Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 132
________________ भी हो जाता है और मुक्त भी हो जाता है । वेदनानुपश्यना करते हुए आज हम जिस बिंदु की ओर जा रहे हैं वह और थोड़ा- -सा बारीक रास्ता हो गया है i पहले हमने सीधे सड़क पर क़दम रखा था, थोड़ी देर बाद भीतर की गलियों की ओर क़दम रखा था, अब तो हम लकड़ी की सीढ़ी पर आ गए हैं। अब और बारीक हो रहे हैं। पहली थी कायानुपश्यना, दूसरी थी वेदनानुपश्यना और तीसरी सीढ़ी है चित्तानुपश्यना । अर्थात् अपने चित्त, अपने मन की अनुपश्यना करना ! अपने मन का संप्रज्ञान करना, भलीभाँति अपने चित्त का दर्शन करना । राग-द्वेष के भाव से मुक्त होकर, जो जैसा चित्त में उदय होता है वैसा अपने चित्त का सम्यक् दर्शन करना । पहले चरण में ही कोई साधक अपने चित्त का दर्शन नहीं कर पाएगा । दो-तीन मिनिट में ही वह अपने मन के प्रवाहों में बहकर कहीं और पहुँच जाएगा। इसीलिए ज़रूरी है कि पहले वह कायानुपश्यना और वेदनानुपश्यना को साधे । इसलिए साधे कि काया और चित् अलग-अलग नहीं हैं। चित्त में उठता है, काया में प्रकट होता है । चित्त में कोई तरंग पैदा होती है और काया में उसकी अनुभूति होती है। भूख किसे लगती है ? काया को या हमारे चित्त को ? दोनों तरफ से अनुभूति प्रकट होती है । काया को अनुभूति होती है तो वह चित्त के द्वारा प्रकट होती है । और चित्त में कोई चीज़ उदय होती है तो वह काया के द्वारा प्रगट होती है। चित्त और काया एक-दूसरे के पूरक और जुड़े हुए पहलू हैं । चित्त की अनुपश्यना करके भी हम काया और वेदना की ही अनुपश्यना कर रहे हैं । काया और वेदना की अनुपश्यना करते हुए हम चित्त की ही अनुपश्यना करने के लिए तैयार हो रहे हैं। चित्त के पुद्गल परमाणु पूरे शरीर में व्याप्त हैं । मस्तिष्क उसका केन्द्र है लेकिन प्रभाव पूरी काया में व्याप्त है। इसीलिए श्री भगवान चित्त की अनुपश्यना करने की प्रेरणा देते हैं । यह तीसरा धरातल है। ज़रूरी नहीं है कि पहले आप कायानुपश्यना ही करें, वेदनानुपश्यना ही करें। यदि आप अपने मन में सहज निर्मलता शांति, सौम्यता, सरलता महसूस करते हैं, काया के सत्य के बारे में पहले से ही वाक़िफ़ हो चुके हैं तो सीधे चित्त की अनुपश्यना कर सकते हैं। लेकिन अगर ऐसा सम्भव नहीं हो पा रहा है तो साधक को पहले स्थूल तत्त्व पर जाग्रत, सचेतन, स्मृतिमान होकर उसका संप्रज्ञान करना चाहिए, उसके बाद उसे बारीकी की ओर, सूक्ष्मता की ओर बढ़ना चाहिए । चित्त हमारी काया की सूक्ष्म स्थिति है | Jain Education International For Personal & Private Use Only 131 www.jainelibrary.org

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