Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 154
________________ यह मंत्र अपना लें- लगे रहो, लगे रहो। लगन से। यह मंत्र किसी भी क्षेत्र के लिए अपनाया जा सकता है- व्यापार करना हो, राजनीति करनी हो, पढ़ाई करनी हो । सफलता के लिए एक ही मंत्र है- लगे रहो मुन्नाभाई लगन से । हमें लगना पड़ेगा। लगने से, घिसने से तो पत्थर भी गोल हो जाता है तब साधतेसाधते हम स्वयं को क्यों नहीं साध सकते। हालांकि यह सच है कि किसी पत्थर को तोड़ने के लिए हम हथौड़े चलाएँ, पहली चोट से न टूटा, दूसरी बार फिर हथौड़ा मारा, पर बेकार । तीसरी, चौथी, पाँचवीं बार भी मारा, पर आख़िर दसवीं चोट में पत्थर टूटा । कहने को तो यही कहा जाएगा कि दसवीं चोट ने पत्थर तोड़ा, जबकि सच्चाई कुछ और है। हर चोट ने पत्थर तोड़ा, हर चोट ने पत्थर को कमजोर किया, दसवीं चोट ने तो परिणाम दिया। हम ध्यान के साथ इस बात को पूरी तरह लागू कर लें। इसीलिए कहते हैं रे मन, हो जा कुछ पल मौन । देख सकूँ मैं जो है जैसा, समझ सकूँ मैं कौन । फूल देख फूला न समाता, रूप देख उसमें रम जाता। यह पा लूँ मैं वह मिल जाता, आपाधापी में गरमाता। सब कुछ हो जाता मन मण्डित, सच्चाई हो जाती खंडित राग-द्वेष से होकर रंजित, हो जाते हम सुख से वंचित । जो जैसा है वैसा देखो बीच में काट-छाँट मत करो। आक्षेप, आरोपण, निरूपण मत करो। जो जैसा है उसे वैसा ही समझने का प्रयास करो। अर्थ लगाए तो कुछ-का-कुछ समझ जाओगे। इसलिए साधक बीच में बुद्धि नहीं लगाता, किसी प्रतिमा को मन में स्थापित नहीं करता। जो है जैसा है, जान रहा है। जो जैसा है वैसा देखो, मानव को बस मानव देखो। नाम रूप का भेद भेदकर, हो पाए तो समता देखो। रे मन, तूने मुझको खूब नचाया, विषयों के पीछे दौड़ाया, चिंता चिंतन समय गँवाया, मैं क्या हूँ यह सोच न पाया। किसमें समय व्यर्थ जाया किया। चिंता को व्यर्थ मानते रहे और चिंतन को सार्थक मानकर दोनों में उलझे रहे। दोनों ही व्यर्थ हैं। साधक न चिंता कर रहा है न चिंतन, वह जो जैसा है उसको वैसा ही देखता है- प्रयास नहीं। जो है 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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