Book Title: Yatindravihar Digdarshan Part 03 Author(s): Yatindravijay Publisher: Saudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh View full book textPage 6
________________ प्राथमिक-वक्तव्य। प्रौढाश्रीश्चतुरैः समं परिचितिर्विद्याऽनवद्यानवा, नानाभाषितवेषलिप्यधिगतिः कुन्दावदातं यशः / धीरत्वं मनसः प्रतीतिरपि च स्वीये गुणौघे सतां, मानात्को न गुणोदयः प्रसरतिक्ष्मामंडलाऽऽलोकनात् // 1 // -भूमंडल का अवलोकन करने से प्रचुर (बहुत) लक्ष्मी मिलती है, विद्वानों के साथ परिचय होता है, नयी नयी सुन्दर विद्याएँ प्राप्त होती हैं, नाना प्रकार की भाषा, वेश और लिपियों का ज्ञान होता है, कुन्दपुष्प के समान उज्वल यश मिलता है, मन की दृढता होती है, और सत्पुरुषों का सन्मान करने से निजगुणों पर विश्वास जमता है। संसार में ऐसा कौन गुण है ?, जो देशाटन से विकाश और प्राप्त न हो। नजंति चित्तभासा, तहय विचित्ता उ देसनीइओ। अञ्चब्भुयाइं बहुसो, दीसंति महिं भमंतीहिं // 1 // विचित्र भाषा, विचित्र देशनीतियों का ज्ञान और अनेक आश्चर्यजनक घटनाओं का पता पृथ्वीमंडल पर भ्रमण करनेवालों को मिलता है।Page Navigation
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