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प्रथम प्रकाश
कि समता एक गृहीत ( Adopted ) वस्तु है, सहज नहीं । जबकि 'रागराहित्य' सहज दशा है । अतएव भगवान् को 'वीतद्वेष' नहीं कहा जाता, वीतराग कहा जाता है । जब राग 'वीत' ( अतीत ) हो जाता है, तो द्वेष की परिकल्पना ही नहीं हो सकती है ।
समस्त कर्मों में मोहनीय कर्म को 'कर्म सम्राट्' कहा जाता है - राग - मोह, रति, प्रीति- ये सब 'मोहनीय' के भेद-प्रभेद हैं । समस्त शुभ क्रियाओं का उद्देश्य राग से रहित हो जाना है । आत्मा का मूल स्वभाव 'रागवान् होना' नहीं है । राग, आत्मा की प्रकृति नहीं, विकृति है । समतावान् योगी किसी पर द्वेष तो : नहीं रखते, राग भी नहीं रखते । महावीर तो योगियों के आश्रयस्थल हैं, मार्ग दर्शक हैं । वे रागवान् कैसे हो सकते हैं ।
अन्य धर्मों के 'ईश्वर' में, उन धर्मों के संस्थापकों ने, 'रागभाव' के अस्तित्व - या अनस्तित्व का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं किया है । उन के मतानुसार जो ईश्वर या जगत्स्रष्टा है, जो अल्ला या खुदा है, जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, आदि भिन्न-भिन्न ईश्वर के रूप में ख्यातनामा है, उस में गुण अथवा अवगुण की कल्पना ही व्यर्थ है । उन्होंने गुणावगुण के महत्त्व को नकारते हुए एकमात्र उन की शक्ति को स्वीकार किया है। पुराणों में उनके शक्ति परीक्षण के द्वारा उन के महान् महत्तर- महत्तम होने का उद्घोष किया गया है ।
परन्तु जैनदर्शनकार तो परमात्मा या ईश्वर में रागादि दोषों के राहित्य का डिंडिमघोष करते हैं । उन के अनुसार राग ही अनर्थों का मूल है । अतः ईश्वर रागी नहीं होना चाहिए । मानव राग से अनेकविध वधबंधनादि को प्राप्त करता है, अतः राग के वशीभूत होने से ईश्वर को भी उन बंधनादि की आपत्ति आने की संभावना से इन्कार कैसे किया जा सकता है ।
भवबीजांकुरजननाः, रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । बह्मा वा विष्णुर्वा, हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ॥
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