Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 143
________________ सकता है क्योंकि चित्त पकड़ में ही नहीं आता। जैसे आसमान में चलने वाली हवाएँ पकड़ में नहीं आतीं फिर भी हमें अनुभूति होती है। सागर में उठने वाली लहरें हमें दिखाई तो देती हैं पर कोई लहर पकड़ में नहीं आतीं, ऐसे ही हमारे चित्त की धाराएँ भी सीधी हमारी पकड़ में नहीं आतीं। लेकिन किसी भी साधक को चित्त के दर्शन करने हों, चित्त के प्रभावों को समझना हो कि किस तरह हमारा चित्त उद्वेलित करता है, तो हमें सीधे चित्त से मुखातिब होने के बजाय अपनी काया से मुखातिब होना चाहिए। जब हम स्थूल में होने वाली वेदनासंवेदना को समझेंगे, उनके साक्षी हो जाएंगे, उनके प्रति सचेतन हो जाएँगे तब ही चित्त के प्रति जागरूक और सचेतन होने का अवसर आएगा। प्रारम्भ में सीधा चित्त से मुखातिब होने पर असफलता हाथ लग सकती है। इसीलिए चित्त तक पहुँचने के लिए दो पद्धतियाँ चलती हैं- एक है- काया, काया के अंग, काया की वेदनाओं पर जागरूक होना और दूसरी है- काया में स्थित षट्चक्रों (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणीपुर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा-चक्र) पर व्यक्ति स्वयं को सचेतन करे, जागरूक करे। इन छः चक्रों को जानते हुए, समझते हुए, भलीभाँति ठोस अनुभूति करते हुए जब वह छठे चक्र पर पहुँचता है तब कह सकते हैं कि अब वह अपने चित्त से मुखातिब हो सकता है, वहाँ की अनुपश्यना कर सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई साधना पद्धति हो ही नहीं सकती है, फिर चाहे उसका नाम कुछ भी क्यों न हो। या तो साधक काया की वेदना-संवेदना, काया के अंग, काया में होने वाले अनुकूल-प्रतिकूल गुणधर्मों के प्रति जागे या फिर शरीर में स्थित षट्चक्रों पर जागे । अन्ततः तो हमें चित्त की अनुपश्यना ही करना है । पहुँचना भी चित्त-शुद्धि की ओर ही है। चित्त की शुद्धि, अन्तरमन की शुद्धि, अन्तरमन से साक्षात्कार, अन्तरमन के सत्य से साक्षात्कार साधक के लिए बहुत सहज या आसान नहीं है। महावीर को, बुद्ध को वर्षों-वर्ष तपस्या करनी पड़ी, जंगलों में रहना पड़ा तो इसीलिए कि वे अपने चित्त की अनुपश्यना, चित्त की शुद्धि, चित्त से साक्षात्कार के लिए ही प्रयत्न करते रहे। ध्यान रहे उन्होंने भी सीधे-सीधे चित्त से साक्षात्कार नहीं किया होगा। उन्होंने चित्त पर टिकने के लिए किन्हीं और बिंदुओं को भी माध्यम बनाया होगा। महावीर कभी नदी किनारे, कभी झरने के पास जाकर बैठ जाते थे और वहाँ चलती-फिरती, उठती-गिरती लहरों पर ध्यान धरते थे। कभी पेड़ के पत्तों पर त्राटक करते, कभी दीवार पर एकटक देखने लगते । व्यक्ति को जितनी 142 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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