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पता चलता है कि 'मैं' भोगी नहीं हैं, मैं यह संस्कार नहीं हैं, क्रोधी नहीं हैं, ये सब तो जन्म-जन्म के संस्कार हैं, चित्त के गुणधर्म हैं। रोटी की भूख लगती है तो 'मैं' नहीं खाता, यह तो काया में आहार नामक संज्ञा का उदय हो रहा है।
काया में प्रभाव उठेगा तभी चित्त में आएगा। लेकिन हम लोग यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि काया और चित्त अलग-अलग नहीं हैं। कभी चित्त काया को प्रभावित करता है, कभी काया चित्त को प्रभावित करती है, दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जैसे कि पाँव में काँटा गड़ा है तो हमारा दिमाग वहाँ तक गया नहीं है, यह तो पूरा व्याप्त है। जैसे बिजली का कनेक्शन होता है। स्विच कहीं चालू करते हैं, बल्ब कहीं और जलता है। प्लग में अगर गलत तार डाल दिया जाए तो बल्ब फ्यूज़ हो जाएगा। सेन्टर को बंद कर देंगे तो यहाँ बल्ब नहीं जलेगा। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसी तरह काया और चित्त एकदूसरे से जुड़े हैं। काया चित्त की ख़बर देती है तो चित्त काया की। ____ कायानुपश्यना और चित्तानुपश्यना करते हुए जहाँ जो भाव आते हैं दूसरा उसकी ख़बर लाता है। चित्तानुपश्यना करने वाला अपने चित्त की गतिशीलता
और शांत स्थितियों को जानने लगता है। चित्त समस्याओं से घिरा हुआ है या समाधानों को भी समेटे हुए है। चित्त बंधनयुक्त है या बंधनमुक्त ? जब तक दृष्टा-भाव नहीं आता हम लोग विचारों के धरातल पर चलते रहते हैं। दृष्टाभाव के आते ही 'मैं' और 'मेरे' की आसक्ति बिखर जाती है और अनासक्ति के धरातल से कैवल्य का, बुद्धत्व के कमल का बीज अंकुरित होने लगता है।
आत्मदर्शन की, बुद्धत्व की शुरुआत कब होगी, संबोधि का प्रारम्भ कब होगा ? जब अनुपश्यना करते हुए अनुपश्यना करने वाला प्रगट हो जाएगा, तब कुछ हो सकेगा। तीन चीजें हैं- ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय । दृष्टा, दर्शन और दृश्य । एक तो जानने वाला है, दूसरा वह जिसे जाना जा रहा है, इनके बीच में तीसरा है ज्ञान, जो अनुभव हो रहा है। दृष्टा जो देख रहा है, दृश्य जो देखा जा रहा है
और दर्शन ! दृष्टा और दृश्य के बीच का जो संबंध है वह दर्शन है। ज्ञाता और ज्ञेय के बीच में जो अनुभूति का धरातल आ रहा है वही ज्ञान है। चित्त की अनुपश्यना करते हुए अपने मन को भलीभाँति समझने का प्रयत्न करना चाहिए। कोई भी मन से साफ स्वच्छ या कहें कि दूध का धुला नहीं है। हम अपने सार्वजनिक चेहरे को (पब्लिक फेस को) कभी खराब नहीं होने देंगे लेकिन भीतर से साधक को ईमानदार रहना चाहिए और अपने चित्त की दशा को स्वीकार भी
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