणदर्शनसमृद्धान् ॥ ३२५ ।। मरणसमाधिकुशलान् इङ्गितप्रार्थितस्वभाववेत्तुन् । व्यवहारविधिविधानज्ञान अभ्युवतमरणसारथिनः || ॥ ३२६ ।। उपदेशहेतुकारणगुणक्षमान न्यायकारणविधानज्ञान् । विज्ञानज्ञानकरणोपचारभुतधारणासमर्थान् ।। ३२७ ।। एकान्तेन गुणेषु ६ स्थितान् बुद्ध्या चतुर्विधयोपपेतान् । छन्दोज्ञान प्रबजितान् प्रत्याख्याने च विधिज्ञान् ।। ३२८ ।। द्वयोराचार्ययो वैयावृत्त्यकरणनियुक्तौ । जापानकायावृत्ये तपस्विनो वेति द्वी प्राप्तौ ।। ३२९ ॥ उद्वर्तनपरिवर्तनोच्चारोत्सावकरणयोगेषु । द्वौ वाचको इति शेयो सूत्रकरणे जघ न्येन ॥ ३३० ।। अश्रयाने वेदनायां प्रायश्चित्ते प्रतिक्रमणे च । योगात्मकथायोगे प्रत्याख्याने च आचार्यः ॥ ३३१ ॥ कल्प्याकल्य ॥११८॥ *- CARS JmElandonmeindiane arresphatateDIA - ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३३३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३३३|| एए ते निजवया परिकहिया अट्ठ उत्समम्मि । जेसिं गुणसंखाणं न समत्था पायया बुत्तुं ॥ ३३३ ॥ १५६८।। एरिसयाण सगासे सूरीणं पवयणप्पवाईणं । पडिवजिज महत्थं समणो अन्भुजयं मरणं ॥ ३३४ ॥ १५६९॥ आयरियउवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य । जे मे किया सकाया (जंमि कसाओ कोई विप्र.) सो सातिविहेण खामेमि ॥ ३३५ ॥ १५७० ॥ सबस्स समणसंघस्स भावओ अंजलि करे सीसे । सर्व खमावइत्ता खमामि सबस्स अपि (खमिन सघस्सवि सर्पमि प्र०)॥ ३३६ ॥ १५७१ ॥ गरहित्ता अप्पाणं अपुणकारं हापरिकमिसाण । नाणम्मि दसणम्मि अचरित्तजोगाइयारे य ॥३३७॥ १५७२ ॥ तो सीलगुणसमग्गो। भाअणुवहयक्खो बलं च थामं च । विहरिज तवसमग्गो अनियाणो आगमसहाओ ॥ ३३८ ॥ १५.७३ ॥ * दीप -*- * 2000-56-0-55-4550805657 अनुक्रम विधिना द्वादशानभुतसारथिनः सर्वथा । पशिद्गुणोपपेताः प्रायश्चित्तविशारदा धीराः ॥ ३३२ ॥ एते तुभ्यं निर्यामकाः परिकथिना | अष्ट उत्तमायें । येषां गुणसंख्यीनं न समर्थाः प्राकृता वकृम्।।३३३॥ एतादृशानां सकाशे सूरीणां प्रवचनप्रवादिनाम् । प्रतिपयत महा श्रमणोऽभ्युवतं मरणम् ॥ ३३४ ॥ आचार्यान उपाध्यायान् शिष्यान साधर्मिकान् कुलगणौ च । ये मया कृताः कषायिताः (यस्मिन् | कषायः कोऽपि ) सर्वान् त्रिविधेन क्षमयामि ।। ३३५ ॥ सर्वस्मै श्रमणसंघाय भावतोऽखलिं कृत्वा शीर्षे । सर्व क्षमयित्वा क्षम्यामि | सर्वस्याहमपि (क्षमेत सर्वस्यापि खस्मिन् ) ॥ ३३६ ॥ गर्हयित्वाऽऽत्मानं अपुनःकारं प्रतिक्रम्य । ज्ञाने च दर्शने च चारित्रयोगातिचारे । च ॥ ३३ ॥ ततः शीलगुणसममः अनुपहताक्षो बलं च स्थाम च । (अपेक्ष्य ) विहरेत् तपःसमग्रोऽनिदान आगमसहायः ।।३३८॥ APRIsridwON [३३४] ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||३३९ || दीप अनुक्रम [ ३४० ] मरणस माही ॥ ११९ ॥ प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [३३९]--- ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया Estima “मरणसमाधि” मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... दसए १० पणय- * तवसोसियंगमंगो संधिधिराजालपागडसरीरो। किच्छाहियपरिहत्थो परिहरइ कलेवरं जाहे ॥ ३३९॥१५७४ ।। पचक्वाइ य ताहे अननसमाहिपत्तियंमिती । तिविहेणाहारविहिं दियसुग्गड़ काय पाईए || ३४० ।। १५७५।। इहलोए परलोए मिरासओ जीविए अ मरणे य। सायानुभवे भोगे जस्स य अवहट्टणाऽईए || ३४१ || १५७६ || निम्ममनिरहंकारो निरासयोऽकिंचणो अपडिकम्मो वोसहविसढुंगो चचियसेण देहेणं ॥ ३४२ ॥। १५७७।। तिविहेणवि सहमाणो परीसहे दूसरे अ ऊसग्गे । विहरि विसयतहारयमलमसुमं विहुमाणो ॥१४३॥ ।। १५७८ ॥ नेहखए व दीवो जह स्वयमुवणेड़ दीववहिम्मि (हिंपि) । खीणाहारसिणेहो सरीरयहिं तह स्ववेइ ||३४४ ।। १५७९ ॥ एव परझा असई परकमे पुवभणियसूरीणं । पासम्मि उत्तमट्ठे कुजा तो एस परिक्रम्मं ॥ ३४५॥ - तपः शोषितांगोपांगः प्रकटसन्धिशिराजालशरीरः । कृच्छ्राहितनैपुण्यः (कुः पूर्णः ) परिहरति कलेवरं यदा ॥ ३३९ ॥ प्रत्याख्याति च तदा अन्याऽन्यसमाथिप्रत्ययमिति । त्रिविधेनाहारविधिं उदितसुगतिकायप्रकृतिकः ॥ ३४० ॥ इहलोके परलोके च निराश्रयो जीविते च मरणे वा । सातानुभवे मोगे यस्य चारहरणा (परित्यजना ) ऽतीते ॥ ३४१ ।। निर्ममनिरहंकारो निराश्रयोऽकिचनो ऽप्रतिकर्मा । अत्यर्थ (युत्कृष्टं) विसृष्टांगः त्यक्तप्रीतिना देदेन ॥ ३४२ ॥ त्रिविधेनापि सहमान: परीपदान् दुःसहांच उत्सर्गवान् । विहरेत् विषयतृष्णारजोमलमशुभं विधूनयन् ।। ३४३ || स्नेहक्षये वा दीपो यथा क्षयमुपनयति दीपवर्त्तिमपि । श्रीणाहारोहः शरीरवति तथा क्षपयति ।। ३४४ ॥ एवं प्रारब्धः सति पराक्रमे पूर्वभणितसूरीणाम् । पार्श्वे उत्तमार्याय कुर्यात्तदा एतत् परिकर्म ॥ ३४५ ।। Par P& Pate the Ony ~51~ क्षामणा देहादित्यागः ॥ ११९ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३४६]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया ** 5 प्रत सूत्रांक ||३४६|| ॥ १५८० ।। आगरसमुट्टियं तह अजमुसिरवागतणपत्तकडए य । कसिल्लाफलगंमि व अणभिजय निष्पहै कप्पमि ॥ ३४६ ॥ १५८९॥ निस्संधिणातणमिव सुहपडिले हेण जइपसत्थेणं । संधारी कायद्यो उत्तर पुवस्सिरो वावि ॥ ३४७ ॥ १५८२ ।। दोसुत्थ अप्पमाणे अंप्रकारे समम्मि अणिसिट्टे । निरुवहयम्मि गुणबामणे वणम्मि गुत्ते (धणनि गुप्ते)प संधारो॥ ३४८॥ १५८३ ।। जुत्ते पमाणरइओ उभउकाल पहिलेहणा-13 &सुद्धो । विहिविहिओ संधारो आरुहियो तिगुसणं ।। ३४९ ॥१५८४ ॥ आमहियचरित्तभरो अनेसु उ P(अन्नस) परमगुरुसगासम्मि । दवेमु पनवेसु य खिसे काले य समि ॥ ५५० ।। १९८५ ॥ एएसुचेष ठाणेसु चउसु सबो चउधिहाहारो। तवसंजमुत्सि किच्चा बेसिरियको तिगुत्तेणं ॥ ३५१ ॥ १५८६ ।। अहवा सासमाहिहे कायबो पाणगस्स आहारो। तो पाणगंपि पच्छा योसिरियई जहाकाले ॥ ३५२ ॥ १५८७ ॥ 5 दीप - अनुक्रम - [३४७] - आकरसमुत्थिते तथा अशुषिरवकतृणपत्रकटके च । काष्ठशिलाफलके वा बमिद्यमाने निष्प्रकल्पे ॥३४६॥ निस्मन्धिकेन तृणेन वा सुखप्रतिलेखनेन यतिप्रशस्तेन । संस्तारः कर्तव्य उत्तरस्या पूर्वस्यां शिरो वाऽपि ।। ३४७॥ दोषोऽत्र अप्रमाणे अन्धकारे च (ततः ) समे च निसृष्टे । निरुपहते गुणवति पने गुप्ते च संस्तारकः ॥३४८॥ युक्ते प्रमाणरवित उभयकालपतिलेखनायुक्तः शुद्धः । विधिविहितः संस्तारक: आरूढव्यत्रिगुप्लेन ॥३४५॥ आरूउचारित्रभारः अन्येष्वपि परमगुरुसका। द्रव्येषु पर्यायेषु च क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन् (प्रशस्तेष्वारूढः) ॥ ३५० ॥ एतेषु चैव स्थानेषु चतुर्यु सर्वश्चतुर्विध आहारः । तपःसंयम इकत्वा व्युत्प्रष्टव्यनिगुमेन ॥ ३५१ ॥ अथवा समाधिहेतोः lanthursdmammnama ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३५३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३५३|| पडण्णय-निसिरित्ता अप्पाण सवगुणसमन्नियम्मि निजयए । संथारगसंनिविट्ठो अनियाणो चेव विहरिजा ॥ ३३॥ संस्तारकः दसए १० R१५८८ ॥ इहलोए परलोए अनिमाणो जीथिए य मरणे य । बासीचंदणकप्पो समो य माणावमाणेसु निर्यागक I॥ ३५४ ॥१५८९ ॥ अह महरं फुडवियर्ड तहप्पसायकरणिन विसयकयं । इज कहं निजवओ सुईसमन्ना-किया माही शाहरणहेउं ॥ ३५५ ।। १५९० ॥ इहलोए परलोए नाणचरणदंसर्गमि य अवार्य । दसेइ नियाणम्मि य माया| बिच्छत्तसल्लेणं ॥ ३५६ ॥१५५१ ।। बालमरणे अवायं तह य उयायं अबालमरणम्मि । उस्सासरजुवेहाणसे तय तह गिद्धपढे च ॥ ३५७ ॥ १५९२ ।। जह य अणुदुय सल्लो समल्लमरणेण कइ मरऊणं । ईसणनाणविशाहणो मरंति असमाहिमरणेणं ॥ ३५८ ॥ १५९३ ॥ जह मायरसे गिद्वा इस्थिअहंकारपावसुयमत्ता । ओसन्न SSC दीप अनुक्रम [३५४] कर्तव्यः पानकल्याहारः । ततः पानकमपि पश्चात् व्युत्प्रष्टव्यं यथाकाले ।। ३५२ ॥ निसृज्यात्मानं सर्वगुणसमन्वितेषु निर्यामकेषु संस्तार-2 कसंनिविष्टोऽनिदानकश्चैव विहरेत् ॥ ३५३ ॥ इहलोके परलोकेऽनिदानो जीविते च मरणे च । वासीचन्दनकल्पः समध मानापमानयोः ॥३५४।। अथ मधुरां फुटविकटा तथात्मसात्कृतकरणीयविषयाम । निर्यामकः कथा कथयेत् (स्मृतिसमन्याहरणहेतोः ॥३५५४ इहलोके परलोके ज्ञाने चरणे दर्शने च (कर्मणः) अपायं दर्शयति निदाने च मायामिथ्यात्वशल्ययोध ॥ ३५६ ॥ बालमरण उपायं तथा | हाचोपायमवालमरणे । उच्छास(रोध)रज्जुबहायसेषु च तथा गृध्रपृष्ठे च ।। ३५७ ॥ यथा चानुद्धृतशल्यः सशल्यमरणेन केचिन्मृत्वा । ॥१२॥ प्रदर्शनशानविहीना नियंतेऽसमाधिमरणेन ॥ ३५८ ॥ यथा सातरसोगुद्धाः स्यहवारपापश्रुतमत्ताः । बाहुल्येन बाउमरणा भ्राम्यन्ति JIREbraindainalisa ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) --------------- मूलं [३५९]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३५९|| बालमरणा भमंति संसारकतारं ॥ ३५९ ॥ १५९४ ।। अह मिच्छत्त ससल्ला मायासल्लेण जह ससल्ला य । जह द्रीय नियाण ससल्ला मरंति असमाहिमरणेणं ।। ३६०॥ १५९५ ॥ जह वेयणावसहा मरंति जह कह दिय बमा । जह य कसायवसट्टा मरंति असमाहिमरणेणं ॥३६१ ॥ १५९६ ॥ जह सिद्धिमग्ग दुग्गइसम्ग-1 गलमोडणाणि मरणाणि । मरिऊण केइ सिद्धिं उर्विति सुसमाहिमरणेणं ॥३६२॥ १५९७ ।। एवं पहप्पया ४ात अवापं उत्तमढकालम्मि । संति अवायण्णू सल्लद्धरणे सुविहियाणं ॥३६३ ॥ १५९८ ॥ दितिय सिं| दावएस गुरुणो नाणाविहेहिं हेऊहिं । जेण सुगई भयंतो संसारभयदुओ (दुहो) होइ ॥ ३६४ ॥१५९९॥ न ह नेसु बेपणं खलु अहो चिरम्मित्ति दारुणं दुक्खं । सहणिलं देहेणं मणसा एवं विचिंतिजा ॥ ३६५ ॥१६००।। Bासागरतरणत्यमहे इपस्स पोयस्स जए (उज्जवे) धूवे । जो रज्जु (रक्ख) मुक्खकालो न सो विलंपत्ति । दीप अनुक्रम [३६०] संसारकान्तारे ।। ३५९ ॥ अथ मिध्यात्वेन सशल्या मायाशल्येन यथा सशल्याश्च । यथा च निदानेन सशस्या नियन्तेऽसमाधिमरणेन FI यथा वेदनावशात्ती नियन्ते यथा केचिदिन्द्रियवशाताः । यथा च कषायवशार्ता प्रियन्तेऽसमाधिमरणेन ॥ ३६१ ॥ यथा| मितिमा दर्गतिस्वर्गार्गलामोटनानि मरणानि । मृत्वा केचित्सुसमाधिमरणेन सिदिमुपयान्ति ॥३६२।। एवं बहुप्रकार वपायमुत्तमार्थ काले|| दर्शयन्स्यपायज्ञाः शल्योद्धरणाय सुविहितानाम् ॥ ३६३ ।। ददति चैषामुपदेशं गुरवो नानावितुमिः । येन मुगति भंजन् संसारभवहुतो। प.स.२१18 (रु) भवति ।।३६४।। नेव तेषु वेदना (न) खलु अहो। चिरमिति दारुणं दुःखम् । सहनीयं देहेन मनसैबंप विचिन्तयेत् ॥३६५।। साग- 2 lanthursdmammnama ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३६६]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया RANCC-25 प्रत सूत्रांक ||३६६|| पवृष्णय- कायद्यो॥ ३६६ ॥ १६०१ ॥ तिल्लपिडूमो दीवो न चिरं दिप्पह जगम्मि पञ्चक्खं । न य जलरहिओ मच्छो हितशिक्षा दसए १० जिभइ चिरं नेव पउमाई ॥ ३६७ ॥ १६०२ ॥ अन्नं इमं सरीरं अन्नोऽहं इय मणम्मि ठाविना । जं सुचिरेमरणस- णऽवि मोचं देहे को तत्थ पडियंधो ? ॥ ३६८ ॥ १६०३ ॥ दूरत्वंपि विणासं अवस्सभाव उवट्ठियं जाण । जो माही अह वहइ कालो अणागओ इत्थ आसिपहा ॥ ३६९ ॥ १६०४ ॥ जं सुचिरेणवि होहिइ अणावसं तमि को ममीकारो? । देहे निस्संदेहे पिएवि सुयणसणं नत्थि ॥ ३७० ॥ १६०५ ॥ उबलदो सिद्धिपहो न य अणु॥१२१ चिपणो पमापदोसेणं । हा जीव ! अप्पवेरिय! न हु ते एयं न तिप्पिहिइ ।। ३७१ ॥ १६०६ ।। नस्थि य ते सिंघयणं धोरा य परीसहा अहे निरया । संसारो य असारो अइप्पमाओ अतं जीव! ॥ ३७२ ॥ १६०७॥16 कोहाइकसाया खलु वीयं संसारभेरबदुहाणं । तेसु पमत्तेसु सपा कत्तो सुक्खो य मुक्खो वा ॥ ३७३ ॥ रतरणार्थमतिक: आयातस्य पोतस्य ध्रुवे जये। यो रज्जुमोक्षकालः स कर्त्तव्यः, न विलम्ब इति (मत्वा) कर्तव्यः ॥