Book Title: Vyavaharasutram evam Bruhatkalpsutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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वृहत्कल्पसूत्र गणावच्छेयगं वा अण्ण गणं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, कप्पइ से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं उपसंपञ्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पइ अण्णं गणं उत्रसंपञ्जित्ता'णं विहरित्तए, ते य से'नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पइ. अण्णं गणं उपसंपज्जित्ता' णं विहरित्तए ॥ सू० २२ ।।
छायाआचार्योपाध्यायश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्य गणम् उपसंपद्य विहतम् . नो तस्य कल्पते प्राचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्यायत्वम्' अनिक्षिप्य अन्य गणम् उपर्सपद्य विहतम् , कलाते तस्य आचार्योपाध्यायस्य आचार्योपाध्यायत्वं निक्षिप्य अन्य गणम्। उपसंपद्य विहर्तुम् , नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यांवत् गणावच्छेदकं वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम्, कल्पते तस्य आपृच्छय आचार्य 'यावत् गावच्छेदके वा अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्तुम् , ते च तस्य वितरेयुः एवं तस्य कल्पते अन्य गणम् उपसंपद्य विहर्त्तम् , ते च तस्य नो वितरेयुः एवं नो कल्पते अन्यं गणं उपसंपद्य विहर्तुम् ॥ ० २२ ॥
चूर्णी-'आयरियउवज्झाए य' इति । इदम् आचार्योपाध्यायसूत्रं गणावच्छेदकसूत्रबदेव सर्व व्याख्येयम् , विशेष एतावानेव यत्तत्र गणावच्छेदकपदेन व्याख्या कृता अत्र तु आचार्योपाध्यायपदेने व्याख्या विधेया, इति । आचार्येग सहित उपाध्याय- आचार्योपाध्यायः, शाकपार्थिवादित्त्वात् मध्यमपदलोपी समासः तेन 'आचार्योपाध्यायौ' इत्यर्थो बोध्यः । आचार्योपाध्याययो समानविधि रुवादेकंस्मिन्नेव सूत्रे उभ योविधिः प्रतिपादित इति ॥ सू० २२ ॥
पूर्व भिक्षुप्रभृतीनां ज्ञानाद्यर्थं गणान्तरगमनविधि प्रतिपादितः, सम्प्रति तेषां संभोगार्थ गणान्तरगमनविधिमाह-भिक्खू य' इत्यादि ।
सूत्रम्-भिक्खू य गणाओ अबक्कम्म इच्छेज्जा अणं गण संभोगपडियाए उवसंपज्जिताण विहरित्तए नो से कप्पई अणापुच्छित्ता आयरिय वा जाव'गणावछेयगंवा अण्णं गणं संभोगाडियाए उवसंपज्जित्ता'ण विहरित्तएं, कप्पई से आपुच्छित्ता आयरियं वा जाव गणावच्छेयगं वा अण्णं गणं संभोगपडियाएं उपसंपन्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से वियरेज्जा एवं से कप्पई अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, ते य से नो वियरेना एवं से नो कप्पइ अण्णं गर्ग संभोगपंडियाए उवसंपज्जित्ता णं विदरित्तए, जत्युत्तरिय धम्मविणयं लभेज्जा, एवं से- कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए। उपसंपज्जित्ता ण विहरित्तए, जत्युत्तरिय धम्मविणयं नोलभेज्जा एवं से नो कप्पइ अण्णं गणं संभोगपडियाए उपसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । सू०२३।।
छाया-भिक्षुश्च गणाद् अपक्रम्य इच्छेत् अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेन उपसंपद्य 'विह-- म् नो तस्य कल्पते अनापृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा अन्यं गणं संभोगप्रत्ययेनम् उपसंपये विहर्नु, कल्पते तस्यं आपृच्छय आचार्य वा यावत् गणावच्छेदकं वा
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