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यह कभी क्रोध करता है, कभी राग इसलिए इसकी बातों में न आएँ। पल में प्रेम करता है और पल में निर्मोह हो जाता है- इसका कुछ पता नहीं कि इसका कब क्या रूप होगा। यह गिरगिट की तरह है- रंग बदलता रहता है।
एक झेन कहानी है- एक गुरु के दो विद्यार्थी किसी मंदिर के बाहर बैठे थे कि एक की नज़र मंदिर के शिखर पर चली गई। उसने दूसरे से कहा- देखो, देखो झंडा हिल रहा है, मंदिर की ध्वजा डोल रही है। दूसरे ने कहा- नहीं भाई, ध्वजा नहीं हवाएँ डोल रही हैं। मंदिर का झंडा नहीं, हवाएँ हिल रही हैं, इसलिए झंडा हिल रहा है। तभी उनके गुरु आ गए। उन्होंने कहा- वत्स, न तो झंडा हिल रहा है और न ही हवा डोल रही है, सच्चाई यह है कि चित्त डोल रहा है, जो कभी यह और कभी वह कहता है।
चित्त का धर्म ही चंचलता है। इसलिए चित्त का शमन सुखदायक है, चित्त पर विजय प्राप्त करना ही सुखदायी है, चित्त को शांत करना ही मंगलमय
और कल्याणकारी है। तो पहली बात हई कि चित्त क्षणिक है। दूसरी बात यह कि चित्त का धर्म क्या है ? यह परिवर्तनशील है। यह कभी एक जैसे रूप को लिए हुए नहीं रहता। यह क्षणिक है, इसीलिए परिवर्तनशील है। जैसे प्रकृति परिवर्तनशील है कि पत्ता सदा हरा नहीं रहता, फूल सदा खिला हुआ नहीं रहता, हवाएँ सदा एक जैसी नहीं बहतीं, लहरें कभी एक समान प्रवाहशील नहीं रहतीं, उसी तरह चित्त भी परिवर्तनशील है। जिसने प्रकृति की इस परिवर्तनशीलता को समझ लिया वह जीवन में आने वाले उठापटक के प्रवाहों से निरपेक्ष रह सकेगा। तब वह जानेगा कि प्रकृति और व्यवस्थाएँ परिवर्तनशील हैं। ज़रूरी नहीं है कि जो अभी अनुकूल है वह कल भी अनुकूल रहेगी, या प्रतिकूलता में मन में गिल्टी फील नहीं होगी। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, संयोग-वियोग, उदय-विलय सब सहजता से चलते रहते हैं।
किसी के जन्म पर साधक खुश नहीं होता और न ही मरण पर दुःखी, क्योंकि वह जानता है कि यहाँ सब परिवर्तनशील है। मृत्यु पर दुःखी मत होना क्योंकि इस जर्जर देह को कब तक ढोते रहोगे ? मरण से ही तो अगली यात्रा शुरू होगी। आगे का जीवन जीने के लिए देह की केंचुली के ममत्व का त्याग करना ही होगा। कब तक इस काया के साथ जिओगे । जिन्हें हम महापुरुष कहते हैं, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर- सभी चले गए, फिर अपन कौन से हमेशा यहाँ रहने वाले हैं। जाना तो है ही, कोई आज कोई कल । इसलिए मृत्यु का गम न
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