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करना चाहिए। जो है सो है। इस सन्दर्भ में यह पुनः पुनः अनुभव किया जाना चाहिए जब तक वह वास्तविक रूप से दृष्टा न हो जाए। होता ऐसा है कि व्यक्ति साक्षी-भाव को आरोपित कर लेता है। यह मन के तल पर देखना होता है, बुद्धि के तल पर होता है। लेकिन जब भीतर में दुःखद और सुखद दोनों ही अनुभूतियाँ शांत हो गई हैं, अदुःखद और असुखद वेदना वाली स्थिति आ गई है, तब व्यक्ति चित्त के धरातल पर नहीं वास्तविक रूप से चित्तानुपश्यी होता है। तब किसी भी प्रकार का उदय-विलय नहीं होता और वह साक्षी-भाव में स्थिर हो जाता है।
जब तक मैं' और 'मेरे' का भाव अनुभूति के धरातल पर आता रहे तब तक साक्षी-भाव को आरोपित साक्षी-भाव समझना, लेकिन इस भाव के विलुप्त होते ही साक्षीत्व जगने लगता है। चित्त की अनुपश्यना करने पर, उसका अवबोधन करने पर चित्त अपने-आप ही शांत हो जाता है, समाहित, सउत्तर, विमुक्त हो जाता है। राग-द्वेष युक्त स्थिति चित्त में उदय हो सकती है, उदय होते हुए देखते भी हैं, लेकिन चित्त के धर्म, इसकी प्रकृति, इसकी व्यवस्थाओं को समझकर इनसे प्रभावित और प्रेरित नहीं होते । वह तो चित्त के संप्रज्ञान की
ओर स्मृति रखता है और धीरे-धीरे शांति आती जाती है। इस बीच अगर साधक को लगे कि चित्तानुपश्यना करते हुए चित्त बार-बार राग-द्वेष युक्त प्रतिक्रियाएँ करने लगा है, विचारधाराएँ, संकल्प-विकल्प प्रभावित कर रहे हैं उस स्थिति में दस-बीस-पचास गहरी लंबी श्वास लेनी और छोड़नी चाहिए। तब श्वासों को मंद-मौन करते हुए पुनः चित्तानुपश्यना करने लगें।
दृष्टा-भाव इतना आसान नहीं है भीतर प्रगट होना। दृष्टा-भाव को प्रगट करने के पूर्व अनुपश्यना को साधने के लिए दत्तचित्त होना होगा। अनुपश्यना के न होने पर दृष्टा-भाव आरोपित हो सकता है। जो हो रहा है उसके प्रति सचेतन होकर संप्रज्ञान कर रहे हैं। आरोपण नहीं केवल सचेतनता। संभव है यह सचेतनता पहले मन के तल पर हो या पहले चित्त के तल पर हो, या पहले बुद्धि के तल पर हो ! मेरा अनुरोध है यह जिस तल पर हो रहा है, उसी तल पर होने दीजिए। आगे की चीज़ों को शब्दों में मत लाइए, उसे खुद ही अपने भीतर प्रगट होने दीजिए। जो है, साधक उसे स्वयं जाने । क्योंकि बौद्ध कहते हैं आत्मा नहीं है, जैन कहते हैं आत्मा है, वेद कहते हैं सब कुछ ब्रह्म है। अब हम किसको मानें ? किसकी बात को सत्य मानें ? मैं तो कहूँगा कि किसी की भी बात 134
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