Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 131
________________ व्यवस्था करें। यह राग-द्वेष की प्रवृत्ति पैदा हुई, मन ने प्रतिक्रिया दे दी। यहीं से कर्म के बीज उत्पन्न होते हैं। ये प्रतिक्रियाएँ कर्म-बीज हैं। प्रतिक्रिया कहाँ से आती है- राग-द्वेष से । पल-पल हमारे भीतर राग और द्वेष की प्रवृत्तियाँ पैदा होती रहती हैं। राग-द्वेष के बिना तो कोई क्रिया ही न होगी, गतिविधि ही न होगी, कार्य करने की प्रेरणा ही न जगेगी। हम लोग अपने भीतर छिपे हुए रागों और द्वेषों को समझें । नैसर्गिक रूप से राग-द्वेष पनपते रहते हैं। राग-द्वेष से प्रतिक्रिया पैदा होगी और प्रतिक्रिया के द्वारा कर्म के बीज बो दिए जाते हैं। इसीलिए ज़रूरी है कि साधक दृष्टा-भाव को प्राथमिकता दे। जब वह अपनी काया के भीतर संवेदना की, वेदना की अनुभूति और अनुपश्यना कर रहा है तब वह राग-द्वेष से रहित होकर सचेतन के साथ जान रहा होता है कि कहाँ क्या हो रहा है। साधना के अन्य मार्ग किसी आरोपण से जोड़ सकते हैं, पर यहाँ जो है, जैसा है उसमें कोई अवरोध नहीं । जो है, जैसा है, व्यक्ति उसके प्रति सचेतन, जागरूक होता है और उनका भलीभाँति संप्रज्ञान करता है, सम्यक् प्रकार से उनका बोध प्राप्त करता है और जानता है कि उसकी काया और चित्त की क्या दशा है। राग-द्वेष या स्वयं के प्रति ग्लानि नहीं कर रहा है कि मेरे भीतर ये कैसे अजीब और विचित्र से भाव क्यों आ रहे हैं। वह स्वयं को शांत, और शांत, और सहज बनाने के भाव रखता है। अपने संकल्पों को और मज़बूत करेगा, अपने संप्रज्ञान को अधिक-से-अधिक गहरा करने का प्रयत्न करेगा, दृष्टा-भाव को प्रगाढ़ बनाएगा। अगर दृष्टा-भाव प्रगाढ़ नहीं होगा तो अनुपश्यना ठीक से न हो पाएगी। वेदनानुपश्यना, कायानुपश्यना करते हुए हम इधर-उधर हो गए, विचारों में भटक गए तो साधक जान रहा होगा कि अनुपश्यना कर रहा था और यह खंडित हो गई। जो मैं स्वयं को जान रहा था वह मेरे चित्त के किसी संस्कारवश, काया के किसी प्रतिकूल उपद्रव के कारण वह अनुपश्यना बीच में खंडित हो गई। पुनः पुनः अनुपश्यना करूँगा, स्वयं को सहज शांति में लाते हुए फिर से आनापान-योग करते हुए अपने चित्त के हर संस्कार, हर उपद्रव, हर उदयविलय का साक्षी होऊँगा । दृश्यमान काया में होने वाले सूक्ष्म-सूक्ष्म शरीरों के उदय, सूक्ष्म-सूक्ष्म संस्कारों के उदय-विलय को व्यक्ति धीरे-धीरे जानने लग जाता है। न केवल जानने लगता है बल्कि उसकी प्रकृति को समझते हुए उसका साक्षी भी होने लगता है। साक्षी होने के साथ-साथ काया के गुणधर्मों से निरपेक्ष 130 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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