Book Title: Vipashyana
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 136
________________ को सत्य और असत्य के बीच में मत लाओ। न सत्य है, न असत्य है। सत्य इसलिए नहीं है कि अभी हमने तीनों धरातलों को नहीं जाना। और असत्य इसलिए नहीं है कि अभी तक हम उस अनुभूति तक पहुँचे ही नहीं हैं। इसलिए हम अब अपने भीतर ही जानेंगे कि क्या हो रहा है, किस धरातल पर साक्षी और दृष्टा हो रहे हैं। आत्मा के तल तक या प्रभु के तल तक या परामन की स्थिति तक पहुंच रहे हैं ? चित्त के तीन तल हैं- साधारण चित्त, अवचेतन चित्त और परा चित्त यानी साधारण मन, अवचेतन मन और परा मन- इन तीनों अलग-अलग स्थितियों में हमारी गति कहाँ तक है। यह तो सत्य से साक्षात्कार का मार्ग है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम किसी और के बताए रास्ते पर चलें । सत्य से साक्षात्कार के लिए तो स्वयं को ही चलना होता है, भीतर ठोस अनुभूति करनी होती है। किसी की भी वाणी को बीच में नहीं लाना है। यह बोलना और बताना तो दीप जलाने की तरह है । ऐसा किसी ने जाना और तुम भी अपने भीतर उतरो, अपने-आप से मुलाकात करो और अपनी-अपनी सच्चाइयों से साक्षात्कार करो। इसीलिए मैं पुनः कहता हूँ कि ज़रूरी नहीं है आप इन सब बातों को जिएँ । जो हमारे अनुकूल है, हमारी प्रज्ञा, हमारी प्रतिज्ञा, हमारी मेधा, हमारी बुद्धि में जो बात पकड़ में आ रही है, हम उसी पर केन्द्रित हो पाएँगे। जो बात पकड़ में ही नहीं आ रही, हम उस पर कैसे स्थापित हो पाएँगे ? हम केवल अपने मन और चित्त को समझें। जीवन की समस्त गतिविधियों का आधार व्यक्ति का अन्तरमन है। उसकी प्रेरणा से ही हम समस्त गतिविधियों को संचालित करते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि व्यक्ति के मन की दशा परिष्कृत, सात्विक व निर्मल हो। अगर मन दूषित है तो प्रेरणाएँ भी दूषित उठेगी और काम भी दूषित करेंगे । गाँधीजी के तीन बंदर सबको याद हैं- बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, जबकि चंद्रप्रभ के चार बंदर हैं और यह चौथा बंदर कहता है- बुरा मत सोचो। सोचने में खोट होगी तो आगे सब चीजें खोटी होती चली जाएँगी। अगर मन परिष्कृत नहीं है तो जीवन की सारी गतिविधियाँ बिगड़ती चली जाएँगी। मन की एजेंसी ठीक होनी चाहिए। इन्द्रियों के रास्ते तब ठीक से काम कर सकेंगे। आधार मन है। एक संत हुए : चक्षुपाल । ऐसे महान संत जिनके लिए कहा जाता है कि वे 135 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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