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आदमी कहाँ से आ गया। यह कौन पागल है। महावीर स्वामी घबराए । उन्होंने कहा- इतनी पूजा करके, इतने मंत्र बोलकर, रातभर मेरा आह्वान कर रहे हो, इतनी पूजा-आरती की है, तो मैं ऊपर से प्रगट होकर आया हूँ। लोगों ने कहा
ओह, यह केवल निर्वस्त्र ही नहीं, बल्कि दिमाग से भी ढीला है। महावीरजी सोचने लगे कि मैं क्या सोचकर आया था और यहाँ के लोग कैसे निकल गए। तब उन्होंने कहा- तुम लोग मुझे नहीं पहचानते, लेकिन वह जो भीतर प्रतिष्ठा करवा रहा है, चन्द्रप्रभ, उसे पकड़कर ले आओ। वह मुझे पहचान जाएगा, लोग कहते हैं, वह ध्यान वगैरह करता है। लोग मेरे पास दौड़कर आए और बताया कि एक आधा पागल-सा आदमी इस तरह की बातें कर रहा है।
मैं बाहर आया, उनकी सेवा में प्रस्तुत हुआ, दूर से उनका दिव्य आभामंडल दिखाई दिया, मैं उनको पहचान गया कि प्रभु आज बड़ी कृपा की है कि इस आँगन में पधारे हैं। मैंने उनके पास जाकर कहा- पधारिए, बड़ी कृपा हुई। वे बोले- क्या कृपा हुई, ये मेरे सारे अनुयायी तो कुछ और ही बातें कर रहे हैं। मैंने कहा- आप मेरे साथ आइए। मैं उन्हें कमरे में ले गया और कहाप्रभुजी, इस दुनिया का यही सत्य है कि जब महापुरुष जीवन्त होते हैं, तब कोई आपको सलीब पर चढ़ाता है, कोई ज़हर का प्याला देता है, कोई कानों में कीलें ठोकता है और आज जब आप स्वयं को प्रगट करके ले आएँगे तो आज भी आपके साथ वही हालात, वही व्यवहार होने वाले हैं। यह दुनिया सच्चे सत्य को पूजने वाली नहीं है। यह बाह्य सत्य को ही पूजती है। आपने मुझे दर्शन दिए, मैं आपकी दिव्य कृपा से कृतज्ञ हुआ, पर आप कृपा करके पुनः ऊपर पधार जाएँ और अपना दिव्य स्थान ग्रहण कर लें।
विपश्यना, अनुपश्यना अर्थात् अपने-आपको लगातार विशेष रूप से देखना । हमने जिन सत्यों को अपने मन पर ओढ़ रखा है, उन्हें दरकिनार करना होगा और उस सत्य से रूबरू होना होगा, जो वास्तविक रूप से हमारी अनुभूति में अभी इसी क्षण आ सकता है। उस सत्य से मुलाकात करेंगे, उस सत्य के नज़दीक जाएँगे। साधना का मार्ग सत्य का मार्ग है, स्वयं के चीन्हने का, स्वयं को जानने और पहचानने का मार्ग है। दूसरों से बहुत मिल चुके, अब खुद से मिलना है। दूसरों का दर्शन खूब कर लिया, अब खुद का दर्शन करना है। भले या बुरे जैसे भी हैं, स्वयं से मुलाकात करेंगे। हमने उस पहाड़ की ओर कदम बढ़ाने का साहस किया है, जो साधारण ज़मीन से ऊपर है। अब हम स्वयं को
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