३६६।। तैलबिहीनो दीपो सोन चिरै दीप्यते जगति प्रत्यक्षम् । न च जलरहितो मत्स्यो जीवति चिरं नैव च पद्मादि (जलं विना) ॥३६७।। अन्यदिदं शरीरं अन्योऽहमिति मनसि स्थापयेत् । यत्सुचिरेणापि मोच्यं तत्र देहे कः प्रतिवन्धः ॥३६८|| दूरस्थमपि विनाशमवश्यभाविनमुपस्थितं जानीहि । यो यथा वर्तते ५ कालोऽनागतोऽत्र चासीनस्य ।।३६९।। यत्सुचिरेणापि भविष्यति अवशं(शरीर)तस्मिन् को ममीकारः।। देहे निःसंदेहं प्रियेऽपि सुजनत्वं | नास्ति ।। ३७० ।। उपलब्धः सिद्धिपयो न चानुचीर्णः प्रमाददोषेण । हा जीव! आत्मवैरिन् ! नैव तवैतत् , न च सर्पयिष्यति ॥३७१। । नास्ति च तव संहननं घोराश्च परीपहा अधो नरकाः । संसारवासारः अतिप्रमादश्च वं जीव! ॥३७२।। क्रोधादयः कषायाः खलु वीज दीप अनुक्रम [३६७] 0-%-436 ॥१२१॥ ~55M Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||३७४ || दीप अनुक्रम [३७५] “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [३७४]--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Ja Edusomation ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया ।। १६०८ ॥ जाओ परवसेणं संसारे वेषणाओ घोराओ। पत्ताओ नारगते अरुणा ताओ विचितिजा || ३७४ || ।। १६०९ ॥ इहि सयं वसिस्स उ निरुवमसुक्खावसाणमुहदूयं (कटु) । कल्लाणमोसहं पिय परिणामसुहं न तं दुक्खं ।। ३७५ || १६१० || संबंधि बंधवेसु य न य 'अणुराओ खपि कायो । तेचिय हुति अमिता जह- जणणी गंभवतस्स || ३७६ ।। १३११ ।। यसिऊण व सुहिमज्झे वच्चइ एगाणिओ इमो जीवो मोत्तृण सरीरघरं जह कण्हो मरणकालम्मि ।। ३७७ ।। १६१२ ।। इहि व मुहत्तेणं गोसे व सुए व अद्धरसे वा । जस्स न नज्ज वेला कश्विसं गच्छिई जीवो? || ३७८ ।। १६१३ ॥ एवमणुचिंतयंतो भावणुभावाणुरत सियलेसो । तद्दिवस मरिउकामो व होड़ झाणम्मि उज्बुत्तो ॥ ३७९ ।। १६१४ ॥ नरगतिरिक्खगईसु य माणुसदे संसारभैरवदुःखानाम्। तैः प्रमत्तेषु सदा कुतः सौख्यं च मोक्षा ? || ३७३|| याः पारवश्येन संसारे वेदना घोराः प्राप्ता नारकत्वेऽ| धुना ता विचिन्तय ॥ ३७४ ॥ इदानीं स्ववशस्य तु निरुपमसौख्यावसानमुखकटुकम् । कल्याणौषधं पिव परिणामसुखं न तदुःसम् ।। ३७५ ।। सम्बन्धिबान्धवेषु च न चानुरागः क्षणमपि कर्त्तव्यः । ते चैव भवन्त्यमित्राणि यथा जननी ब्रह्मदत्तस्य ॥ ३७६ ॥ उपत्वा च सुहन्मध्ये व्रजत्येकाक्यवं जीवः । मुक्त्वा स्वशरीरगृहं यथा कृष्णो मरणकाले || ३७७ || अधुना वा मुहूर्त्तेन प्रभाते वा वो वाऽर्द्धरात्रे वा यस्य न ज्ञायते वेला क दिवसे गमिष्यति जीवः ॥ ३७८ ॥ एवमनुचिन्तयम् भावानुभावानुरक्तः सितलेश्यः । तस्मिन् दिने मर्नु कामो वा (ऽपि भवति ध्याने उद्युक्तः || ३७९|| नरके तिर्यमातिषु च मानुषदेवत्ययोर्वसना यरसुखदुःखं प्राप्तं तदनु चिन्तयेत् संसारके FFPU O ~ 56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||३८०|| दीप अनुक्रम [३८१] पइण्णयदसए १० प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [३८०]--- ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया Ja Education emai “मरणसमाधि” मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... मरणस वत्तणे वसंतेणं । जं सुहदुक्खं पत्तं तं अणुचितिल संधारे || ३८० || १६१५ ।। नरपसु वेषणाओ अणोवमा | सीयउणूह वेरा (गा)ओ। कायनिमित्तं पत्ता अनंतखुत्तो बहुविहाओ || ३८१ ॥ १६१६ ॥ देवत्ते माणुस्से पराहिओगन्तणं उबगएणं । दुक्खपरिकेसविही अनंतखुत्तो समनुभूया ॥ ३८२ ।। १६१७ ॥ भिन्निंदियपंचिंदिमाही यतिरिक्खकायम्मि णेगसंठाणे । जम्मणमरणरह अनंतखुत्तो गओ जीवो ॥ ३८३ ॥ १६१८ । सुविहिय! अईयकाले अनंतकासु तेण जीवेणं । जम्मणमरणमणतं बहुभवगहणं समनुभूयं ॥ ३८४॥ १६१९ ॥ घोरम्मि गन्भवासे कलमलजबालअसुहबीभच्छे । वसिओ अनंतखुत्तो जीवो कम्माणुभावेणं ॥ ३८५ ।। १६२० ॥ जोणीमुह निग्गच्छंतेण संसार इमे (रिमेण जीवेणं । रसियं अइबीभच्छं कडीकडाहंतरगएणं ॥ ३८६ ।। १६२१ ।। जं असियं बीमच्छं असुई घोरम्मि गन्भवासम्मि । तं चिंतिऊण सयं मुक्खम्मि महं निवेसिया ॥ ३८७ ॥ ॥ १२२ ॥ - ॥ ३८० ॥ नरकेषु वेदना अनुपमाः शीतोष्णवैर वेग] जाताः । कायनिमित्तं प्राप्ता अनन्तकृत्वो बहुविधाः ॥ ३८१ ॥ देवत्वे मानुष्ये परामियोगत्वमुपगतेन । दुःख परिक्लेश विधयोऽनन्तकृत्वः समनुभूताः ॥ ३८२ ॥ भिन्नेन्द्रियप श्वेन्द्रिय तिर्यक्काये ऽनेकसंस्थाने । जन्ममरणारहट्टमनन्तकृत्यो गतो जीवः ॥ ३८३ ।। सुविहित! अतीतकालेऽनन्तकायेषु एतेन जीवेन । जन्ममरणमनन्तं बहुभवग्रहणे समनुभूतम् ॥ ३८४ ॥ घोरे गर्भवासे कलिमलजम्बालाशुचिवीभत्से । उपितोऽनन्तकृत्वो जीवः कर्मानुभावेन ॥ ३८५ ।। योनिसुखान्निगच्छता संसारेऽनेन जीवेन । रसितमतिबीभत्सं फटिकटाहान्तरगतेन ॥ ३८६ ॥ यदशितं बीभत्सं अशुचिधोरे गर्भवासे । दचिन्त F&Use Only ~ 57~ गत्यन्तर दुःखस्मा रणा ॥ १२२ ॥ www.retry. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३८८]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||३८८|| I8॥ १६२२ ॥ वसिऊण विमाणेसु य जीवो पसरतमणिमऊहेसु । वसिओ पुणोवि सुचिय जोणिसहस्संधया-18 रसुं॥ ३८८ ॥ १६२३ ॥ यसिऊण देवलोए निबुजोए सयंपभे जीवो। वसइ जलवेगकलमलविउलवलयामुहे घोरे ॥ ३८९ ॥१६२४ ॥ वसिऊण सुरनरीसरचामीयररिदिमणहरघरेसु । वसिओ नरग निरंतरभयभरवपंजरे जीवो ।। ३९० ।। १६२५ ॥ यसिऊण विचित्तेसु अ विमाणगणभवण सोभसिहरेसु । बसह तिरिपसु गिरिगुहविवरमहाकंदरदरीसु ।। ३९१ ॥ १६२६ ।। भुसूणवि भोगसुहं सुरनरखयरेसु पुण पमा एणं । पिया नरएम भेरवकलंततउतषपाणाई ॥ ३९२ ॥ १६२७ ॥ सोऊण मुइयणस्वाभवे भ जपसह181 मंगलरवोघं । सुणइ नरपसु दुहपरं अकंदुरामसहाई ॥ ३९३ ॥ १६२८ ॥ निहण हण गिण्ह दह पप उज्बंध दीप अनुक्रम [३८९] यित्वा स्वयं मोक्षे मतिं निवेशयेत् ॥ ३८७ ॥ उषित्वा विमानेषु च जीवः प्रसरनमणिमयूखेषु । उषितः पुनरपि स एव योनिसहस्रा-R प्रकारेषु ॥ ३८८ ।। उपित्वा देवलोके नित्योद्योते स्वयंप्रभे जीवः । वसति विपुलजलपेगकलिमलबलयामुखे घोरे ॥ ३८९ ॥ उपिया सुरनरेश्वरधामीकरऋद्धिमन्मनोहरगृहेषु । उपितो नरके निरन्तरभयभैरवपचरे जीवः ॥ ३९० ॥ उपित्वा विचित्रेषु च विमानगणभवनेषु शोमितशिखरेषु । वसति तिर्थक्षु गिरिगुहाविवरमहाकन्दरदरीषु ॥ ३९१ ॥ भुक्त्वाऽपि भोगमुखं सुरनरखचरेषु पुनः प्रमा-12 देन । पियति नरकेषु भैरवकलकलायमानत्रपुताम्रपानानि ॥ ३९२ ॥ श्रुत्वा मुदितनरपतिभये प जयशब्दमङ्गलरवौषम् । शृणोति । नरकेषु दुःखकरान् आक्रन्दोदामशम्दान् ॥ ३९३ ॥ निजहि जहि गृहाण दह पच उद्वन्धय प्रवन्धय बधान इंद्धि स्फाटय लोलय घोल-| JAMERaatitimeiratists ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [३९४]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३, प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया रणा प्रत सूत्रांक ||३९४|| पडण्णय-12ीपबंध बंध रद्धाहिं । फाले लोले घोले थरे खारेहिं से गतं ॥ ३९४ ॥१६२९॥ वेयरणिखारकलिमलवेसल्लंकुस- गत्यन्तरदसए १० लकरकयकुलेसु । वसिओ नरएसु जीवो हणहणघणघोरसद्देसुं ॥ ३९५ ॥ १६३० ॥ तिरिएसु व भेरवसह- दुःखस्मामरणस- पकखणपरपक्खणच्छणसएसु । वसिओ उधियमाणो जीवो कुडिलम्मि संसारे ।। ३९६ ।। १६३१ ॥ मणुयत्त-ल माही वि बहुविहविणिवायसहस्सभेसणघणम्मि । भोगपिवासाणुगओ वसिओ भयपंजरे जीवो ॥ ३९७ ॥ ॥१३॥18॥१६३२ ॥ वसियं दरीसु वसिय गिरीसु वसियं समुहमज्झेसु । रुक्खग्गेसु य वसिय संसारे संसरंतेणं J॥ ३९८ ॥ १६३३ ।। पीयं थणअच्छीरं सागरसलिलाओ बहुयरं हुजा । संसारम्मि अणंते माईणं अण्णमPणाणं ॥ ३९९ ॥ १६३४ । नयणोदगंपि तासिं सागरसलिलाओ पहुयरं हुजा । गलियं रुपमाणीणं माईणं अण्णमण्णाणं ॥ ४०० ॥१६३५॥ नत्थि भयं मरणसमं जम्मणसरिसं न विजए दुक्खं । तम्हा जरमरण दीप अनुक्रम [३९५]] भय स्यूरय क्षारतस्य गात्रं (कृशय) ॥३९४।। वैतरणिक्षारकलिमलविविधशल्यकुशल(अंकुश)ककचाकुलेषु । उषितो नरकेषु जीवो हनह नघनघोरशब्देषु ॥ ३९५ ॥ तिर्यक्षु च भैरवशब्दपक्षणपरिपक्षणतक्षणशतेषु । उषित उद्विजन् जीवः कुटिले संसारे ॥३९६।। मनुजत्वेऽपि बहुविधविनिपातसहस्रघनभीषणे । भोगपिपासानुगत उपितो भयपञ्जरे जीवः ।। ३९७ ॥ उषितं दरीषु उपितं गिरिषु उषितं समुद्रम ध्येषु । वृक्षाप्रेषु चोषितं संसारे संसारता ।। ३९८ ॥ पीतं स्तनक्षीर सागरसलिलाबहुतरं भवेत् । संसारेऽनन्ते मातृणामन्यान्यासाम् १॥ ३९९ ॥ नयनोदकमपि तासां सागरसलिलाबहुतरं भवेत् । गलितं रुदन्तीनां मातृणामन्यान्यासाम् ।। ४०० ।। नास्ति भयं मरण-18 ॥१२३॥ Jamsuntananemanand ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४०१]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया 50 प्रत सूत्रांक ||४०१|| कर छिंद ममत्तं सरीराओ ।। ४०१ ॥ १६३६ ॥ अन्नं इमं सरीरं अण्णो जीवुत्ति निच्छियमईओ । दुक्खपरीकेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ॥ ४०२ ॥ १६३७ ॥ जावइयं किंचि दुहं सारीरं माणसं च संसारे । पत्तो अणतखुत्तो कायस्स ममत्तदोसेणं ॥ ४०३ ॥१६३८ ॥ तम्हा सरीरमाई अम्भितर वाहिरं निरवसेसं । विंद| दममत्तं सुविहिय! जइ इच्छसि मुचिउ दुहाणं ॥ ४०४ ॥ १६३९ ॥ सवे उवसग्ग परीसहे य तिविहेण निजिMणाहि लहु । एएसु निजिएK होहिसि आराहओ मरणे ॥ ४०५ ॥ १६४० ॥ मा हु य सरीरसंताविओ अ तं झाहि अदृरुदाई। मुद्दवि रूवियलिंगवि अट्टरुहाणि रूवंति ॥ ४०६ ॥ १६४१ ।। मित्तसुयबंधवाइसु इट्ठा-12 गिटेसु इंदियत्धेसुं। रागो वा दोसो वा इसि मणेणं न कायवो ॥ ४०७ ।।१३४२॥ रोगायंकेसु पुणो विउ-18 SSC-CGRAMXNXN. दीप अनुक्रम [४०२] समं जन्मसदृशं न विद्यते दुःखम् । तस्माजरामरणकरं छिन्द्धि ममत्वं शरीरात् ।। ४०१॥ अन्यदिदं शरीरं अन्यो जीव इति निश्चितमसिकः । दुःखपरिग्रेशकरं छिन्द्धि ममत्वं शरीरात् ।। ४०२ ॥ यावकिश्चिदुःखं शारीरं मानसं च संसारे प्राप्तोऽनन्तकृत्वः कायस्य ममत्वदोषेण ।। १०३ ॥ तस्मात् शरीरादि अभ्यन्तरं बाह्यं निरखशेष (आश्रित्य) । छिन्द्धि ममत्वं सुविहित ! यदीच्छसि दुःखेभ्यो मोक्कुम् ।। १०४ ॥ सर्वानुपसर्गान परीपहांश्च निर्जय त्रिविधेन लघु । एतेषु निर्जितेषु भविष्यस्वाराधको मरणे ॥ ४०५॥ मा च शरीदारसंतापितच त्वमातरौद्रे ध्याय । सुपि निरूपितलिझान आर्त्तरौद्रे रोदयतः ॥ ४०६ ।। मित्रसुतवान्धवादिषु इष्टानिष्टेष्विन्द्रियार्थेषु । रागो वा द्वेषो या ईपदपि मनसा न कर्त्तव्यः ।। ४०७ ॥ रोगातङ्केषु पुनर्विपुलामु च वेदनासूदीर्णासु । सम्यगण्यासयन् इदं हदयेन । JanEluratianimmitianit ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४०८]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४०८|| पइण्णय- 1लासु य वेयणासुइनासु । सम्म अहियासंतो इणमो हियएण चिंतिजा ॥ ४०८ ॥ १६४३ ॥ बहुपलियसा- गत्यन्तरदसए १० गराई सहाणि मे नरयतिरियजाईमुं। किं पुण सुहावसाणं इणमो सारं नरदुहंति? ॥ ४०९ ॥ १६४४॥ दुःखस्मामरणस- सोलस रोगायंका सहिया जह चकिणा चउत्थेणं । वाससहस्सा सत्त उ सामण्णधरं उवगएणं ॥ ४१०॥ रणा माही ॥१६४५ ॥ तह उत्तमढकाले देहे निरवक्खयं उवगएणं । तिलच्छित्तलावगा इव आर्यका विसहियवाओ* ॥ ११ ॥ १६४६ ।। पारियवायगभत्तो राया पट्टीई सेट्ठिणो मूढो । अचुण्हं परमन्नं दासी य सुकोवियम१२४॥ गुस्सा ॥ ४१२ ।। १६४७ ॥ सा य सलिलल्ललोहियमंसवसापेसिधिग्गलं पित्तुं । उप्पड्या पट्ठीओ पाई। जह रक्खसवहुच ॥ ४१३ ॥ १६४८ ॥ तेण य निवेएणं निग्गंतूर्ण तु सुविहियसगासे। आरुहियचरित्तभरो। सीहोरसियं समारूढो ॥ ४१४ ।। १६४९ ॥ तम्मि य महिहरसिहरे सिलायले निम्मले महाभागो। वोसिरह दीप अनुक्रम [४०९] चिन्तयेत् ॥ ४०८॥ बहुपल्योपमसागरोपमाणि यावत् दुःखानि मया नरकतिर्यगजाति सोदानि किं पुनः सुखावसानमिदं सारं नरदुःख-11 मिति ॥ ४०९॥ षोडश रोगातकाः पोढा यथा चक्रिणा चतुर्थेन । वर्षसहस्राणि सप्त तु श्रामण्यधरत्वमुपगतेन ।। ४१० ॥ तथोत्तमा-] प्रियंकाले देहे निरपेक्षतामुपगतेन । तिलक्षेत्रलाबका इव आतङ्का विसोढव्याः ॥ ४११ ॥ परिबाड्भको राजा पृष्ठौ श्रेटिनो मूढः ।। अत्युष्णं परमात्रमदात् सुकोपितमनुष्यात् ।। ४१२ ॥ सा च पात्री सलिलारुधिरमांसवसापेशीथिमगलं गृहीत्वा पृष्ठेरुत्पतिता यथा ॥१४॥ राक्षसवधूः ॥ ४१३ ॥ तेन च निदेन निर्गत्य तु सुविहितसकाशे। आरूढचारित्रभरः सिंहोरस्य समारूढः ॥ ४१४ ॥ तस्मैिश्च महीधर-81 Janthindinimimdisix. अथ मरणसमाधि-आराधकानां वर्णयते ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४१५]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४१५|| थिरपइन्नो सवाहारं महतणू य ॥ ४१५॥ १६६० ॥ तिविहोवसग्ग सहिउँ पडिमं सो अद्धमासियं धीरो।। ठाह य पुवाभिमुहो उत्तमधिइसत्तसंजुत्तो॥ ४१६ ॥ १६५१ ॥ सा य पगतंतलोहियमेयवसामंसलपरी(लंघ रा)पट्टी । खजइ खगेहिं दूसहनिसहचंचुप्पहारहिं ॥ ४१७ ॥ १६५२ ॥ मसएहि मच्छियाहि य कीडीहिवि तमससंपलगाहिं । खजंतोवि न कंपद कम्मविवागं गणेमाणो ॥ ४१८ ॥ १६५३ ॥ रत्तिं च पयइविहसिय सियालियाहिं निरणुकंपाहिं । उपसग्गिजद धीरो नाणाविहरूवधाराहिं ॥ ४१९ ॥ १६५४ ॥ चिंतेइ य खर-2 ४ करवयअसिपंजरखग्गमुग्गरपहाओ। इणमो न हु कट्टयरं दुक्खं निरयग्गिदुक्खाओ ॥ ४२० ।। १६५५ ॥ सावं च गओ पक्खो वीओ पक्खो य दाहिणदिसाए। अवरेणवि पक्खोवि य समार्फतो महेसिस्स ॥४२१ ॥१६५६ ॥ तह उत्तरेण पक्खं भगवं अविकंपमाणसो सहइ । पडिओ य दुमासंते नमोत्ति वोत्तुं जिणिदाणं रशिखरे शिलातले निर्मले महाभागः । ग्युरसृजति स्थिरप्रतिज्ञः सर्वाहारं महातन च ॥ ४१५ ॥ विविधोपसर्गान सहित्वा प्रतिमा 18 सोऽर्द्धमासिकी धीरः । तिष्ठति च पूर्वाभिमुख उत्तमधृतिसत्त्वसंयुक्तः ॥ ४१६ ॥ सा च प्रगलवुधिरमेदवशामांसव्याप्ता पृष्ठिः। खाद्यते खगैः निसृष्टदुःसहच महारैः ॥ ४१७ ॥ मशकैर्मक्षिकामिश्च कीटिकाभिरपि मांससंप्रलमामिः । खाद्यमानोऽपि न कम्पते कर्म-| विपाकं गणयन् ॥ ४१८ ॥ रात्रौ च प्रकृति विहसितशृगालिकाभिर्निरनुकम्पाभिः । उपसर्यते धीरो नानाविधरूपधारिणीमिः ।। ४१९ ॥ चिन्तयति च खरककचासिपञ्जरखड्गमुद्रप्रहारात् । इदं नैव कष्टकर दुःखं नरकानिदुःखाच ॥ ४२० ॥ एवं च गतः पक्षो द्वितीयः पक्षध दक्षिणस्यां दिशि । अपरस्यामपि पक्षोऽपि च समतिकान्तो महर्षेः ॥४२॥ तथोत्तरख्या पक्षं भगवान् अविकम्पमानसः सहते ।। दीप अनुक्रम [४१६] 94-959 ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४२३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया दिदृष्टा प्रत सूत्रांक ||४२३|| पइण्णय- ॥ ४२२ ॥ १६५७ ॥ कंचणपुरम्मि सिट्ठी जिणधम्मो नाम सावओ आसी । तस्स इमं चरियपयं तप एवं जिनधर्मादसए १० कित्तिम मुणिस्स ॥ ४२३ ॥ १६५८ ॥ जह तेण वितथमुणिणा उपसग्गा परमदूसहा सहिया। तह उवसग्गा| मरणस- सूसुविहिय । सहियथा उसमट्ठमि ॥ ४२४ ॥ १६५९ ।। निष्फेडियाणि दुपिणधि सीसावेडेण जस्स अच्छीणि । माही न घ संजमाउ चलिओ मेअजो मंदरगिरिव ॥ ४२५ ॥ १६६० ॥ जो कुंचगावराहे पाणिदया कुंचगंपि नाइ-t ॥१२५॥ क्खे । जीवियमणुपेहतं मेयवरिसिं नमसामि ॥ ४२६ ॥ १६६१ ॥ जो तिहिं पाहिं धम्मं समगओ संजमं| समारूढो । उवसमविवेगसंवर चिलाइपुसं नमसामि ॥ ४२७ ।। १६६२॥ सोएहि अइगयाओ लोहियगंधेण जस्स कीडीओ खाति उत्तमंग तं दुकरकारयं वंदे ॥ ४२८ ॥ १६६३ ॥ देहो पिपीलियाहिं चिलाइपुत्तस्स दीप -- अनुक्रम [४२४] पतितश्च द्विमास्यन्ते जिनेन्द्रेभ्यो नमोऽस्त्वित्युक्त्वा ।। ४२२ ॥ कानपुरे श्रेष्ठी जिनधर्मो नाम श्रावक आसीत् । तस्यैतश्चरिनपदं तन एतत्कृत्रिममुनेः ॥ ४२३ ॥ यथा तेन वितधमुनिना उपसर्गाः परमदुष्कराः सोढाः। सथोपसर्गाः सुविहित ! सोढव्या उत्तमार्थे ॥४२॥ निष्काशिते द्वे अपि शिरसावेष्टेन यस्याक्षिणी। न च संयमाचलितो मेतार्यों मन्दरगिरिवि ॥ ४२५ ॥ यः क्रौटाकापराधे प्राणि दयावाः । क्रौनकमपि नारव्यत् । तं संयमजीवितमनुप्रेक्षमाणं मेतार्षि नमस्यामि ॥ ४२६ ।। यत्रिभिः पदैर्धर्म समधिगतः संयमं च समारूढः । उपशमविवेकसंवरैस्तं चिलातीपुत्रं नमस्यामि ॥ ४२७ ॥ श्रोतोभिरभिगता रुधिरगन्धेन यस्य कीटिकाः । खादन्त्युत्तमाङ्गं तं दुष्करका-18||१२५॥ रकं वन्दे ।। ४२८ ॥ देहः पिपीलिकाभिश्चिलातीपुत्रस्य चालनीव कृतः । तनुकोऽपि मनःप्रद्वेषो न च जातस्तस्य तासामुपरि ॥ ४२९ । Janterstimanmidianx ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४२९]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४२९|| SC-CGLECRACRACROCKS* ठाचालणिव कओ । तणुओवि मणपओसो न य जाओ तस्स ताणुवरि ॥ ४२९ ॥ १६६४ ॥ धीरो चिलाइपुत्तो मूइंगलियाहिं चालिणिव कओ। न य धम्माओ चलिओ तं दुक्करकारयं वंदे ॥ ४३० ।। १६६५ ।। गयमुकुमालमहेसी जह दहो पिइवणंसि ससुरेणं । न य धम्माओ चलिओ तं दुक्करकारयं बंदे ॥ ४३१ ॥ १६६६ ।। जह तेण सो हुयासो सम्मं अइरेगदसहो सहिओ। तह सहियवो सुविहिय ! उवसग्गो देहदुक्खं च ॥ ४३२॥ G||१६६७ ।। कमलामेलाहरणे सागरचंदो सहहि नभसेणं । आगंतूण सुरत्ता संपह संपाइणो वारे ॥ ४३३ ॥ ॥ १६६८ ॥ जा तस्स खमा तइया जो भावो जा य दुक्करा पडिमा । तं अणगार! गुणागर तुमपि हियएण चिंतेहि ॥ ४३४ ॥१६६९ ॥ सोऊण निसासमए नलिणिविमाणस्स वण्णणं धीरो । संभरियदेवलोओ उल्लेणि अवंतिसुकुमालो॥ ४३५ ॥ १६७०॥ घिनूण समणदिक्खं नियमुज्झियसपदिवआहारो। बाहिं वंसकुडंगे HRS- ka-9 दीप अनुक्रम [४३०] धीरचिलातीपुत्रः पिपीलिकाभिचालनीव कृतः । न च धर्माच्चलितस्तं दुष्करकारकं वन्दे ।। ४३० ॥ गजमुकुमालमहर्षिर्यथा दग्धः पितृवने चारेण । न च धर्माचलितस्तं दुष्करकारकं वन्दे ॥४३१॥ यथा तेन स हुताशनः सम्यगतिरेकदुःसहः सोढः । तथा सोढव्यः सुविहित ! | | उपसर्गो देहदुःखं च ॥४३२॥ कमलामेलोदाहरणे सागरचन्द्रः सूचिभिः(गृतः)नभःसेनम् । आगत्य सुरत्वात् तत्कालं संपातिनो वारयति |॥ ४३३ ॥ या तस्य क्षमा तदा यो भावो या च दुष्करा प्रतिमा । तद् अनगार! गुणाकर ! त्वमपि हृदयेन चिन्तय ॥ ४३४ ॥ भुत्वा निशासमये नलिनीगुल्मबिमानस्य वर्णनं धीरः । संस्मृतदेवलोक उज्जयिन्यामवन्तीसुकुमालः ।। ४३५ ।। गृहीरा पणदीक्षा नियमोज्झित Jansuritanimumtime ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४३६]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४३६|| पइण्णय- पायवगमणं निवण्णो ॥ ४३६ ॥ १६७१ ॥ बोसट्टनिसटुंगो तहिं सो मुटुंकिपाइ खाओ उ । मंदरगिरिनिचिलातिदसए १० तं दुकरकारयं वंदे ॥ २७ ॥ १६७२ ॥ मरणमि जस्स मुकं मुकुसुमगंधोदयं च देवेहिं । अबवि गंधवई पुत्रादि तसा तं च कुडंगीसरहाणं ॥४८॥ १६७३ ॥ जह तेण तस्थ मुणिणा सम्म सुमणेण इंगिणी तिण्णा । तह दृष्टान्ता माही तूरह उत्तम8 तं च मणे सनिवेसेह ॥ ४३९ ॥ १६७४ ॥ जो निच्छएण गिण्हइ देहचाएवि न अद्वियं कुणइ । |सो साहेद सकलं जह चंदवसिओ राया ॥४४०॥ १६७५ ॥ दीवाभिग्गहधारी दूसहघणविणयनिश्चल-| ॥१२६॥ नगिंदो । जह सो तिण्णपइण्णो तह तरह तुम पइमि ॥ ४४१ ॥१६७६ ॥ जह दमदंतमहसी पंडयकोरव |मुणी धुयगरहिओ। आसि समो दुण्हपि हु एवं समा होह सवत्थ ॥ ४४२ ॥ १६७७ ॥ जह खंदगसीसेहि 4-9643500-%95 4 दीप अनुक्रम [४३७] सर्वदिव्य आहारः । बहिर्वशकुडङ्गे पादपोपगमनेनोपविष्टः ॥४३६॥ निःसह न्युत्सृष्टानस्तत्र सः शृगाल्या खादितस्तु । मन्दरगिरि निष्कम्प दुष्करफारकं बन्दे ॥ ४३७ ॥ मरणे यस्य मुक्तं सुकुसुमगन्धोदकं च देवैः । अद्यापि गन्धवती सा (भूमिः) तच कुडोश्वरस्थानम|2 ॥ ४३८ ॥ यथा तेन तत्र मुनिना सम्यक् सुमनसा इझिनी तीर्णा । तथा त्वरस्व उत्तमार्थे वश मनसि संनिवेशय ॥ ४३९ ।। यो निश्च-12 येन गृह्णाति देहत्यागेऽपि नास्थिति करोति । स साधयति खकार्य यथा चन्द्रावतंसको राजा ॥ ४४० ॥ दीपाभिप्रहधारी दुःसह (पाप)घका नविनयननिश्चलनगेन्द्रः । यथा स तीर्णप्रतिशतथा स्वरख त्वं प्रतिज्ञायाम् ॥४४१॥ यथा यमदन्तमहर्षिः कौरवपाण्डवाभ्यां गर्हितगुतो मुनिः । वासीहयोरपि समः एवं समो भव सर्वत्र ॥ ४४२ ॥ यथा स्कन्दकशिष्यैः शुक्लमहाध्यानसंसृतमनस्कैः । न तो मनःप्रदेपो| ॥१२६॥ Janthatanammatiane ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४४३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४४३|| CANCARNAGAR सुक्कमहामाणसंसियमणेहिं । न कओ मणप्पओसो पीलिजतेसु जतमि ॥ ४४३ ॥ १६७८ ॥ तह धन्नसा-15 लिभा अणगारा दोवि तवमहिडीया । वेभारगिरिसमीवे नालंदाए समीवंमि ॥ ४४४ ॥ १६७९ ॥ जुअलसिलासंथारे पायवगमणं उवगया जुगवं । मासं अणूणगं ते वोसट्ठनिसहसवंगा ॥ ४४५ ॥ १६८०॥ सीयायवझडियंगा लग्गुद्धियमंसाहारुणि विणवा । दोवि अणुत्तरवासी महेसिणो रिद्धिसंपण्णा ॥ ४४६ ॥ १६८१॥ अच्छेरयं च लोए ताण तहिं देवयाणुभावेणं । अवि अढिनिवेसं पंकिब सनामगा हत्थी ॥ ४४७ ॥१६८२॥ जह ते समंसचम्मे दुबलविलग्गेवि णो सयं चलिया । तह अहियासेयर गमणे धेवंपिमं दुक्खं ।। ४४८ ॥ 51॥१६८३ ॥ अयलग्गाम कुटुंबिय सरदयसयदेवसमणयसुभदा । सबे उ गया खमगं गिरिगुहनिलय-181 नियच्छीय ।। ४४९ ॥ १६८४ ॥ ते तं तबोकिलंतं वीसामेऊण विणयपुवागं । उवलद्धपुषणपावा फासुपसु. यश्रेण पीड्यमानैः ॥ ४४३ ॥ तथा धन्यशालिभद्रौ अनगारौ द्वावपि तपोमहद्धिको । वैभारगिरिसमीपे नालन्दायाः समीपे ॥ ४४४ ॥ शिलायुगलसंस्तारके युगपत्पादपोपगमनमुपगतौ । मासमनूनं तौ निःसहव्युत्सृष्टसर्वाङ्गी ॥४४५|| शीतातपक्षपितानौ लमोद्धृत(भग्नास्थि)मांसनायुको विनष्टौ । द्वावपि अनुत्तरवासिनी महर्षी माद्धिसंपन्नौ जातौ ॥४४६।। आश्चर्य च लोके तयोस्तत्र देवताऽनुभावेन । अद्यापि पढ़े इवास्थिनिवेशं स्वनामको हस्तिनी (विद्यते ) ॥ ४४७॥ यथा तो समांसचर्मणि दुर्वलविलोऽपि देहे न स्वयं चलितौ तथाऽध्यासितव्यं गमने स्तोकमपीदं दुःखम् ।। ४४८ ॥ अचलगामे कौटुम्बिकाः सुरतिकशतकदेवश्रमणकसुभद्राः । सर्वेऽपि गताः क्षपणकं गिरिगुहानिलये ऽद्राक्षिषुः ।। ४४९ ॥ ते तं तपःवाम्यन्तं विश्रम्य विनयपूर्वम् । उपलब्धपुण्यपापाः प्रासुकं सुमहिमानमकापुरिह ॥ ४५० ॥ दीप अनुक्रम % [४४४] % च.स.२२ JIVEdustainamain Somjaneitheti ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४५०]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४५०|| पाणय-मई करेसीह । ४५० ॥ १६८५ ॥ सुपरिपसावयवम्म जिणमहिनाणेसु पणियसोहग्गा । जसहरमुणिणो म्यशालिदसए १० पासे निक्वंता तिवसंधेगा॥ ४५१ ॥१६८६॥ सुमिहिपजिगणपणीमयपरिपुडा सीलसुरहिगंपडा(हा)। विह- भद्राधनुमरणस रिय गुरुस्सगासे जिणवरवसुपुजतिस्पंमि ॥ ४५२ ॥ १५८७ ॥ कणगावलिमुत्तावलिरयणावलिसीहकीलिय- स्मृतिः कलंता । काही य ससंवेगा आयंबिलवहुमाणं च ॥ ४५३ ॥ १५८८ आसरिया यमणोहरसिहरंतरसं॥१२७॥ चरंतपुक्खरयं । आइकरचलणपंकयसिरसेषियमाल हिमवंतं ॥ ४२४॥ १६८९॥ रमणिबहरैयतरुवरपरहु-6 असिहिभमरमहपरिविलोले । अमरगिरिविसयमणहरजिणवयणमुकाणणुरेसे ॥ ४५५ ॥ १६९० ॥ संमि| |सिलायल पुहवी पंचवि देहटिईसु मुणियथा । कालगयां उवषण्णा पंचधि अपराजियविमाणे ॥ ४५६ ॥ है।॥१६९१ ॥ ताओ चहऊण इहं भारहवासे असेसरिउदमणा । पंडुनराहिवतणया जाया जयलच्छिम-16 दीप अनुक्रम मकरस [४५१] सुगृहीतश्रावकधर्मा जिनमहिमतु जनितसौभाग्याः। यशोधरमुनेः पार्थे निष्कान्तास्तीनसंवेगाः ॥ ४५१॥ सुगृहीतजिनषचनामृतपरिपुष्टाः। | शीलसुरभिगन्धाढ्याः । विहताः गुरुसकाशे जिनवरवामुपूज्यतीर्थे । ४५२ ॥ कनकावलीमुक्तावलीरावलीसिंहनिष्क्रीडितानि फल-15 वन्तः । अकार्पश्च ससंवेगा आचाम्लवर्द्धमानं च ॥ ४५३ ॥ आश्रिताध मनोहरशिखरान्तरसञ्चरत्पुष्करकम् । आदिकरचरणपङ्कजसेवित-IN शिरोमालं हिमवन्तम् ॥ ४५४॥ रमणीयद्रहतरुवरपरभृतशिखिभ्रमरमधुकरीविलोले। अमरगिरिविशदमनोहरजिनवच (भव)नसुकाननोरेशे ४॥१२७।। ॥४५५ ।। तस्मिन् शिलातले पनापि पार्थिवदेहस्थितिषु ज्ञातार्थाः। कालगताः पाप्युत्पन्ना अपराजितविमाने ॥ ४५६ ॥ तस्माच्युत्वाद JanEluridianimmtianit HI ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||४५७|| दीप अनुक्रम [४५८] प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [ ४५७]-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३३], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया Jan Edonational “मरणसमाधि” - सारा ॥ ४५७ ।। १६९२ ॥ से कण्हमरणदूसहदुक्ख समुप्पन्नति संवेगा । सुट्टियधेरसगासे निक्खता खायकितीया ॥ ४५८ ।। १६९३ ॥ जिट्टो चउदसी चउरो इकारसंगवी आसी । बिहरिय गुरुस्सगासे जसपड| हभरंतजियलोया ।। ४५९ ।। १६९४ ।। ते विहरिऊण विहिणा नवरि सुरद्धं कमेण संपत्ता । सोउं जिणनिवाणं भत्तपरिनं करेसीय ॥। ४६० ।। १६९५ घोराभिग्गहघारी भीमो कुंलग्गगहियभिक्खाओ । सत्तुंजयसेलसिहरे पाओगओ गयभवोघो ॥ ४६१ । १६९६ ॥ पुचविराहियवंतरउवसग्गस हस्समारुपन गिंदो । अविकंपो आसि मुणी भाईणं इकपासम्मि || ४६२ ।। १६९७ || दो मासे संपुष्णे सम्मं धिधणियबद्धकच्छाओ। ताव उवसग्गिओ सो जाव उ परिनिद्दुओ भगवं । ४६३ || १६९८ ॥ सेसावि पंडुपुत्ता पाओव इह मरतक्षेत्रेऽशेषरिपुदमनाः । पाण्डुनराधिपतनुजा जाता जयलक्ष्मीभर्त्तारः ॥ ४५७ ।। ते कृष्णमरणदुः सहदुःखसमुत्पन्नतीव्रसंवेगाः । सुस्थितस्थविरसकाशे निष्क्रान्ताः ख्यातकीर्त्तिकाः ।। ४५८ ॥ ज्येष्ठचतुर्दशपूर्वी चतस्र एकादशाङ्गविद आसन् । व्यहार्षुः | गुरुसकाशे यशः पटहचियमाणजीवलोकाः ।। ४५९ ।। ते विहृत्य विधिना नवरं सौराष्ट्र क्रमेण संप्राप्ताः । श्रुत्वा जिननिर्वाण भक्तपरिक्षामकार्षुश्च ॥ ४६० ॥ घोरामिमहधारी मीमः कुन्ताप्रगृहीतभिक्षाकः । शत्रुञ्जयशैलशिखरे पादयोपगतो गतभवौघः ॥ ४६१ ॥ पूर्वविराद्रव्यन्तरोपसर्गसहस्रमारुतनगेन्द्रः । अविकम्प आसीन्मुनिर्भ्रातृणामेकपार्श्वे ॥ ४६२ ॥ द्वौ मासौ संपूर्ण सम्यग्धृतिबाढबद्धकक्षाकः । तावदुपसर्गितः स यावत्तु परिनिर्वृतो भगवान् ॥ ४६३ ॥ शेषा अपि पाण्डुपुत्राः पादपोपगतास्तु निर्वृताः सर्वे । एवं धृतिसंपन्ना अन्ये Far P&Peale Use Only ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४६४]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३, प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया पाइण्णयदसए १० मरणसमाही प्रत * सूत्रांक ||४६४|| ॥१२८॥ * गया उ निबुया सच । एवं घिइसंपन्ना अण्णवि दुहाओं मुचंति ॥ ४६४ ॥ १६९९ ॥ दंडोवि य अणगारो पाण्ड आयावणभूमिसंठिओ वीरो । सहिऊण वाणघायं सम्मं परिनिओभगवं ॥४६५ ।। १७०० ॥ सेलम्मिनस्मतिः चित्तकूढे सुकोसलो सुट्ठिओ उ पडिमाए। नियजणणीए खाओ बग्घीभावं उषगयाए ॥ ४६६ ॥ १७०१ ॥४॥ परि(णिय )मापगओ अ मुणी लंबेसु ठिओ बहसु ठाणेसुं। तहवि य अकस्लुसमावो साहुखमा |सबसाहणं ॥ ४६७ ॥ १७०२॥ पंचसयापरिवुडया वइररिसी पथए रहायसे । मुरण खुर्ग किर अमं गिरि-11 मस्सिओ सुजसो ॥ ४६८ ॥ १७०३ ॥ तत्व य सो उबलतले एगागी धीरनिच्छयमईओ। बोसिरिऊण सरीरं उण्हम्मि ठिओ वियप्पाणो॥४३९॥१७०४ ॥ ता सो इसकमालो दिणयरकिरणग्गितावियसरीरो । हविपिंटुप बिलीणो उवषण्णो देवलोयम्मि ॥४७०||१७०५॥ तस्स य सरीरपूर्य कासीय रहेहि लोगपाला उ ।। ऽपि दुःखान्मुच्यन्ते ॥४६४ ॥ दण्डोऽपि चानगारः आतापनभूमिसंस्थितो वीरः । सोढा वाणघातं सम्यक् परिनिभृतो भगवान ॥४६५॥ शैले चित्रकूटे मुकोशल: सुस्थितस्तु प्रतिमया । निजजनन्या खादितो व्याघ्रीभावमुपगतया ॥ ४६६ ।। अतिमागता मुनिद्रदूरेषु स्थितो| बहुषु स्थानेषु । तथाऽपि चाकलुषभावः सैव क्षमा सर्वसाधूनाम् ।। ४६७ ।। पञ्चशतपरिवृतो वर्षिः पर्वते रथावते । मुक्त्वा क्षुल्लकं | [किल अन्यं गिरिमाभितः सुयशाः ।। ४६८ ॥ तत्र च स उपलतले एकाकी धीरनिश्चयमतिकः । व्युत्सृज्य शरीरमुष्णे स्थितो विदात्मा| |१२८॥ ॥४६९ ॥ ततः सोऽतिसुकुमालो दिनकरकिरणामितापितशरीरः । हविःपिण्ड इव विलीन उत्पन्नो देवलोके ॥ ४७० ।। तस्य च शरी-121 दीप अनुक्रम [४६५] * * ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ॥ ४७१|| दीप अनुक्रम [४७१] Jan Erst “मरणसमाधि” प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [४७१]-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... ... आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया - तेण रहावत्तगिरी अज्जवि सो विस्सुओ लोए ॥ ४७१ ॥ १७०६ ॥ भगवंपि वरसामी विश्यगिरिदेवया कपपूओ। संगृहओत्थ मरणे कुंजरभरिएण सकेणं ॥ ४७२ ॥ १७०७ ॥ पूयसुविहिपदेहो पग्राहिणं कुंजरेण तं सेलं । कासीय सुरवरिंदो तम्हा सो कुंजरावत्तो ॥ ४७३ ॥ १७०८ ॥ तत्तो व जोगसंगह उवहाणक्खाणयम्मि कोसंबी । रोहगमवंति सेणो रुज्झेह मणिप्पभो भासो (उन्भासं ) ॥ ४७४ ॥ १७०९ || धम्मगसुसीलजुयलं धम्मजसे तत्थ रण्णदेसम्मि । भत्तं पञ्चखाइय सेलम्मि उ बच्छगातीरे ॥। ४७५ ।। १७१० ।। निम्ममनिरहंकारो एगागी सेलकंदर सिलाए । कासीय उत्तमहं सो भावो सबसाहूणं ॥ ४७६ ।। १७११ ।। उहम्मि सिलावट्टे जह तं अरहणएण सुकुमालं । विग्धारियं सरीरं अणुचिंतिला तमुच्छाहं ॥ ४७७ ॥ १७१२ ॥ गुब्बर पाओवगओ सुबुद्धिणा णिग्घिणेण चाणक्को। दहो न य संचलिओ सा हु घिई चिंतणिवा उ ॥ ४७८|| १७१३|| रपूजामकार्पू रथैर्लोकपालाः । तेन रथावर्त्तगिरिस्यापि स विश्रुतो लोके ॥ ४७१ || भगवानपि वज्रस्वामी द्वितीयगिरिदेवतया कृतपूजः । संपूजितोऽत्र मरणे कुञ्जरसहितेन (रथेन) शक्रेण ||४७२ || पूजितसुविहितदेहः प्रदक्षिणां कुञ्जरेण तस्य शैलस्य । अकार्षीत्सुरवरेन्द्रस्तस्मारस कुञ्जरावर्त्तः ||४७३|| ततञ्च योगसङ्घदे उपधानाख्याने कोशाम्बीम् । रोधेनावन्तीसेनो रुणद्धि मणिप्रभोऽभ्यासम् आगतः ) ||४७४|| धर्माचार्य सुशीलयुगलं धर्मयशास्तत्रारण्यदेशे । भक्तं प्रत्याख्याय शैले तु वत्सकातीरे (स्थितः || ४७५|| निर्ममनिरहङ्कार एकाकी शैलकन्दराशिलायाम् । अकार्षीदुत्तमार्थं स भावः सर्वसाधूनाम् ॥ ४७६ ॥ उष्णे शिलापट्टे यथाऽन्नकेन सुकुमालं तत् । द्रावितं शरीरं वमुत्सादमनुचिन्तयेत् || ४७७ || करीषे पादपोपगतः सुबुद्धिना निर्घृणेन चाणाक्यः । दग्धो न च संचलितः सैव धृतिश्चिन्वनीया ॥ ४७८ ॥ 11 Far P&P Use ~70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४७९]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३, प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||४७९|| पइण्णय-11|जह सोऽवि सप्पएसी वोसहनिसिट्टचसवेहो उ । वसीपत्तेहिं विनिग्गएहिं आगासमुक्खित्तो ॥ ४७९ ॥राजस्वादसए १० ॥ १७१४ ॥ जह सा वत्सीसघडा वोसट्ठनिसट्टचसदहागा । धीरा बाए ख दीपएण विगलिम्मि ओलइया म्याधनु ॥ ४८०॥ १७१५ ।। जंण करकरण व सत्धेहि व सावरहि विविहहिं । देहे विद्धस्सते इसिपि अकप्पणा- स्मृतिः माही (झ)मणा ॥ ४८१ ॥ १७१५ ॥ पहिणीययाइ केसिं चम्मसे खीलएहिं निहणिता। महुघयमक्खियह पि-12 वीलियाणं तु दिजाहि ॥ ४८२ ॥ १७१७ ॥ जेण विरागो जाया संत सदायरेण करणिकं । सुबाहु ससंवेगो ॥१२९॥ इत्थ इलापुत्तदिलुतो ॥ ४८३ ॥ १७१८ ॥ समुइण्णेसु य सुविहिय! घोरेसु परीसस सहणेणं । सो अत्यो । सरणिनो जोऽधीओ उत्सरज्झयणे ॥ ४८४ ॥१७१९ ।। उल्लेणि स्थिमित्तो सत्पसमग्गो वणम्मि कट्टेणं । |पायहरो संवरण चिल्लगभिक्खा वण सुरेसुं ॥ ४८५ ॥ १७२० ॥ तस्थेव य धणमिसो घेल्लगमरणं नईइ8 यथा सोऽपि सप्रदेशी व्युत्सृष्टनिसृष्टत्यक्तदेहस्तु । वंशीपत्रवि निर्गतैराकाश उत्क्षिप्तः ॥ ७९ ॥ यथा सा द्वात्रिंशवटा भ्युत्मानिसृष्टत्यतदेहा । धीरा सवातेन प्रदीपनकेन विकाले विलीना ॥ ४८० ।। यत्रेण ककचेन वा शौर्वा वापवैविविधैः । देहे विश्वस्यमाने ईषदपि 121 असरकल्पनाक्षपणा (अनारूढासन्मनःकल्पना) ॥ ४८१ ॥ (केचित् ) प्रत्यनीकतया केषाधिधर्माशे बलकाभिहत्य । मधुघृतम्रक्षित पिपीलिकाभ्यो दद्यात् (अदुः)॥ ४८२ ॥ येन विरागो जायते तत्तत्सर्वादरेण करणीयम् । श्रूयते ससंवेगोऽत्रेलापुत्रो दृष्टान्तः ॥ ४८३ ॥ समुदीर्णेषु च सुविहित ! घोरेषु परीपहेषु सहनाय । सोऽर्थः स्मरणीयो योऽधीत उत्तराभ्ययनेषु ।।४८४|| उज्जयिन्या हस्तिमित्रः सार्यसमग्रो ॥१२९॥ वने कामे (कण्टके)न हतपादः प्रत्याख्यानं क्षुलकभिक्षा बने सुरेण ॥ ४८५ ॥ तत्रैव च धनमित्रः क्षुल्लकमरणं नद्यां तृष्णया निस्तीर्णेव दीप अनुक्रम [४८०] ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||४८६|| दीप अनुक्रम [४८७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... Jan Edonations “मरणसमाधि” प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [४८६]--- ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया - तव्हाए। निच्छिण्णेऽणवंत विंटियविस्सारणं कासि ॥ ४८३ | १७२१ || मुणिदेण विदिष्णस्स रायगिहि परीसहो महाघोरो जस्तो हरियंसविहसणस्स बुकं जिनिंदस्स ॥ ४८७ ।। १७२२ || रायगिहनिग्गया स्खलु पडिमा पडिवनगा मुणी थउरो । सीयविद्वय कमेणं पहरे पहरे गया सिद्धिं ॥ ४८८ || १७२३ ।। उसि तगर रहन्नग चंपा मसएस सुमणभद्दरिसी । खमसमण अज्जरक्खिय अचेल्लय पत्ते अ उज्रेणी ॥ ४८९ ॥ ॥ १७२४ ॥ अरईय जासूकरो (मूओ) भवो अ दुलहृयोहीओ । कोसंबीए कहिओ इत्थीए थूलभद्दरिसी | ।। ४९० ।। १७२५ ।। कुल्लहरम्मि य दत्तो चरियाई परीस हे समक्खाओ । सिट्टिसुयतिमिच्छणणं अंगुलदीवो | य वासम्मि || ४९१ ॥ १७२६ || गयपुर कुरुदत्तसुओ निसीहिया अष्टविदेस पडिमाए । गाविकुविएण दहो गयसुकुमालो जहा भगवं ॥ ४९२ ॥ १७२७ ॥ तो(दो) अणगारा धिज्जायाह कोसंबि सोमदत्ताई। पाओवगया |ज्ञायमानं विण्टिका विस्मरणमकार्षीत् ॥ ४८६ ॥ राजगृहे (मन्दिरे) (तत्र) महाघोरः परीवहो मुनिचन्द्रेण विदत्तः । हरिवंशविभूषणस्य जिनेन्द्रस्य यत्र वसनं । ४८७ || राजगृहनिर्गताः प्रतिमाप्रतिपन्ना मुनयश्चत्वारः । शीतविधूताः क्रमेण प्रहरे २ सिद्धिं गताः ॥ ४८८ ॥ उष्णे तगरायामनकञ्चम्पायां मशकेषु सुमनोभद्र ऋषिः । क्षमाश्रमणा आर्यरक्षिता अचेलकत्वे उायिन्याम् ।। ४८९ ।। अरतौ च जातिसूकरो मूको भव्यच दुर्लभो बोधिः । कौशाम्यां कथितः खियां स्थूलभद्र ऋषिः || ४९० ।। कुलकिरे च दत्तश्चर्यायाः परीषद्दे समाख्यातः । श्रेष्ठितचिकित्सनमकुलदीपच वर्षणे ॥ ४९१ ॥ गजपुरे कुरुदत्तसुतो नैयेधिक्यामटवीदेशे प्रतिमया । गोहेरकेण दग्धो गजसुकुमाको यथा भगवान् ॥ ४९२ ॥ द्वौ अनगारौ घिग्जातीयो कौशाम्च्यां सोमदत्तादी । पादपोपगतौ नदीनैषेधिक्यां सागरे क्षिप्तौ ॥ ४९३ ॥ For P&P O ~72~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [४९३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया पइण्णय- दसए १० मरणस-1 माही * प्रत सूत्रांक ||४९३|| दिणेसिजाए सागरे छुदा ॥ ४९३ ॥ १७२८ ॥ महुराइ महुरखमओ अक्कोसपरीसहे उ सविसेसो । पीओपी रायगिहम्मि उ अजुणमालारदिटुंतो ।। ४९४ ॥ १७२९ ॥ कुंभारकडे नगरे खंदगसीसाण जंतपीलणया। Sheweनएबिहे कहिलइ जह सहियं तस्स सीसेहिं ॥ ४९५ ॥ १७३० ॥ तह प्राणनाणवु(जु)त्तं गीए संठि(पट्टि)पस्सदा स्मृतिः समुयाणं । तत्सो अलाभगंमि उ जह कोहं निजिणे कण्हो ॥ ४९६ ॥ १७३१॥ किसिपारासरढंढो थीयं तु |अलाभगे उदाहरणं । कणहबलभदम चहऊण खमन्निभो सिद्धो ॥ ४९७ ॥ १७३२ ॥ महरा जियसत्तुसुओ अणगारो कालवेसिओ रोगे । मोग्गल्लसेलसिहरे खइभो किल सरसियालेणं ॥ ४९८ ॥ १७३३ ॥ सावत्थी |जिपसलूतणओ निक्खमण पडिम तणफासे । बीरिय पविय विकंचण कुसलेसणकहणासहणं ॥४९९॥१७३४॥ चंपासु गंदगं चिय साहुदुगुंछाह जल्लम्वउरंगे । कोसंवि जम्मनिक्खमण वेयणं साहुपडिमाए ॥ ५०० ॥ 4॥१३०॥ * दीप अनुक्रम [४९३] #मथुरायां मधुरः क्षपक आक्रोशपरीपहे तु सविशेषः । द्वितीयो राजगृहेऽर्जुनमालाकारदृष्टान्तः ॥ ४९४ ॥ कुम्भकारकटे नगरे स्कन्ध-101 कशिष्याणां यधपीलना । एवंविधे कध्यते यथा सोढं तस्य शिष्यैः ।। ४९५ ॥ तथा ध्यानज्ञानयुक्तस्य गीतार्यस समुदाने संप्रस्थितस्य ।। ततोऽलाभे तु यथा शोध निरजपीकृष्णः ॥ ४९६ ॥ कृषिपारासरढण्दो द्वितीयमलाभके उदाहरणम् । कृष्णबलभद्रकमन्यत् त्यक्ता क्षमान्वितः सिद्धः ॥४९७॥ मधुरायां जितशत्रुसुतोऽनगारः कालवैशिको रोगे । मौद्गल्यशैलशिखरे खादितः किल शरशृगाकेन ॥४९॥12॥१३०॥ श्रावस्त्यां जितशत्रुवनयो निष्क्रमण प्रतिमा तृणपर्छ । प्रापिते वीर्ये विकिशन कुशलेषणं कर्षणं सहनम् ॥ ४९९ ॥ चम्पायां नन्दकः JINEstandinindian ~73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५०१]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५०१|| G॥१७३५ ॥ महुराइ इंददत्तो सकारा पापछेषणे सहो । पन्नाइ अन्जकालग सागरखमणो य दिट्टतो ॥५०१॥ 1॥१७३६ ।। नाणे असगडताओ खंभगनिधी अणहियासणे भहो । दसणपरीसहम्मि उ आसाढभूई उ12 आपरिया ॥ ५०२ ॥ १७३७ ॥ चरियाए मरणम्मि उ समुइपणपरीसहो मुणी एवं । भाविज निघणजिणमप्रायवएससुईइ अप्पाणं ॥ ५०३ ॥ १७३८ ॥ उम्मग्गसंपयार्य मणहत्यि विसयसुमरियमणतं । नाणकसेण धीरो घरेइ दित्तंपिव गइंदं ।। ५०४ ॥ १७३९॥ एए उ अहासूरा महिहिए को व भाणिउं सत्तो? । किं वातिसामवमाए जिणगणधरधेरचरिएK ॥ ५०५ ।। १७४०॥ किं चित्तं जह नाणी सम्मट्टिी करति उफछाहं ।। तिरिएहिषि दुरणुचरो केहिवि अणुपालिओ धम्मो ॥ ५०६ ॥ १७४१ ॥ अरुणसिहं दट्टणं मच्छो सपणी % दीप अनुक्रम [५०२] साधुजुगुप्सायां जलप्रचुराने कौशाम्यां जन्म निष्क्रमण वेदनं साधुप्रतिमायाम् ।। ५०० ।। मथुरायामिन्द्रदत्तः असत्कारः पादपीलने 8 श्राद्धः । प्रज्ञायामार्यकालकः सागरक्षमाश्रमणश्च दृष्टान्तः ॥ ५०१॥ ज्ञानेऽशकटातातः स्तम्भनिधिरनध्यासने स्थूलभद्रः । दर्शनपरीपहे तु आपादभूतय आचार्याः ॥५०२।। चर्यायां मरणे तु समुदीर्णपरीषदो मुनिः एवं । भावयेत् निपुणजिनमतोपदेशभुत्याऽऽत्मानम् ॥ ५०३ ॥10 दउन्मार्गसंप्रयातं मनोहस्तिनं स्मृतविषयमनन्तं । मानाशेन धीरो धारयति सप्तमिव गजेन्द्रम् ॥ ५०४॥ एखास्तु यथाशूरान् महर्दिकान को वा भणितुं शक्तः । किं वाऽत्युपमया जिनगणधरस्थविरचरितेषु ।। ५०५ ।। किं चित्रं यदि ज्ञानिनः सम्यग्दृष्टयः कुर्वन्ति (धर्मे) नामाई । निमणि नागर दिनपानिनो धर्मः ॥ प्रातशिल गा मका: मंनी म पनि को 45603945-450 JAMEtandinimeenadiathi ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५०७]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३, प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५०७|| पइण्णय- महासमुद्दम्मि । हा ण गहिउत्ति काले झसत्ति संवेगमावण्णो ॥ ५०७॥ १७४२ ॥ अपाणं निंदतो उत्त- परीषहसो. दसए १०रिऊणं महनवजलाओ । सावजजोगविरओ भत्तपरिपणं करेसीय ॥५०८॥ १७४३ ॥ खगतुंडभिन्नदेहो दृतियरहमरणस- दूसहसूरग्गितावियसरीरो। कालं काऊण सुरो उबवन्नो एव सहणिज्जं ॥ ५०९॥ १७४४ । सो वानरजूहबई| माही तारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवरदिधरो देवो वेमाणिओ जाओ॥ ५१०॥ १७४५ ॥ तं सीहसेणग-। ॥१३१यवरचरियं सोऊण दुकरं रणे । को हु णु तवे पमायं करेज जाओ मणुस्सेसुं? ॥५११ ॥ १७४६ ॥ भुयग पुरोहियडको राया मरिऊण सल्लइवणम्मि । सुपसत्थगंधहत्थी बहुभयगय भेलणो जाओ ॥ ५१२॥ १७४७॥ है सो सीहचंदमुणिवरपडिमापडिबोहिओ सुसंवेगो। पाणवहालियचोरियअन्यभपरिग्गह नियत्तो ॥५१३ ॥ ॥ १७४८ ॥ रागदोसनियत्तो छट्ठक्खमणस्स पारणे ताहे। आससिऊणं पंडं आयवतत्तं जलं पासी ॥५१४॥ झटिति संवेगमापन्नः ॥ ५० ॥ आत्मानं निन्दयन् उत्तीर्य महार्णवजलात् । सावधयोगविरतो भक्तपरिज्ञामकार्षीत् ।। ५०८ ॥ खगतुण्डमिन्नदेहो दुस्सहसूर्याप्रितापितशरीरः । कालं कृत्वा सुर उत्पन्न एवं सहनीयम् ॥ ५०९॥ स वानरयूथपतिः कान्तारे सुविहितानुकम्पया । भासुरवरमोन्दिधरो देवो वैमानिको जातः ।।५१०॥ तत् सिंहसेनगजवरचरितं श्रुत्वा दुष्करमरण्ये । को नु तपसि प्रमादं कुर्यात् जातो मनुष्येषु ॥ ५११ ।। भुजगपुरोहितदष्टो राजा मृत्वा सल्लकीवने । सुप्रशस्तो गन्धहस्ती बहुभयगजभेषणो जातः ॥१३१॥ ॥ ५१२ ॥ स सिंहचन्द्रमुनिवरप्रतिमाप्रतियोधितः सुसंवेगः । प्राणवधालीकचौर्याब्रह्मपरिग्रहेभ्यो निवृत्तः ॥ ५१३ ॥ रागद्वेषनिवृत्तः दीप अनुक्रम [५०८] Jantistinanimdiana ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५१५]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया CE प्रत सूत्रांक ||५१५|| *ACANCC- AAD ॥ १७४९ ॥ खमगत्तणनिम्मंसो धवणिसिरोजालसंतयसरीरो । विहरिय अपप्पाणो मुणिउवएसं विचितंतो। ॥ ५१५ ॥ १७५० ।। सो अन्नया णिदाहे पंकोसन्नो वणं निरुत्थारो। चिरवेरिएण विट्ठो कुछडसप्पेण घोरेणं| ॥५१६॥ १७५१ ॥ जिणवयणमणुगुणितो ताहे सर्व चउबिहाहारं । वोसिरिऊण गइंदो भायेण जिणे नमसीय ॥ ५१७ ॥ १७५२ ॥ तत्थ य वणयरसुरवरविम्हियकीरंतपूषसकारो | मज्स्पो आसी किर कलहेसु। य जजरिवतो ।। ५१८॥ १७५३ ॥ सम्म सहिऊण तओ कालगओ ससममि कप्पम्मि । सिरितिलयम्मि |विमाणे उकोसठिई सुरो जाओ ॥ ५१९ ।। १७५४ ॥ सुपदिविवायकहियं एवं अक्खाणयं निसामिसा । | पंडियमरणम्मि महं वरं निवेसिज्ज भाषणं ॥ ५२०॥ १७५५ ॥ जिणवयणमणुस्सट्टा दोवि भुपंगा महाविसा| घोरा । कासीय कोसियासय तणूसु भसं मुहंगाणं ॥ ५२१ ॥ १७५३ ॥ एगो विमाणवासी जाओं परविजपटक्षपणस्य पारणे तदा । आश्वास्यात्मानमालपतप्तं जलमपात् ॥ ५१४ ॥ आपुकत्येन निर्मासः धमनिशिराजालसंततशरीरः । व्यहापी दल्पमाणो मुन्धुपदेशं विचिन्तयन् ॥ ५१५ ॥ सोऽन्यदा निदाघे पावसको बने निरुत्साहः । चिरबैरिकेण वष्टः कुर्कुटसर्पण घोरेण है|॥५१६॥ जिनवचनमनुगुणयन तदा सर्वं चतुर्विधाहारं । व्युत्सृज्य गजेन्द्रो भावेन जिनान सीत् ॥ ५१७ ॥ वत्र र विस्मित प्यन्तर| सुरवरक्रियमाणपूजासरकारः । मध्यस्थ आसीत् किलकलभैश्च जर्जरीक्रियमाणः ॥ ५१८ । सम्यक् सोडा ततः कः सप्तमे करूपे ।। |श्रीतिलके विमाने उत्कृष्टस्थितिः मुरो जातः ।।५१९।। इष्टिपादश्रुतकथितमेतदारयानकं निशम्य पण्वितमरणे रडी मास भावेन निवेशयेत् | ५२० । अनुसृष्टजिनवधनी द्वावपि भुजङ्गौ महाविषी घोरौ । अकार्टी कौशिकाश्रमे तनुम्यां पिपीलिका मच्म ॥ ५२१ ॥ एको । CCC दीप अनुक्रम [५१६] awarelineni ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५२२]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५२२|| पडण्णय-16पंजरसरीरो। बीओ उ नंदणकुले बलुत्ति जक्खो महडिओ ॥ ५२२ ॥ १७५७ ॥ हिमचुलसुरुप्पत्ती भद्दग- तिर्यग्टदसए १० महिसी य यूलभदो य । रोसवसमे कहणा सुरभावे दंसणे खमणो ॥ ५२३॥ १७२८॥ बावीसमाणुपुर्विधाताः मरणस- तिरिक्खमणुयावि भेसणट्ठाए । विसयाणुकंपरक्षण करेन देवा उ उवसरगं ॥ ५२४ ॥ १७५९॥ संघयण-I माही धिईजुत्तो नवदसपुची सुरण अंगा वा । इंगिणि पाओवगम पडिवजह एरिसो साहू ॥ ५२५ ॥ १७६० ॥18 निचल निप्पटिकम्मो निविखवए जं जहिं जहा अंगं । एवं पाओवगर्म सनिहारिं वा अनीहारिं ॥ ५२६ ॥ट ॥१३२॥ ॥ १७६१ ॥ पाओवगर्म भणियं समविसमे पायवुब जह पडिओ। नवरं परप्पओगा कंपिज जहा फलतरूब 11॥ ५२७ ।।१७६२ ।। तसपाणवीपरहिए विच्छिपणचियारथंडिलविसुद्धे । एगते निहोसे उविति अन्भुजयं मरणं ॥ २८ ॥ १७६३ ॥ पुत्वभवियवेरेणं देवो साहरह कोऽवि पायाले। मा सो चरिमसरीरो न वेअणं किंचित विमानवासी जातो वरविद्युत्पिक्षरशरीरः । द्वितीयस्तु नन्दनकुले बल इति यक्षो महर्दिकः ।। ५२२ ।। हिमचूलसुरोत्पत्तिभद्रकमहिषी च स्थूलभद्रश्च । वैरोपशमाय कथनं सुरभावे दर्शने क्षमायुक्॥५२३॥ द्वाविंशतिमानुपूर्व्या (चिन्तय)। तिर्यअनुष्या अपि भापनार्थ विषयानुकम्पापयरक्षणार्थ कुर्युर्देवास्तूपसर्गम् ।।५२४॥ संहननभृतियुत्तो नवदशपूर्वी श्रुतेनाङ्गेन था। इङ्गिनी पादपोपगमनं प्रतिपद्यते ईदृशः साधुः ॥ ५२५ । निश्चलो निष्प्रतिकर्मा निक्षिपति यद् यत्र यथाङ्गम् । एतत्पादपोपगमनं सनिहार वाऽनिहारम् ।। ५२६ ।। पादपोपगमनं भणितं समविषमे पादप इव यथा पतितः । नवरं परप्रयोगात्कम्पेत यथा फलतगरिव ।। ५२७॥ त्रसप्राणवीजरहिते विस्तीर्णे विचार-15॥१३२॥ खण्डिले विशुद्धे । एकान्ते निदोंपे उपयान्यभ्युद्यतं मरणम् ॥५२८॥ पूर्वभविकवरेण देवः संहरति कोऽपि पाताले । मा स चरमशरीरो दीप अनुक्रम [५२३] Jantheatiniyaindian अथ मरणस्य भेदानि वर्णयते ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५२९]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया --- प्रत सूत्रांक ||५२९|| -- - पाविजा ॥ ५२९ ॥ १७६४ ॥ उप्पन्ने उवसग्गे दिवे माणुस्सए तिरिक्खे अ। सधे पराजिणित्ता पाओवगया है। पविहरंति ॥ ५३० ॥ १७६५ ।। जह नाम असी कोसा अन्नो कोसो असीवि खलु अन्नो । हय मे अन्नो जीवो अन्नो देहुत्ति मनिज्जा ॥ ५३१ ॥१७६६ ॥ पुछावरदाहिणउत्तरेण वाएहिं आवडतेहिं । जह नवि कंपइ मेरू तह झाणाओ नवि चलंति ॥ ५३२॥ १७६७ ॥ पढमम्मि य संघपणे बहते सेलकुडसामाणे । तेसिपिप [बुच्छेओ चउदसपुचीण वुच्छेए ॥ ५३३ ॥ १७६८ ॥ पुढविदगअगणिमारुयतरुमाइ तसेसु कोइ साहरइ । वोसट्टचत्तदेहो अहाउअंतं परिक्खिज्जा ॥ ५३४ ॥ १७६९ ॥ देवो नेहेण णए देवागमणं च इंदगमणं वा । जहियं इही कंता सबसुहा हुंति सुहभावा ॥ ५३५ ॥ १७७० ।। उवसग्गे तिविहेवि य अणुकूले चेव तह य पडिकूले । सम्मं अहियासंतो कम्मक्खयकारओ होइ ॥५३६ ॥१७७१ ॥ एवं पाओवगम इंगिणि पडिक-16 न बेदनां काञ्चित् प्राप्नुयात् ॥ ५२९ ॥ उत्पन्नानुपसर्गान् दिव्यान् मानुष्यकांश्च तैरश्चान् । सान पराजित्य पादपोपगताः प्रविहरन्ति ५३० ॥ यथा नाम असिः कोशादन्यः कोशोऽसेरपि खल्वन्यः । एवं ममान्यो जीबोऽन्यो देह इति मन्त्रीत ।। ५३१ ॥ पूर्वापर-11 क्षिणोत्तरत्यैवातैरापतद्भिर्यथा नैव कम्पते मेरुः तथा ध्यानात्रैव चलन्ति ॥ ५३२ ॥ प्रथमे च संहनने वर्तमाने शैलकुड्यसमाने । तथो-| रपि च विच्छेदचतुर्दशपूर्विणां विच्छेदे ।। ५३३ ।। पृथ्वीदकानिमारुततर्वादिषु वसेषु च कोऽपि संहरति । युत्सृष्टत्यक्तदेहो यथायुष्कं| परी प्रतीक्षेत ॥ ५३४ ॥ देवः सेहेन नयेत् देवागमनं चेन्द्रागमनं वा । यत्र ऋद्धिः कान्ता सर्वसुखा भवन्ति शुभभावाः ।। ५३५॥16 उपसर्गाग्निविधानपि चानुकूलांश्चैव तथैव प्रतिकूलान् । सम्यग् अध्यासयन् कर्मक्षयकारको भवति ।। ५३६ ॥ एतत्पादपोपगमनेङ्गिनी दीप अनुक्रम N [५३०] च.स.२३ lanthursdmammnama ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५३७]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३, प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५३७|| पइण्णय-15म्म वण्णिय सुत्ते । तित्थयरगणहरेहि य साइहि य सेवियमुयारं ॥ ५३७ ॥ १७७२ ॥ सवे सबद्घाए सबन्न | उपसर्गदसए १० सबकम्मभूमीसु । सबगुरू सबहिया सवे मेरुसु अहिसित्ता ॥५३८॥ १७७३ ।। सबाहिवि लद्धीहि सवेऽवि सहनं मरणस- परीसहे पराइत्ता । सोविय तित्थयरा पाओवगयाउ सिद्धिगया ॥ ५३९ ॥१७७४ ॥ अवसेसा अणगारापादपोपगमाही तितीयपटुप्पन्नऽणागया सधे । केई पाओवगया पचक्खाणिगिर्णि केई ॥५४०॥ १७७५ ॥ सबावि अ अज्जाओमाद्यधि सोऽवि य पढमसंघयणवजा । सवे य देसविरया पचक्खाणेण य मरंति ॥५४१ ॥१७७६ ॥ सबसुहप्पभ- कारिणः ॥१३३॥ वाओ जीवियसाराओ सबजणिगाओ। आहाराओ रयणं न विज्जए उत्तमं लोए ॥५४२॥ १७७७ ॥ विग्ग-12 दहगए य सिद्धे मुत्तुं लोगम्मि जंमिया जीवा । सबे सहावत्थं आहारे हुंति आउत्ता ॥ ५४३ ॥ १७७८॥ तं तारिसगं रयणं सारं जं सबलोयरयणाणं । सर्व परिचइत्ता पाओवगया पविहरंति ॥ ५४४ ॥ १७७९ ॥ परिकर्म वर्णित सूत्रे । तीर्थकरगणधरैन साधुभिश्च सेवितमुदारम् ॥ ५३७॥ सर्वे सर्वातायां सर्वशाः सर्वकर्मभूमिषु। सर्वगुरवः सर्वदहिताः सर्वे मेरुष्वभिषिक्ताः ॥ ५३८ ॥ सर्वाभिरपि लब्धिभिर्युताः सर्वानपि परीपहान् पराजित्य । सर्वेऽपि च तीर्थकराः पादपोपगता एवं | सिद्धिगताः ॥५३९॥ अवशेषा अनगारा अतीतप्रत्युत्पन्नानागताः सर्वे । केचित्पादपोपगताः इङ्गिनीमरणेन प्रत्याख्यानेन च केचित् ॥५४०॥ सर्वा अपि चार्याः सर्वेऽपि च प्रथमसंहननवर्जाः । सर्वे च देशविरताः प्रत्याख्यानेनैव म्रियन्ते ।।५४१।। सर्वसुखप्रभवात् जीवितसारा-12 सर्व व्यापार )जनकात् । आहारात उत्तम रत्रं लोके न विद्यते ॥ ५४२ ॥ विप्रहगतान् सिद्धांश्च मुक्त्वा लोके यावन्तो जीवास्ते । सर्वे ॥१३३॥ सर्वावस्थासु आहारे आयुक्ता भवन्ति ।।५४३॥ तत्तादृशं रत्रं सारं यत्सर्वलोकरज्ञानाम् । सर्व परित्यज्य पादपोपगताः प्रविहरन्ति ।।५४४|| दीप अनुक्रम [५३८] Jamtharitmanamatiane ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||५४५|| दीप अनुक्रम [५४६ ] प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [ ५४५]-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३३], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया Ja Edansomation “मरणसमाधि” - एयं पाओवगमं निष्पडिकम्मं जिणेहिं पनतं । तं सोऊणं खमओ ववसायपरफर्म कुणइ || ५४५ ।। १७८० ॥ धीरपुरिसपण्णसे सप्पुरिसनिसेविए परमरम्मे । घण्णा सिलायलगया निरावयक्खा विनंति ॥ ५४६ ॥ ।। १७८१ ।। सुवंतिय अणगारा घोरासु भवानियास अडवीसुं । गिरिकुहरकंदरासु य विजणेसु य रुक्खहेहे ॥ ५४७ ।। १७८२ ॥ धीधणियबद्धकच्छा भीया जरमरणजम्मणसयाणं । सेलसिलासयणत्था साहति उ उत्तमट्ठाई ॥ ५४८ ॥ १७८३ || दीवोदहिरण्णेसु प खयरावहियासु पुणरविध तासु । कमलसिरीमहिलादिसु भन्तपरिक्षा कथा थी || ५४९ ।। १७८४ ॥ जइ ताव सावयाकुलगिरिकंदरविसमकडग दुग्गासुं। साहिति उत्तम घिणियसहायगा धीरा ॥ ५५० ।। १७८५ ।। किं पुण अणगारसहायगेण अष्णुन्नसंगहबलेणं । परलोए य न सका साहे अप्पणी अहं ? ॥५५१ || १७८६ ॥ समुन्नेसु अ सुविहिय । उवसग्गमहएतत् पादपोपगमं निष्प्रतिकर्म जिनैः क्षप्तम् । तच्छ्रुत्वा क्षपको व्यवसायपराक्रमं करोति ॥ ५४५ || धीरपुरुषप्रज्ञप्तान् सत्पुरुपनियेवितान् परमरम्यान ( भावान् ) | धन्याः शिलातलगता निरपेक्षाः प्रपद्यन्ते ॥ ५४६ ॥ श्रूयन्ते चानगाराः घोरासु भवानकास्वटवीषु । गिरिकुहरकन्दरासु च विजनेषु च वृक्षाणामधस्तात् ॥ ५४७|| धृतिबाढबद्धकक्षा मीता जरामरणजन्मशतेभ्यः । शैलशिलाशयनस्थाः साधयन्त्येवोत्तमार्थम् ।। ५४८ ।। द्वीपोदध्यरण्येषु च खेचरापहृताभिः पुनरपि च । सासु कमलश्रीमहिलादिमिर्भक्तपरिज्ञा कृता स्त्रीषु ॥ ५४९ ॥ यदि तावत् श्वापदाकुलगिरिकन्दरविषमकटकदुर्गासु साधयन्त्युत्तमार्थ वाढं धृतिसहायका धीराः ।। ५५० ।। किं पुनरनगारसहायकेना| न्योन्यसंग्रह बलेन । परलोकाः सामान् अथ आराधना - अनुचिन्तन वर्णयते PP Us O ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५५२]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया निभीकता प्रत सूत्रांक ||५५२|| पइण्णय-13भएसु विविहेसुं । हियएण चिंतणिनं रयणनिही एस उपसग्गो ॥५२॥ १७८७ ॥ किं जायं जइ मरण माग्भव दसए १० अहं च एगाणिओ इहं पाणी । वसिओहं तिरियत्ते पहुसोएगागिओ रण्णे ॥ ५५३ ॥ १७८८ ॥ बसि- स्मरणं मरणस-18 ऊणऽवि जणमजसे बचा एगागिओ इमो जीयो । मुसूण सरीरधरं मधुमुहाकहिओ संतो॥५५४॥ १७८९॥131 माही जह धीहंति अ जीवा विविहाण विहासियाण एगागी। तह संसारगएहिं जीवेहि बिहेसिया अने ॥ ५५॥ ॥ १७९० ॥ सावपभयाभिभूओ बहूम अडवीसु निरभिरामासु । सुरहिहरिणमहिससूपरकरघोडियरुक्ख॥१३४॥ छायासु ॥५५६ ॥ १७९१ ॥ गयगवयखग्गगंडयवग्यतरच्छच्छमल्लचरियासु । भलंकिकंकदीवियसंचरस-181 भावकिपणामुं ॥५५७ ॥ १७९२ ॥ मत्तगईदनिवाडियाभिलपलिंदावकुंडिपवणासुं। वसिओज्हं तिरियते| भीसणसंसारचारम्ति ॥५५८ ॥ १७९३ ॥ कत्थ य मुद्धमिगत्ते बहुसो अडचीसु पयहविसमासु । वग्ध-12 हृदयेन चिन्तनीयं रत्ननिधिरेष उपसर्गः ।। ५५२ ।। किं जातं यदि मरणं अहं पकाकीह प्राणी । उथितोऽहं तिर्यकरये बहुश एकाक्यरण्ये | ॥ ५५३ ।। उपित्वाऽपि जनमध्ये ब्रजत्येकाक्य जीवः । मुक्त्वा शरीरगृह मृत्युमुखाकर्पितः सन् ॥ ५५४ ॥ यथा विभ्यति च | जीवा विविधेभ्यो विभीपिकाभ्य एकाकिनः । तथा संसारगतैजीवविभीपिका अन्याः (सोळाः ) ॥५५५।। श्वापदभयामिभूतो बहुष्व टवीषु निरभिरामासु । रथिक(सुरभि)हरिणमहिषशूकरखण्डितवृक्षच्छायासु ।। ५५६ ॥ गजगवयसगिगण्डकण्यापतरक्षाच्छभल्लचरितासु ।। 18गालकद्वीपिकसद्भावसंचारकीर्णासु ॥ ५५७ ।। मसगजेन्द्रनिपातितमिल्लपुलिन्द्रावकुण्टितवनासु (अटवीघु) । उपितोऽहं तिर्यक्त्वे भीपणे ॥१३४॥ संसारचारके ॥ ५५८ ॥ कचित् मुग्धमृगत्वे बहुशोऽटीपु प्रकृतिविषमासु । व्याप्रमुखापतितेन रसितमतिभीतहृदयेन ।।५५९।। कचिदति दीप अनुक्रम [५५३] Cakosh Jantarton romana ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||५५९ || दीप अनुक्रम [५६०] JanEest प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [५५९]-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३३], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया “मरणसमाधि” - मुहावडिएणं रसियं अभीयहियएणं ॥ ५५९ ॥ १७९४ ॥ कत्थह अइदुपिक्खो भीसणबिगरालघोरवयगोऽहं । आसि महंबिय वग्घो रुरुमहिसवराहविद्दवओ ।। ५६० ।। १७९५ ।। कत्थह दुबिहिपहिं रक्खसवेपालभूयरूवेहिं । छलिओ बहिओ य अहं मणुस्सजम्मम्मि निस्सारो ॥ ५६१ ॥ १७९६ ॥ पयइकुडिलम्मि कत्थइ संसारे पाविऊण भूयतं । बहुसो उद्वियमाणो मएवि बीहाविद्या सत्ता ।। ५६२ ।। १७९७ ॥ विरसं आरसमाणो कत्थइ रण्णेसु घाइओ अहह्यं । सावयगहणम्मि बणे भयभीरू खुभियचित्तोऽहं ॥ ५६३ ॥ ।। १७९८ ।। पत्तं विचित्तविरसं दुक्खं संसारसागरगएणं । रसियं च असरणेणं कर्यतदंतंतरगएणं ॥ ५६४ ॥ ।। १७९९ ।। तहया कीस न हायह जीवो जझ्या सुसाणपरिविद्धं । भल्लेकिकंकवायससएस ढोकिजए देहं ।। ५६५ ।। १८०० ॥ ता तं निखिणिकणं देहं मुत्तूण बच्चए जीवो। सो जीवो अविणासी भणिओ तेलुकदं दुष्प्रेक्ष्य भीषणविकरालधोरवदनोऽहम्। आसं महानपि च व्याघ्रो रुरुमहिपवराहविद्रावकः ॥ ५६० ॥ कचिदुर्विहितै राक्षसबैतालभूतरूपैश्छलितो नाहं मनुष्यजन्मनि निःसारः ॥ ५६१ ।। प्रकृतिकुटिले कचित्संसारे प्राप्य भूतत्वं बहुश उद्विजन् मयाऽपि भापिताः सत्त्वाः || ५६२ ॥ विरसमारसन् कचिदरण्येषु पातितोऽहम्। श्रापदगहने बने भयमीरुः क्षुब्धचित्तोऽहम् ॥ ५६३ ।। प्रातं विचित्रवि रसं दुःखं संसारसागरगतेन रसितं चाशरणेन कृतान्तदन्वान्तर्गतेन ॥ ५६४|| सदा कथं न हीयते जीवो यदा (तस्य) श्मशानपरिविद्धः शृगालवायसातेषु अटोक्यत देहः || ५६५ ॥ तत्तं निर्जित्य देहं मुक्त्वा व्रजति जीवः स जीवोऽविनाशी भणित त्रैलोक्यदर्शिभिः Far&Pate Uw On ~ 82~ www.m Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५६६]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया पइण्णय- दसए १० मरणसमाही प्रत सूत्रांक ||५६६|| ॥१३५॥ x सीहिं॥५६६ ॥१८०१॥ तं जड़ ताव न मुञ्चह जीयो मरणस्स उधियंतोऽवि । तम्हा मज्म न जुजइ दाऊण प्राग्भवमयस्स अप्पाणं ॥५६७ ॥१८०२॥ एवमणुचिंतयंता सुविहिय! जरमरणभावियमईया । पावंति कयप- चिन्तनं यसा मरणसमाहिं महाभागा ॥ ५६८ ॥ १८०३ ।। एवं भावियचित्तो संधारवरंमि सुविहिय! सपावि जीवस्याभावेहि भावणाओ यारस जिणवयणदिवाओ ॥ ५६९ ॥ १८०४ ॥ इह इत्तो चउरंगे चउत्थमग्गं (मंग) नाशा सुसाघम्मम्मि । वन्नेह भावणाओ पारसिमो वारसंगविज ॥५७०॥१८०५॥ समणेण सावएण य जाओ। | निचंपि भावणिज्जाओ । दसंवेगकरीओ विसेसओ उत्तमम्मि ।। ५७१ ॥ १८०६ ॥ पढम अणिचभावं असरण एगयं च असं । संसारमसुभयाविय विविहं लोगस्सहावं च ॥ ५७२॥१८०७॥ कम्मस्स आसर्व। |संवरं च निज्जरणमुत्तमे य गुणे । जिणसासणम्मि योहिं च दुल्लहं चिंतए महमं ॥ ५७३ ॥ १८०८ । सधट्टा-14 ॥ ५६६ ।। तद् यदि तावन्न मुच्यते जीवो मरणादुद्विजम्नपि । तस्मान्मम न युज्यते दातुं भयायात्मानम् ॥ ५६७ ॥ एवमनुचिन्तयन्तः सुविहित ! जरामरणभावितमतिकाः । प्राप्नुवन्ति कृतप्रतिज्ञा मरणसमाधि महाभागाः ॥ ५६८ ॥ एवं भावितचित्ताः संस्तारकवरे सुवि-12 हित! सदैव भावय भावना द्वादश जिनवचनदृष्टाः ॥ ५६९॥ इहेतश्चतुरङ्गे चतुर्थमार्ग सुसाधुधर्मे । वर्णयति भावना द्वादशार्य द्वादशावित् ।। ५७० ॥ श्रमणेन श्रावकेण च या नित्यमपि भावनीयाः । दृढसंवेगकारिण्यो विशेफ्त उत्तमार्थे ।। ५७१ ॥ प्रथममनित्यभावमशरणतामेकतां चान्यत्वम् । संसारमशुभतामपि च विविधं लोकस्वभावं च ।। ५७२ ॥ कर्मण आश्रवं संवरं च निर्जरणमुत्तमश्च ॥१३५॥ गुणान् । जिनशासने बोधि च दुर्लभां चिन्तयेन्मतिमाम् ॥ ५७३ ।। सर्वस्थानान्यशाश्वतानि इहापि देवलोके च । सुरासुरनरादीनां | दीप % अनुक्रम [५६७] * JinEnaadmimments अथ द्वादश-भावना: वर्णयते ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५७४]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया AKA प्रत सूत्रांक ||५७४|| गाई असासयाई इह चेव देवलोगे य। सुरअसुरनराईणं रिद्धिविसेसा सुहाई वा ।। ५७४ ॥ १८०९॥ मायापिईहिं सहवहिएहिं मित्तेहिं पुत्तदारेहिं । एगयओ सहवासो पीई पणओऽविअ अणिच्चो ॥५७५॥१८१०॥ भवणेहिं व वणेहि य सपणासणजाणवाहणाईहिं । संजोगोऽवि अणिचो तह परलोगेहिं सह तेहिं ।। ५७६।।। C॥१८११ ।। बलबीरियरूवजोषणसामग्गीसुभगया वपूसोभा । देहस्स य आरुग्गं असासर्य जीवियं चेवर M॥५७॥ १८१२॥ १ । जम्मजरामरणभए अभिहुए विविहवाहिसंतत्ते । लोगम्मि नत्थि सरणं जिणिंदवरसा-IN |सणं मुत्तुं ॥ ५७८ ॥ १८१३ ॥ आसेहि य हत्थीहि य पचयमित्तेहिं निश्चमित्तेहिं । सावरणपहरणेहि य बलवयमत्तेहिं जोहेहिं ॥ ५७९ ॥ १८१४ ॥ महया भडचडगरपहकरेण अधि चकवहिणा मच् । न य जियपुरो केणइ नीइयलेणावि लोगम्मि ॥ ५८०॥ १८१५ ॥ विविहेहि मंगलेहि य विज्जामंतोसहीपओगेहिं । नवि दीप अनुक्रम [५७५] DCADA SC069 कद्धिविशेषाः मुखानि च ॥ ५७४ ॥ मातापितृभिः सहवर्द्धितेभित्रैः पुत्रदारैः । एकतः सहवासः प्रीतिः प्रणयोऽपि चानित्यः ।। ५७५ ॥ भवनैर्वा बनध शयनासनयानवाहनादिभिः । संयोगोऽप्यनित्यस्तथा परलोकेऽपि सह तैः ।। ५७६ ।। बलवीर्यरूपयौवनसामग्रीसुभगताः वपुःशोभा । देहस्य चारोग्यमशाश्वतं जीवितं चैव ॥५७७॥ जन्मजरामरणभयैरमिते विविधव्याधिसंतप्ते लोके नासित शरण जिनेन्द्रवरशासनं भुक्त्वा ।। ५७८ ॥ अश्वैश्च हस्तिभिश्च पर्वमित्रनित्यमित्रैः । सावरणप्रहरणैश्च बलवयोमत्तैयाँधः ॥५७९।। महत्ता भटकुन्दसमूहेनापि | चक्रवर्तिना मृत्युः । न च जितपूर्वः केनापि नीतियलेनापि लो के (मृत्युः)॥५८०॥ विविधर्मङ्गलैश्च विद्यामऔषधिप्रयोगैश्च व शक्यस्तारयितुं | ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५८१]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५८१|| पइण्णय- सका तारेउ भरणा णघि रुण्णसोएहिं ॥ ५८१ ॥ १८१६ ॥ पुसा मित्ता य पिया सयणो पंधवजणो अ अत्यो अनित्यादसए १०यन समस्या ताएउ मरणा सिंदाधि देषगणा ॥ ५८२ ॥ १८१७ ॥ सयणस्स य मझगओ रोगाभिह ओ पीमरणस किलिस्सह इहेगो । सपणोऽषिय से रोग न विरिंचह नेव नासेह ॥ ५८३ ॥ १८१८ ॥२। मज्मम्मि पंधवाणं कत्वानि माही इको मरह कलुणरुयंताणं । न य णं अनेति तओ बंधुजणो नेव दाराई ॥ ५८४ ॥ १८१९ ॥ इको करेह कम्म फलमवि तस्सेको समणुहवह । इको जायइ मरद य परलोअंइकओ जाई ॥ ५८५॥ १८२० ॥ पत्तेयं पत्तेयं ॥१३६॥ नियगं कम्मफलमणुहवंताणं । को कस्स जए सयणो? को कस्स व परजणो भणिओ ? ॥५८६॥१८२१॥ को केणी समजायइ को केण समं च परभवं जाई। को वा करेइ किंची कस्स व को कं नियत्तेइ ? ।।०८।१८२२॥ अणु दीप अनुक्रम [५८२] मरणान्नैव प रुग्णश्रोतोभ्यः (रुवितशोकैः) ॥५८१।। पुत्राः मित्राणि च पिता खजनो बान्धवजनोऽर्थश्च । न समर्थास्वातुं मरणात्सेन्दा अपि देवगणाः ।। ५८२ ।। स्वजनस्यापि मध्यगतो रोगाभिहतः क्लिश्यते इहैकः । स्वजनोऽपि च तस्य रोगं न विभजति नैव नाशपति ।।५८३।। बान्धवानां मध्ये एको म्रियते करुणं रुदताम् । न चैनमन्वेति सको बन्धुजनो नैव च दाराः ॥ ५८४ ॥ एकः करोति कर्म फलमपि | तस्यैककः समनुभवति । एको जायते म्रियते च परलोकमेकको याति ।। ५८५ ॥ प्रत्येकं २ निजकं कर्मफलमनुभवता कः कस्य लगति द स्वजनः ? को वा कस्य परजनो भणितः ॥५८६।। कः केन समं जायते ? कः केन समं च परभवं याति । को वा करोति किचित् कस्यापि च कः कं निवर्तयति ।। ५८७ ।। अनुशोपत्यन्वजनमन्वभवान्तरगवं तु बाटजनः । नैव शोचन्त्यात्मानं हिश्यन्तं भवसमुद्रे | ॥१३६ ॥ JANEturalianimamitiatha ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [५८८]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||५८८|| सोअद अण्णजणं अन्नभवंतरगयं तु चालजणो। नवि सोयइ अप्पाणं किलिस्समाणं भवसमुदे ॥५८८॥ ॥१८२३॥ । अन्नं इमं सरीरं अन्नोऽहं बंधवाविमे अन्ने । एवं नाऊण खमं कसलस्स न तं खम काउं? ॥५८९॥1॥ 81॥१८२४॥ ४। हा! जह मोहियमहणा सुग्गामागं अजाणमाणेणं । भीमे भवकतारे सुचिरं भमियं भपकरम्मि|| ४॥ ५९० ॥ १८२५ ।। जोणिसयसहस्सेसु य असई जायं मयं वऽणेगासु । संजोगविप्पओगा पत्ता दुक्खाणि य यहूणि ॥ ५९१ ॥ १८२६ ॥ सग्गेसु य नरगेसु य माणुस्से तह तिरिक्खजोणीसुं । जायं मयं च बहुसो| संसारे संसरंतेणं ॥ ५९२ ॥ १८२७ ॥ निम्भवणावमाणणवहबंधणरुंधणा धणविणासो । णेगा य रोगदूसोगा पत्ता जाईसहस्सेसुं ॥ ५९३ ॥ १८२८ ॥ सो नत्थि इहोगांसो लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि । जम्म णमरणायाहा अणेगसो जत्थ न य पत्ता ॥ ५९४ ॥१८२९ ॥ सवाणि सबलोए रूवी दवाणि पत्तपुवाणि । दीप अनुक्रम [५८९] ।।५८८।। अन्यदिदं शरीरं अन्योऽहं वान्धवा अपीमेन्ये । एवं क्षमं ज्ञात्वा कुशलस्य तत्कर्तुं क्षमं न ॥५८९॥ हा! यथा मोहितमतिना | सुगतिमार्गमजानता । भीमे भवकान्तारे सुचिरं भ्रान्तं भवरे ॥ ५९॥ योनिशतसहस्रेषु चासकृत् जातं मृतं वाऽनेकासु जातिषु ।। संयोगविप्रयोगाः प्राप्ता दुःखानि च बहूनि ।। ५९१ ।। स्वर्गेषु च नरकेषु च मानुष्ये तथा तिर्यग्योनिषु । जातं मृतं च बहुम्नः संसारे | संसरता ।। ५९२ ।। निर्भर्त्सनाऽपमाननवधवन्धनरोधा धनविनाशः । अनेके घ रोगशोकाः प्राप्ता जातिसहस्रेषु ॥ ५९३ ।। स नास्ती-| हावकाशो लोके वालाग्रकोटिमात्रोऽपि । जन्ममरणावाधा अनेकशो यत्र न प्राप्ताः ।।५९४|| सर्वाणि सर्वलोके रूपिद्रव्याणि प्राप्तपूर्वाणि ।। ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ||५९५|| दीप अनुक्रम [५९६ ] “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [५९५]-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .... पइण्णय दस १० मरणस माही ॥ १३७ ॥ ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया अन्यत्वसंसारी च देहोषक्खरपरि भोगाइ दुक्खे य बहुसं ॥ ६९५ ।। १८३० || संबंधिबंधवन्ते सवे जीवा अणेगसो मज्झं । विविहवहवेरजणया दौसा सामी य मे आसी ॥ ५९६ ॥ १८३१ ॥ लोगसहावो घी धी जत्थ व माया मया हवइ घूया । पुतोऽवि य होइ पिया पियावि पुसणमुदेह ॥ ५९७ ॥ १८३२ ॥ जत्थ पियपुप्तगस्सवि माया ५ अशुभता * छाया भवंतरगयस्स । तुट्ठा खायह मंसं इतो किं कद्वयरमन्नं १ ।। ५९८ ।। १८३३ ॥ घी संसारो जहियं जुवाणओ परमरूवगठियओ। मरिऊण जायह किमी तस्थेव कलेवरे नियए ।। ५९९ ।। १८३४ | बहुसो अणुभूयाई अईयकालम्मि सक्खाई। पाविहिर पुणो दुक्खं न करेहिह जो जणो धम्मं ।। ६०० ।। १८३५ ।। ५ । धम्मेण विणा जिणदेसिएण नन्नत्थ अस्थि किंचि सुहं । ठाणं वा कर्ज वा सदेवमणुयासुरे लोए ।। ६०१ ॥ ।। १८३६ ।। अत्थं धम्मं कामं जाणि य कज्जाणि तिन्निमिच्छति । जं तत्थ धम्मकलं तं सुभमियराणि असु | देहोपस्करपरिभोगतया दुःखेषु च बहुषु ॥ ५९५ || सम्बन्धिबान्धवत्वे सर्वे जीवा अनेकशो मम । विविधवधवैरजनका दासाः खामि नञ्च मे आसन् ।। ५९६ ॥ लोकस्वभावं धिग् धिग् यत्र च माता मृता भवति दुहिता । पुत्रोऽपि च भवति पिता पिताऽपि पुत्रत्वमुपयाति ||५९७ || यत्र प्रियपुत्रस्यापि माता छायया भवान्तरगतस्य । तुष्टा खादति मांसं किमितोऽन्यत्कष्टकरम् ? ॥ ५९८ ।। धिक् संसारं यत्र युवा परमरूपगर्वितः । मृत्वा जायते कृमिस्तत्रैव कलेवरे निजके ।। ५९९ ।। बहुशो ऽनुभूतान्यतीतकाले सर्वदुःखानि । प्राप्स्यति पुनर्दुःखं न करिष्यति यो जनो धर्मम् ॥ ६०० ॥ धर्मेण विना जिनदेशिवेन नान्यत्रास्ति किञ्चित्सुखम् स्थानं वा कार्य वा सदेवमनु- * ॥ १३७ ॥ जासुरे लोके ।। ६०१ ।। अर्थ धर्मं कामं यानि च कार्याणि त्रीणि इच्छन्ति । यत्तत्र धर्मकार्यं तच्छुभमितरे अशुभे ।। ६०२ ।। Far Pal Use Only ~87~ jyang Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [६०२]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६०२|| *CRCRACRORSC भाणि ॥ ६०२ ॥ १८३७ ॥ आपासकिलेसाणं राणं आगरो भयकरो य । बहुदुक्खदुग्गइकरो अत्यो मूल अणत्याणं ॥ ६०३ ।। १८३८ ॥ किच्छाहि पाविउं जे पत्ता बहुभयकिलेसदोसकरा । तक्खणसुहा बहुदुहा संसारविषद्धणा कामा ॥६०४॥ १८३९ ॥ ६॥ नत्थि इहं संसारे ठाणं किंचिवि निरुवदुर्य नाम । ससुरासुरेसु मणुए नरएसु तिरिक्खजोणीसुं॥ ६०५ ॥ १८४० ॥ बहुदुक्खपीलिपाणं महमूढाणं अणप्पयसगाणं । तिरि-18 याणं नत्धि सुहे नेरयाणं कओ चेव ? ॥ ६०६॥ १८४१ ।। हयगम्भवास जम्मणवाहिजरामरणरोगसोगेहिं । अभिभूए माणुस्से बहुदोसेहिं न सुहमत्थि ॥ ६०७ ॥ १८४२ ॥ मंसट्टियसंघाए मुत्तपुरीसभरिए नवच्छिदे। असुई परिस्सवंते सुहं सरीरम्मि किं अत्थि? ॥ ६०८ ॥ १८४३ ॥ इहजणविप्पओगो चवणभयं चेव देवलोगाओ। एयारिसाणि सग्गे देवावि दुहाणि पाविति ॥ ६०९॥ १८४४॥ ईसाविसायमयकोहलोहदोसेहि आयासक्लेशानां बैराणामाकरो भयंकरश्च । बहुदुःखदुर्गतिकरो मूलमर्थोऽनानाम् ॥६०३।। कृच्छैः प्राप्तुं यान (शक्य) ये च प्राप्ता बहुभवठेशदोषकराः । तरक्षणमुखा बहुदुःखाः संसारविवर्द्धनाः कामाः ॥ ६०४ ॥ नास्तीह संसारे स्थानं किश्चिदपि निरुपद्रुतं नाम । समुरासुरेषु मनुजेषु नरकेषु तिर्यग्नोनिषु च ।। ६०५ ॥ बहुदुःखपीडितानां मतिमूढानामनात्मवशानाम् । तिरश्चां नास्ति सुखं नैरयिकाणां कुतश्चैव ६०६।। हतगर्भवासजन्मव्याधिजरामरणरोगशोकैः । अभिभूते मानुष्ये बहुदोषैर्न सुखमस्ति ॥६०७।। मांसास्थिसंधाते मूत्रपुरीपभृते नवच्छिद्रे । अशुचि परिश्रवति शुभं शरीरे किमस्ति ? ॥ ६०८ ॥ इष्टजनविप्रयोगभ्यवनभयं चैव देवलोकात् । एतादृशानि स्वर्गे देवा अपि 81 दुःखानि प्राप्नुवन्ति ।। ६०९ ॥ ईर्ष्याविषादमद्कोधलोभेर्दोषैरेवमादिमिः । देवा अपि च समभिभूतास्तेष्वपि च कुतः सुखमस्ति ? दीप अनुक्रम RSS RSS4 [६०३] ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ॥६१०|| दीप अनुक्रम [६११] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. एवमाहिं । देवावि समभिसूया तेवि य कओ सुहं अस्थि १ ॥ ६१० | १८४५ ॥ ७ । परिसयदोसपुण्णे खुशो संसारसायरे जीवो। अंशइचिरं किलिस्सह तं आसव हे सर्व्वं ॥ ६११ ।। १८४६ ॥ रागद्दोसपमत्तो इंदियवसओ करेइ कम्माई । आसवदारेहिं अविगुहेहिं तिथिण करणेणं ।। ६१२ ।। १८४७ ॥ घिघी मोहो जेणिह हियकामो खलु स पावमायरह। न हु पावं हवह हियं विसं जहा जीवियत्थिस्स || ६१३|| १८४८ ॥ रागस्म य दोसस्स य घिरत्यु जं नाम सहहंतोऽवि । पावेसु कुहू भाव आउरविजय अहिए || ६१४ ।। १८४९ ॥ लोभेण अहब घत्थो कलं न गणेह आयअहियपि । अइलोहेण विणस्सह मच्छु जहा गलं गिलिओ ||६१५ ।। ||१८५० ॥ अत्थं धम्मं कामं तिष्णिवि बुद्धो जणो परिचयह। ताई करेह जेहि उ (न) किलिस्सह इहं परभवे य ।। ६१६ ।। १८५१ ।। हुंति अजुत्तस्स विणासगाणि पंचिंदियाणि पुरिसस्स । उरगा इव उग्गविसा गहिया पइक्य दसए १० भरफ्त मी ॥ १५ ॥ “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [६१०]--- Euremate ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया ।। ६१० । ईदोषपूर्णे मनः संसारसागरे जीवः । यतिचिरं द्विश्यति तदाभवहेतुकं सर्वम् ।। ६११ ॥ रागद्वेषप्रमत्त इन्द्रियवशगः करोति कर्माणि आश्रव द्वारे रवि गृहितैस्त्रिविधेन करणेन ॥ ६१२ ॥ धिग् धिग् मोहं येनेह हितकामः खलु स पापमाचरति । नैव पापं भवति हितं विपं यथा जीवितार्थिनः ॥ ६१३ ॥ रागं च द्वेषं च धिगस्तु यन्नाम श्रदधानोऽपि पापेषु करोति भावमातुवैय लोकस्वभावाश्रयी - इवाद्दितेषु ||६१४|| लोभेनाथवा प्रस्तः कार्य न गणयति आत्माहितमपि । अतिलोभेन विनश्यति मत्स्य इव यथा गलं गिलितः ॥ ६१५॥ ॥ १३८ ॥ अर्थ धर्मं कामं त्रीनपि बुधो जनः परित्यजति । तानि करोति यैस्तु (न) विश्यतीह परभवे च ॥ ६१६ ॥ भवन्त्ययुक्तस्य विनाशकानि पञ्चे Far Prate Le Cry ~89~ arry Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (33) प्रत सूत्रांक ॥६१७ || दीप अनुक्रम [६१८] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... मंतोसहीहि विणा ।। ६१७ ।। १८५२ ॥ आसवदारेहिं सया हिंसाई एहिं कम्ममासवइ । जह नावाह विणासो छिदेहि जलं उयहिमज्झे || ३१८|| १८५३ || ८ | कम्मासबदाराई निरंभियवाहं इंदियाई च। तथा य कसाया तिविहंतिविण मुक्खत्थं ॥ ६१९ ।। १८५४ ॥ निग्गहिय कसाएहिं आसवा मूलओ हया हुंति । अहियाहारे मुके रोगा इव आउरजणस्स ।। ६२० ।। १८५५ || नाणेण य झाणेण प तवोयलेण य पला निरंमंति । इंदि यविसयकसाया धरिया तुरगा व रबूहिं ।। ६२१ ।। १८५६ ।। हुति गुणकारगाई सुपरहिं धणियं निय मिपाई। नियगाणि इंदियाई जणो तुरगां इव सुदंता ।। ६२२ ।। १८५७ ॥ मणवयणकायजोगा जे भणिया करणसण्णिया तिण्णि । ते जुत्तस्स गुणकरा हुंति अजुत्तस्स दोसकरा || ६२३ || १८५८ ॥ जो सम्मं भूयाई व. स. २४ “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र - १० ( मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [६१७]--- Jaunmin ..आगमसूत्र - [ ३३ ], प्रकीर्णकसूत्र [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया न्द्रियाणि पुरुषस्य उरगा इवोमविषाः मनौषधिभिर्विना गृहीताः ॥ ६१७ || आभवद्वारैः सदा हिंसादिकैः कर्माभवति । यथा नावो विनाशशिछद्रैरुद्धिमध्ये जलमाश्रवन्त्याः (तथाऽऽश्रवैर्जीवस्य ।। ६१८ ॥ कर्माभवद्वाराणि निरोद्धव्यानीन्द्रियाणि च हन्तव्याश्च कषायात्रिविधत्रिविधेन मोक्षार्थम् ।। ६१९ ॥ निगृहीतेषु कषायेषु आश्रवा मूलतो हवा भवन्ति । अहिताहारे मुक्के रोगा इवातुरजनस्य ॥ ६२० ॥ ज्ञानेन च ध्यानेन च तपोबलेन च बैटान्निरुध्यन्ते । इन्द्रियविषयकपाया धृतास्तुरगा इव रज्जूमिः ।। ६२१ ॥ भवन्ति गुणकारकाणि श्रुतरज्जुभिरत्यर्थं नियमितानि। निजकानीन्द्रियाणि यतेस्तुरगा इव सुदान्ताः ॥ ६२२ ॥ मनोवचन काययोगा ये भणिताः करणसंशितास्त्रयस्ते युक्तस्य गुणकरा भवन्त्ययुक्तस्य दोषकराः ॥ ६२३ ॥ यः सम्यग् भूतान् पश्यति भूतांञ्चात्मभूतान् कर्ममहोन न लिप्यते स संवृताभवद्वारः For Use Only ~90~ www.jelly. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) --------......- मलं [६२४]-............------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६२४|| ..... ..सया ।।। ५९८ ॥ १८५९॥५। धषणा ससासवरनिजदसए १०हिया सणंति धण्णा परंति सणियाई । धण्णा सुग्गरागं मरंति घण्णा गया सिद्धिं ॥ ६२५॥१८६०1राबोधिमरणस- धण्णा कलत्तनियलेहिं विप्पमुका सुसत्तमंजुत्ता । वारीओर गयवरा घरवारीओवि निष्फिडिया ॥ ६२६ ॥ दुर्लभमाही ॥१८६१ ॥ धण्णा (उ) करति तवं मंजमजोगेहि कम्ममढविहं । तवसलिलेणं मुणिणो धुणंति पोराणयं कम्मल भावनाः ॥६२७ ॥ १८६२ ॥माणमथथायमाहिओ सीलुटिओतवो मओ अग्गी । संसारकरणषीयं दहा वग्गी व तणरासिं ।। ६२८ ।। १८६३ ॥ १०॥ इणमो सुगइगाहो मुसिओ उक्खिओ य जिणवरेहिं । ते धन्ना जे एवं पहमणयज पयजति ॥ १२ ॥ १८६४ ॥ जाहे य पावियन इह परलोए य होह कल्लाणं । ता एवं जिणकहियट पडियजा भावओ धम्मं ।। ६३० ।। १८६५ ॥ जह जह दोमोचरमो जह जह विसएसु होइ वेरंग्गं। तह तह दीप - अनुक्रम - - [६२५]] ॥ ६२४ ।। धन्याः सच्चा हिनानि शृण्वन्ति धन्याः कुर्वन्ति भूतानि धन्याः सुगतिमार्गः (यथा नथा) नियन्ते धन्या गताः सिद्धिम् ।। ६२५।। धन्याः कलत्रनिगवेभ्यो विषमुकाः मुमत्वसंयुक्ताः । वारीभ्य व गजवराः गृहवारीनो निम्फिदिताः ।। ६२६ ।। धन्यास्तु कुर्वन्ति तपः | संयमयोगः काष्टविधम (मणावि) । तपासलिलेन मुनयो धुन्वन्ति पौराणिक कर्म ।। ६२७॥ ज्ञानमयवातसहितं शीलोज्वलं तपो मतोऽग्निः । संसारकरणयीज दहति दयानिवि तृणराशिम ॥६२८।। अयं मुगतिगमनपयः सुदेशित उत्मिनश्च जिनवरैः। ते धन्या ये एनं पन्थानमनवयं | IR॥१३९॥ बाप्रपद्यन्ते ।। ६२५ ।। यदा च प्राप्तव्यमिह परलोके च भवति कल्याणम् । तहानं जिनकथितं प्रतिपद्यते भावतो धर्मम् ।। ६३० ॥ यथा | ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [६३१]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया *-4-5-05 प्रत सूत्रांक ||६३१|| -*- विजाणयाहि आसन्नं से पयं परमं ॥ ६३१ ॥ १८६६ ॥ ११॥ दुग्गो भवकतारे भममाणेहिं सुचिरं पणदेहिं ।। [दिहो जिणोवदिट्टो सुग्गइमग्गो कहवि लदो ॥ ६३२ ॥ १८६७ ॥ माणुस्सदेसकुलकालजाइइंदिपबलोबयाणं | च । विन्नाणं सद्धा दंसणं च दुलहं सुसाहणं ।। ६३३॥१८३८ ॥ पत्तेमुवि एएसुं मोहस्सुदएण दुल्लहो सुपहो। द्र कुपहबहुपत्तणेण य विसयनुहाणं च लोभेणं ॥ ६३४ ॥ १८६९॥ सो य पहो उबलद्धो जस्स जए बाहिरो जणो बहुओ । संपत्तिच्चिय न चिरं तम्हा न खमो पमाओ भे ॥ ६३५ ॥ १८७० ॥ जह जह ढप्पइपणो |CI सभणो वेरग्गभावणं कुणइ । तह तह असुभं आयवहयं व सीयं खयमुवेइ ।। ६३६ ॥ १८७१ ॥ एगअहोरत्तेणवि दढपरिणामा अणुसरं जति। कंडरिओ पुंडरिओ अहरगईउहगमणेमुं ॥ ६३७॥ १८७२ ॥ १॥ बारसवि|| भावणाओ एवं संखेबो समत्ताओ । भावमाणो जीयो जाओ समुवेइ धेरगं ॥ ६३८॥ १८७३ ।। यथा दोपोपरमो यथा यथा विषयेषु भवति वैराग्यम् । तथा २ विजानीहि आसन्नमय पदं परमम् ॥ ६३१ ।। भवकान्तारे भ्रायद्भिः सुचिरप्रणष्टैर्दष्टो दुर्गों जिनोपदिष्टः सुगतिमार्गः कथमपि च लब्धः ।। ६३२ ॥ मानुष्यदेशकुलकालजातीन्द्रियवलोपचयाश्च । विज्ञानं श्रद्धा सुसाधूनां दर्शनं च दुर्लभम् ॥ ६३३ ॥ प्रामप्वषि एतेषु मोहस्योदयेन दुर्लभः सुपथः । कुपथबहुत्वेन च विषयसुखानां च | पालोभेन ॥६३४॥ स च पन्थाः उपलब्धो यस्माजगति यायो जनो बहुकः । संप्नाप्तोऽपि न चिरं तस्मान्न क्षमः प्रमादो भवताम् ।। ६३५ ।। यधा यथा दृढप्रतिज्ञः श्रमणो वैराग्यभावनां करोति तथा तथाऽभमानपहनमिव शीतं क्षयमुपयाति ।। ६३६ ।। एनाहोरानेणापि दृढपरिणामा अनुत्तरं यान्ति । कण्डरीकः पुण्डरीकः (च) अधमगत्यूइंगमनयोः(ज्ञाते) ॥६३७॥ द्वादशापि भावना एवं संक्षेपतः समानाः। दीप अनुक्रम [६३२] 1-5%-4-36456-0-%%*-* ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [६३९]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया पडण्णय- दसए १० मरणसमाही धर्मस्वाख्यातता विशेषेणाशरणता प्रत सूत्रांक ||६३९|| ॥१४॥ भाविज भाषणाओ पालिज्ज वपाई रयणमरिसाई । पडिपुण्णपावखमणे आरा सिद्धिपि पावहिसि ॥९॥ १८७४|| कत्थइ सुहं सुरसमं कत्था निरओवमं हवा दुक्खं । कथा तिरियसरिस्थं माणुसजाई बहुविचित्ता ॥ ६४०॥ १८७५ ॥ ददणवि अप्पसुहं माणुस्सं गदोस (सोग) संजुक्तं । सुषि हियमुबाई कन मुणे मूढजणो ।। ६४१ ॥ १८७६ ॥ जह नाम पट्टणगओ संते मुलंमि मदभावेणं । न लहंति मरा लाहमाणसभा तहा पत्ता ।। ६४२ ॥१८७७।। संपत्ते पलविरिए सम्भावपरिक्खणं अजाणता । म लहंति बोहिलाभ दुग्गा मग्गं च पापंति ॥ ६४३ ॥ १८७८ ॥ अम्मापियरो भाया भजा पुसा सरीर अस्थो य। भवसागरंमि चोरे न पति ताणं च सरणं च ॥ ६४४ ॥ १८७९ ॥ नवि माया नविय पिया न पत्तदारा न चेव बंधुजणो। नविप साधणं नवि धनं दुक्खमुइन्नं उसमेति ॥ ६४५ ॥१८८०॥ जइया सयणिज्जगओ दुक्खसो सपणवंधुपरिर भावयन् जीवो याः समुपयाति वैराग्यम् ॥ ६३८ ॥ भावयेः भावनाः पालयेः प्रतानि रनसदृशानि । प्रतिपूर्णपापक्षपणानि अधि रात्सिद्धिमपि प्राप्स्यसि ।। ६३९ ॥ कचित् सुखं सुरसमं कचिन्निरयोपमं भवति दुःखम् । कचित्तिर्यसदृशं मनुष्यजातिवहुविचित्रा Mu६४० ॥ राऽप्यल्पमुखं मानुष्यं नैकदोषसंयुक्तम् । सुष्ट्रपि हिलमुपविष्ट कार्य न जानाति मूढजनः ॥ ६४१॥ यथा नाम पत्तनगतः सति मूल्ये मूढभावेन । न लभते नरा लाभं मनुष्यभावं तथा प्राप्ताः ॥ ६४२ ॥ संभाले बलवीर्ये सद्भावपरीक्षणमजानानाः । न लभन्ते | साबोधिलाभं दुर्गतिमार्ग च प्राप्नुवन्ति ॥६४३।। मातापितरौ भ्राता भार्या पुत्राः शरीरमर्यश्च । भवसागरे घोरे न भवन्ति वाजं च शरणं ४/५॥४४॥ नैव माता नैव च पिता न पुत्रदारा नैव च बन्धुजनः । नैव प धनं नैव च धान्यं दुःसमुदीर्णमुपशामयन्ति ॥६४५॥ यदा शाय +%E564GRLS दीप अनुक्रम [६४० ॥१४०।। onlisatirgam अथ 'पंडितमरण' दर्शयित्वा पश्चात् उपसंहार: क्रियते ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) ............--- मलं [६४६]-.. ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया 6 - प्रत सूत्रांक ||६४६|| -50 + हीणो । उपत्तइ परियत्तइ उरगो जह अग्गिमछमि ।। ६४६ ॥ १८८१ ॥ अमुह सरीरं रोगा जम्मणसयसाहणं छुहा तण्हा । उहं सीयं वाओ पहाभिघाया यऽणेगचिहा ।। ६४७ ॥ १८८२ ॥ सोगजरामरपाई परिस्समो दीणया य दारिदं । तय पियविष्पओगा अप्पियजणसंपओगा य ॥ ६४८ ॥ १८८३ ॥ एयाणि य अण्णाणि य माणुस्से बहुविहाणि दुक्खाणि । पञ्चक्खं पिक्खंतो को न मरह तं विचिंतंतो? ॥६४९॥१८८४॥ लणवि माणुस्सं सुदुल्लहं केइ कम्मदोसेणं । सायासुहमणुरता मरणसमुद्देऽवगाहिति ॥ ६५० ॥ १८८५ ॥ | तेण च इहलोगसुहं मोत्तूर्ण माणसंसियमईओ। विरतिक्खमरणभीरू लोगसुईकरणदोगुंगी ॥५१॥१८८६॥ दारिद्ददुक्खवेयणबहुविहसीउण्हखुप्पिवासाणं । अरईभयसोगसामियतकरम्भिक्खमरणाई ॥५२॥१८८७ एएसिं तु दुहाणं जं पडिवक्खं सुहंति तं लोए। जं पुण अचंतसुहं तस्स परुक्खा सया लोपा ॥ ६५३ ॥ नीवगतो युःखाः स्वजनबन्धुपरिहीनः । वर्तते परिवर्तते उरगो यथाऽग्निमध्ये ॥ ६४६ ॥ अशुचि शरीरं रोगा जन्मशतसाधनं 12 र क्षुत्तृष्णा । उज्यं शीतं वातः पध्यभिघावाश्चानेकविधाः ॥ ६४७ ॥ शोकजरामरणानि परिश्रमो दीनता च दारिद्यम् । तथैव प्रियविप्रयोगा। के अप्रियजनसंप्रयोगाश्च ।।६४८॥ एतानि चान्यानि च मानुष्ये बहुविधानि दुःखानि प्रत्यक्षमीक्षमाणः को न म्रियते तद्विचिन्तयन् ॥६४९० लध्वाऽपि मानुष्यं सुदुर्लभं केचित्कर्मदोषेण । सातसुखानुरक्ता मरणसमुद्रमवगाहन्ते ।। ६५० ।। तेनैवेहलोकसुखं मुक्त्वा मानसंश्रितमपातिकः । विरतिक्षमरणभीरुलोकश्रुतिकरणजुगुप्सी ॥ ६५१ ॥ दारिद्यदुःखवेदना बहुविधशीतोष्णक्षुत्पिपासाः । अरतिभयशोक वामितरफरदुर्भिक्षमरणानि ।। ६५२ ॥ एतेषां तु दुःखानां यः प्रतिपक्षस्तलोके सुखमिति । यत्पुनरत्यन्तमुखं तस्य परोक्षाः सदा 31 दीप E अनुक्रम [६४७] 4% JanEduridioniniindian ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [६५४]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३], प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया अपूर्वना प्रत सूत्रांक ||६५४|| पइण्णय- १८८८ ॥ जस्स न छुहा ण तण्हा नय भीउपहं न दुक्खमुक्टिं । न य असुइय सरीरं तस्सऽसणाईसु कि दसए १०कजं? ॥ ६५४ ॥ १८८९॥ जह निंबदुमुप्पो कीडो कडयंपि मन्नए महुरं । तह मुक्खसुहपरुक्खा संसारदुहं मरणस- सुहं विति ॥ ६५५ ॥ १८९० ॥ जे कडयदुमुप्पना कीडा बरकप्पपायवपरुक्खा । तेर्सि विसालवल्ली विसं व माही सग्गो य मुक्खो य ।। ६५६ ॥ १८९१ ॥ तह परतित्थियकीडा बिसयविसंकुरविमूढदिट्ठीया । जिणसास णकप्पतरूबरपासक्खरसा किलिस्संति ॥ ६५७ ॥ १८९२ ॥ तम्हा सुक्यमहातरुसासयसिवफलयसुक्खसत्तेणं । मोत्तूण लोगसपणं पंडियमरणेण मरिया ॥ ६५८ ॥ १८९३ ।। जिणमयभाषिअचित्तो लोगसुईमलविरेपणं कार्ड । धम्ममि तओ झाणे सुक्के य मई निवेसेह ॥ ६५९ ॥ १८९४ ।। सुणह-जह जिणवयणामय (रस) ॥१४॥ दीप अनुक्रम [६५५] लोकाः ।। ६५३ ।। यस्य न क्षुत् न तृड् न च शीतोष्णं न दुःखमुत्कृष्टं । न चाशुचिकं शरीरं तस्याशनादिभिः किं कार्यम् ? ।। ६५४ ॥ यथा निम्बद्मोत्पन्नः कीटः कटुकमपि मन्यते मधुरम् । तथा परोक्षमोक्षसुखाः संसारदुःखं सुखं युवते ॥६५५॥ ये कटुकटुमोत्पन्नाः कीटाः | परोक्षवरकल्पपादपाः । तेषां विशाल(सुख)वही विषवत्स्वर्गध मोक्षश्च ।। ६५६॥ तथा परतीर्थिककीटा विषयविषाङ्करबिमूढष्टिकाः । परोअजिनशासनकरूपतरुवररमाः हिश्यन्ति ॥६५७॥ तस्मात्सौख्यमहातरुशाश्वतशिवफलकसौख्यसक्तेन(जीवेन)। मुक्त्वा लोकसां पण्डितमरणेन मर्त्तव्यम् ।। ६५८ ॥ जिनमतभावितचित्तो लोकधुतिमलविरेचनं कृत्वा । धयें ततो ध्याने शुष्ठे च मतिं निवेशयेन् ।। ६५५॥ शृणुत-यथा जिनवचनामृतरसभावितहदयेन ध्यानव्यापारः । करणीयः श्रमणेन यद् ध्यानं ये(ते) ध्यातव्यम् ॥ ६६० ॥ COCK ॥१४॥ ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३३) “मरणसमाधि” - प्रकीर्णकसूत्र-१० (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [६६०]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३३, प्रकीर्णकसूत्र - [१०] "मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६६०|| भावियहियएण झाणवावारो । करणिजो समणेणं जं झाणं जेसु झायवं ॥ ३६० ॥ १८९५ ।। इति संलेहणा-11 सुयं ॥ एवं मरणविभत्तिमरणविसोहिं च नाम गुणरयणं । मरणसमाही तयं संलेहर्णसुर्य उत्थं च ॥ ६६१ ॥१८९६ ॥ पंचम भत्तपरिपणा छ आउरपचक्खाणं च । सत्तम महपञ्चखाणं अट्ठम आराहणप-12 इपणो ॥ ६६२ ॥१८९७ ।। इमामो अट्ट सुयाओ भावा उ गहियंमि लेस अत्याओ। मरणविभत्ती रइयं विय नाम मरणसमाहिं च ॥६६३॥ १८९८॥ इति सिरिमरणविभत्तीपइण्णयं संमत्तं ॥८॥ इति संलेखनाश्रुतम् ॥ ॥ इति श्रीमरणविभक्तिप्रकीर्णकं समाप्तम् ॥ १०॥ एतत् मरणविभक्तिः मरणविशोधिश्च नाम गुणरत्नम् । मरणसमाधिस्तृतीयं संलेखनाभुतं चतुर्थ च ॥१॥ पभामं भक्तपरिज्ञा पठमातुरप्रत्याख्यानं च । सप्तमं महाप्रसाख्यानं अष्टममाराधनाप्रकीर्णकम् ॥ २ ॥ एतेभ्योऽष्टभ्यः श्रुतेभ्यो भावेनानगृह्यार्थलेशम् । मरणविभक्ती रचिता द्वितीयं नाम मरणसमाधिः ॥ ३ ॥ इति श्रीमरणसमाधिः ।। दीप अनुक्रम [६६१] १ इति श्रीपतुःशरणादि मरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं समाप्तिमगमत् इति श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे ग्रन्थांकः ४६. मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ३३) "मरणसमाधि" परिसमाप्त: ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः [33] पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च ' “मरणसमाधि-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं छायाः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “मरणसमाधि" मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~97~